सुलह हुदैबिया - 19

सुलह हुदैबिया - 19

हुजू़र अकरम सल्ल0 की हिज़रत को छहः साल गुज़र चुके थेे, अब आप (صلى الله عليه وسلم) को अपनी फ़ौज और मदीने की मुआशरे की तरफ़ इतमिनान था और अ़रब के तमाम क़बाइल भी इस्लामी रियासत से मरऊ़ब थे, हुज़ूर अकरम सल्ल0 एैसी तदाबीर इख़़्ितयार करना चाह रहे थे जिनसे इस्लाम की दावत आम हो, रियासते इस्लामी और मज़्बूत हो और इस्लाम के दुशमन कमज़ोर हों उस वक़्त आप (صلى الله عليه وسلم) को ख़बरें मिलीं के ख़ैबर और मक्का के लोग आपस में मिलकर मदीना में चढ़ाई करने का मन्सूबा बना रहे हैं, चुनांचे हुजू़़र अकरम सल्ल0 ने एैसी हिक्मते अ़मली इख़्तियार की जिससे कु़रैश बाक़ी अ़रबों से कट जायें और इस तरह जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब में दावत के फ़रोग़ का रास्ता हमवार हो और अहले ख़ैबर कु़रैश से दूर हो जायें। आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ैसला फ़रमाया के येह इस तरह हो सकता है के आप (صلى الله عليه وسلم) बैतुल्लाह की ज़ियारत के ग़र्ज़ से पुरअम्न तरीक़ा से मक्का जायें, आप (صلى الله عليه وسلم) ने सोचा के अ़रबों का हराम महीनों में जंग न करने का रिवाज इस मंसूबा में मुआविन साबित होगा और इससे मक़्सद भी हासिल हो जायेगा। आप (صلى الله عليه وسلم) इस हक़ीक़त से भी वाक़िफ़ थे के कु़रैश में अब वोह वहदत नहीं रही थी और वोह मुसलमानों से ख़ाइफ़ भी थे, लिहाज़ा वोह मुसलमानों के बारे में बगै़र सोचे समझे कोई क़दम नहीं उठा पायेंगे, लिहाज़ा आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज पर जाने का फै़सला कर लिया, अब अगर कु़रैश हज करने के लिये मना भी करें तो येह भी दावते इस्लामी का एक वसीला बन जायेगा और अ़रबों मे कु़रैश के खि़लाफ़ एक अच्छा ख़ासा हथियार हाथ आ जायेगा, क्योंके अ़रब इस बात को कभी पसंद नहीं करेंगे के हाजियों को हज से रोका जाये, चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने ज़ी क़अ़दा के महीना में एैलान कर दिया के आप (صلى الله عليه وسلم) हज पर जाने का इरादा रखते हैं, साथ ही अ़रब के दूसरे क़बाइल को भी दावत भेजी के वोह भी आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ हज को चले और पुरअम्न तरीक़े से, बगै़र अपने साथ हथियार लिये।

येह तमाम क़बाइल गै़र मुस्लिम थे, इससे मक़्सद येह था के अ़रब लोगों को येह बात मालूम हो जाये के आप (صلى الله عليه وسلم) हज के लिये जा रहे हैं न के लड़ाई की ग़र्ज़ से, और उन लोगों को जो के इस्लाम में नहीं हैं, शामिल करने से येह वाजे़ह हो जाता है के आप (صلى الله عليه وسلم) क़िताल नहीं चाहते, इससे कु़रैश के हज को मना करने की सूरत में अ़रबों की राय आम्मा को जीतना मक़्सूद था। इसीलिये बग़ैर हथियार के निकलने का एैलान किया गया था, सिर्फ़ अपनी तलवारें रखने को कहा गया था, और वोह भी मयानों में। मुसलमानों को येह बात वाज़ेह कर दी गई थी के हज के लिये निकलना है न के क़िताल की गर्ज़ से ।

आप (صلى الله عليه وسلم) अपनी ऊंटनी क़सवा पर सवार मदीना से हज के लिये निकले और आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ एक हज़ार चार सौ सहाबा-ए-किराम थे, सत्तर ऊंट भी आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ थे, मदीना से रवांगी के छहः-सात मील बाद ज़ुल्हुलैफ़ा के मुक़ाम पर आप (صلى الله عليه وسلم) ने और सहबा-ए-किराम रज़ि0 ने हज का एहराम बान्धा और मक्का की जानिब रवाना हुये, क़ुरैश को इस बात की इत्तिला मिली के मुसलमान हज के इरादे से आ रहे हैं और लड़ाई करना नहीं चाहते, लेकिन फिर भी उन्होंने येह सोचा के हो सकता है के येह मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का मक्का में दाखि़ल होने के लिये कोई हरबा है, लिहाज़ा उन्होंने येह फ़ैसला कर लिया के हर हाल में मुसलमानों को मक्का में दाखि़ल होने से रोकना है, ख़्वाह कितना ही जानी नुक़्सान उठानी पड़े। इसके लिये उन्होंने फ़ौज तर्तीब दी के ताके मुसलमानों से मुक़ाबला करके उन्हे मक्का में दाखि़ल होने से रोका जा सके।

