अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद पहला अब्बासी ख़लीफ़ा है। उसकी शासन-अवधि मात्र चार साल है। यह सारा समय विरोधियों को कुचलने और नई हुकूमत को मज़बूत बनाने में गुज़रा। ख़लीफ़ा ने इराक़ में शहर अंबार को अपनी राजधानी बनाई और 134 हि./751 ई. में उस शहर के निकट हाशमिया के नाम से नया शहर बताया।
चीनियों से दारुल इस्लाम की जंग
इतिहासकारों ने अब्दुललाह बिन मुहम्मद की बुद्धि, विवेक और अख़लाक़ (सदाचार) की प्रशंसा की है। उनके दौर की एक महत्वपूर्ण घटना जिसे मुसलमान इतिहासकारों ने महत्व दिया, जंगे तालास है। यह जंग राजधानी से बहुत दूर तुर्किस्तान की पूर्वी सीमा पर मुसलमानों और चीनियों के बीच 751 ई. में हुई थी। चीनियों ने मुसलमानों की घरेलू लडा़ई से फ़ायदा उठाकर तुर्किस्तान पर क़ब्ज़ा करने की अन्तिम बार कोशिश की थी, परन्तु इस तालास की जंग में हारने के बाद हमेशा के लिए तुर्किस्तान से हाथ धो बैठे।
खलीफा मंसूर का न्याय और शासन व्यवस्था (136 हि./751 ई. से 158 हि./775 ई.)
मंसूर ने बाईस साल हुकूमत की और खिलाफ़ते अब्बासिया की जडो़ं को मज़बूत कर दिया। मंसूर बडा़ योग्य शासक था। वह विरोधियों के साथ कठोरता से पेश आता था, परन्तु आम प्रजा के लिए वह न्यायप्रिय ख़लीफ़ा था। वह अपना पूरा समय प्रशासन के कामों पर ख़र्च करता था। उसने हुक्म दे रखा था कि जिसे भी हाकिमों (गवर्नरों) से कष्ट पहुँचे वह बिना रोक-टोक उससे शिकायत कर सकता है। वह स्वयं सादा जीवन व्यतीत करता था। एक बार उसकी लौंडी ने उसके शरीर पर पैवन्द लगे हुए कपडे़ देखकर कहा, ''ख़लीफ़ा और पैवन्द लगा हुआ कुर्ता !'' मंसूर ने उसके जवाब में एक शेर पढा़ जिसका अर्थ यह है – ''मर्द उस हालत में इज़्ज़त हासिल कर लेता है कि उसकी चादर पुरानी होती है और उसकी क़मीज़ में पैवन्द लगा होता है।''
बगदाद – दुनिया का अपने वक्त का सबसे बडा शहर
मंसूर का एक बडा़ कारनामा बग़दाद की बुनियाद डालना है। ख़ुलफाए राशिदीन की राजधानी मदीना थी, बनी उमय्या का दमिश्क़। मंसूर ने बनी अब्बास की राजधानी बनाने के लिए दजला नदी के किनारे एक नया शहर आबाद किया जो बग़दाद के नाम से मशहूर हुआ। आगे चलकर बग़दाद ने ऐसी तरक़्क़ी की कि वह दुनिया का सबसे बडा़ शहर बन गया। उसकी आबादी बीस लाख से ज़्यादा हो गई। कहा जाता है कि अपने चरम विकास के ज़माने में बग़दाद में सतरह हज़ार हम्माम (स्नानगृह) उससे ज़्यादा मसजिदें और दस हज़ार सड़कें और गलियॉं थीं।
मंसूर के काल में रूमियों से पुन: लडा़इयॉं शुरू हो गई, जिनमें मुसलमानों को कामयाबी हुई और 155 हि./772 ई. में मंसूर ने रूम के कै़सर (बादशाह) को जिज़्या देने पर मज़बूर कर दिया। मंसूर का शासनकाल ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी के लिहाज़ से भी अग्रणी है।
शिक्षा व्यवस्था
बनी उमय्या के समय में शिक्षा अधिकतर ज़बानी दी जाती थी और किताबें लिखने का रिवाज ज़्यादा नहीं हुआ था। मंसूर के समय में पुस्तक-लेखन का काम विधिवत प्रारंभ हो गया। वह पहला ख़लीफ़ा है जिसने सुरयानी, यूनानी, फ़ारसी और संस्कृत में लिखी हुई किताबों का अरबी में अनुवाद करवाया। ये किताबें आम तौर पर गणित, चिकित्सा-शास्त्र, दर्शन और खगोलशास्त्र से सम्बन्धित थीं। इस प्रकार मुसलमानों ने मंसूर के दौर में ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी की ओर एक अहम क़दम उठाया।
महदी (158 हि./775 ई. से 169 हि./785 ई.)
मंसूर के बाद उसका लड़का मुहम्मद महदी ख़लीफ़ा हुआ। कर्त्तव्यनिष्ठ हुक्मरॉं था। इतिहासकारों ने लिखा है – ''महदी सूरत और सीरत (चरित्र) दोनों लिहाज़ से अच्छा था। वह प्रजा में प्रिय था। अत्याचारों की रोकथाम, हत्या एवं रक्तपात से बचना, न्याय एवं इन्साफ़ और पुरस्कार एवं दान ने उसको प्रजा में लोकप्रिय बना दिया था।'' महदी के आदेश से मक्का, मदीना, यमन, बग़दाद और दूसरे बडे़-बडे़ शहरों के बीच उँटों और ख़च्चरों के माध्यम से डाक-व्यवस्था क़ायम की गई और पूरी सल्तनत में कुछ रोगियों की देखभाल का सरकारी तौर पर इंतिज़ाम किया गया। महदी ने ख़ानए काबा और मसजिदे नबवी का विस्तार भी कराया।
खलीफा के ज़रिये इस्लामी अक़ीदे की हिफाज़त
मंसूर के दौर में दूसरी ज़बानों से विभिन्न धर्मो की किताबों के जो अनुवाद किए गए थे उनके कारण मुसलमानों की आस्थाऍं प्रभावित होने लगीं थीं और एक ऐसा वर्ग पैदा होना शुरू हो गया था जो केवल ऊपर से मुसलमान था, परन्तु अन्दर से वह इस्लाम और इस्लामी हुकूमत की बुनियाद खोद रहा था। उन लोगों को इतिहासकारों ने ‘जिदीक़’ लिखा है। महदी ने जिन्दीकियों के अक़ीदों के खण्डन और इस्लाम के पक्ष में किताबें लिखवाई और इस प्रकार उसने इस्लामी आस्थाओं की रक्षा की।
खलीफा हारून अल-रशीद और इस्लाम का सुनहरा दौर
अब्बासी ख़लीफ़ाओं में सबसे अधिक प्रसिद्धि हारून रशीद को मिली। उसका 23 वर्षीय शासनकाल अब्बासी खिलाफ़त का सुनहरा दौर समझा जाता है। उस समय बग़दाद विकास की चरम सीमा पर था। सम्पन्नता और ख़ुशहाली आम थी और ज्ञान एवं कला की घर-घर चर्चा थी। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के लिए हारून रशीद का दौर मिसाली हैसियत रखता है। हारून रशीद में बहुत से गुण थे और वह बडा़ दीनदार, शरीअत का पाबन्द, ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी चाहने वाला और आलिमों-विद्वानों को प्रोत्साहित करने वाला था। प्रत्येक दिन सौ रकअत नमाज़ नफ़्ल पढ़ता और एक हज़ार दिरहम ग़रीबों में बॉंटता था। उसे जिहाद का शौक़ था और शहादत की तमन्ना थी। वह एक साल हज करता और एक साल जिहाद। वह आलिमों और नेक लोगों की बडी़ इज़्ज़त करता था और जब वे उसकी ग़लतियों पर टोकते या कोई उसकी आलोचना करते तो वह बुरा नहीं मानता और अपनी ग़लतियॉं स्वीकार कर लेता था।
खलीफा हारून का तक़वा (अल्लाह का डर)
एक बार एक बुज़ुर्ग इब्न समाक से हारून ने नसीहत करने को कहा। उन्होंने कहा ''ख़ुदा से डर और इस बात पर यक़ीन रख कि कल तुझे ख़ुदा के सामने हाजिर होना है और वहॉं जन्नत और दोज़ख में से एक मक़ाम इख्तियार करना है।'' यह सुनकर हारून इतना रोया कि दाढी़ ऑंसुओं से तर हो गई। यह देखकर हारून के हाजिब (दरबान) फ़जल बिन रबीअ ने कहा – ''अमीरूल मोमिनीन ख़ुदा के आदेशों को पूरा करते हैं और उसके बंदों के साथ इन्साफ करते हैं। इसके बदले में इंशा अल्लाह ज़रूर जन्नत में जाऍंगे।'' इस पर इब्न समाक (रह0) ने हारून रशीद से कहा – ''अमीरूल मोमिनीन! उस दिन फ़जल आपके साथ न होंगा, इसलिए ख़ुदा से डरते रहिए अपने अमल की देखभाल कीजिए।'' यह सुनकर हारून फिर रोने लगा। इसी प्रकार बार एक बुज़ुर्ग फ़ुज़ैल बिन अयाज़ (रह0) ने उससे कहा – ''ऐ हसीन चेहरे वाले! तू इस उम्मत का जिम्मेदार है। तुझ ही से इसके बारे में पूछा जाएगा।'' हारून यह सुनकर रोने लगा।
किताबुल खिराज और बैतुल हिकमत (Home of Knowledge)
हारून रशीद के चीफ़ जस्टिस (क़ाज़ी) अबू यूसुफ़ थे। सल्तनत में तमाम क़ाजियों की नियुक्ति वही करते थे। मरने से पहले उन्होंने लोगों को गवाह बनाकर कहा – ''ऐ ख़ुदा! तू जानता है कि मैने तेरे बंदों में कोई ऐसा हुक्म जारी नहीं किया जो क़ुरआन व सन्नत पर आधारित न हो और मैने अपनी जिन्दगी में हराम का एक दिरहम भी नहीं लिया और न किसी के साथ बेइन्साफ़ी और ज़्यादती की।'' क़ाज़ी साहब ख़लीफ़ा तक के खिलाफ़ फ़ैसला दे देते थे। खलीफा हारून ने क़ाज़ी साहब से एक किताब लिखवाई थी, ताकि उसमें ऐसे तरीक़े बताए जाऍं जिनसे प्रजा पर ज़ुल्म न हो सके और नाजायज़ तरीक़े से उनसे महसूल (टैक्स) न वसूल किया जा सके। उनकी इस किताब का नाम 'किताबुल-खिराज' है। जब यह किताब पूरी हो गई तो हारून रशीद इसी के अनुसार हुकूमत करने लगा। दूसरी भाषाओं की किताबों के अरबी अनुवाद के जिस काम को मंसूर ने शुरू किया था हारून ने उसे ज़्यादा तरक़्क़ी दी और इस उद्देश्य से 'बैतुल-हिकमत' के नाम से एक संस्था स्थापित की जिसमें काम करने वाले आलिमों और अनुवादकों को बडी़-बडी़ तनख्वाहें दी जाती थीं।
