ग़ैर-सियासी जमातें खिलाफत के क़याम के फर्ज़ को पूरा नहीं करेगीं !!
इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दोबारा आगाज़ का मतलब है के मुसलमान इस्लाम के तमामतर अहकामात पर अमल की तरफ वापस लौटे, ख्वाह ये अहकामात अक़ाईद व इबादात से मुताल्लिक हो या अख्लाक से मुताल्लिक या मामलात (transactions) और इख्तिसादी (आर्थिक), हुकूमती, माशरती (Social) व तालिमी निज़ाम से मुताल्लिक या दूसरी क़ौमों और रियासतों के बारे में विदेश निती से मुताल्लिक, और मुसलमानों के ईलाको को दारूल इस्लाम में तब्दील किया जाए और उन ईलाको के समाज को इस्लामी समाज बनाया जाए। और ये सब यानी इस्लामी तर्जे ज़िन्दगी का दोबारा नये सिरे से आगाज़ खिलाफत के क़याम के बगैर नही हो सकता, यानी मुसलमानों के लिए एक हुक्मरान खलीफा का तकर्रूर किया जाए जिसे किताबुल्लाह और सुन्नते रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के निफाज़ की शर्त पर इताअत करने की बैअत दी जाए। इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दोबारा आगाज़ की जद्दोजहद को कामयाब बनाने के लिए जरूरी है कि यह जद्दोजहद एक इज्तिमाई अमल हो, और इस बात की कोई गुंजाईश नही के ये इन्फरादी (व्यक्तिगत) हो। क्योंके इन्फरादी अमल के जरिए मकसद का हुसूल नामुमकिन है। और इसलिए भी के एक फर्द की अक्ल और फिक्र, चाहे वोह कितनी ही बुलन्द क्यो ना हो, वोह अकेला इस मक़सद हो हासिल नही कर सकता। लिहाजा़ इसके लिए जमात के साथ मिलकर काम करना लाज़मी है। इसलिए ये बात लाजि़म है के खिलाफत के क़याम और अल्लाह तआला की नाजिलकर्दा शरियत के मुताबिक दोबारा हुकूमत क़ायम करने के लिए इज्तिमाई तौर पर काम किया जाए यानी हिज्ब या जमात या गिरोह की शक्ल में।
और ये भी लाज़मी है के ये इज्तिमाई अमल सियासी नोइय्यत का हो। इसके गैर-सियासी होने की कोई गुंजाईश नही क्योंके खिलाफत का क़याम और खलीफा का तकर्रूर एक सियासी (राजनैतिक) अमल है। उसी तरह अल्लाह तआला के नाजिलकर्दा शरियत के ज़रिए हुकूमत करना भी एक सियासी अमल है और यह सब कुछ सियासी अमल के बगैर मुमकिन ही नही हैं। चुनांचे वोह गिरोह जो गैर-सियासी बुनयाद पर क़ायम होते है, उनका मुसलमानों के कज़ीया मसीरिया (ज़िन्दगी और मौत के मसले) के साथ कोई ताल्लुक नही और ना वोह इस मक़दसद को हकी़क़त का रूप दे सकते है के जिसके हुसूल के लिए अमल करना मुसलमानों पर फर्ज़ है, यानी खिलाफत का क़याम और अल्लाह तआला की नाजि़लकर्दा (शरियत) के मुताबिक हुक्मरानी को दोबारा क़ायम करना। ऐसे गिरोहो की मिसाल दर्जेजे़ल है :-
1 : ऐसी जमातें जो खैराती काम करती हो : मसलन मदारिस और अस्पतालों की तामीर, फक़ीरो और यतीमो और मोहताजो की मदद वगैराह। अगरचे ये काम उन भलाई के कामो में से है जिन्हें करने के लिए इस्लाम ने मुसलमानों को तरगी़ब दिलाई है लेकिन इन कामों का मुसलमनों के कजि़या मसीरिया (ज़िन्दगी और मौत का मसला) से कोई ताल्लुक नही। इनसे वोह गा़यत पूरी करना नामुमकिन है जिसके उसूल के लिए जद्दोजहद करना मुसलमानों पर फर्ज़ है। बल्के ऐसी ज़मात का अपने आपको ऐसे आमाल तक महदूद करना उन्हें ''मा अनज़लल्लाह’’ (अल्लाह के नाजि़लकर्दा अहकामात) के मुताबिक दोबारा हुकूमत के क़याम के फर्ज़ से दूर कर देता है। इसके अलावा जो जमात हमेशा के लिए ऐसे खैराती काम अन्जाम देती है तो गोया वो दाईमी तौर पर लोगों के मामले की देखभाल की जिम्मेदारी को अंजाम देती है, जबके लोगों के मामलात की दाईमी (Permanent) देखभाल हुकूमत के फराईज़ मे से है, ना के अफराद (व्यक्तियो) व ज़मातो के फराईज़ में से। लेकिन अगर ये खैराती काम मुसलसल और मुस्तकिल बुनयादो पर ना तो वोह दाईमी तौर पर लोगों के मामलात की देखभाल के जु़मरे में नही आते। लिहाजा़ इस अन्दाज़ से उनका करना जाईज़ है और अहकामे शरियत की रूह से ये कारे सवाब है अलबत्ता इन कामों का मुसलमानों के कजि़या मसीरिया से कोई ताल्लुक़ नही।
2 : वो गिरोह जो इबादात और सुन्नतो के इल्तजा़म (अहतमाम) की तरफ दावत देते है :- ईबादात और नवाफिल की दावत को इस्लाम ने सराहा है क्योंके यह इस्लाम का जु़ज है, और उस खैर का जुज़ है जिसकी तरफ दावत देने को अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर लाजि़म करार दिया है। अल्लाह तआला फरमाता है : ''और चाहिए के रहे तुममें एक जमात ऐसे लोगों की, जो दावत देते रहे खै़र की तरफ’’ (सूरे आले ईमरान : 164)। मगर दरहकी़क़त इबादात और सुन्नतो की तरफ दावत इस्लाम के एक जुज़ की तरफ दावत है, जबकि दावत तो पूरे के पूरे इस्लाम पर अमल करने के लिए होनी चाहिए, जिसमें अकाईद, ईबादात, अख्लाक, मामलात, नेज़ निजा़मे हुकूमत (ruling system), मईशत (अर्थव्यवस्था) और मआशरत (Social interaction) तालीम, खार्जा़ सियासत (Foreign Policy) और दिगर तमाम शरई अहकामात शामिल है। और सिर्फ इबादत और नवाफिल तक दावत को महदूद रखने का मुसलमानों के कज़ीया मसीरिया से कोई ताल्लुक नही और ना ऐसा करने से वोह गा़यत पूरी हो सकती है जिसके लिए जद्दोजहद करना मुसलमानों पर फर्ज़ है। इसके अलावा इनकी अंजाम देही में जमात की तवज्ज़ो उस जरूरी काम से हट जाती है जिसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किया है के कुफ्रिया कवानीन का खात्मा किया जाए, और ज़िन्दगी, रियासत और मआश्रे में इस्लामी क़वानीन को दोबारा नाफिज़ किया जाए।
