समाज में तब्दीली लाने का तरीकेकार
कुरआन ही की तरह सुन्नते रसूल भी इस्लाम में हुज्जत की हैसियत रखती है, सुन्नत से मुराद हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) की क़ौल, आमाल और आप (صلى الله عليه وسلم) की तक़रीर है, जहॉ तक़रीर के मआनी ये होते है के किसी बात या फैल का आप (صلى الله عليه وسلم) के सामने होना और उस पर आप (صلى الله عليه وسلم) का सुकूत (खामोशी), अल्लाह سبحانه وتعالى ने ईरशाद फरमाया : ''और वोह (रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم) नही बोलते अपनी ख्वाईशे नफ्स से, ये कलाम नही है बल्के वही है जो नाजिल की जा रही है।'' (तर्जुमा मआनिए कुरआन : सूरे अलनजम : आयत 3-4)
इस्लामी मआशरा और इस्लामी रियासत को क़ायम करने का मनहज़ (Method) सीरत में तफ्सील से आया है और ये अल्लाह سبحانه وتعالى की जानिब से है। हम पर इस मनहज़ की पाबन्दी ऐन उसी तरह लाज़िम आती है जैसे नमाज़ और हज़ के मनासिक में आप (صلى الله عليه وسلم) का इत्तिबाह करना लाज़िम है। हमारे लिए ये फर्ज़ व लाज़िम है के हम इस काम के लिए भी आप (صلى الله عليه وسلم) के उसी मनहज़ को इख्तियार करें। अल्लाह سبحانه وتعالى फरमाता है :
''जिसने रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत की, सो दरहकि़क़त उसने अल्लाह की इताअत की।'' (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन : सूरे निसा : आयत 80)
''कह दो, यही मेरा रास्ता है, के अल्लाह की तरफ समझबूझ के साथ दावत देता हॅू, मैं भी और वोह भी जो मेरे पेरूकार है।'' (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन – सूरे युसूफ : आयत 108)
सीरत का गहरा मुताअला करने के बाद हम इस मनहज़ (Method) नबवी (صلى الله عليه وسلم) को तीन मराहिल (Stages) में तकसीम कर सकते हैं जो एक के बाद दूसरे और सिलसिलावार पेश आई। पहला वोह खुफिया मरहला था जिसमें आप (صلى الله عليه وسلم) ने ईस्लाम की दावत का आगाज़ किया. सहाबाए इकराम की एक जमात की तरह एक जत्थे के क़ायम होने के बाद आवाम (जनता) से तफाउल (interaction/विचारों का आदाना-प्रदान) का फिक्री मरहला आता है। इस मरहले में समाज के साथ फिक्री (वैचारिक) और सियासी तफाउल (राजनैतिक विचारों का आदाना-प्रदान) होता है और इसमें कुर्बानियां दरकार होती है ताके जनता की राय अम्मा (जनमत) को ईस्लाम के ग़लबे और उसको स्थापना के लिए हमवार किया जा सकें। आप صلى الله عليه وسلم ने जब आम जनता मे दावत का काम शुरू किया तो आप (صلى الله عليه وسلم) के खिलाफ साज़िशें की गई। मफाहमत और मसालेहत (Compromise) की गई और आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ-साथ साहबाऐ इकराम को तकलीफें भी झेलनी पडी़ और कुफ्फार ने इन साज़िशो, मफाहमत की कोशिशों, अज़ियतों के ज़रिए ईस्लाम की फिक्री (वैचारिक) सियासी दावत को नाकामयाब और फेल करना चाहा। जब उम्मत ईस्लाम के निफाज़ को इख्तियार कर लेती है तो उसे अपनी ज़िन्दगी और अपनी मौत का मसला बना लेती है तो फिर फितरी तौर पर ये काम अपने तीसरे और आखरी मरहले (चरण) में दाखिल हो जाता है जहॉ सियासी क़यादत और इक़्तिदार (सत्ता) खुदबखुद उम्मत के ज़रिए हासिल हो जाता है।