एक बड़ी फ़ौज ख़ालिद इब्ने वलीद और इक्रिमा बिन अबी जेहल की क़यादत में तैयार की गई जिसमें सिर्फ़़ घुड़सवार दो सौ थे येह फ़ौज हुज्जाज की जमाअ़त को रोकने के लिये आगे बढ़ी और जी़ तुवा के मुक़ाम पर आकर पड़ाव डाला। हुजू़र अकरम सल्ल0 कु़रैश को इस फ़ेअ़ल की ख़बर मिली के कु़रैश ने उन्हें रोकने के लिये फ़ौज रवाना की है। जब आप (صلى الله عليه وسلم) मक्का से दो मंजिल की मसाफ़त पर अ़स्फ़ान नाम के क़रया तक पहुंचे तो वहां बनी कअ़ब क़बीला को एक शख़्स मिला जिससे आप (صلى الله عليه وسلم) ने कु़रैश के बारे में दरयाफ़्त फ़रमाया। उसने बताया के कु़रैश को आपके आने की इत्तिला है और वोह ज़ी तुवा में खै़मा ज़न हैं, उनके पास दूध देने वाली ऊंटनियां हैं और वोह शेर की खाल पहने हुये हैं और अल्लाह की क़सम खाकर केहते हैं चाहे कुछ भी हो हम मुसलमानों को दाखि़ल होने नहीं देंगे उनका सरदार ख़ालिद इब्ने वलीद है जो करा-उल-ग़मीम पर मौजूद है, करा-उल-ग़मीम मुसलमानों के ख़ेमा यानी अ़स्फान से क़रीब आठ मील के फ़ासले पर वाक़ेअ़ है। हुजू़र अकरम सल्ल0 ने जब येह सुना तो फ़रमाया कु़रैश पर अल्लाह की मुलामत हो, उन्हें जंग ने खा लिया है, उनका क्या नुक़्सान हो अगर वोह मुझे और सारे अ़रब को गुज़र जाने दें? उनका इरादा है के वोह मुझे ख़त्म कर दें, और अगर अल्लाह ने मुझे ग़ालिब कर दिया तो येह लोग फ़ौज दर फ़ौज दीन में दाखि़ल हो जायेंगे या जब तक उनके पास ताक़त है, येह मुझसे लड़ते रहेंगे, येह कु़रैश क्या समझते हैं? अल्लाह की क़सम मैं उस वक़्त तक जिहाद करता रहूंगा जब तक के जिस काम को देकर अल्लाह सुबहानहू व तआला ने मुझे भेजा है वोह ग़ालिब न हो जाये या मेरा ख़ात्मा हो जाये।

अब हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने अपने मंसूबे पर फिर ग़ौर फ़रमाया के हिकमते अ़मली पुरअम्न है और क़िताल की कोई तैयारी नहीं की है, जबके कु़रैश ने बावुजूद इसके के आप (صلى الله عليه وسلم) क़िताल नहीं चाहते, क़िताल के लिये आपनी फ़ैज रवाना की है। अब सवाल येह था के क्या वापस जायें या अपनी हिकमते अ़मली बदल कर क़िताल किया जाये, आप (صلى الله عليه وسلم) को मुसलमानों की क़ुव्वते ईमानी पर पूरा एैतमाद था के वोह कुफ़्फ़ार से क़िताल करने के लिये तैयार होंगे अगर जंग के सिवा और कोई चारा ना हो, लेकिन उन्होंने जंग के लिये कोई तैयारी नहीं की है और न ही आप (صلى الله عليه وسلم) ने जंग का फ़ैसला किया है, बल्के वोह हज के लिये आये हैं और अम्न की नियत लेकर आये हैं। आप (صلى الله عليه وسلم) येह चाहते थे के जैसी के तवक़्क़ो है के हज करने से रोका जायेगा, तो येह रोकना भी पुरअम्न हो और क़िताल के ज़रिये से न रोका जाये। जो पुरअम्न मंसूबा आप (صلى الله عليه وسلم) ने बनाया था इससे येह मक़्सद हासिल करना था के इस्लाम का अ़ज़ीम-उ-शान और पुरअम्न पैग़ाम तमाम अ़रबों के सामने आये और दावत को फ़रोग़ मिले और उसके मुक़ाबले में कु़रैश और मुश्रिकीन की गुमराही, इस्लाम से बुग़्ज़ और फ़ुसूक़ वाजे़ह हो और अ़रबों की राय अ़म्मा उससे मुतअस्सिर हो आप (صلى الله عليه وسلم) अच्छी तरह जानते थे के राय आम्मा का एैसा माहोल दावते इस्लाम के लिये बहुत कारगर होगा और उससे दावत के फैलने में बड़ी मदद मिलेगी और फ़तह नसीब होगी और इसी मक़्सद को हासिल करने के लिये पुरअम्न मंसूबा बंदी की गई थी और जंग की तैयारी नहीं की गई थी।