3 : वोह जमाते जो इस्लामी किताबो की तालिफ (Publication), इस्लामी सखाफत (Culture) की नशरो इशाअत और वाज़ और ईरशाद के काम सरअन्जाम देती है :- अगरचे इस्लामी सखाफत (संस्कृती) को फैलाने के लिए किताबो की तस्नीफ व तालीफ और वाज़ व ईरशाद (भाषण व तकरीर) आमाले ज़लीला हैं लेकिन ये भी मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल तरीक़ा नही है और ना ये खिलाफत के क़याम, और ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे (समाज) में इस्लाम की दौबारा वापसी का रास्ता है। चुनांचे अगर सियासी तौर पर अफकार (विचारो) का अलम बरदार ना बना जाए ताके उन अफकार पर अमल किया जाए और ज़िन्दगी के मैदान मे उन्हे वजूद बख्शा जाए, तो ये अफकार (विचार) लोगों के ज़हन में मालूमात, और किताबों के पन्नों में महज़ ईल्मी चीज़ की हद तक महदूद होकर रह जाते है। और इस्लामी कुतुबखाने (Library) में ऐसी हजा़रो किताबो से भरी पडी़ है जिनका शुमार इस्लामी सक़ाफत (संस्कृति) की बैशकीमत और उमदा किताबो मे होता है। लेकिन वोह अपनी जगह जामिद (Stagnant) है, जब तक उन अफकार (विचारो) को सियासी अन्दाज़ में ज़िन्दगी में अमली सूरत देने के लिए इख्तियार न किया जाए उस वक्त तक ये अपनी जगह जो के त्यों जा़मिद ही रहेगें।
इसी तरह इस्लाम और उसकी सखाफत की तदरीस के लिए मख्सूस यूनिवर्सिटीयॉ मौजूद है मसलन जामियातुल अज़हर, जे़तूना, अल नज़फ वगैराह, जो इस्लाम और इसकी सखाफत की महज़ बतौर नज़रिया (थ्यौरी) तदरीस में मशगूल है लेकिन ये तालीम व्यवहारिक तौर पर लागू करने के नुख्ताए नज़र से नही दी जाती है। इन यूनिवर्सिटीयो से हर साल हज़ारों ओलमा फारिग होते है लेकिन इनकी हैसियत मुतहर्रीक किताबो से बढकर नही। क्योंके इन्होंने इस्लाम को बतोर नज़रिया (थ्यौरी/theory) तो पडा़ है लेकिन इस पर अमल करने, दुसरो तक पहुचाने और इसें ज़िन्दगी के मामलात, रियासत और मआशरे में लागू करने के लिए नही। लिहाजा़ इसमें हैरत की कोई बात नही के वोह शरई अहकाम और हलाल व हराम के इस्लामी पैमानों को सियासी नज़रियात की बुनयाद नही बनाते। इसी तरह यह भी हैरानकुन नही के वोह इन पैमानो को आमाल और रोज़ मर्रा के वाक्यात व हादसों पर अपनी राय और फैसला देने के लिए बुनयाद भी नही बनाते। और इन्ही जमातो के मनिन्द कुछ ज़मातो ने अपने आमाल को अहादीसे नबवी की तसनीफ व तखरीज़ के काम तक महदूद कर रखा है, तो अगरचे ये एक आमाले जलील है मगर ये खिलाफत के क़याम की वजह नही बनेगा और मुसलमानों की ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल नही करेगा।
4 : वोह जमाते और वोह गिरोह जो अम्र बिल मारूफ (नेकी का हुक्म देने) और नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से मना करने) के लिए क़ायम की जाएं : अमर बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर उन कामों में से है जिसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किये है। इरशादे बारी तआला है : '' और चाहिए के रहे तुममे (हमेशा) एक ज़मात ऐसे लोगों की, जो दावत देते हो भलाई की तरफ, मारूफ का हुक्म देते रहे और मुन्कर से मना करते रहे।'' (सूरे आलेइमरान : 104)
अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर हर हाल में मुसलमानों पर फर्ज़ है चाहे खिलाफत मौजूद हो या ना हो। नेज़ चाहे इस्लामी अहकामात मआशरे या हुक्मरानी में नाफिज़ हा या ना हो। अम्र मिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم के ज़माने में और आप صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफाए राशिदीन के ज़माने में, और उनके बाद आने वालों के अहद में भी मौजूद था। और आखरी ज़माने तक ये काम मुसलमानों पर फर्ज़ रहेगा। लेकिन अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम खिलाफत को क़ायम करने और ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे में इस्लाम को दोबारा लाने का तरीक़ा नही है, अगरचे ये इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी को नये सिरे से आगाज़ के अमल का एक हिस्सा है। क्योंकि इसमें हक्मरानों का मुहासबा, उन्हे भलाई की तरग़ीब और बुराई से मना करना भी शामिल है। लेकिन इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दौबारा आगाज़ का काम अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर के काम से मुख्तलिफ है।