पहला मरहला : इस पहले मरहले में हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी दावत को अपने दोस्तों और अपने अहले खाना के सामने रखा और इन दोस्तों और रिश्तेदारों के ज़रिए जो ईस्लाम में दाखिल हो गए थे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन लोगों तक दावत को पहुचाया जिनमें इसकी कुबूलियत का मद्दाह था, मसलन आप (صلى الله عليه وسلم) के करीबी दोस्त हज़रत अबू बक्र सिद्दीक (رضي الله عنه), हज़रत उस्मान (رضي الله عنه), अब्दुल रहमान इब्ने ओफ, हज़रत सअद बिन अबिवक्कास वगैराह को ईस्लाम पहुचाने में कामयाब रहे। इस पहले मरहले में जो करीब तीन साल का था, ईस्लाम की दावत राज़दारी (secrecy) के साथ दी गई और इसमें कुफ्फारे मक्का और उनकी ज़ाहिलाना तर्ज़ से फिक्री या सियासी टकराव व कशाकश नहीं थी, बल्के आप (صلى الله عليه وسلم) का मकसद उन सहाबाऐ इकराम में कुरआन पर आधारित फिक्र पैदा करना और आदात सवारना था। ये निहायत ज़रूरी था के सहाबाऐ इकराम के ज़हनों में सही अक़ीदे को बिठा दिया जाए क्योंके जब तक अल्लाह سبحانه وتعالى पर सही अकीदा ही फिक्र (विचार), मफाहिम (Concepts/अवधारणा) और अहसास (feelings) की बुनयाद न हो, तो कोई भी आन्दोलन जो असासी और बुनयादी तब्दीली लाना चाहती है, वोह आन्दोलन (तहरीक) ऐसे मज़बूत अकीदे के बगैर दबाव में आकर अपने उद्देश्य से समझौता करने पर मजबूर हो जाती है। लिहाज़ा हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने पूरी कोशिश की के ऐसे अफराद तय्यार हो जो मज़बूत ईरादे और ईस्लामी शख्सीयत के हामिल हो, ऐसी शख्सीयत जिसकी बुनयाद ईस्लाम पर हो, क्योंके ये आप (صلى الله عليه وسلم) के मनहज़ (तरीका) में आईन्दा आने वाले मरहले के लिए लाज़मी ज़रूरत होगी। अगले मरहले (चरण) को देखने से पहले, ये गौर कर लेना चाहिए के पहले मरहले में आप (صلى الله عليه وسلم) ने एक ऐसी जमात, हिज़्ब या गिरोह की स्थापना की जो खुद आप (صلى الله عليه وسلم) के अलावा सहाबाऐ इकराम पर आधारित थी। हक़ीक़त भी ये है के ईस्लामी रियासत का क़याम (स्थापना) किसी भी एक अकेले शख्स का काम नही, बल्कि ये मुसलमानों की इज्तिमाई जिम्मेदारी है के वोह एक जमात या हिज़्ब की स्थापना में संघठित हो। ज्यों ज्यों लोग ईस्लाम में दाखिल होते गये, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें एक फर्द (व्यक्ति) की हैसियत से हुक्म नही दिया, बल्के उन्हें इस अज़ीम काम के अगले मरहले के लिए मुनज़्ज़म (संघठित) किया।
दूसरा मरहला : कुरआने मज़ीद में अल्लाह سبحانه وتعالى ने फरमाया : ''ऐ नबी (صلى الله عليه وسلم) डंके की चोट पर उन बातों का ऐलान कर दो जिन का तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है और मुश्रिको की परवाह न करो, यकीनन हम तुम्हारी तरफ से उन मज़ाक उडा़ने वालो की खबर लेने को काफी है’’ (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन : सूरे हज़र : आयत 94-96)