रोम की इसाई ताक़त को खलीफा ने सबक़ सिखाया और दारुल इस्लाम की सरहदों की हिफाज़त की
रूमियों से चूँकि मुसलमानों की निरन्तर लडा़इयॉं होती रहती थीं इसलिए हारून रशीद ने इस्लामी सल्तनत को रूमियों के अचानक हमलों से सुरक्षित रखने के लिए एशियाए कोचक की सरहदों पर किले बनवाए और शाम (सीरिया) के समुद्री तटों के किनारे छावनियॉं स्थापित कीं। इस सिलसिले में हारून रशीद का रूम पर हमला इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। ये रूमी अब्बासी खिलाफ़त की इताअत करते थे और उन्हें खिराज देते थे। हारून रशीद के काल में रूमी बादशाह सक़फ़ोर ने न केवल खिराज देने से इन्कार कर दिया, बल्कि हारून रशीद से पिछले सालों में वसूल किया हुआ खिराज वापस करने की मॉंग भी करने लगा। हारून ने जब उसका पत्र देखा तो ग़ुस्से से लाल-पीला हो गया और उसने जवाब में लिखा – ''ऐ रूमी कुत्ते! तू इसका जवाब सुनेगा नहीं बल्कि आँखों से देखेगा।'' यह जवाब भेजकर हारून ने एक ज़बरदस्त फ़ौज लेकर हमला किया और रूमियों को ऐसी शिकस्त दी कि वे फिर से खिराज देने लगे। इस अभियान के दौरान हारून ने 'क़ौनिया' और 'अनक़रह' के शहर भी फ़तह कर लिए थे।
बरामिका (आले बरमक)
अब्बासियों के काल में ख़लीफ़ओं ने पहली बार अपनी मदद और सलाह-मशविरा के लिए वज़ीर (मंत्री/minister) का पद क़ायम किया। पहले बनी उमय्या के ज़माने में वज़ीर का पद नहीं था। हारून के ज़माने में यह्या और उसके बेटे फ़ज़ल और जाफ़र बडे़ मशहूर वज़ीर हुए हैं। ये लोग चूँकि बरमक नामी व्यक्ति की औलाद में से थे, इसलिए बरामिका नाम से मशहूर है। बरामिका वंश के ऐतबार से ईरानी थे। बरामिका से ज़्यादा दानशील और मुक्त हस्त वज़ीर इतिहास में बहुत कम हुए हैं। उनकी दानशीलता की प्रसिद्धि सारी दुनिया में फैल गई थी। वह कभी किसी की मॉंग रद्द नहीं करते थे। हारून को विशेषकर जाफ़र बरमकी से बहुत प्रेम था। वे कभी एक-दूसरे से जुदा नहीं होते थे। हारून रशीद का नियम था कि वह भेस बदलकर रातों को बग़दाद की सड़कों और गलियों में घूमा करता था, ताकि लोगों के हालात मालूम करे। उसके साथ जाफ़र बरमकी और एक ग़ुलाम मसरूर भी जाते थे। इन गश्तों में कभी-कभी बड़ी दिलचस्प घटनाऍं घटती थीं, जो इतिहास में दर्ज हैं।
खुदमुख्तार कही जाने वाली मुस्लिम रियासतें भी इस्लामी खिलाफत का हिस्सा थी
मंसूर के बाद मराकश का इलाक़ा अब्बासी खिलाफ़त से आज़ाद हो गया था। हारून रशीद के ज़माने में एक और इलाक़ा जो अफ्रीक़ा कहलाता था और मौजूदा तराबुलुस (Tripolis), तूरिस (Tunis) और अल-ज़जायर (Algiers) जिसमें आते हैं, वह किसी हद तक ख़ुद-मुख़तार हो गया। परन्तु अब्बासी खिलाफ़त को स्वीकार करती थी और हर साल नियमित रूप से खिराज दिया करती थी जो इसका सबूत था कि यह हुकूमत अब्बासी खिलाफ़त का एक हिस्सा है।
अग़लिबी ख़ानदान की यह हुकूमत 184 हि./800 ई. से 296 हि./909 ई. तक यानी एक सौ साल से ज़्यादा क़ायम रही। इसकी राजधानी क़ैरवान (Kairavan) थी जिसकी बुनियाद अक़बा बिन नाफ़े ने डाली थी। अग़लबी ख़ानदान के शासनकाल में क़ैरवान ज्ञान एवं कला का उत्तरी अफ्रीक़ा में सबसे बडा़ केन्द्र बन गया था। लेकिन अग़लिबी हुकूमत का सबसे बडा़ कारनामा सक़लिया द्वीप की फ़तह और जल सेना की तरक़्क़ी है। इस दौर में न केवल यह कि सक़लिया द्वीप जीता गया, बल्कि दक्षिणी इटली पर भी मुसलमानों का अधिपत्य हो गया। अग़लिबी हुकूमत का समुद्री बेडा़ इतना शक्तिशाली हो गया था कि पश्चिमी रूम सागर में कोई उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था।
मामून रशीद (198 हि./818 ई. से 218 हि./833 ई.)
हारून रशीद के बाद यदि किसी और अब्बासी ख़लीफ़ा का दौर हारून के दौर का मुक़ाबला कर सकता है, तो वह मामून राशीद का शासनकाल है। मामून के दौर की एक अहम घटना 'सक़लिया' और 'क्रेट' (Crete) द्वीपों की फ़तह है। सक़लिया क़ैरवान के अग़लिबी हुक्मरानों की कोशिशों से फ़तह हुआ और क्रेट द्वीप अंदलुस (स्पेन) से निकली हुई मुसलमानों की एक जमाअत ने फ़तह किया। मामून रशीद के दौर की एक और विशेषता यह है कि उसके ज़माने में तुर्को में इस्लाम तेज़ी से फैलना शुरू हुआ। अशरोसना और काबुल के हुक्मरानों ने इसी ज़माने में इस्लाम क़बूल किया।
मामून रशीद को न्याय (इन्साफ़) का बडा़ ख़्याल रहता था। वह हर रविवार को सुबह से ज़ुह तक ख़ुद प्रजा की शिकायतें सुनता था। उसकी अदालत में एक मामूली आदमी शहज़ादों तक से अपना हक़ ले सकता था। एक बार एक ग़रीब बूढी़ औरत ने दावा किया कि मामून के लड़के अब्बास ने उसकी जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लिया है। जब मुक़दमा पेश हुआ तो मामून ने अब्बास को बुढिया के पास खडा़ करके दोनों के बयान लिए। शहज़ादा बाप के आदर के कारण धीरे-धीरे बोलता था और बुढिया की आवाज़ बुलन्द थी। प्रधानमंत्री अहमद बिन अबी ख़ालिद ने इस पर बुढिया को रोका तो अमीरूल मोमिनीन के सामने ऊँची आवाज़ में बोलना अदब के खिलाफ़ है, परन्तु मामून ने उसे रोका और कहा कि वह जिस तरह कहती है कने दो। हक़ ने उसकी आवाज़ बुलन्द कर दी है और अब्बास को गूँगा कर दिया है। दोनों के बयान सुनने के बाद मामून ने बुढिया के हक़ में फ़ैसला किया और उसकी जायदाद वापस कर दी।
मामून की न्यायप्रियता की और भी बहुत सी घटनाऍं बहुत प्रसिद्ध हैं। एक बार एक व्यक्ति ने उस पर बीस हज़ार का दावा किया। मामून को क़ाज़ी की अदालत में हाजिर होना पडा़। नौकरों ने उसके लिए अदालत में क़ालीन बिछा दिया। चीफ़ जस्टिस (क़ाज़ी उल-क़ज़ाह) ने यह देखा तो नौकरों को रोक दिया और कहा कि अदालत में दावा करने वाला और अपराधी दोनों बराबर हैं। किसी को विशेष सुविधा नहीं दी जा सकती। मामून ने जब क़ाज़ी का ऐसा इन्साफ़ देखा तो उसकी तनख़्वाह बढा़ दी। अब हर आदमी अंदाज़ा कर सकता है कि जिस ज़माने में ऐसे हिम्मतवाले क़ाज़ी (जज) हों और ऐसे इन्साफ़पसंद ख़लीफ़ा हो तो आम लोग कैसे चैन और अमन की जिन्दगी गुज़ारते रहे होंगे।
मामून के स्वभाव में हद से ज़्यादा सादगी और नम्रता भी, घमण्ड लेशमात्र भी न था। अपने साथियों और दरबारियों में बडी़ सादगी और सहजता से रहता था। उसके दौर के प्रसिद्ध चीफ़ जस्टिस यह्या बिन अकसम का बयान है कि एक रात मुझे मामून के पास सोने का संयोग हुआ। आधी रात गए मुझे प्यास लगी, पानी पीने के लिए उठा। मामून की नज़र पड़ गई। पूछा ''क़ाज़ी साहब क्या बात है?'' ''अमीरूल मोमिनी! प्यास लगी है।'' क़ाज़ी ने जवाब दिया। मामून यह सुनकर उठा और ख़ुद जाकर पानी ले आया। इस पर क़ाज़ी साहब ने कहा – ''अमीरूल मोमिनी! नौकरों को क्यों नहीं आवाज़ दी।'' ''सब सो रहे है।'' मामून ने कहा। ''तो मैं ख़ुद जाकर पानी पी लेता।'' क़ाज़ी साहब ने कहा। ''यह बुरी बात है कि आपने मेहमान से काम लिया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया है कि क़ौम का सरदार उनका ख़ादिम (सेवक) है।'' मामून ने जवाब दिया।
मामून रशीद को प्रशासन व्यवस्था का इतना ख़याल था कि वह अपनी विस्तृत सल्तनत की हर चीज़ और हर काम से वाकिफ रहना चाहता था। उसने इस मक़सद के लिए सारे मुल्क में जासूस नियुक्त कर रखे थे, जो ज़रा ज़रा सी बात की ख़लीफ़ा को सूचना देते थे। सिर्फ़ बग़दाद में इस काम के लिए सतरह सौ औरतें नियुक्त थीं जो उसे गुप्त सूचनाऍं पहुँचाती रहती थीं। ज्ञान एवं कला के विकास के लिए मामून रशीद की कोशिशें इतिहास के सुनहरे अध्याय हैं। वह ख़ुद भी एक बडा़ आलिम था। ख़लीफ़ाओं में उसके बराबर कोई दूसरा आलिम नहीं हुआ। वह हाफिजे़ क़ुरआन था और धार्मिक ज्ञान से परिपूर्ण होने के अलावा उसे खगोलशास्त्र और गणित से बडी़ दिलचस्पी थी। उसने गणितज्ञों एवं खगोलशास्त्रियों की मदद से दो बार भूमण्डल को नपवाया। दूसरी भाषा से अनुवाद को काम मामून रशीद के काल में चरम पर पहँच गया। वह अनुवाद करने वालों को अनुवाद की हुई किताबों के वज़न के बराबर चॉंदी या सोना इनाम में दिया करता था। मामून रशीद का 48 साल की उम्र में इंतिक़ाल हुआ। उसने बीस साल हुकूमत की।
मोतसिम (218 हि./833 ई. से 227 हि./842 ई.)