लेकिन अब अगर जंग की जाये तो येह हिकमते अ़मली नाकाम होती है और अपने मक़ासिद को ज़र्ब लगती है, जिनको हासिल करने के लिये येह सफ़र किया गया था, लिहाज़ा आप (صلى الله عليه وسلم) बहुत फ़िक्र मंद हुये और आप (صلى الله عليه وسلم) की येह फ़िक्र किसी भी इन्सान की सोच से कहीं ज़्यादा संजीदा है, दूर रस, दुनियादारी के लिहाज़ से बहुत गेहरी और सियासत के तक़ाजों के एैतेबार से बहुत बारीक सोच थी लिहाज़ा आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ैसला फ़रमाया के अपनी पुरअम्न हिकमते अ़मली पर क़ायम रहेंगे ताके वोह मक़्सद ज़ाइल न हो जिसके लिये येह सफ़र किया गया है, और येह न हो के कु़रैश को एक बहाना मिल जाये के और अ़रबों की राय आम्मा इस्लाम के बजाये कु़रैश के हक़ में हो जाये। चुनांचे आप (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों मे एैलान फ़रमायाः

من رجلٍ يخرج بنا على طريق غير طريقهم التي هم بها
कौन शख़्स हमें एैसे रास्ता से निकाल ले जायेगा जिस पर वोह (कुफ़्फ़ार) नहीं गुज़रते?
एक शख़्स आगे बढ़ा और मुसलमानों को एैसे रास्ते से ले गया जोे बहुत ही पथरीला और दुशवार गुज़ार था येह रास्ता पहाड़ियों के दरमियान से गुज़रकर हुदैबिया के मुक़ाम को पहुंचा जो मक्का के निचले इलाक़े में वाक़ेअ़ है यहां मुसलमानों ने अपने खै़मे नसब किये जब ख़ालिद इब्ने वलीद और इक्रिमा इब्ने अबी जेहल ने इन्हें देखा तो वोह खौ़फ़ज़दा हो गये और मक्का की तरफ़ फ़रार इख़्तियार की ताके उसकी मुहाफ़िज़त की जा सके। मुसलमानों के इस बेबाक क़दम से कुफ़्फ़ार दहल कर रह गये वोह सोच भी नहीं सकते थे के मुसलमान बगै़र रोक टोक के इतनी क़रीब आ जायेंगे। अब मुश्रिकीन की फ़ौज मक्का में थी और मुसलमान हुदैबिया के मुक़ाम पर खै़माज़न, दोनो फ़रीक़ इस बात पर गा़ैर कर रहे थे अब अगला क़दम क्या उठाया जाये। बाज़ मुसलमान येह सोच रहे थे के येह किसी तरह मुम्किन नहीं के कु़रैश इन्हें बग़ैर जंग के हज करने देगे इसलिये अब हमारे सामने इसके सिवा कोई चारा नहीं के जंग कर के फ़तह हासिल करें और फिर हज करें, इस तरह कु़रैश का काम हमेशा के लिये तमाम हो जायेगा। उधर कु़रैश येह सोच रहे थे के जंग करके अपनी तमाम तर कुव्वत बरूए कार लाया जाये और मुसलमानों को वापस जाने पर मजबुर कर दिया जाये, चाहे इस कोशिश में वोह पूरे के पूरे फ़ना हो जायें। लेकिन साथ ही वोह मुसलमानों की क़ुव्वत और तैयारी के बारे में हर मुम्किना लिहाज़ से फ़िक्र मन्द थे के मुसलमानों की क्या हिक्मते अ़मली होगी। लेकिन उधर हुजू़र अकरम सल्ल0 ने अपनी उसी हिक्मते अ़मली पर क़ायम थे जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने उ़मरे की नियत करते वक़्त तैयार की थी। अब आप (صلى الله عليه وسلم) को कु़रैश के अगले क़दम का इन्तिज़ार था, आप (صلى الله عليه وسلم) येह जानते थे के कु़रैश उनसे लरज़ते हैं और वोह बिल-आखि़र अपना नुमाइन्दा ज़रूर भेजेंगे ताके आप (صلى الله عليه وسلم) के हज पर जाने के लिये गुफ़्त ओ शनीद की जाये। कुछ ही इन्तिज़ार के बाद कु़रैश ने बुदैल इब्ने वरक़ा को अल-ख़ुज़ाआ क़बीला के कुछ अफ़्राद के वफ़्द के साथ भेजा।   