ये आयते मुबारका हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) की दावत को दूसरे और अवामी मरहले में लाने का ऐलान थी। यहॉ से आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुरैश को आम दावत देना शुरू किया के वोह अल्लाह سبحانه وتعالى के सिवा किसी और की परस्तीश और पूजा ना करे, ज़ाहिलियत को तर्क कर दे और ईस्लाम को अपनालें। ईस्लाम को इस अवामी मरहले में लाने के लिए आप (صلى الله عليه وسلم) ने कई कोशिशे की मसलन अपने रिश्तेदारों को अपने घर खाने की दावत दी जहॉ कुरैश के सरदार भी थे ताके उन्हें ईस्लाम का पैग़ाम दिया जाऐ। आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों को एक मुनज़्ज़म जमात की शकल में पेश किया, ऐसी जमात जो समाज के लिए खुला चेलेन्ज हो और समाज के इक़्दार (मूल्यों/Values), मेआर, एहसासात (feelings), निज़ामे हुकूमत (प्रशासनिक व्यवस्था) और ज़िन्दगी के मामलात को चलाने वाली व्यवस्था को तब्दील करना चाहती हो। इस जमात की इज्तिमाई कोशिशें अपना रंग लाई और अहले मक्का को खूब मुतास्सीर किया। जिन लोगों ने ईस्लाम को कबूल किया, ये वोह लोग थे जिनके दिल और ज़हन इस दावत की पाकिज़गी, दानाई और हक़ को समझे थे और खुद को ईन्सानी हटधर्मी से दूर रख पाए थे क्योंके यही हटधर्मी इन्सान को अपनी ज़िन्दगी में किसी भी परिवर्तन की मज़म्मत करने पर मज़बूर करती है। जैसे ही इन लोगों ने हक़ को देखा, इसके पेश करने वाले की सच्चाई को देखा, ये लोग ईस्लाम के दायरे में आ गए। दावत की इस कामयाबी ने सरदाराने कुरैश को धोका दिया और वोह गुस्से से बैकाबू हो गये, उनके सीनो में आग लग गई। फिर दूसरी तरफ से हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) की वैचारिक दावत जो कुफ्फार के गै़र-न्यायिक और ज़ालिमाना तर्ज़ की मुखालिफत कर रही थी, गुलामी का रिवाज़ जो मक्के में राईज़ था, उसके खिलाफ अवाज़ उठा रही थी, हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) इसके खिलाफ थे और कुफ्फार के झूठे अफ्कार, मफाहिम (अवधारणाओं) और रिवाज़ की मज़म्मत कर रहे थे। इस काम में हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने मक्के की ज़ाहिलियत का बगैर किसी मसालिहत या मफाहमत (Compromise) के सीधे-सीधे मुकाबला किया। आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुरैश के मालो-दौलत पर आधारित मूल्य और अखलाक़ जो उस समाज पर हावी थे, उनकी खुलकर मुखालिफत की और अल्लाह سبحانه وتعالى की जानिब से इसी मौजू़ (विषय) की आयत नाजिल हुर्इ : ''तबाही है हर उस शख्स के लिए जो मुह दर मुह ताने देने और पीठ पिछे बुराईया करने को पसन्द करता है। जो माल जमा करता रहा और उसे गिन-गिन कर रखता रहा, समझता है के बेशक उसके माल ने उसे जिंदा जावेद कर दिया। हरगिज़ नही। ज़रूर और बहरहाल वोह उदमा में फैंक दिया जाएगा।'' (तर्जुमा मआनिऐ कुरआन : सूरे हमज़ा : आयत 101-104)