मामून के बाद उसका भाई मोतसिम बिल्लाह तख़्त पर बैठा। मोतसिम के ज़माने में फ़ौजी ताक़त में बडी़ वृद्धि हुई और उसने इस मक़सद के लिए तुर्को की फ़ौज तैयार की। मोतसिम के दौर की सबसे प्रसिद्ध घटना रूम पर हमला है। किस्सा यह है कि मोतसिम दरबार में बैठा हुआ था कि उसे मालूम हुआ कि रूमियों ने सरहद पर हमला करके बहुत से मुसलमानों को क़ैद कर लिया है। उन क़ैदियों में एक बूढी़ औरत भी थी, जो गिरफ्तार होने पर उसका नाम लेकर मदद को पुकार रही थी। मोतसिम ने यह सुना तो उससे सब्र न हो सका। तुरन्त लश्कर को तैयार होने का हुक्म दिया। इस मौक़े पर एक ज्योतिषी ने हिसाब लगाकर बताया कि यह समय अशुभ है, अत: लश्कर की रवानगी रोक दीजिए। परन्तु मोतसिम नहीं माना और हमला कर दिया। उसकी फ़ौजों ने एशियाए कोचक को रौंद डाला और उस वक़्त तक वापस नहीं लौटा जब तक उस बुढिया को मुक्त न करा लिया।
मोतसिम के दौर की एक दूसरी अहम घटना 'बाबक ख़रमी' की बग़ावत का ख़ात्मा है। बाबक ख़रमी एक गै़र-मुस्लिम ईरानी था और उसने एक ऐसा आन्दोलन शुरू किया था जिसका मक़सद मुसलमानों को गुमराह और दीन से दूर करना था। इस इस्लाम-दुश्मन आन्दोलन के द्वारा उसने बहुत से ईरानियों को अपने साथ मिला लिया था और गीलान और आज़रबाईजान के पहाडी़ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। बाबक ख़रमी की यह बग़ावत मामून रशीद के ज़माने ही में शुरू हो गई थी। इसे आखिरकार मुतसिम ने कुचला। बाबक गिरफ़्तार कर लिया गया और क़त्ल कर दिया गया। मोतसिम के बग़दाद से उत्तर में तक़रीबन 75 मील दूर दजला नदी के किनारे 'सामरा' के नाम से एक शहर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इस शहर ने बडी़ तरक़्क़ी की और अपनी शानदार इमारतों और ख़ूबसूरती में बग़दाद का मुक़ाबला करने लगा। सामरा 221 हि./836 ई. से 279 हि./892 ई. तक राजधानी रही, उसके बाद बग़दाद पुन: राजधानी बन गई।
मुतवक्किल (232 हि./847 ई. से 247 हि./861 ई.)
मोतसिम के बाद उसका लड़का वासिक़ और उसके बाद वासिक़ का भाई मुतवक्किल खिलाफ़त के तख़्त पर बैठा। उसके दौर में ख़ुशहाली आम थी और चीज़ें बहुत सस्ती मिलती थीं। मुतवक्किल नर्म स्वभाव का था।
मोतजिद (279 हि./892 ई. से 289 हि./902 ई.)
जिस ख़लीफ़ा ने सबसे ज़्यादा काम किए वह मोफिक़ का बेटा मोतजिद है जो मोतमिद के बाद तख़्ते खिलाफ़त पर बैठा। मोतजिद ने शान्ति-व्यवस्था क़ायम करने के सिलसिले में काफ़ी कठोरता से काम लिया, परन्तु उसके साथ ही साथ उसने मुसलमानों की नैतिक एवं वैचारिक सुधार की भी कोशिश की। वह निजी तौर पर दीनदार इन्सान था। उसने ज्योतिषों को सड़कों पर बैठने से मना कर दिया। दर्शनशास्त्र (फलसफा) की उन किताबों पर, जो मुसलमानों में गुमराही फैला रही थीं, पाबंदी लगा दी। ईरानी आतिशपरस्तों से प्रभावित होकर कुछ मुसलमानों में भी ग़लत रस्म-रिवाज पैदा हो गई थीं, मोतजिद ने इस रस्म को आदेश देकर बन्द कर दिया।
टेक्स व्यवस्था
मोतजिद के ज़माने में कोई नया टैक्स नहीं लगाया गया। पुराने टैक्स भी कम कर दिए गए, परन्तु इसके बावजूद अब्बासी हुकूमत का बजट इतना अच्छा हो गया था कि ख़र्च के बाद एक बडी़ रक़म बच जाती थी। मोतजिद के बाद एक के बाद एक उसके तीन लड़के मुक्तफ़ी बिल्लाह, मोक़्तदिर बिल्लाह और क़ाहिर बिल्लाह के नाम से तख़्त पर बैठे। मुक्तफ़ी अच्छा हुक्मरान था। उसके उत्तराधिकारी मुक़्तदिर बिल्लाह ने पच्चीस साल हुकूमत की।
इस्लामी दावत व्यवस्था
मुक़्तदिर बिल्लाह के दौर की एक विशेष घटना बुलग़ार में इस्लाम का प्रसार है। बुलग़ार रूस में वाल्गा नदी के किनारे उस जगह जहॉं अब शहर 'काज़ान' आबाद है, तुर्को का एक शहर था। जहॉं के हुक्मरान ने इस्लाम क़बूल करने के बाद एक प्रतिनिधि मंडल बग़दाद भेजा ताकि वह बुलग़ार के इलाक़े में इस्लाम के प्रसार और मुलसमानों को शिक्षा देने के मामले में ख़लीफ़ा से मदद मॉंगे। मुक़्तदिर बिल्लाह ने उनकी मॉंग स्वीकार करते हुए इब्ने फ़ुज़लान के नेतृत्त्व में एक जमाअत बुलग़ार भेजी।
बग़दाद का उत्थान (उरूज) – 2
अब्बासी खिलाफ़त का ज़माना मुसलमानों की सभ्यता और संस्कृति के उत्थान (उरूज/बुलन्दी) का ज़माना है। अब्बासी खिलाफ़त हालॉंकि बनी उमय्या की खिलाफ़त के मुक़ाबले में कम विस्तृत थी, क्योंकि अन्दलुस (स्पेन) और मराकश अब्बासियों के प्रभुत्व से बाहर थे, लेकिन इसके बावजूद अब्बासी खिलाफ़त दुनिया की सबसे बडी़ सल्तनत या सियासी संगठन था। कहा जाता है कि एक बार हारून रशीद ने बादल के एक टुकडे़ को गुज़रते हुए देखकर कहा, ''तू चाहे कहीं चला जा, लेकिन बरसेगा मेरी ही सल्तनत के अन्दर।'' यह कुछ इस किस्म की बात है, जैसी मौजूदा शताब्दी के प्रांरभ में अंग्रेजी सल्तनत के सम्बन्ध में कही जाती थी कि सूरज अंग्रेजी सल्तनत में कहीं नही डूबता।
अब्बासियों का सबसे बडा़ कारनामा यह है कि उन्होंने मुल्क की ख़शहाली में बढो़तरी की और ज्ञान एवं कला का विकास किया। अब्बासी खिलाफ़त की सीमा में अरब, ईरानी, तुर्क, रूमी, मिस्री, हबशी, बर्बर और हिन्दुस्तानी यानी अनगिनत क़ौमें निवास करती थीं। इन तमाम क़ौमों के मेलजोल से एक नई सभ्यता ने जन्म लिया जो अपने समय की सबसे उत्कृष्ट एवं विकसित सभ्यता थी और हालॉंकि इस मेलजोल के कारण मुसलमान ग़ैर-इस्लामी मूल्यों से प्रभावित हुए, परन्तु अधिपत्य इस्लामी मूल्यों का रहा, जिसके कारण यह सभ्यता एक इस्लामी सभ्यता कहलाती है। मुसलमानों ने शाम (सीरिया), मिस्र और एशियाए कोचक का बडा़ हिस्सा रूमियों से ले लिया था, परन्तु रूमी सल्तनत उस प्रकार ख़त्म नहीं हुई थी, जिस प्रकार ईरानी सल्तनत ख़त्म हो गई थी। इसके कारण मुसलमानों से उनकी लडा़इयॉं होती रहती थीं। उनका एक बडा़ फ़ौजी कारनामा यह है कि उन्होंने रूमियों का इतनी शिकस्त दी कि अन्तत: उन्होंने मुसलमानों का अधिपत्य स्वीकार कर लिया और हर साल 'खिराज' देने लगे।
अब्बासी खिलाफ़त एक शुद्ध अरब खिलाफ़त नहीं थी। इस दौर में ईरानी, तुर्क और दूसरी क़ौमें भी विभिन्न हैसियतों से हुकूमत में सम्मिलित हो गई। ख़लीफ़ा और उसका ख़ानदान अरब था, प्रशासन-व्यवस्था में ईरानियों का ज़ोर था और फ़ौज में तुर्को की अधिकता थी। इन क़ौमों को ख़लीफ़ा का हित प्यारा था। इनके अन्दर एकता की बुनियाद इस्लाम ने ही डाली थी और ख़लीफ़ा इस्लाम ही के नाम पर काम करता था। इसलिए हम कह सकते हैं कि अब्बासी खिलाफ़त अरब खिलाफ़त नहीं, बल्कि इस्लामी खिलाफ़त थी।
इस्लामी दुनिया में ग़ुलामों के साथ सद्व्यवहार किया जाता था और यह ग़ुलाम उच्च से उच्च पदों पर पहँचते थे और लौंडियॉं हुक्मरानों की माऍं बन जातीं थीं। मामून रशीद और मोतसिम जैसे महान हुक्मरान लौंडियों के पेट से जन्मे थे।
चित्रकला
संगीत और चित्रकारी ने भी इस काल में सरकारी सरपरस्ती में तरक़्क़ी की। जानदार चीज़ों की तस्वीर बनाना, बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) के सदृश्य होने के कारण इस्लाम ने वर्जित क़रार दिया था। इसी लिए मुसलमान चित्रकारों और कलाकारों ने अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए जानदारन चीज़ों के चित्र के बदले ख़ुशनवीसी (सुलेख) करने, बेलबूटे और प्राकृतिक दृश्यों का चित्र बनाने की ओर ज़्यादा ध्यान दिया। अब्बासी खिलाफ़त के बाद इस कला का बहुत विकास हुआ और यह मुसलमानों की विशेष कला के रूप में जानी जाने लगी।