यहॉ इस फर्क को समझना जरूरी है, जो अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर के अमल और मुन्कीरात के खत्म करने के अमल के दरमियान है। अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम सिर्फ कॉल (ज़बान) तक महदूद है जबके मुन्किरात को मिटाने का काम ज़बान तक महदूद नही, बल्के ये ऐसी रियासत की मौजूदगी का मोहताज है जो अहकामे शरिआ को नाफिज़ कर रही हो। पस ऐसी रियासत जो मुन्किरात का खात्मा करे, के क़याम की कोशिश की जाए। अपने आपको अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर तक महदूद रखना मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले को हल करने का तरीक़ा नही है। यहॉ ये जि़क्र करना अहम है के ये दुरूस्त नही के अम्र बिल मारूफ व नहीं अनिल मुन्कर को सिर्फ उन लोगों तक महदूद रखा जाए और हुक्मरानो को अम्रो नही (नसीहत) ना की जाए। बल्के हुक्मरानो को अम्रो नही करना ज़्यादा अहम और जरूरी है, क्योंके हुक्मरानो का मुहासबा (accountability) इस्लाम में इन्तहाई अहम काम है। रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : ''तुम पर ऐसे हुक्मरान मुकर्रर होगें जिनके बाज़ कामों को तुम मारूफ पाओगे और बाश को मुन्कर। तो जिसने नापसन्द किया वोह बरिउलजिम्माह हुआ और जिसने इन्कार किया वोह (गुनाह से) महफूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी हुआ और ताबेदारी की (वोह गुनहगार रहा)’’। (मसनद अहमद) यानी जो बुराई को नापसन्द करे वो उसे मिटा दे और जो उसे मिटाने पर कादिर ना हो और दिल में उस पर इन्कार करे तो वोह भी मेहफूज़ है। लेकिन जो उनके इस फेल पर राजी़ हुआ और उनकी ताबेदारी में इस पर अमल भी किया तो ना वोह बरिउलजिम्माह हुआ और ना महफूज़ रहा। और रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : ''शहीदों के सरदार हमज़ा है और वोह शख्स जिसने जा़लिम हुक्मरान के सामने खडे़ होकर उसे अम्रो नहीं (नसीहत) की तो उसने उसे क़त्ल कर दिया’’। (अल हाकिम फिमुस्तदरख) और आप صلى الله عليه وسلم ने ये भी फरमाया : ''जा़लिम हुक्मरान के सामने हक़ बात कह देना अफजलतरीन जिहाद है।'' (मसनद अहमद)
इसी तरह शरियत ने ये क़रार दिया है के अगर दारूल इस्लाम मौजूद हो और इसके हुक्मरान की तरफ से कुफ्रेबुआ (खुला हुआ कुफ्र) जा़हिर हो जाए यानी वोह कुफ्रिया कवानीन के जरिए हुक्मरानी करने लगे या फिर अपने इलाके में कुफ्र के सर उठाने पर खामोशी इख्तियार किये रखे, जैसा के अगर खलीफा जिना या चोरी या शराब की हद को मन्सूख कर दे या दीन के किसी भी ऐसे हुक्म को मन्सूख कर दे जो के मालूम मिनद्दीन बिज़ जरूराह है, तो ऐसी सूरत में महज़ जुबान से मुहासबा (हिसाब लेने) पर इक्तिफा ना किया जाए, बल्के शरह ने हुक्मरान के खिलाफ किताल करना और उसके खिलाफ अस्लाह (हथियार) उठाना वाजिब बताया है। पस हुक्मरान से तनाजा़ किया जाएगा ताके वोह कुफ्रिया क़वानीन से रूजू कर ले, और अगर वोह उससे रूजू नही करता तो उसके खिलाफ अस्लाह उठाया जाएगा और उससे लडा़ जाएगा ताके उसे हुक्मरानी से हटाया जाए और शरई अहकामात के निफाज़ का ऐलान किया जाए, क्योंके उममे सलमा (रजि0) से मरवी हदीस में है ''. . . . . उन्होंने (यानी सहाबा ने) अर्ज़ किया : या रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم क्या हम इनसे किताल ना करे ? आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : नही जब तक के वोह नमाज़ पढे़’’। और औफ बिन मालिक (रजि0) से मरवी हदीस में है : ''पूछा गया ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم क्या हम उनके साथ तलवार से जंग ना करे? आपने फरमाया : नही जब तक वोह तुम लोगों में नमाज़ क़ायम रखे’’। और नमाज़ को क़ायम रखने से मुराद इस्लाम के तमाम अहकामात को क़ायम रखना है। यहॉ पर जुज़ को बोलकर कुल को मुराद लिया गया है। और अबादा बिन सामित (रजि0) से मरवी हदीस में आया है ''. . . . . और ये के हम उमरा (अमीरों) से ना लडे़, मगर जब तक के तुम कुफ्ररन बुवाहन (खुल्लमखुल्ला कुफ्र) देखो जिसके मुताल्लिक तुम्हारे पास अल्लाह तआला की तरफ से बुरहान (कतई दलील) हो’’। और तिबरानी में ''कुफ्ररन बुवाहन’’ की जगह ''कुफ्ररन सिराहन’’ (वाजे़ कुफ्र) के अल्फाज़ भी आऐ है। और मसनद अहमद की रिवायत मे है ''. . . . (तुम उस वक्त तक उसके खिलाफ किताल ना करो) जब तक वोह खुलेआम तुम्हे गुनाह का हुक्म ना दे’’। ये तमाम अहादीस उस वक्त हुक्मरान के खिलाफ अस्लाह उठाने और उससे जंग करने को फर्ज़ करार देती है, जब वोह ऐसे कुफ्ररन बुवाहन (खुल्लमखुल्ला कुफ्र) का इज़हार करे जिसके बारे में हमारे पास अल्लाह की तरफ से दलील हो, यानी जब वोह काफिराना क़वानीन के जरिए हुकूमत करने लगे। अलबत्ता हुक्मरान के खिलाफ हथियार उठाना और जंग करना उस वक्त फर्ज़ होता है जब वोह दार, दारूल इस्लाम हो, और उसमें इस्लाम के अहकामात नाफिज़ व जा़री हो, और हाकिमे वक्त कुफ्ररन बुवाहन के साथ हुकूमत करना शुरू हो जाए। क्योंके अबादा बिन सामित (रजि0) की हदीस में यू आया है : ''मगर ये के तुम कुफ्रेबुआ देखो’’। और तिबरानी की रिवायत में आया है : ''मगर ये के तुम वाजे़ कुफ्र देखो’’। यानी तुम कुफ्रेबुआ या कुफ्रे सरीह देख लो जिसे तुम पहले नही देखते थे। जिसका मतलब है के पहले तुम पर इस्लाम नाफिज़ था लेकिन फिर हुक्मरान कुफ्रेबुआ या कुफ्रेसरी के जरिए हुक्मरानी करने लगा।
