1. दुआ इ़बादत ही नहीं बल्कि असल इ़बादत है क्योंकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का फ़रमान
हैः
وَ قَالَ رَبُّكُمُ ادْعُوْنِيْۤ
اَسْتَجِبْ لَكُمْ١ؕ اِنَّ الَّذِيْنَ يَسْتَكْبِرُوْنَ۠ عَنْ عِبَادَتِيْ
سَيَدْخُلُوْنَ جَهَنَّمَ دٰخِرِيْنَ
तुम्हारा रब कहता है मुझे पुकारो,
मैं तुम्हारी दुआऐं
क़ुबूल करूंगा, जो लोग घमंड में आकर मेरी इ़बादत से मुंह मोड़ते हैं,
ज़रूर वो ज़लील
और ख़्वार हो कर जहन्नुम में दाख़िल होंगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: अल मोमिन- 60)
इस आयते करीमा
में अल्लाह سبحانه وتعالیٰ ने दुआ को असल
इ़बादत बताया है जैसा के (عِبَادَتِيْ) को (ادْعُوْنِيْۤ) के बाद ज़िक्र करने से ज़ाहिर होता है। इसी तरह रसूले अकरम का फ़रमान हैः
((الدعاء
مخ العبادۃ))
दुआ इ़बादत का मग़्ज़ है।
लिहाज़ा दुआ इ़बादत है और अल्लाह ऐसे बंदों को मेहबूब रखता है जो उससे दुआ करते
हैं और जिस ने दुआ को तर्क कर दिया गोया वो ख़ैर के एक बड़े हिस्से से मेहरूम रह गया।
अल्लाह سبحانه وتعالیٰ से ना माँगना और
दुआ ना करना इस्तिकबार और ग़ुरूर की निशानी है और ऐसे लोग अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ के इस क़ौल के भी मिस्दाक़ हैं। سیدخلون جھنم داخرین (अनक़रीब ये लोग रुसवा करके जहन्नुम
में डाले जाऐेंगे।)
2. अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ ने हमारे लिए ये वाज़ेह कर दिया है के हम उस ही से दुआ करें और उसकी पुकार पर लब्बैक
कहें और शरीयत की पैरवी और उसके रसूल की इत्तिबा करें ताके हिदायत की राह पर गामज़न
हो सकें। चुनांचे अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः
فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لِيْ وَ
لْيُؤْمِنُوْا بِيْ لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُوْنَ
तो उन्हें चाहिए के वो मेरा हुक्म मानें और मुझ पर ईमान रखें
ताके वो रुश्द और हिदायत हासिल करें। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम:अल बक़रह -186)
और मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है के रसूले अ़रबी (صلى الله عليه
وسلم) ने फ़रमायाः
((یدعو اللہ و مأکلہ من حرام، و مشربہ من حرام
فأنی یستجاب لہ))(مسلم)
فأنی یستجاب لہ))(مسلم)
वो अल्लाह से दुआ मांगता है जबकि उसका खाना और पीना हराम माल
से है, तो क्यों कर उसकी दुआ क़ुबूल हो?
सज्दों के दरमियान, रात की तारीकी में और फ़र्ज़ नमाज़ के बाद के औक़ात दुआ की क़ुबूलीयत
के अफ़ज़ल औक़ात में शुमार होते हैं। हज़रत अबू हुरैराह (رضي
الله عنه) की मुस्लिम शरीफ की हदीस है के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((اقرب ما یکون العبد من ربہ وھو ساجد فاکثروا
الدعاء))
बंदा अपने रब से सब से ज़्यादा क़रीब सज्दे की हालत में होता
है लिहाज़ा सज्दों में कसरत से दुआ करो।
तिरमिज़ी की एक रिवायत में अबू उमामा (رضي
الله عنه) फ़रमाते हैं के
रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से दरयाफ़्त
किया गया के कौन सी दुआ ज़्यादा मकबूल होती है?