यह वफ़्द थोड़ी सी गुफ़्तगू के बाद इस बात से मुतमइन हो गया के मुसलमान लड़ाई के लिये नहीं बल्के बैतुल्लाह की ज़ियारत के लिये आये हैं। येह लोग वापस आये के कु़रैश इस बात का यक़ीन दिला सकें, उन लोगों ने कोशिश भी की लेकिन कुरैश ने उनपर इल्ज़ाम लगाया के इस वफ़्द का मैलान मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की तरफ़ झुका हुआ है, और उनकी बात का यक़ीन नहीं किया। फिर कु़रैश ने मकरज़ इब्ने हफ़्स की क़यादत में एक और वफ़्द रवाना किया और उनके साथ भी यही कुछ पेश आया उसके बाद कु़रैश ने हुलैस इब्ने अ़लक़मा को भेजा जो हब्शियों का सरदार था के वोह मुज़ाकिरात करे, इससे कुफ़्फ़ार का मंशा येह था के वोह मुसलमानों को रोके और अगर बात-चीत नाकाम होती है तो हुलैस के दिल में मुसलमानों से नफ़रत और बढ़ जायेगी और इससे मक्का के दिफ़ा में मदद मिलेगी। जब हुजू़र अकरम सल्ल0 को हुलैस के आने की ख़बर हुई तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने हुक्म दिया के कु़र्बानी के ऊंटों को ख़ुला छोड़ दिया जाये ताके जब वोह आये तो जानवर सामने हों और हुलैस के सामने येह वाज़ेह दलील हो के मुसलमान हज के इरादे से आये हैं लड़ाई की नियत से नहीं। जब हुलैस मुसलमानों के ख़ैमों के पास आया तो खुले हुये ऊंट वादी के अ़र्ज़ में घूम रहे थे और लोगों को येह नहीं लगता था के येह क़िताल के इरादे से आये हैं।

हर तरफ़ इ़बादत का माहोल था, इस चीज़ ने हुलैस को मुतअस्सिर किया और उसे यक़ीन आ गया के मुसलमान हज के लिये आये हैं जंग की नियत से नहीं, लिहाज़ा हुलैस हुजू़र अकरम सल्ल0 से मुलाक़ात किये बगै़र मुसलमानों की नियत से मुतमइन होकर मक्का लौट गया, उसने मक्का पहुंचकर कुरैश को अहवाल से आगाह किया और येह मुतालबा किया के कुरैश मुसलमानों को हज कर लेने दें। फिर वोह ग़ज़बनाक हो गया और कु़रैश को ख़बरदार किया के अगर वोह मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) और कअ़बा के दरमियान आये तो वोह तमाम हब्शियों की फ़ौज ले कर वहां से हट जायगा, अब कुफ़्फ़ार ने अपना रवैया ज़रा नरम किया ताके हुलैस को नर्म करें और कहा के उन्हें कुछ मोहलत दरकार है ताके वोह मुआमिला पर अच्छी तरह से गौ़र कर सकें, हुलैस इस बात पर राज़ी हो गया, अब कु़रैश ने उ़र्वा इब्ने मस्ऊद अस-सक़फ़ी को भेजा और उसको यक़ीन दिलाया के वोह उसकी राय और मुआमिला फ़हमी पर एैतेमाद करते हैं, उ़र्वा ने हुजू़र अकरम सल्ल0 को हर तरह से मनाने की कोशिश की के वोह वापस चले जायें, उसने हर चाल आज़माकर देख लिया लेकिन कामयाब नहीं हुआ। आखि़रकार उसे हुजू़़र अकरम सल्ल0 के मौक़िफ़ से इत्तेफ़ाक़ करना पड़ा, उसने आकर कु़रैश से कहाः एै क़ौमे कु़रैश, मैंने क़ैसर को उसके मुल्क में देखा है और किसरा और नजाशी को उनके मुल्कों में देखा है, लेकिन किसी बादशाह को एैसा नहीं देखा जैसा मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) को अपने सहाबा के साथ देखा, वोह लोग किसी भी चीज़ के एवज़ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का साथ नहीं छोड़ेंगे, लिहाज़ा अब तुम सोच लो। इससे कु़रैश की दुशमनी और ख़ुसूमत और बढ़ गई और मुज़ाकिरात बगै़र किसी नतीजा पर आये तवील होेते गये, अब हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने सोचा के मुिम्कन है के कु़रैश के सफ़ीर आप (صلى الله عليه وسلم) से डरते हैं, लेकिन हो सकता है के हमारे सफ़ीर कु़रैश को बात समझा पायें इसलिये अपना सफ़ीर भेजने का इरादा किया, हुजू़र अकरम सल्ल0 ने ख़राश बिन उमैय्या अल-ख़ज़ाई रज़ि0 को अपना सफ़ीर बनाया लेकिन कुरैश ने उनके ऊंट को ज़िब्ह कर दिया और अगर हब्शियों ने उनकी हिफ़ाज़त न की होती तो वोह लोग उन्हें भी क़त्ल कर देते, उसके बाद कु़रैश की दुशमनी और बढ़ी अब अपने औबाश लड़कों को रातों को मुसलमानों के ख़ैमों पर भेजते जो ख़ैमों पर पत्थर फेंका करते, इससे मुसलमानों को तैश आया और वोह कु़रैश से क़िताल करने की बात करने लगे, लेकिन हुजू़र अकरम सल्ल0 ने उन्हंे समझाया।