और अगर वो दार, दारूल कुफ्र हो और इस्लामी क़वानीन नाफिज़ ही ना हो, तो फिर मुसलमानों पर (कु्फ्र के साथ) हुकूमत करने वाले हुक्मरान को हटाने के लिए रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم की पैरवी में नुसराह की उस तरीके को इख्तियार किया जाएगा, जिसे आप صلى الله عليه وسلم ने इस्लामी रियासत को क़ायम करने और इस्लामी क़वानीन के निफाज़ के लिए इख्तियार किया था।
5 : वोह गिरोह व जमाते जो समाज की इस्लाह के लिए अच्छे अखलाक की तरफ दावत का काम करती है : अखलाके फाजिला (अच्छे अख्लाक) की तरफ दावत, भलाई की तरफ दावत है जिसका अल्लाह तआला ने मुलसमानों को हुक्म दिया है। अलबत्ता अख्लाक़े फाजिला की दावत, इस्लामी अहकामात में से एक जुज़ पर अमल करने की दावत है, जबके दावत में ये फर्ज़ है के वोह इस्लाम के तमाम अहकामात पर अमल करने की तरफ हो, और उन्हे ज़िन्दगी, हुकूमत और मआशरे में नाफिज़ करने के लिए हो। जबके दावत में ये फर्ज़ है के वोह इस्लाम के तमाम अहकाम पर अमल करने की तरफ हुक्म हो, उन्हे ज़िन्दगी, मआशरे में नाफिज़ करने के लिए हो। नीज़ अखलाके फाजिला की दावत शरियत के उन इन्फिरादी/अहकामात (फर्दे के ज़रिये अमल किये जाने वाले) की दावत है, जिनका ताल्लुक एक फर्द (व्यक्ति) से है। और ये दावत अहकामे आम्मा (इज्तिमाई तौर पर अमल किये जाने वाले अहकाम) की तरफ नही के जिनका ताल्लुक रियासत, कारजा़रे हयात और मआशरे में पूरी उम्मत के साथ होता है। महज़ अखलके फाजिला की तरफ दावत से ना तो समाज की इस्लाह हो सकती है और ना ही उससे उम्मत नहदा यानी निशाते शानिया (पुर्नजागरण या बहतर हालत) हासिल कर सकती है। बल्की समाज की इस्लाह उसमें मौजूद अफकार (विचार) व अहसासात (emotions) की इस्लाह से होती है जो उस समाज पर हावी हो, और उसके साथ-साथ उस निजा़म (व्यवस्था) की इस्लाह से, जो इस मआशरे में नाफिज़ हो।
यानी उस उरफेआम की इस्लाह से, जो समाज में जारी हों। क्योंके मआशरा अफराद (व्यक्ति), उनके अहसासात (emotions) और निजा़म (व्यवस्था) से बनता है और उसकी इस्लाह भी उन्ही कारकों (elements) की इस्लाह से मुमकिन है। यानी अफराद की इस्लाह इस तरीके पर के लोगों के विचार व अहसासात और उन पर लागू व्यवस्था की इस्लाह की जाए।
और ये बात भी है के अखलाक की तरफ दावत से उम्मत निशाते शानिया (तरक़्क़ी) हांसिल नही कर सकती क्योंके जिस चीज़ से निशाते सानिया हासिल होता है वो दरअसल फिक्री बुलन्दी है। यरोप और अमरीका नाहद (तरक्कीयाफता) है, अगरचे ये उनकी निशाते सानिया गै़र-सही है, क्योंके सही निशाते सानिया ऐसी फिक्री बुलन्दी है जिसकी बुनयाद रूहानी हो। लेकिन यूरोप और अमरीका नाहद (तरक्कीयाफता) होने के बावजूद अखलाकी गिरावट में है। वो आला अखलाक़ी मूल्यों से खाली है और चौपायो और हैवानो सी ज़िन्दगी गुजा़र रहे है। नेज़ अखलाके फाज़ला की दावत मुसलमानों के कजीयाए मसीरीया (ज़िन्दगी और मौत का मसला) के हल की तरफ दावत नही है और ना ही ये दावत उस मकसद तक पहुचाने का तरीक़ा है जिसके हुसूल की जद्दोजहद को अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किया है। और वोह मक़सद ये है के खिलाफत को क़ायम किया जाए, रियासत और मआशरे में इस्लाम को दोबारा नाफिज़ किया जाए और इस्लाम को पैगाम के तौर पर दावत व जिहाद के जरिए पूरी दुनिया की तरफ ले जाया जाए।
आला अखलाक़ की तरफ दावत उस भलाई की तरफ दावत में से एक चीज़ की तरफ दावत है के जिसका अल्लाह तआला ने मुलसमानों को हुक्म दिया है लेकिन जैसा कि हमने बयान किया यह इस्लाम के अहकामात के एक हिस्से की तरफ दावत है और ये इस्लाम के तमामतर अहकामात के निफाज़ की दावत नही है पस ये मुसलमानों की ज़िन्दगी और मौत के मसले को हल नही करेगी। इस तमाम से ये वाज़े हो गया के मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल और इसका हदफ का हुसूल, के जिसके लिए जद्दोजहद मुसलमानों पर फर्ज़ है, और वो गायत जिसके हुसूल के लिए कोशिश करना फर्ज़ है, यानी ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे में इस्लामी क़वानीन के दौबारा निफाज़ व इजरा के लिए खिलाफत के क़याम और दावत व जिहाद के ज़रिए पूरे आलम में इस्लाम को पहुचाना, यह सब मुसलमानों के लिए फर्ज़ करार देता है के वोह ऐसी सियासी अहज़ाब (पार्टिया) क़ायम करे जो इस्लामी फिक्र की बुनयाद पर वजूद में आये और सियासी तौर पर खिलाफत के क़याम और अल्लाह के नाजि़लकर्दा अहकाम के दौबारा निफाज़ के लिए काम करे।
इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दोबारा आगाज़ का मतलब है के मुसलमान इस्लाम के तमामतर अहकामात पर अमल की तरफ वापस लौटे, ख्वाह ये अहकामात अक़ाईद व इबादात से मुताल्लिक हो या अख्लाक से मुताल्लिक या मामलात (transactions) और इख्तिसादी (आर्थिक), हुकूमती, माशरती (Social) व तालिमी निज़ाम से मुताल्लिक या दूसरी क़ौमों और रियासतों के बारे में विदेश निती से मुताल्लिक, और मुसलमानों के ईलाको को दारूल इस्लाम में तब्दील किया जाए और उन ईलाको के समाज को इस्लामी समाज बनाया जाए। और ये सब यानी इस्लामी तर्जे ज़िन्दगी का दोबारा नये सिरे से आगाज़ खिलाफत के क़याम के बगैर नही हो सकता, यानी मुसलमानों के लिए एक हुक्मरान खलीफा का तकर्रूर किया जाए जिसे किताबुल्लाह और सुन्नते रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के निफाज़ की शर्त पर इताअत करने की बैअत दी जाए। इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दोबारा आगाज़ की जद्दोजहद को कामयाब बनाने के लिए जरूरी है कि यह जद्दोजहद एक इज्तिमाई अमल हो, और इस बात की कोई गुंजाईश नही के ये इन्फरादी (व्यक्तिगत) हो। क्योंके इन्फरादी अमल के जरिए मकसद का हुसूल नामुमकिन है। और इसलिए भी के एक फर्द की अक्ल और फिक्र, चाहे वोह कितनी ही बुलन्द क्यो ना हो, वोह अकेला इस मक़सद हो हासिल नही कर सकता। लिहाजा़ इसके लिए जमात के साथ मिलकर काम करना लाज़मी है। इसलिए ये बात लाजि़म है के खिलाफत के क़याम और अल्लाह तआला की नाजिलकर्दा शरियत के मुताबिक दोबारा हुकूमत क़ायम करने के लिए इज्तिमाई तौर पर काम किया जाए यानी हिज्ब या जमात या गिरोह की शक्ल में।
और ये भी लाज़मी है के ये इज्तिमाई अमल सियासी नोइय्यत का हो। इसके गैर-सियासी होने की कोई गुंजाईश नही क्योंके खिलाफत का क़याम और खलीफा का तकर्रूर एक सियासी (राजनैतिक) अमल है। उसी तरह अल्लाह तआला के नाजिलकर्दा शरियत के ज़रिए हुकूमत करना भी एक सियासी अमल है और यह सब कुछ सियासी अमल के बगैर मुमकिन ही नही हैं। चुनांचे वोह गिरोह जो गैर-सियासी बुनयाद पर क़ायम होते है, उनका मुसलमानों के कज़ीया मसीरिया (ज़िन्दगी और मौत के मसले) के साथ कोई ताल्लुक नही और ना वोह इस मक़दसद को हकी़क़त का रूप दे सकते है के जिसके हुसूल के लिए अमल करना मुसलमानों पर फर्ज़ है, यानी खिलाफत का क़याम और अल्लाह तआला की नाजि़लकर्दा (शरियत) के मुताबिक हुक्मरानी को दोबारा क़ायम करना। ऐसे गिरोहो की मिसाल दर्जेजे़ल है :-
1 : ऐसी जमातें जो खैराती काम करती हो : मसलन मदारिस और अस्पतालों की तामीर, फक़ीरो और यतीमो और मोहताजो की मदद वगैराह। अगरचे ये काम उन भलाई के कामो में से है जिन्हें करने के लिए इस्लाम ने मुसलमानों को तरगी़ब दिलाई है लेकिन इन कामों का मुसलमनों के कजि़या मसीरिया (ज़िन्दगी और मौत का मसला) से कोई ताल्लुक नही। इनसे वोह गा़यत पूरी करना नामुमकिन है जिसके उसूल के लिए जद्दोजहद करना मुसलमानों पर फर्ज़ है। बल्के ऐसी ज़मात का अपने आपको ऐसे आमाल तक महदूद करना उन्हें ''मा अनज़लल्लाह’’ (अल्लाह के नाजि़लकर्दा अहकामात) के मुताबिक दोबारा हुकूमत के क़याम के फर्ज़ से दूर कर देता है। इसके अलावा जो जमात हमेशा के लिए ऐसे खैराती काम अन्जाम देती है तो गोया वो दाईमी तौर पर लोगों के मामले की देखभाल की जिम्मेदारी को अंजाम देती है, जबके लोगों के मामलात की दाईमी (Permanent) देखभाल हुकूमत के फराईज़ मे से है, ना के अफराद (व्यक्तियो) व ज़मातो के फराईज़ में से। लेकिन अगर ये खैराती काम मुसलसल और मुस्तकिल बुनयादो पर ना तो वोह दाईमी तौर पर लोगों के मामलात की देखभाल के जु़मरे में नही आते। लिहाजा़ इस अन्दाज़ से उनका करना जाईज़ है और अहकामे शरियत की रूह से ये कारे सवाब है अलबत्ता इन कामों का मुसलमानों के कजि़या मसीरिया से कोई ताल्लुक़ नही।
2 : वो गिरोह जो इबादात और सुन्नतो के इल्तजा़म (अहतमाम) की तरफ दावत देते है :- ईबादात और नवाफिल की दावत को इस्लाम ने सराहा है क्योंके यह इस्लाम का जु़ज है, और उस खैर का जुज़ है जिसकी तरफ दावत देने को अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर लाजि़म करार दिया है। अल्लाह तआला फरमाता है : ''और चाहिए के रहे तुममें एक जमात ऐसे लोगों की, जो दावत देते रहे खै़र की तरफ’’ (सूरे आले ईमरान : 164)। मगर दरहकी़क़त इबादात और सुन्नतो की तरफ दावत इस्लाम के एक जुज़ की तरफ दावत है, जबकि दावत तो पूरे के पूरे इस्लाम पर अमल करने के लिए होनी चाहिए, जिसमें अकाईद, ईबादात, अख्लाक, मामलात, नेज़ निजा़मे हुकूमत (ruling system), मईशत (अर्थव्यवस्था) और मआशरत (Social interaction) तालीम, खार्जा़ सियासत (Foreign Policy) और दिगर तमाम शरई अहकामात शामिल है। और सिर्फ इबादत और नवाफिल तक दावत को महदूद रखने का मुसलमानों के कज़ीया मसीरिया से कोई ताल्लुक नही और ना ऐसा करने से वोह गा़यत पूरी हो सकती है जिसके लिए जद्दोजहद करना मुसलमानों पर फर्ज़ है। इसके अलावा इनकी अंजाम देही में जमात की तवज्ज़ो उस जरूरी काम से हट जाती है जिसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किया है के कुफ्रिया कवानीन का खात्मा किया जाए, और ज़िन्दगी, रियासत और मआश्रे में इस्लामी क़वानीन को दोबारा नाफिज़ किया जाए।