तो आप ने जवाब दियाः
((جوف اللیل، ودبر الصلوات المکتوبات))
रात की दुआ और फ़र्ज़ नमाज़ों के बाद की दुआ।
इसी तरह रमज़ान में भी दुआ करने का बहुत बड़ा अज्र है। चुनांचे तिरमिज़ी में रिवायत
है के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((ثلاثۃ لا ترد دعوتھم الصائم حتی یفطر والإمام
العادل ودعوۃ المظلوم یرفعھا اللہ فوق الغمام ویفتح لھا أبواب السماء ویقول الرب
وعزتي لأنصرتک ولو بعد حین))
तीन लोगों की दुआ रद्द नहीं की जाती। एक साइम (रोज़ादार) यहाँ
तक के वो इफ़्तार कर ले, दूसरा इंसाफ़ परवर सुल्तान और तीसरा मज़लूम शख़्स। मज़लूम की दुआ
को अल्लाह बादलों के ऊपर उठा लेता है और उसके लिए आसमानों के दरवाज़े खोल दिये जाते
हैं और रब जल्ला जलालुहू फ़रमाता हैः मेरी इज़्ज़त की क़सम में ज़रूर बा ज़रूर तुम्हारी
मदद करूंगा चाहे कुछ देर बाद ही सही।
3. बेशक दुआ इ़बादत है मगर इसके ये मानी नहीं है के अस्बाब को तर्क कर दिया जाये,
बल्कि अस्बाब को इख़्तियार करना सुन्नते रसूल से साबित है।
लिहाज़ा रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने बदर के
मौके़ पर लश्कर साज़-ओ-सामान से लैस किया और मुक़ामे बदर पर ख़ुद तर्तीब दिया और जंग के
लिए बेहतरीन तैय्यारी की। इसके बहुत बाद आप (صلى
الله عليه وسلم) अपने ख़ैमे
में पहुंचे और रब्बुल इज़्ज़त से नुसरत तलब करना और दुआ करना शुरू किया और इतनी कसरत
से दुआ की के हज़रत अबूबक्र (رضي
الله عنه) बोल उठे “ऐ अल्लाह के रसूल! बस,
इतना काफ़ी है।“
इसके अ़लावा जब आप (صلى
الله عليه وسلم) को अल्लाह
ने हिजरत का हुक्म दिया तो आपने उन तमाम वसाइल को इख़्तियार किया जिनकी ज़रूरत एक आदमी
को अपने बचाओ के लिए होती है। उसी वक़्त आप (صلى
الله عليه وسلم) दुआ भी कर
रहे थे के अल्लाह कुफ़्फ़ार और मुशरिकीने मक्का के चेहरों को फेर दे और उनके मक्र और
फ़रेब से निजात दे और सही सलामत मदीने पहुंचा दे।
चुनांचे आपने शिमाल (उत्तर) के मारूफ़ (प्रसिद्द) रास्ते को तर्क करके जुनूब (दक्षिण)
का रास्ता इख़्तियार किया और एक ग़ार में आप और हज़रत अबूबक्र (رضي
الله عنه) छुपे रहे और अ़ब्दुर्रहमान बिन अबूबक्र (رضي
الله عنه) के ज़रीये क़ुरैश की ख़बरों और उनकी साज़िशों से बाख़बर होते रहे।
और जब अ़ब्दुर्रहमान बिन अबु बक्र (رضي
الله عنه) मक्का वापिस लौटते
तो उनका ग़ुलाम बक्रियों को उनके नक़्शे क़दम पर हाँकता हुआ वापस होता ताके पाँव के निशानात
मिट जाऐं। वो कुफ़्फ़ार को गुमराह करने के लिए ऐसा किया करता था। और आप अबूबक्र (رضي
الله عنه) के साथ तीन दिन तक इसी ग़ार में रहे और जब आपकी तलाश की कोशिशें
कम हो गईं तब आप ने मदीने का सफ़र शुरू किया।
इस के साथ ही आप को इस बात पर पूरा ऐतेमाद था के आप बा आफ़ियत मदीने पहुंच जाऐेंगे।
आप अबूबक्र (رضي
الله عنه) को भी ढारस बंधाते,
जब उन्होंने देखा के अगर कुफ़्फ़ार मक्का ने अपने पैरों के निशानों
की तरफ़ देख लिया तो हम को पा लेंगे। तो आप
