इस्लाम की फिकरी क़ियादत


इस्लाम की फिकरी क़ियादत
(The Intellectual Leadership of Islam)



जब इंसान फिकरी पस्ती में मुब्तिला हो जाता है तो उस में वतनपरस्ती (nationalism-رابطه الوطنه ) का जज़बा नशोनुमा पाता है। इसकी वजह यह है कि वह एक ही सरज़मीन पर रह रहे होते है और उसी के साथ चिमट कर रह जाता हैं। चुनाँचे इंसान अपने अंदर मौजूद जिबिल्लते बका (survival instinct) की गिरिफ्त में आ जाता है और यह जिबिल्लते बका उसे अपने मुल्क और सरज़मीन का दिफा करने पर मजबूर कर देती है, जहाँ पर यह ज़िन्दगी गुजार रहा होता है। यही से वतनियत का रिश्ता जन्म लेता है। वतन के साथ यह रिश्ता और तआल्लुक़ तमाम तआल्लुक़ात में कमजोर तरीन और पस्ततरीन तआल्लुक़ होता है। अपने वतन के साथ यह तआल्लुक़ और मेलान तो हैवानात और परिन्दों के अन्दर भी मौजूद होता है, और इस का इज़हार हमेशा जज़बाती अन्दाज़ में होता है। इस जज़बे और तआल्लुक़ का इज़हार सिर्फ उस वक्त होता है जब कोई अज़नबी दुशमन वतन पर हमलावर हो या वतन पर क़ब्ज़ा कर लेता है। लेकिन जब जब वतन दुश्मन से सलामत हो महफूज़ हो जाये तो यह रिश्ता कमज़ोर पड जाता है और इस तआल्लुक़ का अमल उस वक्त खत्म हो कर रह जाता है जब बैरूनी दुश्मन को मार भगाया जा चुका हो या बाहर निकाला जा चुका हो। यही वजह है कि यह इन्तेहाइ कमजोर और पस्त तआल्लुक़ और रब्त है।
इसी तरह जब इंसानी फिक्र तंग और महदूद हो जाती है तो इंसान के अंदर कौमियत का तआल्लुक़ (رابطه القومیه) परवान चडता है। क़ौम के साथ यह तआल्लुक़ और लगाव खानदानी ताल्लुक़ की एक ज्यादा वसी शक्ल है। इसकी वजह यह है कि जब जिबिल्लते बका (survival instinct) इंसान के अंदर अपनी जडंंे मज़बूत कर लेती है, तो उसके अंदर ग़लबे और सियादत (सरदारी) की मोहब्बत उभर आती है। एक पस्त फिक्र के हामिल शख्स के अंदर यह मुहव्बत इनफिरादी नोइय्यत की हुआ करती है। फिर जब इस इंसान के अंदर ज़रा बेदारी और फिक्र की बुलन्दी पैदा होती है तो उसकी हुब्बे सियादत में भी वुसअत आ जाती है, और यूँ अपने कुन्बे और खानदान की सियादत और क़ियादत उस का नसबुलएन (objective) बन जाता है। फिर जब उसे यह मुकाम हासिल हो जाता है, तब वह अपने इलाक़े पर अपनी क़ौम की सियादत क़ायम करने की कोशिश करता है। फिर जब उसे यह मुकाम भी हासिल हो जाता है तब वह अपनी क़ौम की सियादत को दूसरी अक़वाम पर मुसल्लत करने की सोचता है। चुनाँचे एक खानदान के अफराद के अंदर सियादत-ओ-क़ियादत के हुसूल के लिए झगड़े उमुमन हो जाते हैं। फिर जब उस खानदान का कोई फर्द बाक़ी अफराद पर ग़ालिब आ जाता है और उसकी सियादत मुस्तहकम हो जाती है तो उस खानदान और दिगर खानदानों के दर्मियान कशमकश शुरु हो जाती है यहां तक के एक खानदान या मुख्तलिफ खानदानों से ताल्लुक़ रखने वाले लोगों के एक गिरोह की सरदारी क़ायम हो जाती है। यह ही वजह है कि इस तआल्लुक़ और रब्त के हामिल अफराद के अंदर असबियत (عصبیه) कूट-कूट कर भरी होती है, और उन लोगों के अंदर बाक़ी लोगों के खिलाफ कुछ लोगों की मदद करने की ख्वाहिश और जज़्बा परवान चढ़ता है। चुनाँचे यह रब्त और तआल्लुक़ (कौमपरस्ती) एक ग़ैर-इंसानी राब्ता और तआल्लुक़ है। लिहाज़ा इस किस्म के रब्त में अगर खारिजा मुखासिमत (external conflicts) और चेलिन्जों का सामना न भी करना पडे तो दाखिली खलफिशार (internal feuds) और झगड़े तो हमेशा होते ही रहते हैं।
इस बुनियाद पर कहा जा सकता है कि ‘‘रब्ते वतनियत’’ (patriotic bond) तीन असबाब की बिना पर ग़लत रब्त या तआल्लुक़ है:
(1) यह रब्त या एक पस्त रब्त और तआल्लुक़ है। लिहाज़ा जब लोग निशाते सानिया के रास्ते पर चलना चाहे तो यह उन्हें मरबूत और मुनज्ज़म नहीं कर सकता।
(2) यह एक जज़बाती रब्त और तआल्लुक़ है, जो अपनी ज़ात (personal self) के हवाले से जिबिल्लते बका (survival instinct) से पैदा होता है, और जज़्बाती रब्त हमेशा तगयुर-ओ-तबद्दुल (changes) का शिकार बना रहता है। इसलिए यह इंसानों के दरमियान दायमी (constant) रब्त-ओ-तआल्लुक़ का बाइस नहीं बन सकता।
(3) यह एक वक्ती और आरजी रब्तो-तआल्लुक़ है जो दिफा की हालत मे तो पाया जाता है, लेकिन अम्न व सुकून की हालत में नापैद (non-existent) होता है। इसलिए यह बनी नो इंसान के माबैन रब्त-ओ-तआल्लुक़ बनने का एहल नहीं हो सकता।
इसी तरह कौमी रब्त (nationalistic bond) भी तीन असबाब से फासिद और ग़लत रब्त है:
(1) यह एक कबाइली जज़्बा है इसलिए जब इंसान निशाते-सानिया के रास्ते पर चलना चाहे तो यह उन्हे मरबूत नहीं कर सकता।
(2) यह एक जज़्बाती नोइयत का रब्त और ताल्लुक़ है जो जिबिल्लतें बका से पैदा होता है और इसी से दूसरो पर ग़लबा हांसिल करने की मुहब्ब्त जन्म लेती है।
(3) यह एक ग़ैर-इंसानी रब्त है क्योंकि यह ग़लबे के हुसूल के लिए लोगों के दर्मियान झगडे और तनाज़ात पैदा करने का सबब बनता है इसलिए यह भी इंसानो के माबेन रब्ते बाहमी बनने का एहल नहीं।