3 : वोह जमाते जो इस्लामी किताबो की तालिफ (Publication), इस्लामी सखाफत (Culture) की नशरो इशाअत और वाज़ और ईरशाद के काम सरअन्जाम देती है :- अगरचे इस्लामी सखाफत (संस्कृती) को फैलाने के लिए किताबो की तस्नीफ व तालीफ और वाज़ व ईरशाद (भाषण व तकरीर) आमाले ज़लीला हैं लेकिन ये भी मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल तरीक़ा नही है और ना ये खिलाफत के क़याम, और ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे (समाज) में इस्लाम की दौबारा वापसी का रास्ता है। चुनांचे अगर सियासी तौर पर अफकार (विचारो) का अलम बरदार ना बना जाए ताके उन अफकार पर अमल किया जाए और ज़िन्दगी के मैदान मे उन्हे वजूद बख्शा जाए, तो ये अफकार (विचार) लोगों के ज़हन में मालूमात, और किताबों के पन्नों में महज़ ईल्मी चीज़ की हद तक महदूद होकर रह जाते है। और इस्लामी कुतुबखाने (Library) में ऐसी हजा़रो किताबो से भरी पडी़ है जिनका शुमार इस्लामी सक़ाफत (संस्कृति) की बैशकीमत और उमदा किताबो मे होता है। लेकिन वोह अपनी जगह जामिद (Stagnant) है, जब तक उन अफकार (विचारो) को सियासी अन्दाज़ में ज़िन्दगी में अमली सूरत देने के लिए इख्तियार न किया जाए उस वक्त तक ये अपनी जगह जो के त्यों जा़मिद ही रहेगें।
इसी तरह इस्लाम और उसकी सखाफत की तदरीस के लिए मख्सूस यूनिवर्सिटीयॉ मौजूद है मसलन जामियातुल अज़हर, जे़तूना, अल नज़फ वगैराह, जो इस्लाम और इसकी सखाफत की महज़ बतौर नज़रिया (थ्यौरी) तदरीस में मशगूल है लेकिन ये तालीम व्यवहारिक तौर पर लागू करने के नुख्ताए नज़र से नही दी जाती है। इन यूनिवर्सिटीयो से हर साल हज़ारों ओलमा फारिग होते है लेकिन इनकी हैसियत मुतहर्रीक किताबो से बढकर नही। क्योंके इन्होंने इस्लाम को बतोर नज़रिया (थ्यौरी/theory) तो पडा़ है लेकिन इस पर अमल करने, दुसरो तक पहुचाने और इसें ज़िन्दगी के मामलात, रियासत और मआशरे में लागू करने के लिए नही। लिहाजा़ इसमें हैरत की कोई बात नही के वोह शरई अहकाम और हलाल व हराम के इस्लामी पैमानों को सियासी नज़रियात की बुनयाद नही बनाते। इसी तरह यह भी हैरानकुन नही के वोह इन पैमानो को आमाल और रोज़ मर्रा के वाक्यात व हादसों पर अपनी राय और फैसला देने के लिए बुनयाद भी नही बनाते। और इन्ही जमातो के मनिन्द कुछ ज़मातो ने अपने आमाल को अहादीसे नबवी की तसनीफ व तखरीज़ के काम तक महदूद कर रखा है, तो अगरचे ये एक आमाले जलील है मगर ये खिलाफत के क़याम की वजह नही बनेगा और मुसलमानों की ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल नही करेगा।
4 : वोह जमाते और वोह गिरोह जो अम्र बिल मारूफ (नेकी का हुक्म देने) और नहीं अनिल मुन्कर (बुराई से मना करने) के लिए क़ायम की जाएं : अमर बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर उन कामों में से है जिसे अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किये है। इरशादे बारी तआला है : '' और चाहिए के रहे तुममे (हमेशा) एक ज़मात ऐसे लोगों की, जो दावत देते हो भलाई की तरफ, मारूफ का हुक्म देते रहे और मुन्कर से मना करते रहे।'' (सूरे आलेइमरान : 104)
अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर हर हाल में मुसलमानों पर फर्ज़ है चाहे खिलाफत मौजूद हो या ना हो। नेज़ चाहे इस्लामी अहकामात मआशरे या हुक्मरानी में नाफिज़ हा या ना हो। अम्र मिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم के ज़माने में और आप صلى الله عليه وسلم के बाद खुलफाए राशिदीन के ज़माने में, और उनके बाद आने वालों के अहद में भी मौजूद था। और आखरी ज़माने तक ये काम मुसलमानों पर फर्ज़ रहेगा। लेकिन अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम खिलाफत को क़ायम करने और ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे में इस्लाम को दोबारा लाने का तरीक़ा नही है, अगरचे ये इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी को नये सिरे से आगाज़ के अमल का एक हिस्सा है। क्योंकि इसमें हक्मरानों का मुहासबा, उन्हे भलाई की तरग़ीब और बुराई से मना करना भी शामिल है। लेकिन इस्लामी तर्जे़ ज़िन्दगी के दौबारा आगाज़ का काम अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर के काम से मुख्तलिफ है।