ने फ़रमायाः ऐ अबूबक्र ! तुम्हारा उन दो लोगों के बारे में क्या ख़्याल है जिन
का तीसरा साथी अल्लाह है।
اِلَّا تَنْصُرُوْهُ فَقَدْ
نَصَرَهُ اللّٰهُ اِذْ اَخْرَجَهُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ثَانِيَ اثْنَيْنِ اِذْ
هُمَا فِي الْغَارِ اِذْ يَقُوْلُ لِصَاحِبِهٖ لَا تَحْزَنْ اِنَّ اللّٰهَ
مَعَنَا١ۚ
तो अल्लाह उसकी मदद उस वक़्त कर चुका है जबकि काफ़िरों ने उसे
इस हालत में निकाला के वो सिर्फ़ दो में दूसरा था,
जब वो दोनों ग़ार
में थे, जब के वो अपने साथी से कह रहा था,
ग़म ना करो यक़ीनन
अल्लाह हमारे साथ है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अत्तौबाः -40)
इसी तरह सुराक़ा बिन मालिक का क़िस्सा है के जब वो आप (صلى
الله عليه وسلم) और अबूबक्र (رضي
الله عنه) की तलाश में निकला ताके दोनों को पकड़ कर क़ुरैश के इनाम का हकदार
बने। लिहाज़ा जब वो आप (صلى
الله عليه وسلم) के क़रीब बमुश्किल
पहुंच पाया तो आप ने फ़रमायाः ऐ सुराक़ा ! तुम लौट जाओ,
तुम्हारे लिए किसरा के कंगन हैं।
चुनांचे आप (صلى
الله عليه وسلم) ने अस्बाब
को इख़्तियार किया ताके हम आप की पैरवी करें और साथ ही आप ने दुआओं का सहारा भी लिया
ताके अल्लाह आप को क़ुरैश की तलाश और साज़िशों से मेहफ़ूज़ रखे और वो अपने मक्र ओ फ़रैब
के जाल मैं ख़ुद फंस जाऐं। इसलिए जब आप (صلى
الله عليه وسلم) रात की तारीकी
में घर से निकले और देखा के कुफ़्फ़ार ने घर का मुहासिरा किया हुआ है तो उन पर मिट्टी
फेंक दी। आप इस बात से मुतमईन थे के अल्लाह आप की दुआ को ज़रूर सुनेगा और कुफ़्फ़ार का
रुख ज़रूर मोड़ेगा चुनांचे ऐसा ही हुआ। अल्लाह ने उन पर नींद मुसल्लत कर दी और आप बख़ैर
और आफ़ियत मदीने पहुंच गए।
मालूम हुआ के दुआ के मानी ये नहीं हैं के अस्बाब-ओ-वसाइल को तर्क कर दिया जाये,
बल्कि ये दुआ के लवाज़मात और उसके एै़न मुवाफ़िक़ है। लिहाज़ा जो
लोग नए सिरे से ख़िलाफ़त के क़ियाम के मुतमन्नी और ख़्वाहिशमंद हैं उनको चाहिए के सिर्फ़
दुआ पर ही इक्तिफ़ा ना करें बल्कि उसको वजूद में लाने के लिए अस्बाब-ओ-वसाइल भी इख़्तियार
करें और अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त से मदद और नुसरत तलब करते रहें और इसके लिए जल्द अज़जल्द
कामयाबी की बार बार दुआ करते रहें और साथ ही मयस्सर वसाइल को भी इख़्तियार करें।
यही तरीक़ा तमाम मुआमलात में अपनाना चाहिए के आदमी हर काम ख़ालिस अल्लाह के लिए करे
और रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) के साथ सच्चा
बने और गिरिया ओ ज़ारी और इसरार के साथ दुआ करे बेशक अल्लाह सुनने और क़ुबूल करने वाला
है।
4. अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ पुकारने वाले की पुकार को सुनता है और परेशान हाल की दुआओं को क़ुबूल करता है चुनांचे
एक मुक़ाम पर फ़रमाता है:
وَ قَالَ رَبُّكُمُ ادْعُوْنِيْۤ
اَسْتَجِبْ لَكُمْ١ؕ اِنَّ الَّذِيْنَ يَسْتَكْبِرُوْنَ۠ عَنْ عِبَادَتِيْ
سَيَدْخُلُوْنَ جَهَنَّمَ دٰخِرِيْنَ