फिर कु़रैश ने पचास आदमी भेजे के वोह मुसलमानों के ख़ैमों को घेर लें और लोगों को मारें उन लोगों को पकड़कर हुज़ूर अकरम सल्ल0 के सामने पेश किया गया लेकिन रहमतुल लिलआलमीन सल्ल0 ने उन सबको मआ़फ़ फ़रमा दिया और उन्हें जाने की इजाज़त देदी इस वाक़िया का मुस्बत असर अहले मक्का पर पड़ा के हुजू़र अकरम सल्ल0 के सच्चा होने की येह दलील क़ातेअ़ है के वोह हज के लिये आये हैं क़िताल करने नहीं आये। इस तरह राय आम्मा हुजू़र सल्ल0 की हिमायत में इस हद तक हो गई के अगर आप (صلى الله عليه وسلم) मक्का में दाखि़ल होते और कु़रैश रोकने की कोशिश करते तो अहले मक्का और अहले अ़रब उन्ही की मुखलफ़त करते, अब कुरैश ने अपनी भड़काने वाली हरकतें बन्द कीं और अपने मुआमले पर गौ़र किया तो पता चला के उनमे उन्ही में कुछ आवाज़ें एैसी उठ रही हैं जो अम्न चाहती हंै। उधर हुज़ूर सल्ल0 ने फिर इरादा किया के सफ़ीर भेजा जाये जो कु़रैश से गुफ़्त ओ शनीद करे, इस गर्ज़ से आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत उ़मर रज़ि0 को तलब फ़रमाया, हज़रत उमर ने कहा के उन्हें अंदेशा है के कु़रैश उनको क़त्ल करदेंगे और मक्का में बनी इब्ने अ़दई ख़ानदान का कोई नहीं है जो उनकी हिमायत करे, कु़रैश को उनसे शदीद दुशमनी है क्योंके उन्हें मेरा सख़्त रवैया याद है, मैं एक एैसे शख़्स का नाम बताऊं जो मुझसे बढ़कर इज़्ज़त वाला है और वोह हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 हैं।

लिहाज़ा आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ्फ़ान रज़ि0 को बुलाया और अबू सुफ़्यान के पास भेजा, हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 बतौर सफ़ीर पहुंचे और बात की, कु़रैश ने उनसे कहा के अगर वोह चाहें तो बैतुल्लाह का तवाफ़ कर सकते हैं। इसके बाद तवील गुफ़्तगू हुई लेकिन क़ुरैष अपनी ज़िद पर अड़े रहे और हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 की बात मानने से इन्कार करते रहे। इन तवील मुबाहिसात के दौरान कु़रैश को हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 का अन्दाज़ा अच्छा लगा और कई मुश्किलों के बावुजूद मुबाहिसात जारी रहे, कु़रैश अब कोई एैसा हल तलाश करने में दिलचस्पी ले रहे थे जो तरफ़ैन को क़ाबिले कुबूल हों और इस बोहरान से नजात मिले और मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) से दुशमनी का ख़ातमा हो। इस दौरान जब मक्का में हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 का क़याम ज़्यादा तवील हो गया और मक्का से उनकी कोई ख़बर नहीं आई तो मुसलमानों को येह शुबह हुआ के शायद उन्हें क़त्ल कर दिया गया है, इससे मुसलमानों को बहुत अफ़सोस हुआ और गु़स्सा भी आया, लोगों ने अपनी तलवारो को हाथ में ले लिया, हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने अब अपनी पुरअम्न हिक्मते अ़मली पर दोबारा ग़ौर किया, क्योंके मौजूदा हालात का यही तक़ाज़ा था। बज़ाहिर कु़रैश ने हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 को जो एक सफ़ीर की हैसिय्यत रखते थे, उन हुर्मत वाले महीनों में धोका देकर क़त्ल कर दिया था, चुुनांचे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने एैलान फ़रमाया के हम उस क़ौम से मुक़ाबिला किये बगै़र नहीं जायेंगे। आप (صلى الله عليه وسلم) एक दरख़्त के नीचे खड़े हुये और सहाबा-ए-किराम को बुलाया और येह मुतालिबा किया के वोह सब बैअ़त करें। लिहाज़ा तमाम सहाबा ए किराम रज़ि0 ने पूरे जोश, कुव्वते इरादी और सिद्के़ ईमान के साथ इस बात की बैअ़त की के वोह आखि़र दम तक लड़ते रहेंगे और मैदान छोड़कर नहीं जायेंगे। जब येह बैअ़त हो गई तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपना एक हाथ दूसरे हाथ पर रखकर फिर हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 की तरफ़ से बैअ़त की, जैसे वोह साथ मौजूद हों, यह बैअ़ते रिज़वान केहलाई जिसके बारे में अल्लाह जल्ला जलालुहू ने फ़रमायाः