अब गुस्से से भरे सरदाराने कुरैश आप (صلى الله عليه وسلم) के चचा अबु तालिब से शिकायत करने पहुचे और कहा के हम अपने आबा व अज़दाद (बाप-दादा) की तौहीन, हमारे माबूदो की तज़लील और हमारे आदात व रिवाज़ का मज़ाक उडा़ना और अधिक बर्दाश्त नही कर सकते। कुरआन मज़ीद में भी सरदाराने मक्का और खास तौर पर उन लोगों की मज़म्मत की गई जो ईस्लाम की मुखालिफत में अपने खास रुख और हटधर्मी के रविय्ये पर डटे हुए थे और दावत की मुखालिफत करते थे, जैसे अबू जहल, वलीद ईब्ने मुग़ीरा और अबू लहब। अबू लहब के शरारत की मज़म्मत पर तो एक पूरी सूरत ही नाजिल हुई जिसमें उसको और उसकी बीबी को जहन्नम की खबर दे दी गई। कुरआन मज़ीद की आयत में मक्के के जाहिलियत भरे मआशरे और हटधर्म सरदारों पर हमले किए गए। इस राजनैतिक टकराव का मकसद लोगों की तरफ से हटाकर ईस्लाम की तरफ फैरना था ईस्लाम से ताल्लुक जोडना था इस तरह कुरैश हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) को अपने दलाईल और अपनी बहसो से मना नही सकें और नाकाम हो गए, तब उन्होंने मफाहमत और मसालिहत की कोशिशें की। सरदाराने मक्का ने कई बार अपने लोगों के वफ्द (Delegation) आप (صلى الله عليه وسلم) के पास भेजे जिसमें खूब सारा माल, अरब क़ौम का नेतृत्व और सत्ता देने की पेशकश की गई, लेकिन हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने ऐसी तमाम पेशकशो को पूरी तरह ठुकरा दिया और दावत देने में किसी किस्म की सुस्ती कतअन नही बरती। जब कुरैश की तरफ से समझौते की तमाम कोशिशें नाकाम हो गई और हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने दावत लगातार जारी रखी, तब कुरैश ने दूसरा रास्ता इख्तियार किया. वोह अब मुस्लमानों को हरासाँ करते, मुसलमानों को कैद कराने, यहाँ तक की क़त्ल करने से भी गुरेज़ नही करते. खुद हुज़ूरे अक़दस صلى الله عليه وسلم की ज़ारे मुबारक पर कीचड उछाली, झूठ गढा और बोहतान लगाने की मुहीम चलादी जिस से आप صلى الله عليه وسلم की ज़ात और शख्सियत को नुक़्सान पहुंचाया जा सके. लेकिन कुफ्फार की इन तमाम कोशिशों और करतूतों से दावत मे सुस्ती तो क्या, बल्कि आप की कोशिशे और तेज़ हो गई. और इस मरहले के अगले कदम पर यानी इस्लाम को नाफिज़ करने के लिये माद्दी मदद (भौतिक शक्ति) या नुसरत (authority) तलब करने का काम शुरु हुआ ।
तलबे नुसरत (seeking authority) : जब हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने ये महसूस कर लिया के कुरैश किसी तरह ईस्लाम को मक्का में नाफिज़ नही होने देगें, तब आप (صلى الله عليه وسلم) ने कुरैश की मज़बूत गिरफ्त से बाहर के कबाईल से मदद हासिल करना चाहा। जहॉ कही मौका मिलता, कबाईल के सामने ईस्लाम की दावत पेश करते खासतौर पर मौसमे हज़ के दौरान जब कई क़बीले मक्के पहुचते, आप (صلى الله عليه وسلم) उनके पास जाते थे, मिसाल के तौर पर कबीला सक़ीफ, किन्दा, बनु आमीर इब्ने सअसा, बनु कलब, बनु हनीफा वगैराह। सीरत इब्ने इस्हाक़ में रबिया इब्ने अबाद से नकल है, वोह कहते है : मै जब छोटा था और अपने वालिद के साथ मिना में रहता था, उन दिनों हुजूरे अहदस (صلى الله عليه وسلم) मुख्तलिफ कबिलों के खैमों में जाते और उन्हें खिताब किया करते थे के: ऐ फला क़बीले के लोगों। मैं अल्लाह سبحانه وتعالى का रसूल हॅू, मै तुम्हे उसी की ईबादत करने को कहता हॅू के उसकी ईबादत में किसी को शरीक ना करो और अल्लाह سبحانه وتعالى के सिवा अपने तमाम माबूदों की परस्तीश को तर्क कर दो। मुझ पर यकीन करो और मेरे पैग़ाम की तस्दीक करो।” हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) उन