तुम्हारा रब कहता है मुझे पुकारो,
मैं तुम्हारी दुआईं
क़ुबूल करूंगा, जो लोग घमंड में आकर मेरी इ़बादत से मुंह मोड़ते हैं,
ज़रूर वो ज़लील
और ख़्वार हो कर जहन्नुम में दाख़िल होंगे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: अल मोमिन -60)
और दूसरी जगह इरशाद फ़रमाया:
وَ اِذَا سَاَلَكَ عِبَادِيْ
عَنِّيْ فَاِنِّيْ قَرِيْبٌ١ؕ اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ١ۙ
فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لِيْ وَ لْيُؤْمِنُوْا بِيْ لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُوْنَ
और ऐ नबी! मेरे बंदे अगर तुम से मेरे मुताल्लिक़ पूछें,
तो उन्हें बता
दो के मैं उनसे क़रीब ही हूँ। पुकारने वाला जब मुझ पुकारता है,
मैं उसकी पुकार
सुनता और जवाब देता हूँ। लिहाज़ा उन्हें चाहिए के मेरी दावत पर लब्बैक कहें और मुझ पर
ईमान लाएं। (ये बात तुम उन्हें सुना दो) शायद के वो राहे रास्त पालें। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम: अल बक़रह -186)
और एक जगह अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ इरशाद फ़रमाता है:
اَمَّنْ يُّجِيْبُ الْمُضْطَرَّ
اِذَا دَعَاهُ وَ يَكْشِفُ السُّوْٓءَ
या वो जो बेक़रार की पुकार सुनता है,
जब वो उसे पुकारे
और तकलीफ़ दूर कर देता है,
(तर्जुमा मआनिये क़ुरआने
करीम : नमल- 62)
अलबत्ता दुआ की इस्तिजाबत का एक शरई पहलू भी है। मुसनद अहमद और इमाम बुख़ारी की
अल अदब अल मुफर्रद में रिवायत है के अल्लाह के रसूल (صلى
الله عليه وسلم) ने बयान फ़रमाया:
((ما من مسلم یدعو اللہ ل بدعوۃ لیس فیھا اثم و
لاقطیعۃ رحم الا اعطاہ اللہ بھا احد ثلاث خصال :اما ان یعجل اللہ لہ دعوتہ ، اما
ان یدخرھا لہ فی الاخرۃ و اما یصرف عنہ من السوء مثلھا قالوا اذن نکثر قال: اللہ
اکثر))
जब कोई मुसलमान अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ से दुआ करता है जो किसी गुनाह या क़तअ़ रेहमी की ना हो तो अल्लाह
उसको तीन चीज़़ों में से एक चीज़ ज़रूर अ़ता करता है उसकी दुआ उसी वक़्त क़ुबूल कर लेता
है या इस क़दर उसकी आख़िरत के लिए उठा रखता है,
या उस पर आने वाली
किसी आफ़त को टाल देता है। तो सहाबा ने अ़र्ज़ किया के फिर तो हम और ज़्यादा दुआ किया
करेंगे, हुज़ूर अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया के अल्लाह और ज़्यादा देने
वाला है।
मुसनद अहमद, बुख़ारी (अल अदब अल मुफर्रद) और मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है कि
((لا یزال یستجاب اللعبد ما لم یدع باثم او قطیعۃ رحم
ما لم یستعجل قیل یا رسول اللہ ما الاستعجال؟ قال :یقول قد دعوت و قددعوت فلم ار
یستجاب لی فیتحسر عن ذلک و یدع الدعاء))
अल्लाह बंदे की दुआओं को क़ुबूल करता रहता है जब तक बंदा किसी
गुनाह या क़तअ़ रेहमी की दुआ ना करे और जल्दबाज़ी ना करे। सहाबा رضی اللہ عنھم ने दरयाफ़्त किया “ऐ रसूलुल्लाह (صلى