لَـقَدۡ رَضِىَ اللّٰهُ عَنِ الۡمُؤۡمِنِيۡنَ اِذۡ يُبَايِعُوۡنَكَ تَحۡتَ الشَّجَرَةِ فَعَلِمَ مَا فِىۡ قُلُوۡبِهِمۡ فَاَنۡزَلَ السَّڪِيۡنَةَ عَلَيۡهِمۡ وَاَثَابَهُمۡ فَتۡحًا قَرِيۡبًا ۙ‏ ﴿۱۸﴾

यक़ीनन अल्लाह मोमिनीन से ख़ुश हुआ जब वोह दरख़्त के नीचे तुम से बैअ़त कर रहे थे, जो कुछ उनके दिलों में था उसे उसने जान लिया, पस उन पर उसने सकीना उतारा, और बदले में उन्हें अ़नक़रीब ज़ाहिर होने वाली फ़तह तय करदी। (तजुर्मा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः फ़तह, 18)
इधर बैअ़त हो जाने के बाद मुसलमानों ने जंग की तैयारी शुरू करदी थी, उधर ख़बर आई के हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 के क़त्ल की इत्तिला ग़लत थी उन्हें क़त्ल नहीं किया गया था, फिर हज़रत उ़स्मान इब्ने अ़फ़्फ़ान रज़ि0 लौट आये और हुजू़र अकरम सल्ल0 को कु़रैश से होने वाले मुज़ाकिरात के बारे में तफ़सील बताई, अब फिर हुजू़र अकरम सल्ल0 और कुरैश के माबैन पुरअम्न मुज़ाकिरात शुरू हुये, कु़रैश ने सुहैल बिन अ़म्र को हुजू़र अकरम सल्ल0 से मुज़ाकिरात के लिये भेजा और येह मुज़ाकिरात हज और उ़मरे के मस्अले से ज़्यादा वसीअ़ मुआमिला पर हुये। इन मुज़ाकिरात का दायरा फ़रीक़ैन के माबैन सुलह का था, जिसके लिये शर्त यह थी के मुसलमान इस साल बगै़र हज किये ही लौट जायें। हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने इस बात को तस्लीम कर लिया, क्योंके इससे वोह ग़र्ज़ पूरी हो रही थी जो शुरू से ज़ियारते कअ़बा के सफ़र में कारफ़रमा थी, हुजू़र सल्ल0 को इस बात में कोई मुज़ायक़ा नहीं था के हज इस साल किया जाये या आइन्दा साल, हक़ीक़ी मक़्सद तो येह था के अहले ख़ैबर को कु़रैश से अलग कर दिया जाये और कु़रैश से मुआहिदे के बाद जज़ीरानुमा ए अ़रब में दावते इस्लामी नष्र हो सके और इस लिये ज़रूरी था के कु़रैश से क़िताल न भड़के।

रही बात हज और उ़मरे की तो उसमें येह अहम नहीं था के हज इस साल किया जाये या आइन्दा साल। अब मुज़ाकिरात शुरू हुये जो काफ़ी तवील थे उसमें जंग बंदी और इसकी शराइत ज़ेरे बहस थीं। इन मुज़ाकिरात के दौरन कई एैसे मौक़े आये जब एैसा लगता था के बग़ैर किसी नतीजा तक पहुंचे टूट जायेंगे, लेकिन हुजू़र अकरम सल्ल0 की दूर अन्देशी, दक़ीक़ सियासी बसीरत और हक़ीक़त शआ़री के सबब एैसी नौबत नहीं आ पाई। इन मुज़ाकिरात के दौरान मुसलमान हुजू़र अकरम सल्ल0 के आस-पास रहे और वोह इन्हें हज और उ़मरे के मुतअ़ल्लिक़ मुज़ाकिरात समझते रहे जबके हुज़ूर सल्ल0 के नज़दीक इनकी नौइयत क़िताल को रोकने की तदाबीर थी। लिहाज़ा मुसलामन इस मुआहिदे से बद दिल हो रहे थे और गुस्से में थे, जबके हुजू़र सल्ल0 इस मआहदे को मुसलमानों के हक़ में फ़तह मान रहे थे क्योंके येह उसी रुख़ पर हुये थे, जो हुजू़र सल्ल0 ने खुद तय फ़रमाया था, क़तेअ़ नज़र उन वक़्ती फ़ायदों और जुज़्ईयात के जो बज़ाहिर मुसलमानों के मफ़ाद में नहीं दिखती थी।