क़बीलों को साफ तौर पर बताते के उन्हें किस किस्म की मदद चाहिए। ये बात उस वाकेय से भी साफ ज़ाहिर हो जाती है जो कबीला बनु आमिर के साथ पेश आया, उस क़बीले के सरदार ने कहा के क्या हम आपकी मदद के लिए अपनी गर्दनें अरबों की तरवारो के आगे रख दें और जब आपको फतह हासिल हो जाए तो हुकूमत आपकी हो जाए (सीरत इब्ने हिश्शाम)। इस बहस से साफ हो जाता है के क़बीले वाले खुब समझ रहे थे के आप (صلى الله عليه وسلم) को किस किस्म की मदद व नुसरद दरकार है। वोह क़बीले अच्छी तरह समझ रहे थे के उनसे तमाम कबिलो से भिडने को कहा जा रहा है, इसके अलावा वोह ये भी खूब समझ रहे थे के हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) हाकिम (हुक्मरान/सत्ताधीन) बनने वाले है और उन्हें ही क़यादत मिलने वाली है। बिल आखिर ओस व हज़रज के कबिलो ने उस मदद व नुसरत देने पर रज़ामन्दी दिखाई जो मतलूब थी।
इस मरहले में ईमान वालों को खौफज़दा और हरासाँ किया जाता है और उनके खिलाफ झूठी ईल्ज़ाम तराशिया की जाती है ताके वोह मफाहमत (समझौता) कर लेने पर मज़बूर हो जाए। हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के मनहज़ से हमे मालूम होता है के इस राह में ना तो कोई समझौता किया जा सकता है और ना ही आधे अधूरे हल को कबूल किया जा सकता है। र्इस्लाम की ज़ाहिलियत के साथ बसर और गुज़ारा नही हो सकता, यहॉ तक के ईस्लाम ऐसी हालत को भी कबूल नही करता जहॉ 99 फिसद ईस्लाम हो और सिर्फ 1 फिसद जाहिलियत! हुजूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) ने बनू आमीर से मदद लेने को नामन्ज़ूर फरमाया दिया क्योंके इस क़बीले के क़यादत खुद अपने लिए हुज़ूरे अक़दस (صلى الله عليه وسلم) के बाद हुकूमत चाहती थी। आप (صلى الله عليه وسلم) ने क़बिला शेबान इब्ने साहलबा की मदद को ठुकरा दिया हालाके वोह आप (صلى الله عليه وسلم) की तमाम अरब कबिलों से हिफाज़त करने पर राज़ी थे लेकिन वोह फारस के खिलाफ जाना नही चाहते थे। यहॉ मकसद महज़ ताकत और इक्तिदार (सत्ता) हासिल कर लेना नही बल्के अगर ईस्लाम के मनहज़ से इन्हेराफ किया जाए तो सत्ता क़ायम कर लेना बे-हासिल होगा। इस मनहज़ से मकसूद अल्लाह سبحانه وتعالى की हाकिमियत (प्रभूसत्ता/sovereignty) को क़ायम करना और ईस्लाम के तर्जे़ ज़िन्दगी को दोबारा जारी करना होता है, और हर मुसलमान के एक-एक अमल और कार्य का आखरी मकसद अल्लाह سبحانه وتعالى की रज़ा हासिल करना ही होना चाहिए और किसी से तारिफ या शुक्ररिया की आस नहीं होना चाहिए।
तीसरा मरहला : ईस्लाम के निफाज़ और उसकी दावत
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी मदीना मुनव्वरा आमद के पहले ही दिन ईस्लामी रियासत को क़ायम कर दिया था और फिर उस ढा़ंचे की मज़बूत बुनयाद पर समाज को ढा़ला। फिर उस रियासत की हिमायत के लिए और दावत को आगे बडा़ने के लिए ताकत जमा की गई। अब ईस्लाम के फैलाव में आने वाली भौतिक रूकावटों को हटाने का रास्ता साफ था। अब अल्लाह سبحانه وتعالى के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने ईस्लाम के तमाम अहकाम को कामिल तौर से नाफिज़ व जारी फरमाया और उस राज्य के ज़रिए ईस्लाम के पैग़ाम को दूसरे देशों तक पहुचाया। आप (صلى الله عليه وسلم) उस वक्त इस रियासत के हाकिमें आला और उसकी फौज़ के काईदे आला के तौर पर जिम्मेदारी संभाली, आप (صلى الله عليه وسلم) मुसलमानों के मामलात के व्यवस्था की निगरानी फरमाते, उनके मामलात के फैसले भी करते और फौज की मुख्तलिफ टुकडियों के लीडर भी मुकर्रर फरमाते थे और इन फौजी टुकडियों को मदीना मुनव्वरा के बाहर फौजी मुहिमात पर रवाना करते थे।