الله عليه وسلم)! ये जल्दबाज़ी क्या है?” आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमाया “बंदा कहे मैं बार-बार दुआ करता हूँ मगर मेरी दुआ क़ुबूल नहीं होती और
वो मायूस हो कर दुआ करना तर्क कर दे।“
इस से पता चला के ये कोई ज़रूरी नहीं के दुनिया में ही दुआ क़ुबूल हो या इसके असरात
दिखने लगें बल्कि क़ुबूलीयत की सूरतों कई हो सकती हैं जैसे दुनिया में ही मांगी मुराद
मिल जाये या फिर आख़िरत के लिए वो दुआ दाई के लिए ज़ख़ीरा बना दी जाये और इसका अ़ज़ीम अज्र
बेतहाशा सवाब की सूरत में मिले या फिर अल्लाह इसके मिस्ल किसी तकलीफ़़ और परेशानी को
दूर कर दे।
लिहाज़ा अगर हम अल्लाह से सिद्क़े दिल, इख़्लास और इताअ़त और शुक्र गुज़ारी के साथ दुआ करें तब हमें दुआओं
के मक़बूल होने का यक़ीन होगा जैसा के रसूले अकरम
ने बताया है।
इसी तरह अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने ज़िक्र-ओ-अज़कार का भी हुक्म दिया है चुनांचे फ़रमाया
है
فَاذْكُرُوْنِيْۤ۠ اَذْكُرْكُمْ
وَ اشْكُرُوْا لِيْ وَ لَا تَكْفُرُوْنِ
पस तुम मुझे याद रखो,
मैं भी तुम्हें
याद रखूंगा,
(तर्जुमा मआनीये क़ुरआन:
बक़रह-152)
وَ اذْكُرْ رَّبَّكَ فِيْ
نَفْسِكَ تَضَرُّعًا وَّ خِيْفَةً وَّ دُوْنَ الْجَهْرِ مِنَ الْقَوْلِ بِالْغُدُوِّ
وَ الْاٰصَالِ وَ لَا تَكُنْ مِّنَ الْغٰفِلِيْنَ
अपने रब को सुबह और शाम दिल में,
आजिज़ी और ख़ौफ़ के
साथ, और हल्की आवाज़ के साथ याद करो। और एहले ग़फ़्लत में से ना हो। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआनः अल आराफ़-205)
وَ اذْكُرُوا اللّٰهَ كَثِيْرًا
لَّعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ
और अल्लाह को बकसरत याद करते रहो ताके तुम फ़लाह याब हो। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः अल जुमा -10)
يٰۤاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا
اذْكُرُوا اللّٰهَ ذِكْرًا كَثِيْرًاۙ(*) وَّ سَبِّحُوْهُ بُكْرَةً وَّ اَصِيْلًا
ऐ लोगो जो ईमान लाए हो अल्लाह को बकसरत याद करो,
और सुबह ओ शाम
उसकी तस्बीह करते रहो। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआनः अल अहज़ाब- 41,42)
इसी तरह ज़िक्र के ताल्लुक़ से मुतअ़द्दिद (कईं) हदीसें भी वारिद हुई हैं। चुनांचे
हज़रत अबू हुरैराह (رضي
الله عنه) से हदीस कु़दसी मरवी है के अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ फ़रमाता हैः
((أنا عند ظن عبدي بي وأنا معہ
إذا ذکرني، فإن ذکرني في نفسہ ذکرتہ في نفسي، وإن ذکرني في ملأ ذکرتہ في ملأ خیر
منھم، وإن تقرب إلي شبراً تقربت إلیہ ذراعاً، وإن تقرب إلي ذراعاً تقربت إلیہ
باعاً،
وإن أتاني یمشي أتیتہ ھرولۃ))
मैं अपने बंदे के उस गुमान के क़रीब होता हूँ जो वो मेरे बारे में रखता है और मैं
इसके साथ होता हूँ जब वो मुझ को याद करता है। अगर वो मेरा ज़िक्र अपने दिल में करता
है तो मैं भी अपने दिल में उसको याद करता हूँ,
और जब वो लोगों के सामने मेरा ज़िक्र करता है तो मैं इस से बेहतर