यहॉ इस फर्क को समझना जरूरी है, जो अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर के अमल और मुन्कीरात के खत्म करने के अमल के दरमियान है। अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर का काम सिर्फ कॉल (ज़बान) तक महदूद है जबके मुन्किरात को मिटाने का काम ज़बान तक महदूद नही, बल्के ये ऐसी रियासत की मौजूदगी का मोहताज है जो अहकामे शरिआ को नाफिज़ कर रही हो। पस ऐसी रियासत जो मुन्किरात का खात्मा करे, के क़याम की कोशिश की जाए। अपने आपको अम्र बिल मारूफ और नहीं अनिल मुन्कर तक महदूद रखना मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले को हल करने का तरीक़ा नही है। यहॉ ये जि़क्र करना अहम है के ये दुरूस्त नही के अम्र बिल मारूफ व नहीं अनिल मुन्कर को सिर्फ उन लोगों तक महदूद रखा जाए और हुक्मरानो को अम्रो नही (नसीहत) ना की जाए। बल्के हुक्मरानो को अम्रो नही करना ज़्यादा अहम और जरूरी है, क्योंके हुक्मरानो का मुहासबा (accountability) इस्लाम में इन्तहाई अहम काम है। रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : ''तुम पर ऐसे हुक्मरान मुकर्रर होगें जिनके बाज़ कामों को तुम मारूफ पाओगे और बाश को मुन्कर। तो जिसने नापसन्द किया वोह बरिउलजिम्माह हुआ और जिसने इन्कार किया वोह (गुनाह से) महफूज़ रहा। लेकिन जो राज़ी हुआ और ताबेदारी की (वोह गुनहगार रहा)’’। (मसनद अहमद) यानी जो बुराई को नापसन्द करे वो उसे मिटा दे और जो उसे मिटाने पर कादिर ना हो और दिल में उस पर इन्कार करे तो वोह भी मेहफूज़ है। लेकिन जो उनके इस फेल पर राजी़ हुआ और उनकी ताबेदारी में इस पर अमल भी किया तो ना वोह बरिउलजिम्माह हुआ और ना महफूज़ रहा। और रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : ''शहीदों के सरदार हमज़ा है और वोह शख्स जिसने जा़लिम हुक्मरान के सामने खडे़ होकर उसे अम्रो नहीं (नसीहत) की तो उसने उसे क़त्ल कर दिया’’। (अल हाकिम फिमुस्तदरख) और आप صلى الله عليه وسلم ने ये भी फरमाया : ''जा़लिम हुक्मरान के सामने हक़ बात कह देना अफजलतरीन जिहाद है।'' (मसनद अहमद)
इसी तरह शरियत ने ये क़रार दिया है के अगर दारूल इस्लाम मौजूद हो और इसके हुक्मरान की तरफ से कुफ्रेबुआ (खुला हुआ कुफ्र) जा़हिर हो जाए यानी वोह कुफ्रिया कवानीन के जरिए हुक्मरानी करने लगे या फिर अपने इलाके में कुफ्र के सर उठाने पर खामोशी इख्तियार किये रखे, जैसा के अगर खलीफा जिना या चोरी या शराब की हद को मन्सूख कर दे या दीन के किसी भी ऐसे हुक्म को मन्सूख कर दे जो के मालूम मिनद्दीन बिज़ जरूराह है, तो ऐसी सूरत में महज़ जुबान से मुहासबा (हिसाब लेने) पर इक्तिफा ना किया जाए, बल्के शरह ने हुक्मरान के खिलाफ किताल करना और उसके खिलाफ अस्लाह (हथियार) उठाना वाजिब बताया है। पस हुक्मरान से तनाजा़ किया जाएगा ताके वोह कुफ्रिया क़वानीन से रूजू कर ले, और अगर वोह उससे रूजू नही करता तो उसके खिलाफ अस्लाह उठाया जाएगा और उससे लडा़ जाएगा ताके उसे हुक्मरानी से हटाया जाए और शरई अहकामात के निफाज़ का ऐलान किया जाए, क्योंके उममे सलमा (रजि0) से मरवी हदीस में है ''. . . . . उन्होंने (यानी सहाबा ने) अर्ज़ किया : या रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم क्या हम इनसे किताल ना करे ? आप صلى الله عليه وسلم ने फरमाया : नही जब तक के वोह नमाज़ पढे़’’। और औफ बिन मालिक (रजि0) से मरवी हदीस में है : ''पूछा गया ऐ अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم क्या हम उनके साथ तलवार से जंग ना करे? आपने फरमाया : नही जब तक वोह तुम लोगों में नमाज़ क़ायम रखे’’। और नमाज़ को क़ायम रखने से मुराद इस्लाम के तमाम अहकामात को क़ायम रखना है। यहॉ पर जुज़ को बोलकर कुल को मुराद लिया गया है। और अबादा बिन सामित (रजि0) से मरवी हदीस में आया है ''. . . . . और ये के हम उमरा (अमीरों) से ना लडे़, मगर जब तक के तुम कुफ्ररन बुवाहन (खुल्लमखुल्ला कुफ्र) देखो जिसके मुताल्लिक तुम्हारे पास अल्लाह तआला की तरफ से बुरहान (कतई दलील) हो’’। और तिबरानी में ''कुफ्ररन बुवाहन’’ की जगह ''कुफ्ररन सिराहन’’ (वाजे़ कुफ्र) के अल्फाज़ भी आऐ है। और मसनद अहमद की रिवायत मे है ''. . . . (तुम उस वक्त तक उसके खिलाफ किताल ना करो) जब तक वोह खुलेआम तुम्हे गुनाह का हुक्म ना दे’’। ये तमाम अहादीस उस वक्त हुक्मरान के खिलाफ अस्लाह उठाने और उससे जंग करने को फर्ज़ करार देती है, जब वोह ऐसे कुफ्ररन बुवाहन (खुल्लमखुल्ला कुफ्र) का इज़हार करे जिसके बारे में हमारे पास अल्लाह की तरफ से दलील हो, यानी जब वोह काफिराना क़वानीन के जरिए हुकूमत करने लगे। अलबत्ता हुक्मरान के खिलाफ हथियार उठाना और जंग करना उस वक्त फर्ज़ होता है जब वोह दार, दारूल इस्लाम हो, और उसमें इस्लाम के अहकामात नाफिज़ व जा़री हो, और हाकिमे वक्त कुफ्ररन बुवाहन के साथ हुकूमत करना शुरू हो जाए। क्योंके अबादा बिन सामित (रजि0) की हदीस में यू आया है : ''मगर ये के तुम कुफ्रेबुआ देखो’’। और तिबरानी की रिवायत में आया है : ''मगर ये के तुम वाजे़ कुफ्र देखो’’। यानी तुम कुफ्रेबुआ या कुफ्रे सरीह देख लो जिसे तुम पहले नही देखते थे। जिसका मतलब है के पहले तुम पर इस्लाम नाफिज़ था लेकिन फिर हुक्मरान कुफ्रेबुआ या कुफ्रेसरी के जरिए हुक्मरानी करने लगा।