अल्लाह سبحانه وتعالى की मदद व नुसरत : ये अल्लाह سبحانه وتعالى सुबानहू की सुन्नत भी है और उसका कानून भी के उसकी जानिब से मदद व नुसरत बेशूमार अज़ीयतें और तकलीफें झेल लेने और मशक्कते बर्दाश्त कर लेने के बाद ही आती है, ताके उस पर ईमान रखने वाले साबिर रहे और बर्दाश्त करे और उन्हें ये अहसास हो के अल्लाह سبحانه وتعالى की अवाज पर लब्बेक कहना, अपनी जान, माल व अयाल और ज़िन्दगी के लुत्फ व ऐश से कही अज़ीम तर. अल्लाह سبحانه وتعالى का ईरशादे पाक है :
''और अल्लाह उनकी ज़रूर मदद करता है जो उसकी मदद करते है, यकीनन अल्लाह बहुत ताकतवर और जबरदस्त है’’। (तर्जुमा मआनिए कुरआन मज़ीद : सूरे अलहज : आयत-40)
''और हम पर मोमिनो की मदद करना लाहक़ है।'' (तर्जुमा मआनिए कुरआन : सूरे अलरोम : आयत-47)
फतह देने का ईल्म अल्लाह سبحانه وتعالى ने अपने ही पास रखा है लेकिन जब वोह फतह व नुसरत देने का ईरादा कर ले, तो वोह इसके लिए लाज़मी वसाईल को मुहय्या कर देता है और हालात को साज़गार बना देता है। लिहाज़ा हमें ये यकीन होना चाहिए के दीन के लिए जिस क़दर मज़बूत हमारी तरफ से मदद होगी, उतनी ही बडी़ और उतनी ही जल्दी अल्लाह سبحانه وتعالى की जानिब से मदद व नुसरत आयेगी। इस तरह अल्लाह سبحانه وتعالى की नुसरत हासिल करने के लिए हमें उसी की ही आवाज़ पर लब्बेक कहना चाहिए और किसी के आगे झूकना नहीं चाहिए। सिर्फ उसी पर कामिल यकीन के वही खालिक व मालिक है, वही जान डालता है और मौत भी बस उस ही के हाथ में है, वही इज़्ज़त देता है और ज़लील भी वही करता है और ये के मदद व नुसरत बस उस ही के इख्तियार में है। वही कामिल कुदरत रखता है और हममे से कोई भी अल्लाह سبحانه وتعالى का मुकर्ररकर्दा रिज़्क हासिल किए बगैर, और जो कुछ उसके लिए मुकर्रर कर दिया गया है, उसे पूरा किए बगैर मर नही सकता। सहाबाऐ इकराम رضی اللہ عنھم ने अल्लाह سبحانه وتعالى की आवाज़ पर लब्बेक कहा, अपने खुलूस का इज़हार किया और अपना माल और जाने अल्लाह سبحانه وتعالى के कलमे को बुलन्द करने मे लगा दी। अल्लाह سبحانه وتعالى के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के साथ उन्होंने पहली ईस्लामी रियासत क़ायम की और ज़ाहिलियत व शिर्क को नाबूद करके उस रियासत के सतून (Pillars) तामीर किए1 आज भी उम्मते मुस्लिमा को ज़रूरत है के ईमान वाले अल्लाह سبحانه وتعالى की आवाज़ पर लब्बेक कहें और उम्मत के साथ मिलकर ईस्लाम की क़यादत को बहाल करें।
''ऐ ईमान वालो! अल्लाह के बुलाने पर लब्बेक कहो, और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) के बुलाने पर, जब वोह तुमको उस चीज़ की तरफ बुलाऐ जो तुमको ज़िन्दगी बख्शने वाली है।''
0 comments :
Post a Comment