गिरोह के सामने इसका तज़्किरा करता हूँ, अगर वोह मुझ से एक बालिश्त क़रीब होता है तो मैं उससे एक हाथ
क़रीब होता हूँ, अगर वो मुझ से एक हाथ क़रीब होता है तो मैं उससे दो हाथ क़रीब
हो जाता हूँ, अगर वोह पैदल मेरे पास आता है तो मैं दौड़ कर उसके पास आता हूँ।
(मुत्तफिक़ अ़लैह)
एक दूसरी रिवायत में हज़रत अबू हुरैराह (رضي
الله عنه) कहते हैं के रसूले अकरम मक्के के किसी रास्ते में थे,
आप एक पहाड़ के पास से गुज़रे जिस को जमदान कहा जाता था। आप (صلى
الله عليه وسلم) ने फरमाया:
(( سیروا، ھذا جمدان سبق
المفردون، قالوا وما المفردون یا رسول اللہ قال: الذاکرون اللہ کثیراً))
“चलते रहो ये जमदान है मुफ़र्रिदून आगे बढ़ गए” सहाबा ने अ़र्ज़
किया ऐ अल्लाह के रसूल मुफ़र्रिूदून कौन हैं आप ने फ़रमाया अल्लाह का ज़िक्र कसरत से करने
वाले मर्द और औरतें।
अ़ल्लामा अलक़राफ़ी ने अपनी किताब अलज़ख़ीरा में लिखा है के हज़रत हसन फ़रमाते हैं के
ज़िक्र की दो अक़साम हैं एक ज़बान से ज़िक्र करना जो अच्छा है लेकिन एक दूसरा ज़िक्र है
जो इस से अफ़ज़ल है और वो ये के किसी भी अ़मल से पहले अल्लाह के अवामिर और नवाही का ख़्याल
रखना। अज़्कारे मासूरा बहुत ज़्यादा हैं लिहाज़ा मज़ीद तफ़्सील के लिए अज़्कार से मुताल्लिक़ा
किताबों से रुजू किया जाये।
इसी तरह इस्तिग़फ़ार भी मंदूब है। अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ फ़रमाता हैः
وَ الْمُسْتَغْفِرِيْنَ
بِالْاَسْحَارِ
और औक़ाते सेहर में बख़्शिश की दुआऐं मांगा करते हैं। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआन:आले इमरानः17)
وَ مَنْ يَّعْمَلْ سُوْٓءًا اَوْ
يَظْلِمْ نَفْسَهٗ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللّٰهَ يَجِدِ اللّٰهَ غَفُوْرًا
رَّحِيْمًا
जो कोई बुराई कर बैठे,
या अपने आप पर
ज़ुल्म करे, फिर अल्लाह से बख़्शिश चाहे,
तो वो अल्लाह को
बख़्शने वाला, निहायत मेहरबान पाऐगा। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अन्निसा-110)
وَ مَا كَانَ اللّٰهُ
لِيُعَذِّبَهُمْ وَ اَنْتَ فِيْهِمْ١ؕ وَ مَا كَانَ اللّٰهُ مُعَذِّبَهُمْ وَ هُمْ
يَسْتَغْفِرُوْنَ۠
और अल्लाह ऐसा नहीं था के तुम उनके दरमियान मौजूद हो और वो उन्हें
अ़ज़ाब देने लग जाये और ना अल्लाह ऐसा है के वो बख़्शिश मांग रहे हों और वो उन्हें अ़ज़ाब
में मुब्तिला कर दे। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने अ़ज़ीम : अनफ़ाल-33)
وَ الَّذِيْنَ اِذَا فَعَلُوْا
فَاحِشَةً اَوْ ظَلَمُوْۤا اَنْفُسَهُمْ ذَكَرُوا اللّٰهَ فَاسْتَغْفَرُوْا۠
لِذُنُوْبِهِمْ١۪ وَ مَنْ يَّغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اللّٰهُ١۪۫ وَ لَمْ
يُصِرُّوْا عَلٰى مَا فَعَلُوْا وَ هُمْ يَعْلَمُوْنَ
और जिन का हाल ये है के जब वो कोई खुला गुनाह कर बैठते हैं या
अपने आप पर सितम कर जाते हैं,
तो अल्लाह को याद
करते हैं, और वो अपने गुनाहों की बख़्शिश चाहने लगते है। और अल्लाह के सिवा
कौन है, जो गुनाहों को बख़्श दे?