और अगर वो दार, दारूल कुफ्र हो और इस्लामी क़वानीन नाफिज़ ही ना हो, तो फिर मुसलमानों पर (कु्फ्र के साथ) हुकूमत करने वाले हुक्मरान को हटाने के लिए रसूल्लाह صلى الله عليه وسلم की पैरवी में नुसराह की उस तरीके को इख्तियार किया जाएगा, जिसे आप صلى الله عليه وسلم ने इस्लामी रियासत को क़ायम करने और इस्लामी क़वानीन के निफाज़ के लिए इख्तियार किया था।
5 : वोह गिरोह व जमाते जो समाज की इस्लाह के लिए अच्छे अखलाक की तरफ दावत का काम करती है : अखलाके फाजिला (अच्छे अख्लाक) की तरफ दावत, भलाई की तरफ दावत है जिसका अल्लाह तआला ने मुलसमानों को हुक्म दिया है। अलबत्ता अख्लाक़े फाजिला की दावत, इस्लामी अहकामात में से एक जुज़ पर अमल करने की दावत है, जबके दावत में ये फर्ज़ है के वोह इस्लाम के तमाम अहकामात पर अमल करने की तरफ हो, और उन्हे ज़िन्दगी, हुकूमत और मआशरे में नाफिज़ करने के लिए हो। जबके दावत में ये फर्ज़ है के वोह इस्लाम के तमाम अहकाम पर अमल करने की तरफ हुक्म हो, उन्हे ज़िन्दगी, मआशरे में नाफिज़ करने के लिए हो। नीज़ अखलाके फाजिला की दावत शरियत के उन इन्फिरादी/अहकामात (फर्दे के ज़रिये अमल किये जाने वाले) की दावत है, जिनका ताल्लुक एक फर्द (व्यक्ति) से है। और ये दावत अहकामे आम्मा (इज्तिमाई तौर पर अमल किये जाने वाले अहकाम) की तरफ नही के जिनका ताल्लुक रियासत, कारजा़रे हयात और मआशरे में पूरी उम्मत के साथ होता है। महज़ अखलके फाजिला की तरफ दावत से ना तो समाज की इस्लाह हो सकती है और ना ही उससे उम्मत नहदा यानी निशाते शानिया (पुर्नजागरण या बहतर हालत) हासिल कर सकती है। बल्की समाज की इस्लाह उसमें मौजूद अफकार (विचार) व अहसासात (emotions) की इस्लाह से होती है जो उस समाज पर हावी हो, और उसके साथ-साथ उस निजा़म (व्यवस्था) की इस्लाह से, जो इस मआशरे में नाफिज़ हो।
यानी उस उरफेआम की इस्लाह से, जो समाज में जारी हों। क्योंके मआशरा अफराद (व्यक्ति), उनके अहसासात (emotions) और निजा़म (व्यवस्था) से बनता है और उसकी इस्लाह भी उन्ही कारकों (elements) की इस्लाह से मुमकिन है। यानी अफराद की इस्लाह इस तरीके पर के लोगों के विचार व अहसासात और उन पर लागू व्यवस्था की इस्लाह की जाए।
और ये बात भी है के अखलाक की तरफ दावत से उम्मत निशाते शानिया (तरक़्क़ी) हांसिल नही कर सकती क्योंके जिस चीज़ से निशाते सानिया हासिल होता है वो दरअसल फिक्री बुलन्दी है। यरोप और अमरीका नाहद (तरक्कीयाफता) है, अगरचे ये उनकी निशाते सानिया गै़र-सही है, क्योंके सही निशाते सानिया ऐसी फिक्री बुलन्दी है जिसकी बुनयाद रूहानी हो। लेकिन यूरोप और अमरीका नाहद (तरक्कीयाफता) होने के बावजूद अखलाकी गिरावट में है। वो आला अखलाक़ी मूल्यों से खाली है और चौपायो और हैवानो सी ज़िन्दगी गुजा़र रहे है। नेज़ अखलाके फाज़ला की दावत मुसलमानों के कजीयाए मसीरीया (ज़िन्दगी और मौत का मसला) के हल की तरफ दावत नही है और ना ही ये दावत उस मकसद तक पहुचाने का तरीक़ा है जिसके हुसूल की जद्दोजहद को अल्लाह तआला ने मुसलमानों पर फर्ज़ किया है। और वोह मक़सद ये है के खिलाफत को क़ायम किया जाए, रियासत और मआशरे में इस्लाम को दोबारा नाफिज़ किया जाए और इस्लाम को पैगाम के तौर पर दावत व जिहाद के जरिए पूरी दुनिया की तरफ ले जाया जाए।
आला अखलाक़ की तरफ दावत उस भलाई की तरफ दावत में से एक चीज़ की तरफ दावत है के जिसका अल्लाह तआला ने मुलसमानों को हुक्म दिया है लेकिन जैसा कि हमने बयान किया यह इस्लाम के अहकामात के एक हिस्से की तरफ दावत है और ये इस्लाम के तमामतर अहकामात के निफाज़ की दावत नही है पस ये मुसलमानों की ज़िन्दगी और मौत के मसले को हल नही करेगी। इस तमाम से ये वाज़े हो गया के मुसलमानों के ज़िन्दगी और मौत के मसले का हल और इसका हदफ का हुसूल, के जिसके लिए जद्दोजहद मुसलमानों पर फर्ज़ है, और वो गायत जिसके हुसूल के लिए कोशिश करना फर्ज़ है, यानी ज़िन्दगी, रियासत और मआशरे में इस्लामी क़वानीन के दौबारा निफाज़ व इजरा के लिए खिलाफत के क़याम और दावत व जिहाद के ज़रिए पूरे आलम में इस्लाम को पहुचाना, यह सब मुसलमानों के लिए फर्ज़ करार देता है के वोह ऐसी सियासी अहज़ाब (पार्टिया) क़ायम करे जो इस्लामी फिक्र की बुनयाद पर वजूद में आये और सियासी तौर पर खिलाफत के क़याम और अल्लाह के नाजि़लकर्दा अहकाम के दौबारा निफाज़ के लिए काम करे।
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