पुलिस विभाग और इंस्पेक्टर जनरल
कातिब और हाजिब के पद उस दौर में ही क़ायम थे। पुलिस विभाग भी क़ायम था। इसका सबसे उच्च अधिकारी साहिबे शुरता कहलाता था, जिसे आज के परिभाषिक शब्द में इन्सपेक्टर जेनरल पुलिस कहा जा सकता है। शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने के अतिरिक्त आम जनता के आचरण और चाल-चलन की निगरानी, मंडियों और बाज़ारों में वस्तुओं की क़ीमतों पर नज़र रखना और नाप-तौल की निगरानी भी साहिबे शुरता की जिम्मेदारी थी। शराबनोशी, जुआ और इसी प्रकार की अन्य सामाजिक बुराईयों की रोकथाम भी साहिबे शुरता के ही कर्त्तव्य में सम्मिलित थी। हुक्मरान क़ाजियों के फ़ैसले में हस्तक्षेप नहीं करते थे। महदी ने अपने महल में एक अलग अदालत क़ायम की थी और आम एलान करवाया था कि जिसके हाथ कोई अन्याय हुआ हो वह उसके सामने मुक़दमा पेश करे। एक बार क़ाज़ी ने ख़ुद महदी के खिलाफ़ भी फ़ैसला दिया था। हारून रशीद के ज़माने में अदालती व्यवस्था उस समय ज़्यादा व्यवस्थित हो गई थी जब क़ाज़ी अबू यूसुफ़ को ख़लीफ़ा की पूरी सल्तनत का प्रधान क़ाज़ी (चीफ़ जस्टिस) बनाया गया। उस समय से क़ाजियों के लिए एक विशेष पोशाक जिसमें जुब्बा और अमामा होते थे, निर्धारित किया गया। हर दस सिपाही पर एक अरीफ़ और सौ पर एक क़ाइद होता था। सौ सिपाहियों का दस्ता 'जमाअत' और दस जमाअत का दल 'करदोस' कहलाता था। फ़ौजी संगठन और फ़ौज की तादाद मोतसिम के ज़माने में सबसे ज़्यादा थी।
नेज़ा (भाला), तलवार, तीर-कमान, ख़ोद (सिर में पहनने वाला सुरक्षा कवच), जिरह और मिनजनीक़ (गोले दाग़ने वाला हथियार) ख़ास हथियार थे। घेराव के समय मिनजनीक़ के अलावा जो गाडियॉं इस्तेमाल की जाती थीं वे 'अरादे', 'दबाबे' और 'कबाश' कहलाती थीं। उन्हें किले या चार दीवारी दरवाज़ा को टक्कर मारकर तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। घेराव के दौरान पिचकारी से एक प्रकार का तेल जो 'नफ़त' कहलाता था, फ़ेका जाता, उसके बाद अंगारे और आग फेकी जाती थीं जिससे दुश्मन के किले में आग लग जाती थी। इंजीनियरों की एक बडी़ जमाअत जो 'महंदसीन' कहलाती थी, हर घेराव में फ़ौज के साथ होती थी। हथियार और घोडे़ आम तौर पर सरकारी ख़ज़ाने से उपलब्ध कराए जाते थे।
अब्बासी काल में समुद्री बेडा़ बहुत मज़बूत था, परन्तु समुद्री शक्ति के असली मालिक क़ैरवान के अग़लिबी हुक्मरान थे जिन्होंने न केवल सक़लिया टापू को फ़तह किया था बल्कि जिनका बेडा़ मध्य रूम सागर की सबसे बडी़ ताक़त बन गया था।
इस काल में कृषि में भी तरक़्क़ी हुई। महदी के ज़माने में ज़मीनों के मापने और उसकी व्यवस्था करने वाला विभाग क़ायम हुआ और पूरी सल्तनत की ज़मीनों को मापा गया। कोशिश यह होती थी कि किसानों के साथ अन्याय न हो सके, इन पर टैक्स ज़्यादा न हो और इसकी वसूली में ज़ुल्म और जब्र से काम न लिया जाए। हारून रशीद ने क़ाज़ी अबू यूसुफ़ से 'किताबुल-खिराज' इसी उद्देश्य के लिए लिखवाई थी। मिस्र और इराक़ में उस समय दुनिया का सबसे बडा़ 'जल संसाधन विभाग' क़ायम था। जिस प्रकार मिस्र को 'तोहफ़-ए-नील' (नीद नदी का तोहफ़ा) कहा जाता है उसी प्रकार इराक़ दजला और फ़ुरात का पुरस्कार है। इराक़ और मिस्र के इस जल संसाधन व्यवस्था की अब्बासी काल में न केवल पहले की भॉंति पूरी-पूरी देखभाल की गई बल्कि नई-नई नहरें निकालकर उसका विस्तार भी किया गया। मिस्र और इराक़ के अतिरिक्त ख़ूजिस्तान, सीसतान और मरू के क़रीब मरग़ाब नदी की वादी में भी नहरों द्वारा सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी जिसने इन इलाक़ो को इराक़ और मिस्र की तरह दुनिया के सबसे हरे-भरे और उपजाऊ क्षेत्रों में बदल दिया था। बसरा अपनी खजूरों के लिए और ख़ूजिस्तान अपने गन्ने और शकर के लिए सारी दुनिया में मशहूर था। नींबू और संतरे की खेती उसी काल में इस्लामी दुनिया में शुरू हुई। ये फल हिनदुसतान से लाए गए थे।
चौथी सदी हिजरी के प्रसिद्ध पर्यटक मुक़द्दसी ने इराक़ के बारे में, जो अब्बासी खिलाफ़त का हृदय समझा जाता था, लिखा है – ''यह सुसभ्य, सुसंस्कृत लोगों और आलिमों का केन्द्र है। इसमें वह विशाल शहर बसरा है जिसे दुनिया कहा जा सकता है। यहीं बग़दाद है जिसकी सारी दुनिया में प्रशंसा होती है। यहीं कूफ़ा और सामरा जैसे सुन्दर और महत्वपूर्ण शहर बसाए गए। इराक़ में गर्व करने लायक़ इतनी चीज़ें है़ कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। इस्लामी दुनिया की राजधानी बग़दाद भी इराक़ में थी। इसे 'सलामती का शहर' कहा जाता था। मक़द्दसी ने बग़दाद की प्रशंसा में लिखा है – ''यहॉं के नागरिक अच्छी पोशाक पहनने वाले और सभ्य हैं। वे सुबुद्धि और विवेकशील हैं। उनमें ज्ञान की गंभीरता है। हर बढिया और उत्तम चीज़ यहॉं है। हर कला और ज्ञान के विशेषज्ञ यहॉं से निकलते हैं। यह शहर हर प्रकाश के फ़ैशन का घर है।''
ख़लीफ़ा मंसूर ने शहर को दजला के पश्चिमी तट पर गोलाकर रूप में आबाद किया था। चारों तरफ फ़सील थी जिसमें चार दरवाज़े थे। यानी बाबुल-कूफ़ा, बाबुल-बसरा, बाबुल-शाम और बाबुल-ख़ुरासान। शहर एक बाक़ायदा नक़्शे के तहत आबाद किया गया था। मध्य में शाही महल और जामा मस्जिद थी और यहॉं से हर दिशा में सीधी-सीधी सड़कें निकलती थीं। बाद में शहर पूर्वी तट पर भी फैल गया। शहर के दोनों हिस्सों को मिलाने के लिए दरिया पर कश्ती के कई पुल थे। नहरों की अधिकता के कारण पानी की कमी नहीं थी और बागों-उद्यानों की बहुलता थी। जहॉं नहरों के गन्दे होने की संभवना थी वहॉं उन्हें ऊपर से ढक दिया गया था। कर्ख़ का मुहल्ला जो चार मील लम्बा और दो मील चौडा़ था, न केवल बग़दाद का बल्कि दुनिया का सबसे बडा़ व्यापारिक केन्द्र था। यहॉं हर चीज़ के बाज़ार अलग-अलग थे। कागज़ और किताबों के बाज़ार भी थे। बग़दाद में कपडा़ उद्योग बहुत विकसित था। वहॉं के कारीगर विभिन्न प्रकार के रेशमी कपडे़, बारीक मलमल और ऊनी चादरें बनाने में बडे़ प्रसिद्ध थे। मलमल सुन्दरता और बारीकी में अपनी मिसाल आप थी। यह कहावत मशहूर थी कि यदि किसी को सुन्दर और बारीक कपडे़ की ज़रूरत हो तो इराक़ पहँचे। गहने, चमडे़, सुगंधित तेल, इत्र, साबुन और शीशा उद्योग ने बग़दाद में विशेष रूप से तरक़्की की थी। बग़दाद में बाग़ों की अधिकता, शानदार महलों और कोठियों के अलावा पोलो खेलने का मैदान भी था और बाद में एक चिडियाघर भी बन गया था।
कूफ़ा – रेशमी, सूती और ऊनी कपडो़ं के लिए प्रसिद्ध था। विशेषकर यहॉं के अमामे यानी पगडियॉं सारी इस्लामी दुनिया में पसंद की जाती थीं। वाद्ययन्त्र, हथियार, ज़ेवर और चमडे़ के उद्योग भी तरक़्क़ी पर थे। मिट्टी के बरतन और गुलदान, जिन पर तरह तरह के बेलबूटे बने होते थे, का उद्योग कूफ़ा का प्रमुख उद्योग था। मुक़द्दसी ने लिखा है – ''यहॉं का पानी अच्छा, इमारतें सुन्दर, बाज़ार शानदार और चारों ओर खजूर के बाग़ हैं और सबसे सही अरबी भाषा कूफ़ा में बोली जाती है।'' अब्बासी खिलाफ़त के उत्थान काल में कूफ़ा शहर बग़दाद के समान समझा जाता था।