और दानिस्ता वो
अपने किए पर अड़े नहीं रहते। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: आले इमरान-135)
और इस ताल्लुक़ से मुतअ़द्दिद अहादीस भी वारिद हैं,
चुनांचे मुस्लिम में हज़रत अबू हुरैराह (رضي
الله عنه) से मरवी है के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं:
((والذي نفسي بیدہ، لو لم
تذنبوا، لذھب اللہ تعالی بکم، ولجاء بقوم یذنبون، فیستغفرون اللہ تعالی، فیغفر
لھم))
क़सम है उस ज़ात की जिस के क़ब्ज़े में मेरी जान है। अगर तुम गुनाह
ना करते तो अल्लाह सुब्हाना سبحانه
وتعالیٰ तुम को ख़त्म कर देता और एक एैसी क़ौम लेकर आता जो गुनाह करती
और अल्लाह से इस्तिग़फ़ार करती और अल्लाह उनको माफ़ करता। (सही मुस्लिम)
))یا ابن آدم إنک ما دعوتني ورجوتني غفرت لک علی ما کان
منک ولا أبالي، یا ابن آدم، لو بلغت ذنوبک عنان السماء لم استغفر تني غفرت لک ولا
أبالي، یا ابن آدم إنک لو أتیتنيبقراب الأرض خطایا ثم لقیتني لا تشرک بي شیئاً
لأتیتک بقرابھا مغفرۃ))
ऐ औलादे आदम! अगर तुम्हारे गुनाह आसमान की बुलंदियों को पहुंच
जाऐें और तुम मुझ से माफ़ी तलब करो तो मैं कुछ परवाह नहीं करूंगा और माफ़ कर दूंगा। ऐ
औलाद ऐ आदम! अगर तू मेरे पास दुनिया के बराबर गुनाहों के साथ आता है और इस हालत में
मुझ से मुलाक़ात करता है के मेरे साथ किसी को शरीक नहीं किया तो मैं इसके बदले दुनिया
के बराबर मग़फ़िरत अ़ता करूंगा। (तिरमिज़ी)
हज़रत अबू सईद ख़ुदरी (رضي
الله عنه) से रिवायत है के रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((قال إبلیس: وعزتک، لا أبرح
أغوي عبادک ما دامت أرواحھم في أجسادھم، فقال: وعزتي وجلالی لا أزال أغفر لھم ما
استغفروني))
इब्लीस ने कहाः ऐ अल्लाह!
तेरी इज़्ज़त की क़सम मैं तेरे बंदों को गुमराह करने में कुछ भी कसर ना छोड़ूंगा जब तक
उनके जिस्मों में जान है। तो अल्लाह سبحانه
وتعالیٰ फ़रमाता हैः मेरी इज़्ज़त और जलाल की क़सम मैं उनको माफ़ करता रहूँगा
जब तक वो इस्तिग़फ़ार और मुझ से माफ़ी तलब करते रहेंगे।
अ़ब्दुल्लाह बिन बसर (رضي
الله عنه) कहते हैं के मैंने रसूले अकरम (صلى
الله عليه وسلم) से सुनाः
((طوبی لمن وجد في صحیفتہ
استغفار کثیر))
ख़ुश ख़बरी है उस शख़्स के लिए जिस ने अपने नामाऐ आमाल में इस्तिग़्फ़ार
को पाया।
हज़रत अबूज़र (رضي
الله عنه) की एक तवील हदीस में है के नबी अकरम (صلى
الله عليه وسلم) ने कहा के
अल्लाह سبحانه وتعالیٰ फ़रमाता हैः
وعن
أبي ذر من حدیث طویل عن النبيا فیما یرویہ عن ربہ عز وجل أنہ قال: (۔۔۔ یا عبادي
إنکم تخطؤن باللیل والنھار، وأنا أغفر والذنوب جمیعاً، فاستغفروني أغفر لکم ۔۔۔))
ऐ मेरे बन्दो! तुम दिन रात ग़लतियाँ और गुनाह करते रहते हो,
मैं तमाम गुनाहों
को माफ़ कर दूंगा। तुम मुझ से इस्तिग़्फ़ार और माफ़ी तलब करते रहो मैं तुम को माफ़ कर दूंगा। (मुस्लिम)
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