मसलिहती रब्त और रूहानी रब्त
(Bond of Interest and Spiritual Bond)

इसी तरह के फासिद रवाबित में एक मसलिहत का राब्ता (bond of interestرابطه المصلحيه ) है और दूसरा रूहानी राब्ता (spiritual bondرابطه الروحيه ) जिस से कोई निज़ाम नहीं फूटता। कुछ लोग ख्याल करते है कि यह दोनो इंसानो के माबेन बाहमी रब्त और तआल्लुक़ का सबब हो सकते है, लेकिन यह सरासर ग़लत है। जहाँ तक मसलिहत (फवाइद और नफा) के रब्त और तआल्लुक़ की बात है तो यह भी एक वक्ती रब्त होने की वजह से नोए इंसानी के माबेन रब्तो-तआल्लुक़ का एहल नहीं । क्योंकि यह रब्त बडे फायदे के सामने छोटे फायदे को दाव पर लगा देने का शिकार बना रहता है। इसलिए एक मसलिहत को दूसरी पर तरजीह देते वक्त यह रब्त हमेशा मफकूद होता है। और जब फायदे एक दूसरे से मुख्तलिफ हो जाते है, तो यह रब्त भी खत्म हो जाता है। इस तरह लोग एक दूसरे से जुदा हो जाते ai। इसके अलावा जब फायदे पूरे हो जाएं तो यह रब्त इख्तिताम को पहुँच जाता है। इसलिए इस रब्त को लोगों के माबेन बाहमी तआल्लुक़ का सबब गरदान्ना लोगों के लिए इन्तेहाइ खतरनाक है।
जहाँ तक उस रूहानी रब्त की बात है, जिस से कोई निज़ाम पैदा नहीं होता, तो वह रब्त हालते तदय्युन (religiousness) में ज़ाहिर होता है। लेकिन कारज़ारे हयात में इसका कोई किरदार नहीं होता। यह ही वजह है कि यह रब्त भी एक अधूरा और गैरअमली रब्त है। चुनाँचे यह भी ज़िन्दगी के मसाइल और मोआमलात में उनके दरमियान रब्तो-तआल्लुक़ बनने का एहल नहीं, और इसी वजह से ‘नसरानी अक़ीदा’ यूरोपी अकवाम और गिरोहों के दर्मियान रब्ते बाहमी का सबब नहीं बन सका, बावुजूदे कि उन सब अकवाम ने इस अक़ीदे को अपनाया है। इसकी वजह यह है कि यह एक ऐसा रब्त है, जिस मे से कोई निज़ाम नहीं निकलता।

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