बिल-आखि़र इन तय शुदा शराइत पर मुआहिदा हो गया, अलबत्ता मुसलमान इससे सख़्त नाराज़ और गुस्से में थे। उन्होंने कोशिश की के हुज़ूर सल्ल0 को इस बात पर राज़ी किया जाये के वोह इसको मानने से इन्कार कर दें और कु़रैश से जंग करें। हज़रत उ़मर रज़ि0 हज़रत अबू बक्र  रज़ि0 के पास गये और कहा के हम क्यों इसे कु़बूल करें जबके उसमें हमारी तौहीन होती है। हज़रत उ़मर रज़ि0 चाहते थे के हज़रत अबू बक्र रज़ि0 को हुज़ूर सल्ल0 के पास ले जा कर इस बात पर राज़ी किया जाएै के वोह मुआहिदे की शुरूत तस्लीम करने से इन्कार कर दें। जबके हज़रत अबू बक्र रज़ि0 की कोशिश येह थी के हज़रत उ़मर रिज़0 इस बात पर राज़ी हो जायें, लेकिन हज़रत उ़मर रज़ि0 शदीद गुस्से की हालत में हुज़ूर सल्ल0 के पास गये लेकिन उनकी बातों से हुज़ूर सल्ल0 के सब्र या उनकी इरादे में कोई फ़र्क़ नहीं आया और आप (صلى الله عليه وسلم) फ़रमायाः