बसरा – बसरा वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था। पूर्वी क्षेत्र का सारा माल बसरा के रास्ते इराक़ में आता था। यहॉं के व्यापारी दुनिया के हर हिस्से में पाए जाते थे। वे तमाम चीजे़ं जिनके लिए कूफ़ा मशहूर था, बसरा में भी बनाई जाती थीं।
इराक़ में उद्योग – इराक़ के दूसरे उद्योग जो बग़दाद, बसरा और कूफ़ा लगभग हर शहर में मौजूद थे निम्नलिखित है –
क़ालीन उद्योग - क़ालीन ऊनी होते थे। यह क़ालीन फ़र्श पर बिछाने के अलावा दीवारों पर लटकाए भी जाते थे।
शीशा उद्योग – आईना निर्माण और शीशे के बरतनों के उद्योग ने भी अब्बासी काल में बडी़ तरक़्क़ी की। हालॉंकि शीशा उद्योग का सबसे बडा़ केन्द्र शाम (सीरिया) था लेकिन इराक़ में भी यह उद्योग तरक़्क़ी पर था और यहॉं के बनाए हुए क़ंदील, झाड़-फ़ानूस और जाम (गिलास) दूर-दूर तक जाते थे।
लकडी़ उद्योग – लकडी़ उद्योग में कश्ती बनाना सबसे प्रमुख उद्योग था। इराक़ के बढ़ई 36 प्रकार की कश्ती बनाते थे। उबल्ला कश्ती निर्माण का सबसे बडा़ केन्द्र था।
इराक़ के शहरों के अलावा क़ैरवान, स्कंदरिया, फिस्तात, दिमिश्क, इस्फ़हान, रै, नेशापुर, हरात, बुख़ारा, ख्वारिज़्म और समरक़ंद भी बडे़-बडे़ शहर थे, जिनमें से कुछ बसरा और कूफ़ा से कम नहीं थे। यह सभी शहर उद्योग-धन्धे और व्यापार का केन्द्र थे और अब्बासी काल में इनमें ज्ञान-विज्ञान एवं वैचारिक सरगर्मी भी पूरे ज़ोर-शोर से शुरू हो गई थी।
दजला और फ़ुरात व्यापारिक मार्गो का काम करते थे। बसरा हालॉंकि इराक़ की सबसे बडी़ बंदरगाह थी लेकिन बड़े समुद्री जहाज़ सीधे बग़दाद तक जा सकते थे। इसके बाद छोटी कश्तियॉं इस्तेमाल की जाती थीं। जो जहाज़ चीन जाते थे वे ज़्यादा बडे़ होते थे। उनके पेंदे की सतह पानी से इतनी ऊँची होती थी कि उन पर चढ़ने के लिए सीढियॉं इस्तेमाल की जाती थीं जिसमें दस-दस पायदान होते थे। रूम, चीन और भारत से व्यापारिक सम्बन्ध क़ायम थे। भारत से हाथी-दॉंत, आबनूस की लकडी़ और संदल, और चीन से काग़ज, दवात, सोने-चॉंदी के बरतन और रेशमी कपडे़ मँगाए जाते थे। उत्तरी देशों यानी रूस, क़फ़क़ाज़ और आरमीनिया से व्यापार का केन्द्र मौसिल था। इस शहर के विषय में मुक़द्दसी ने लिखा है- ''यहॉं इमारतें दिलकश, हवा अच्छी, पानी उम्दा, बाज़ार अच्छे और सराऍं आरामदेह हैं। कई सैर-सपाटे की जगहे थी हैं। मैसिल ज़ंजीर, चाक़ू-छुरी, फल और अचार-मुरब्बा के उद्योग में प्रसिद्ध था।''
समुद्री व्यापार का एक दूसरा बडा़ केन्द्र सीराफ़ की बन्दरगाह थी। यह शहर अब्बासी काल में इतना आबाद और इमारतें इतनी मनमोहक और बाज़ार इतने सुन्दर थे कि लोग सीराफ़ को बसरा से भी अच्छा समझते थे। सागवान और ईंट की बनी हुई ऊँची-ऊँची कोठियॉं थीं जिनमें एक-एक की क़ीमत पचास-पचास हज़ार रूपये से ज़्यादा थी। सीराफ़ की बंदरगाह चीन से आने-जाने वाले जहाज़ों का सबसे बडा़ केन्द्र था। अरब प्रायद्वीप में अदन और सुहार के बन्दरगाह बडे़ अहम थे। यहॉं से जहाज़ एक ओर भारत और चीन तक और दूसरी ओर पूर्वी अफ्रीक़ा के दक्षिणी बंदरगाहों तक जाते थे। बाहर से आने वाला सामान हिजाज़ के रास्ते या लाल सागर के मार्ग से मिस्र और फिर वहॉं से मराकश जाता था। मुक़द्दसी ने लिख है- ''अदन एक ख़ुशहाल शहर है। याक़ूत, चमडे़, चीते की खाल की मंडी है। यहॉं एक ख़ास किस्म का कपडा़ बनता है।''
ज्ञान और कला एवं लेखन जिसका प्रारंभ बनी उमय्या के दौर में हो गया था, इस दौर में बहुत विकसित हुए। यूनानी, फ़ारसी, सुरयानी और संस्कृत की किताबों के बहुत अधिक अनुवाद किए गए। इस काल में अत्यधिक लेखन का एक कारण यह भी था कि मुसलमान काग़ज बनाने की कला सीख गए थे। यह कला उन्होंने उन चीनी क़ैदियों से सीखी जो बनी उमय्या के काल में समरक़ंद की विजय के समय 704 हि./1304 ई. में गिरफ़्तार हुए थे।
चीनियों से दारुल इस्लाम की जंग
इतिहासकारों ने अब्दुललाह बिन मुहम्मद की बुद्धि, विवेक और अख़लाक़ (सदाचार) की प्रशंसा की है। उनके दौर की एक महत्वपूर्ण घटना जिसे मुसलमान इतिहासकारों ने महत्व दिया, जंगे तालास है। यह जंग राजधानी से बहुत दूर तुर्किस्तान की पूर्वी सीमा पर मुसलमानों और चीनियों के बीच 751 ई. में हुई थी। चीनियों ने मुसलमानों की घरेलू लडा़ई से फ़ायदा उठाकर तुर्किस्तान पर क़ब्ज़ा करने की अन्तिम बार कोशिश की थी, परन्तु इस तालास की जंग में हारने के बाद हमेशा के लिए तुर्किस्तान से हाथ धो बैठे।
खलीफा मंसूर का न्याय और शासन व्यवस्था (136 हि./751 ई. से 158 हि./775 ई.)
मंसूर ने बाईस साल हुकूमत की और खिलाफ़ते अब्बासिया की जडो़ं को मज़बूत कर दिया। मंसूर बडा़ योग्य शासक था। वह विरोधियों के साथ कठोरता से पेश आता था, परन्तु आम प्रजा के लिए वह न्यायप्रिय ख़लीफ़ा था। वह अपना पूरा समय प्रशासन के कामों पर ख़र्च करता था। उसने हुक्म दे रखा था कि जिसे भी हाकिमों (गवर्नरों) से कष्ट पहुँचे वह बिना रोक-टोक उससे शिकायत कर सकता है। वह स्वयं सादा जीवन व्यतीत करता था। एक बार उसकी लौंडी ने उसके शरीर पर पैवन्द लगे हुए कपडे़ देखकर कहा, ''ख़लीफ़ा और पैवन्द लगा हुआ कुर्ता !'' मंसूर ने उसके जवाब में एक शेर पढा़ जिसका अर्थ यह है – ''मर्द उस हालत में इज़्ज़त हासिल कर लेता है कि उसकी चादर पुरानी होती है और उसकी क़मीज़ में पैवन्द लगा होता है।''
बगदाद – दुनिया का अपने वक्त का सबसे बडा शहर
मंसूर का एक बडा़ कारनामा बग़दाद की बुनियाद डालना है। ख़ुलफाए राशिदीन की राजधानी मदीना थी, बनी उमय्या का दमिश्क़। मंसूर ने बनी अब्बास की राजधानी बनाने के लिए दजला नदी के किनारे एक नया शहर आबाद किया जो बग़दाद के नाम से मशहूर हुआ। आगे चलकर बग़दाद ने ऐसी तरक़्क़ी की कि वह दुनिया का सबसे बडा़ शहर बन गया। उसकी आबादी बीस लाख से ज़्यादा हो गई। कहा जाता है कि अपने चरम विकास के ज़माने में बग़दाद में सतरह हज़ार हम्माम (स्नानगृह) उससे ज़्यादा मसजिदें और दस हज़ार सड़कें और गलियॉं थीं।
मंसूर के काल में रूमियों से पुन: लडा़इयॉं शुरू हो गई, जिनमें मुसलमानों को कामयाबी हुई और 155 हि./772 ई. में मंसूर ने रूम के कै़सर (बादशाह) को जिज़्या देने पर मज़बूर कर दिया। मंसूर का शासनकाल ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी के लिहाज़ से भी अग्रणी है।
शिक्षा व्यवस्था
बनी उमय्या के समय में शिक्षा अधिकतर ज़बानी दी जाती थी और किताबें लिखने का रिवाज ज़्यादा नहीं हुआ था। मंसूर के समय में पुस्तक-लेखन का काम विधिवत प्रारंभ हो गया। वह पहला ख़लीफ़ा है जिसने सुरयानी, यूनानी, फ़ारसी और संस्कृत में लिखी हुई किताबों का अरबी में अनुवाद करवाया। ये किताबें आम तौर पर गणित, चिकित्सा-शास्त्र, दर्शन और खगोलशास्त्र से सम्बन्धित थीं। इस प्रकार मुसलमानों ने मंसूर के दौर में ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी की ओर एक अहम क़दम उठाया।
महदी (158 हि./775 ई. से 169 हि./785 ई.)
मंसूर के बाद उसका लड़का मुहम्मद महदी ख़लीफ़ा हुआ। कर्त्तव्यनिष्ठ हुक्मरॉं था। इतिहासकारों ने लिखा है – ''महदी सूरत और सीरत (चरित्र) दोनों लिहाज़ से अच्छा था। वह प्रजा में प्रिय था। अत्याचारों की रोकथाम, हत्या एवं रक्तपात से बचना, न्याय एवं इन्साफ़ और पुरस्कार एवं दान ने उसको प्रजा में लोकप्रिय बना दिया था।'' महदी के आदेश से मक्का, मदीना, यमन, बग़दाद और दूसरे बडे़-बडे़ शहरों के बीच उँटों और ख़च्चरों के माध्यम से डाक-व्यवस्था क़ायम की गई और पूरी सल्तनत में कुछ रोगियों की देखभाल का सरकारी तौर पर इंतिज़ाम किया गया। महदी ने ख़ानए काबा और मसजिदे नबवी का विस्तार भी कराया।
खलीफा के ज़रिये इस्लामी अक़ीदे की हिफाज़त
मंसूर के दौर में दूसरी ज़बानों से विभिन्न धर्मो की किताबों के जो अनुवाद किए गए थे उनके कारण मुसलमानों की आस्थाऍं प्रभावित होने लगीं थीं और एक ऐसा वर्ग पैदा होना शुरू हो गया था जो केवल ऊपर से मुसलमान था, परन्तु अन्दर से वह इस्लाम और इस्लामी हुकूमत की बुनियाद खोद रहा था। उन लोगों को इतिहासकारों ने ‘जिदीक़’ लिखा है। महदी ने जिन्दीकियों के अक़ीदों के खण्डन और इस्लाम के पक्ष में किताबें लिखवाई और इस प्रकार उसने इस्लामी आस्थाओं की रक्षा की।
खलीफा हारून अल-रशीद और इस्लाम का सुनहरा दौर
अब्बासी ख़लीफ़ाओं में सबसे अधिक प्रसिद्धि हारून रशीद को मिली। उसका 23 वर्षीय शासनकाल अब्बासी खिलाफ़त का सुनहरा दौर समझा जाता है। उस समय बग़दाद विकास की चरम सीमा पर था। सम्पन्नता और ख़ुशहाली आम थी और ज्ञान एवं कला की घर-घर चर्चा थी। सभ्यता एवं संस्कृति के विकास के लिए हारून रशीद का दौर मिसाली हैसियत रखता है। हारून रशीद में बहुत से गुण थे और वह बडा़ दीनदार, शरीअत का पाबन्द, ज्ञान-विज्ञान की तरक़्क़ी चाहने वाला और आलिमों-विद्वानों को प्रोत्साहित करने वाला था। प्रत्येक दिन सौ रकअत नमाज़ नफ़्ल पढ़ता और एक हज़ार दिरहम ग़रीबों में बॉंटता था। उसे जिहाद का शौक़ था और शहादत की तमन्ना थी। वह एक साल हज करता और एक साल जिहाद। वह आलिमों और नेक लोगों की बडी़ इज़्ज़त करता था और जब वे उसकी ग़लतियों पर टोकते या कोई उसकी आलोचना करते तो वह बुरा नहीं मानता और अपनी ग़लतियॉं स्वीकार कर लेता था।
खलीफा हारून का तक़वा (अल्लाह का डर)
एक बार एक बुज़ुर्ग इब्न समाक से हारून ने नसीहत करने को कहा। उन्होंने कहा ''ख़ुदा से डर और इस बात पर यक़ीन रख कि कल तुझे ख़ुदा के सामने हाजिर होना है और वहॉं जन्नत और दोज़ख में से एक मक़ाम इख्तियार करना है।'' यह सुनकर हारून इतना रोया कि दाढी़ ऑंसुओं से तर हो गई। यह देखकर हारून के हाजिब (दरबान) फ़जल बिन रबीअ ने कहा – ''अमीरूल मोमिनीन ख़ुदा के आदेशों को पूरा करते हैं और उसके बंदों के साथ इन्साफ करते हैं। इसके बदले में इंशा अल्लाह ज़रूर जन्नत में जाऍंगे।'' इस पर इब्न समाक (रह0) ने हारून रशीद से कहा – ''अमीरूल मोमिनीन! उस दिन फ़जल आपके साथ न होंगा, इसलिए ख़ुदा से डरते रहिए अपने अमल की देखभाल कीजिए।'' यह सुनकर हारून फिर रोने लगा। इसी प्रकार बार एक बुज़ुर्ग फ़ुज़ैल बिन अयाज़ (रह0) ने उससे कहा – ''ऐ हसीन चेहरे वाले! तू इस उम्मत का जिम्मेदार है। तुझ ही से इसके बारे में पूछा जाएगा।'' हारून यह सुनकर रोने लगा।
किताबुल खिराज और बैतुल हिकमत (Home of Knowledge)
हारून रशीद के चीफ़ जस्टिस (क़ाज़ी) अबू यूसुफ़ थे। सल्तनत में तमाम क़ाजियों की नियुक्ति वही करते थे। मरने से पहले उन्होंने लोगों को गवाह बनाकर कहा – ''ऐ ख़ुदा! तू जानता है कि मैने तेरे बंदों में कोई ऐसा हुक्म जारी नहीं किया जो क़ुरआन व सन्नत पर आधारित न हो और मैने अपनी जिन्दगी में हराम का एक दिरहम भी नहीं लिया और न किसी के साथ बेइन्साफ़ी और ज़्यादती की।'' क़ाज़ी साहब ख़लीफ़ा तक के खिलाफ़ फ़ैसला दे देते थे। खलीफा हारून ने क़ाज़ी साहब से एक किताब लिखवाई थी, ताकि उसमें ऐसे तरीक़े बताए जाऍं जिनसे प्रजा पर ज़ुल्म न हो सके और नाजायज़ तरीक़े से उनसे महसूल (टैक्स) न वसूल किया जा सके। उनकी इस किताब का नाम 'किताबुल-खिराज' है। जब यह किताब पूरी हो गई तो हारून रशीद इसी के अनुसार हुकूमत करने लगा। दूसरी भाषाओं की किताबों के अरबी अनुवाद के जिस काम को मंसूर ने शुरू किया था हारून ने उसे ज़्यादा तरक़्क़ी दी और इस उद्देश्य से 'बैतुल-हिकमत' के नाम से एक संस्था स्थापित की जिसमें काम करने वाले आलिमों और अनुवादकों को बडी़-बडी़ तनख्वाहें दी जाती थीं।
रोम की इसाई ताक़त को खलीफा ने सबक़ सिखाया और दारुल इस्लाम की सरहदों की हिफाज़त की
रूमियों से चूँकि मुसलमानों की निरन्तर लडा़इयॉं होती रहती थीं इसलिए हारून रशीद ने इस्लामी सल्तनत को रूमियों के अचानक हमलों से सुरक्षित रखने के लिए एशियाए कोचक की सरहदों पर किले बनवाए और शाम (सीरिया) के समुद्री तटों के किनारे छावनियॉं स्थापित कीं। इस सिलसिले में हारून रशीद का रूम पर हमला इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। ये रूमी अब्बासी खिलाफ़त की इताअत करते थे और उन्हें खिराज देते थे। हारून रशीद के काल में रूमी बादशाह सक़फ़ोर ने न केवल खिराज देने से इन्कार कर दिया, बल्कि हारून रशीद से पिछले सालों में वसूल किया हुआ खिराज वापस करने की मॉंग भी करने लगा। हारून ने जब उसका पत्र देखा तो ग़ुस्से से लाल-पीला हो गया और उसने जवाब में लिखा – ''ऐ रूमी कुत्ते! तू इसका जवाब सुनेगा नहीं बल्कि आँखों से देखेगा।'' यह जवाब भेजकर हारून ने एक ज़बरदस्त फ़ौज लेकर हमला किया और रूमियों को ऐसी शिकस्त दी कि वे फिर से खिराज देने लगे। इस अभियान के दौरान हारून ने 'क़ौनिया' और 'अनक़रह' के शहर भी फ़तह कर लिए थे।
बरामिका (आले बरमक)
अब्बासियों के काल में ख़लीफ़ओं ने पहली बार अपनी मदद और सलाह-मशविरा के लिए वज़ीर (मंत्री/minister) का पद क़ायम किया। पहले बनी उमय्या के ज़माने में वज़ीर का पद नहीं था। हारून के ज़माने में यह्या और उसके बेटे फ़ज़ल और जाफ़र बडे़ मशहूर वज़ीर हुए हैं। ये लोग चूँकि बरमक नामी व्यक्ति की औलाद में से थे, इसलिए बरामिका नाम से मशहूर है। बरामिका वंश के ऐतबार से ईरानी थे। बरामिका से ज़्यादा दानशील और मुक्त हस्त वज़ीर इतिहास में बहुत कम हुए हैं। उनकी दानशीलता की प्रसिद्धि सारी दुनिया में फैल गई थी। वह कभी किसी की मॉंग रद्द नहीं करते थे। हारून को विशेषकर जाफ़र बरमकी से बहुत प्रेम था। वे कभी एक-दूसरे से जुदा नहीं होते थे। हारून रशीद का नियम था कि वह भेस बदलकर रातों को बग़दाद की सड़कों और गलियों में घूमा करता था, ताकि लोगों के हालात मालूम करे। उसके साथ जाफ़र बरमकी और एक ग़ुलाम मसरूर भी जाते थे। इन गश्तों में कभी-कभी बड़ी दिलचस्प घटनाऍं घटती थीं, जो इतिहास में दर्ज हैं।
खुदमुख्तार कही जाने वाली मुस्लिम रियासतें भी इस्लामी खिलाफत का हिस्सा थी
मंसूर के बाद मराकश का इलाक़ा अब्बासी खिलाफ़त से आज़ाद हो गया था। हारून रशीद के ज़माने में एक और इलाक़ा जो अफ्रीक़ा कहलाता था और मौजूदा तराबुलुस (Tripolis), तूरिस (Tunis) और अल-ज़जायर (Algiers) जिसमें आते हैं, वह किसी हद तक ख़ुद-मुख़तार हो गया। परन्तु अब्बासी खिलाफ़त को स्वीकार करती थी और हर साल नियमित रूप से खिराज दिया करती थी जो इसका सबूत था कि यह हुकूमत अब्बासी खिलाफ़त का एक हिस्सा है।
अग़लिबी ख़ानदान की यह हुकूमत 184 हि./800 ई. से 296 हि./909 ई. तक यानी एक सौ साल से ज़्यादा क़ायम रही। इसकी राजधानी क़ैरवान (Kairavan) थी जिसकी बुनियाद अक़बा बिन नाफ़े ने डाली थी। अग़लबी ख़ानदान के शासनकाल में क़ैरवान ज्ञान एवं कला का उत्तरी अफ्रीक़ा में सबसे बडा़ केन्द्र बन गया था। लेकिन अग़लिबी हुकूमत का सबसे बडा़ कारनामा सक़लिया द्वीप की फ़तह और जल सेना की तरक़्क़ी है। इस दौर में न केवल यह कि सक़लिया द्वीप जीता गया, बल्कि दक्षिणी इटली पर भी मुसलमानों का अधिपत्य हो गया। अग़लिबी हुकूमत का समुद्री बेडा़ इतना शक्तिशाली हो गया था कि पश्चिमी रूम सागर में कोई उसका मुक़ाबला नहीं कर सकता था।
मामून रशीद (198 हि./818 ई. से 218 हि./833 ई.)