إني عبد الله و رسولـه لن أخالف أمره ولن يضيعنـي
मैं अल्लाह का बंदा और उसका रसूल हूं उसके हुक्म की खि़लाफ़वर्ज़ी हरगिज़ नहीं करूंगा और वोह मुझे कभी ज़ाया नहीं करेगा।
फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत अ़ली रज़ि0 को तलब फ़रमाया और कहा लिखो, बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम, लेकिन सुहैल ने टांेक दिया और कहा के मैं यह नहीं जानता, बल्के बिइस्मेका अल्लाह हुम्मा, हुज़ूर सल्ल0 ने फ़रमाया लिखो बिइस्मेका अल्लाहुम्मा। फिर फ़रमाया लिखोः
أكتب هذا ما صالح عليه محمّد رسول الله سهيل بن عمرو
यानी जिस पर मुहम्मद, अल्लाह के रसूल सल्ल0 का सुहैल बिन अ़म्र के साथ मुआहिदा हुआ। सुहैल ने फिर टांेका और कहा के अगर मैं येह शहादत देता के आप (صلى الله عليه وسلم) अल्लाह के रसूल हैं तो आप (صلى الله عليه وسلم) से जंग न करता, अपने नाम के साथ वालिद का नाम लिखें। फिर हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने फ़रमाया लिखोः
أكتب هذا ما صالح عليه محمّد إبن عبدالله سهيل بن عمرو
यानी जिस पर मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) इब्ने अ़ब्दुल्लाह का सोहैल बिन अ़म्र से मुआहिदा हुआ। फिर मुआहिदे की तफ़सीलात लिखी गई जो इन दफ़्आत पर मुश्तमिल थींः
अ)    यह मुआहिदा जंग बंदी का मुआहिदा होगा जिसके तहत दोनों फ़रीक़ एक दूसरे से क़िताल नहीं करेंगे।
ब)    अगर कु़रैश का कोई भी शख़्स मुसलमान होकर बग़ैर अपनी वली की इजाज़त से मदीना आ जाता है तो उसे वापस मक्का लौटा दिया जायेगा लेकिन अगर मुसलमानों में से कोई शख़्स मुर्तद होकर मक्का आ जाता है तो उसे लौटाया नहीं जायेगा।
ज)    अ़रब के हर क़बीले को इख़्तियार होगा के जो चाहे वोह मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के साथ मुआहिदा करे और जो चाहे वोह कु़रैश के मुआहिदा।
द)    इस साल और मुसलमान मक्का से (बग़ैर हज किये) वापस लौट जायेंगे और अगले साल इस तरह आयेंगे के उनकी सिर्फ़़ तलवारें होंगी जो मियानों में होंगी उसके सिवा और कोई हथियार नहीं होगा।
ह)    यह मुआहिदा महदूद् मुदद्त तक के लिये होगा और उसकी मीआद उसपर दस्तख़त होने के बाद से दस साल होगी।
मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) और सोहैल बिन अ़म्र ने जिस वक़्त इस मुआहिदे पर दस्तख़त किये तो मुसलमान शदीद ग़ुस्से में भी मे थे और उस से नाराज़ भी थे। सुहैल उठा और मक्का की तरफ़ रवाना हो गया, हुज़ूर अकरम सल्ल0 ने मुसलमानों के शदीद गु़स्से और नाराज़गी और उनमें कु़रैश से जंग करने की तरफ़ जो मैलान देखा तो फ़िक्रमंद हुये और उम्मे सल्मा रज़ि0 के हुजरे की तरफ़ ले गये, जो सफ़र में शरीक थीं और उन्हें मुसलमानों का अहवाल बताया तो उन्होंने फ़रमायाः एै अल्लाह के रसूल सल्ल0 मुसलमान कभी आपकी हुक्म उदूली नहीं करेंगे, हां वोह अपने दीन, ईमान और आपके रिसालत के एैतेबार से बहुत पुरजोश हैं, आप हलक़ कीजिये और जानवर ज़िबह कीजिये, आप देखेंगे के मुसलमान सारे के सारे आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ हैं फिर उनके साथ मदीना लौट जाइये। आप (صلى الله عليه وسلم) बाहर मुसलमानों के पास तशरीफ़ लाये और जानवर ज़िबह किया और हलक़ किया फिर आप (صلى الله عليه وسلم) को सुकून मेहसूस हुआ मुसलमानों ने जब आप (صلى الله عليه وسلم) के पुरसुकून चेहरे को देखा तो खुद भी जानवर ज़िबह किये। येह बतौर उ़मरे की कुबार्नी के थे, उसके बाद सब मदीना की जानिब रवाना हुये। इसी वापसी के सफ़र में अल्लाह तआला ने सूरहः फ़तह आप (صلى الله عليه وسلم) पर नाज़िल फ़रमाई जो आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानों को शुरू से आखि़र तक तिलावत फ़रमाकर सुनाई। अब हर एक को येह बात समझ में आगई के येह मुआहिदा अल्लाह सुब्हानहू की जानिब से मुसलमानों की फ़तह का है, फिर मुसलमान मदीने पहुंचे।   
अब मदीना पहुंचकर आप (صلى الله عليه وسلم) ने पहले यहूद खै़बर को ठिकाने लगाने के अपने मन्सूबा की फ़िक्र की, फिर जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब के बाहर इस्लाम की दावत फैलाने पर गा़ैर फ़रमाया और अन्दुरूनी तौर पर उसे मुस्तहकम करने के लिये इक़्दामात किये। कु़रैश से किये हुये जंग बंदी के मुआहिदे के सबब अब आप (صلى الله عليه وسلم) को येह मौक़ा मयस्सर आया था के उन बातौं की तरफ़ तवज्जोह कर सकें और बाज़ एैसे इलाक़ों की तरफ़ मुतवज्जेह हों जहां तवज्जोह की ज़रूरत थी, या ख़ार्जी राब्तों की तरफ़ ध्यान दें और येह मौक़ा इसलिये मयस्सर आया के क्योंके कु़रैश से अब जंग बंदी तय हो गई थी। आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपने इस मंसूबे को निहायत दूर अंदेशी और बारीक बीनी से कई सख़्त मुश्किलात के बावजूद अ़मली जामा पहनाया था जब आप (صلى الله عليه وسلم) हज के इरादे से मक्का तशरीफ़ ले गये थे। इस तरह वोह सियासी मक़ासिद पूरे हुये जो शुरू से आप (صلى الله عليه وسلم) को मतलूब थे इसमें कोई शक ओ शुबा नहीं के मुआहिदा-ए-हुदैबिया एक अ़ज़ीमुश्शान कामयाबी थी जिसके बाज़ अहम निकात मुन्दरजा जै़ल हैं।
1) इस मुआहिदा के ज़रिये आप (صلى الله عليه وسلم) ने आम तौर पर अ़रबो की राय आम्मा और ख़ास तौर पर कु़रैश की राय आम्मा का झुकाव इस्लाम की दावत की तरफ़ मोड़ दिया था। नतीजतन मुसलमानों के एैहतेराम में जहां इज़ाफ़ा हुआ वहीं कु़रैश की वुक़्अ़त को धक्का लगा था ।
2) इस से मुसलमानों की ईमानी क़ुव्वत और आप (صلى الله عليه وسلم) पर बे इन्तेहा एैतेबार और एैतेमाद का मुज़ाहिरा हुआ था, येह बात खुलकर सामने आ गई थी के मुसलमान मौत से नहीं डरते और हर ख़तरा से निमटने के लिये तैयार रहते हैं ।
3) इस वाक़िए से मुसलमानों को येह सबक़ मिला के इस्लामी दावत के फैलाव के लिये सियासी तदाबीर और सियासी तदब्बुर कितने अहम और कार आमद होते हैं।
4) इस मुआहिदे की रू से अब वोह मुसलमान जो मक्का ही में मुिश्रकीन के दरमियान रह गये थे वोह दुशमन की लशकर में मुसलमानों की वुजूद का सबब बन गई ।
5) यह अ़म्र वाज़ेह हुआ के सियासत में बेहतर सोच और अपने वायदे से वफ़ा अहम तरीन अ़नासिर हैं, लेकिन साथ ही येह के वसीला इख़्तियार करने में सियासी तदब्बुर हो और अपने हक़ीक़ी मक़ासिद और ग़ायात दुशमन पर ज़ाहिर न हों।
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.