हारून रशीद के बाद यदि किसी और अब्बासी ख़लीफ़ा का दौर हारून के दौर का मुक़ाबला कर सकता है, तो वह मामून राशीद का शासनकाल है। मामून के दौर की एक अहम घटना 'सक़लिया' और 'क्रेट' (Crete) द्वीपों की फ़तह है। सक़लिया क़ैरवान के अग़लिबी हुक्मरानों की कोशिशों से फ़तह हुआ और क्रेट द्वीप अंदलुस (स्पेन) से निकली हुई मुसलमानों की एक जमाअत ने फ़तह किया। मामून रशीद के दौर की एक और विशेषता यह है कि उसके ज़माने में तुर्को में इस्लाम तेज़ी से फैलना शुरू हुआ। अशरोसना और काबुल के हुक्मरानों ने इसी ज़माने में इस्लाम क़बूल किया।
मामून रशीद को न्याय (इन्साफ़) का बडा़ ख़्याल रहता था। वह हर रविवार को सुबह से ज़ुह तक ख़ुद प्रजा की शिकायतें सुनता था। उसकी अदालत में एक मामूली आदमी शहज़ादों तक से अपना हक़ ले सकता था। एक बार एक ग़रीब बूढी़ औरत ने दावा किया कि मामून के लड़के अब्बास ने उसकी जायदाद पर क़ब्ज़ा कर लिया है। जब मुक़दमा पेश हुआ तो मामून ने अब्बास को बुढिया के पास खडा़ करके दोनों के बयान लिए। शहज़ादा बाप के आदर के कारण धीरे-धीरे बोलता था और बुढिया की आवाज़ बुलन्द थी। प्रधानमंत्री अहमद बिन अबी ख़ालिद ने इस पर बुढिया को रोका तो अमीरूल मोमिनीन के सामने ऊँची आवाज़ में बोलना अदब के खिलाफ़ है, परन्तु मामून ने उसे रोका और कहा कि वह जिस तरह कहती है कने दो। हक़ ने उसकी आवाज़ बुलन्द कर दी है और अब्बास को गूँगा कर दिया है। दोनों के बयान सुनने के बाद मामून ने बुढिया के हक़ में फ़ैसला किया और उसकी जायदाद वापस कर दी।
मामून की न्यायप्रियता की और भी बहुत सी घटनाऍं बहुत प्रसिद्ध हैं। एक बार एक व्यक्ति ने उस पर बीस हज़ार का दावा किया। मामून को क़ाज़ी की अदालत में हाजिर होना पडा़। नौकरों ने उसके लिए अदालत में क़ालीन बिछा दिया। चीफ़ जस्टिस (क़ाज़ी उल-क़ज़ाह) ने यह देखा तो नौकरों को रोक दिया और कहा कि अदालत में दावा करने वाला और अपराधी दोनों बराबर हैं। किसी को विशेष सुविधा नहीं दी जा सकती। मामून ने जब क़ाज़ी का ऐसा इन्साफ़ देखा तो उसकी तनख़्वाह बढा़ दी। अब हर आदमी अंदाज़ा कर सकता है कि जिस ज़माने में ऐसे हिम्मतवाले क़ाज़ी (जज) हों और ऐसे इन्साफ़पसंद ख़लीफ़ा हो तो आम लोग कैसे चैन और अमन की जिन्दगी गुज़ारते रहे होंगे।
मामून के स्वभाव में हद से ज़्यादा सादगी और नम्रता भी, घमण्ड लेशमात्र भी न था। अपने साथियों और दरबारियों में बडी़ सादगी और सहजता से रहता था। उसके दौर के प्रसिद्ध चीफ़ जस्टिस यह्या बिन अकसम का बयान है कि एक रात मुझे मामून के पास सोने का संयोग हुआ। आधी रात गए मुझे प्यास लगी, पानी पीने के लिए उठा। मामून की नज़र पड़ गई। पूछा ''क़ाज़ी साहब क्या बात है?'' ''अमीरूल मोमिनी! प्यास लगी है।'' क़ाज़ी ने जवाब दिया। मामून यह सुनकर उठा और ख़ुद जाकर पानी ले आया। इस पर क़ाज़ी साहब ने कहा – ''अमीरूल मोमिनी! नौकरों को क्यों नहीं आवाज़ दी।'' ''सब सो रहे है।'' मामून ने कहा। ''तो मैं ख़ुद जाकर पानी पी लेता।'' क़ाज़ी साहब ने कहा। ''यह बुरी बात है कि आपने मेहमान से काम लिया जाए। अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने फ़रमाया है कि क़ौम का सरदार उनका ख़ादिम (सेवक) है।'' मामून ने जवाब दिया।
मामून रशीद को प्रशासन व्यवस्था का इतना ख़याल था कि वह अपनी विस्तृत सल्तनत की हर चीज़ और हर काम से वाकिफ रहना चाहता था। उसने इस मक़सद के लिए सारे मुल्क में जासूस नियुक्त कर रखे थे, जो ज़रा ज़रा सी बात की ख़लीफ़ा को सूचना देते थे। सिर्फ़ बग़दाद में इस काम के लिए सतरह सौ औरतें नियुक्त थीं जो उसे गुप्त सूचनाऍं पहुँचाती रहती थीं। ज्ञान एवं कला के विकास के लिए मामून रशीद की कोशिशें इतिहास के सुनहरे अध्याय हैं। वह ख़ुद भी एक बडा़ आलिम था। ख़लीफ़ाओं में उसके बराबर कोई दूसरा आलिम नहीं हुआ। वह हाफिजे़ क़ुरआन था और धार्मिक ज्ञान से परिपूर्ण होने के अलावा उसे खगोलशास्त्र और गणित से बडी़ दिलचस्पी थी। उसने गणितज्ञों एवं खगोलशास्त्रियों की मदद से दो बार भूमण्डल को नपवाया। दूसरी भाषा से अनुवाद को काम मामून रशीद के काल में चरम पर पहँच गया। वह अनुवाद करने वालों को अनुवाद की हुई किताबों के वज़न के बराबर चॉंदी या सोना इनाम में दिया करता था। मामून रशीद का 48 साल की उम्र में इंतिक़ाल हुआ। उसने बीस साल हुकूमत की।
मोतसिम (218 हि./833 ई. से 227 हि./842 ई.)
मामून के बाद उसका भाई मोतसिम बिल्लाह तख़्त पर बैठा। मोतसिम के ज़माने में फ़ौजी ताक़त में बडी़ वृद्धि हुई और उसने इस मक़सद के लिए तुर्को की फ़ौज तैयार की। मोतसिम के दौर की सबसे प्रसिद्ध घटना रूम पर हमला है। किस्सा यह है कि मोतसिम दरबार में बैठा हुआ था कि उसे मालूम हुआ कि रूमियों ने सरहद पर हमला करके बहुत से मुसलमानों को क़ैद कर लिया है। उन क़ैदियों में एक बूढी़ औरत भी थी, जो गिरफ्तार होने पर उसका नाम लेकर मदद को पुकार रही थी। मोतसिम ने यह सुना तो उससे सब्र न हो सका। तुरन्त लश्कर को तैयार होने का हुक्म दिया। इस मौक़े पर एक ज्योतिषी ने हिसाब लगाकर बताया कि यह समय अशुभ है, अत: लश्कर की रवानगी रोक दीजिए। परन्तु मोतसिम नहीं माना और हमला कर दिया। उसकी फ़ौजों ने एशियाए कोचक को रौंद डाला और उस वक़्त तक वापस नहीं लौटा जब तक उस बुढिया को मुक्त न करा लिया।
मोतसिम के दौर की एक दूसरी अहम घटना 'बाबक ख़रमी' की बग़ावत का ख़ात्मा है। बाबक ख़रमी एक गै़र-मुस्लिम ईरानी था और उसने एक ऐसा आन्दोलन शुरू किया था जिसका मक़सद मुसलमानों को गुमराह और दीन से दूर करना था। इस इस्लाम-दुश्मन आन्दोलन के द्वारा उसने बहुत से ईरानियों को अपने साथ मिला लिया था और गीलान और आज़रबाईजान के पहाडी़ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। बाबक ख़रमी की यह बग़ावत मामून रशीद के ज़माने ही में शुरू हो गई थी। इसे आखिरकार मुतसिम ने कुचला। बाबक गिरफ़्तार कर लिया गया और क़त्ल कर दिया गया। मोतसिम के बग़दाद से उत्तर में तक़रीबन 75 मील दूर दजला नदी के किनारे 'सामरा' के नाम से एक शहर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। इस शहर ने बडी़ तरक़्क़ी की और अपनी शानदार इमारतों और ख़ूबसूरती में बग़दाद का मुक़ाबला करने लगा। सामरा 221 हि./836 ई. से 279 हि./892 ई. तक राजधानी रही, उसके बाद बग़दाद पुन: राजधानी बन गई।
मुतवक्किल (232 हि./847 ई. से 247 हि./861 ई.)
मोतसिम के बाद उसका लड़का वासिक़ और उसके बाद वासिक़ का भाई मुतवक्किल खिलाफ़त के तख़्त पर बैठा। उसके दौर में ख़ुशहाली आम थी और चीज़ें बहुत सस्ती मिलती थीं। मुतवक्किल नर्म स्वभाव का था।
मोतजिद (279 हि./892 ई. से 289 हि./902 ई.)
जिस ख़लीफ़ा ने सबसे ज़्यादा काम किए वह मोफिक़ का बेटा मोतजिद है जो मोतमिद के बाद तख़्ते खिलाफ़त पर बैठा। मोतजिद ने शान्ति-व्यवस्था क़ायम करने के सिलसिले में काफ़ी कठोरता से काम लिया, परन्तु उसके साथ ही साथ उसने मुसलमानों की नैतिक एवं वैचारिक सुधार की भी कोशिश की। वह निजी तौर पर दीनदार इन्सान था। उसने ज्योतिषों को सड़कों पर बैठने से मना कर दिया। दर्शनशास्त्र (फलसफा) की उन किताबों पर, जो मुसलमानों में गुमराही फैला रही थीं, पाबंदी लगा दी। ईरानी आतिशपरस्तों से प्रभावित होकर कुछ मुसलमानों में भी ग़लत रस्म-रिवाज पैदा हो गई थीं, मोतजिद ने इस रस्म को आदेश देकर बन्द कर दिया।
टेक्स व्यवस्था
मोतजिद के ज़माने में कोई नया टैक्स नहीं लगाया गया। पुराने टैक्स भी कम कर दिए गए, परन्तु इसके बावजूद अब्बासी हुकूमत का बजट इतना अच्छा हो गया था कि ख़र्च के बाद एक बडी़ रक़म बच जाती थी। मोतजिद के बाद एक के बाद एक उसके तीन लड़के मुक्तफ़ी बिल्लाह, मोक़्तदिर बिल्लाह और क़ाहिर बिल्लाह के नाम से तख़्त पर बैठे। मुक्तफ़ी अच्छा हुक्मरान था। उसके उत्तराधिकारी मुक़्तदिर बिल्लाह ने पच्चीस साल हुकूमत की।
इस्लामी दावत व्यवस्था
मुक़्तदिर बिल्लाह के दौर की एक विशेष घटना बुलग़ार में इस्लाम का प्रसार है। बुलग़ार रूस में वाल्गा नदी के किनारे उस जगह जहॉं अब शहर 'काज़ान' आबाद है, तुर्को का एक शहर था। जहॉं के हुक्मरान ने इस्लाम क़बूल करने के बाद एक प्रतिनिधि मंडल बग़दाद भेजा ताकि वह बुलग़ार के इलाक़े में इस्लाम के प्रसार और मुलसमानों को शिक्षा देने के मामले में ख़लीफ़ा से मदद मॉंगे। मुक़्तदिर बिल्लाह ने उनकी मॉंग स्वीकार करते हुए इब्ने फ़ुज़लान के नेतृत्त्व में एक जमाअत बुलग़ार भेजी।
बग़दाद का उत्थान (उरूज) – 2
अब्बासी खिलाफ़त का ज़माना मुसलमानों की सभ्यता और संस्कृति के उत्थान (उरूज/बुलन्दी) का ज़माना है। अब्बासी खिलाफ़त हालॉंकि बनी उमय्या की खिलाफ़त के मुक़ाबले में कम विस्तृत थी, क्योंकि अन्दलुस (स्पेन) और मराकश अब्बासियों के प्रभुत्व से बाहर थे, लेकिन इसके बावजूद अब्बासी खिलाफ़त दुनिया की सबसे बडी़ सल्तनत या सियासी संगठन था। कहा जाता है कि एक बार हारून रशीद ने बादल के एक टुकडे़ को गुज़रते हुए देखकर कहा, ''तू चाहे कहीं चला जा, लेकिन बरसेगा मेरी ही सल्तनत के अन्दर।'' यह कुछ इस किस्म की बात है, जैसी मौजूदा शताब्दी के प्रांरभ में अंग्रेजी सल्तनत के सम्बन्ध में कही जाती थी कि सूरज अंग्रेजी सल्तनत में कहीं नही डूबता।
अब्बासियों का सबसे बडा़ कारनामा यह है कि उन्होंने मुल्क की ख़शहाली में बढो़तरी की और ज्ञान एवं कला का विकास किया। अब्बासी खिलाफ़त की सीमा में अरब, ईरानी, तुर्क, रूमी, मिस्री, हबशी, बर्बर और हिन्दुस्तानी यानी अनगिनत क़ौमें निवास करती थीं। इन तमाम क़ौमों के मेलजोल से एक नई सभ्यता ने जन्म लिया जो अपने समय की सबसे उत्कृष्ट एवं विकसित सभ्यता थी और हालॉंकि इस मेलजोल के कारण मुसलमान ग़ैर-इस्लामी मूल्यों से प्रभावित हुए, परन्तु अधिपत्य इस्लामी मूल्यों का रहा, जिसके कारण यह सभ्यता एक इस्लामी सभ्यता कहलाती है। मुसलमानों ने शाम (सीरिया), मिस्र और एशियाए कोचक का बडा़ हिस्सा रूमियों से ले लिया था, परन्तु रूमी सल्तनत उस प्रकार ख़त्म नहीं हुई थी, जिस प्रकार ईरानी सल्तनत ख़त्म हो गई थी। इसके कारण मुसलमानों से उनकी लडा़इयॉं होती रहती थीं। उनका एक बडा़ फ़ौजी कारनामा यह है कि उन्होंने रूमियों का इतनी शिकस्त दी कि अन्तत: उन्होंने मुसलमानों का अधिपत्य स्वीकार कर लिया और हर साल 'खिराज' देने लगे।
अब्बासी खिलाफ़त एक शुद्ध अरब खिलाफ़त नहीं थी। इस दौर में ईरानी, तुर्क और दूसरी क़ौमें भी विभिन्न हैसियतों से हुकूमत में सम्मिलित हो गई। ख़लीफ़ा और उसका ख़ानदान अरब था, प्रशासन-व्यवस्था में ईरानियों का ज़ोर था और फ़ौज में तुर्को की अधिकता थी। इन क़ौमों को ख़लीफ़ा का हित प्यारा था। इनके अन्दर एकता की बुनियाद इस्लाम ने ही डाली थी और ख़लीफ़ा इस्लाम ही के नाम पर काम करता था। इसलिए हम कह सकते हैं कि अब्बासी खिलाफ़त अरब खिलाफ़त नहीं, बल्कि इस्लामी खिलाफ़त थी।
इस्लामी दुनिया में ग़ुलामों के साथ सद्व्यवहार किया जाता था और यह ग़ुलाम उच्च से उच्च पदों पर पहँचते थे और लौंडियॉं हुक्मरानों की माऍं बन जातीं थीं। मामून रशीद और मोतसिम जैसे महान हुक्मरान लौंडियों के पेट से जन्मे थे।
चित्रकला
संगीत और चित्रकारी ने भी इस काल में सरकारी सरपरस्ती में तरक़्क़ी की। जानदार चीज़ों की तस्वीर बनाना, बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) के सदृश्य होने के कारण इस्लाम ने वर्जित क़रार दिया था। इसी लिए मुसलमान चित्रकारों और कलाकारों ने अपनी कला की अभिव्यक्ति के लिए जानदारन चीज़ों के चित्र के बदले ख़ुशनवीसी (सुलेख) करने, बेलबूटे और प्राकृतिक दृश्यों का चित्र बनाने की ओर ज़्यादा ध्यान दिया। अब्बासी खिलाफ़त के बाद इस कला का बहुत विकास हुआ और यह मुसलमानों की विशेष कला के रूप में जानी जाने लगी।
पुलिस विभाग और इंस्पेक्टर जनरल
कातिब और हाजिब के पद उस दौर में ही क़ायम थे। पुलिस विभाग भी क़ायम था। इसका सबसे उच्च अधिकारी साहिबे शुरता कहलाता था, जिसे आज के परिभाषिक शब्द में इन्सपेक्टर जेनरल पुलिस कहा जा सकता है। शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने के अतिरिक्त आम जनता के आचरण और चाल-चलन की निगरानी, मंडियों और बाज़ारों में वस्तुओं की क़ीमतों पर नज़र रखना और नाप-तौल की निगरानी भी साहिबे शुरता की जिम्मेदारी थी। शराबनोशी, जुआ और इसी प्रकार की अन्य सामाजिक बुराईयों की रोकथाम भी साहिबे शुरता के ही कर्त्तव्य में सम्मिलित थी। हुक्मरान क़ाजियों के फ़ैसले में हस्तक्षेप नहीं करते थे। महदी ने अपने महल में एक अलग अदालत क़ायम की थी और आम एलान करवाया था कि जिसके हाथ कोई अन्याय हुआ हो वह उसके सामने मुक़दमा पेश करे। एक बार क़ाज़ी ने ख़ुद महदी के खिलाफ़ भी फ़ैसला दिया था। हारून रशीद के ज़माने में अदालती व्यवस्था उस समय ज़्यादा व्यवस्थित हो गई थी जब क़ाज़ी अबू यूसुफ़ को ख़लीफ़ा की पूरी सल्तनत का प्रधान क़ाज़ी (चीफ़ जस्टिस) बनाया गया। उस समय से क़ाजियों के लिए एक विशेष पोशाक जिसमें जुब्बा और अमामा होते थे, निर्धारित किया गया। हर दस सिपाही पर एक अरीफ़ और सौ पर एक क़ाइद होता था। सौ सिपाहियों का दस्ता 'जमाअत' और दस जमाअत का दल 'करदोस' कहलाता था। फ़ौजी संगठन और फ़ौज की तादाद मोतसिम के ज़माने में सबसे ज़्यादा थी।
नेज़ा (भाला), तलवार, तीर-कमान, ख़ोद (सिर में पहनने वाला सुरक्षा कवच), जिरह और मिनजनीक़ (गोले दाग़ने वाला हथियार) ख़ास हथियार थे। घेराव के समय मिनजनीक़ के अलावा जो गाडियॉं इस्तेमाल की जाती थीं वे 'अरादे', 'दबाबे' और 'कबाश' कहलाती थीं। उन्हें किले या चार दीवारी दरवाज़ा को टक्कर मारकर तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। घेराव के दौरान पिचकारी से एक प्रकार का तेल जो 'नफ़त' कहलाता था, फ़ेका जाता, उसके बाद अंगारे और आग फेकी जाती थीं जिससे दुश्मन के किले में आग लग जाती थी। इंजीनियरों की एक बडी़ जमाअत जो 'महंदसीन' कहलाती थी, हर घेराव में फ़ौज के साथ होती थी। हथियार और घोडे़ आम तौर पर सरकारी ख़ज़ाने से उपलब्ध कराए जाते थे।
अब्बासी काल में समुद्री बेडा़ बहुत मज़बूत था, परन्तु समुद्री शक्ति के असली मालिक क़ैरवान के अग़लिबी हुक्मरान थे जिन्होंने न केवल सक़लिया टापू को फ़तह किया था बल्कि जिनका बेडा़ मध्य रूम सागर की सबसे बडी़ ताक़त बन गया था।
इस काल में कृषि में भी तरक़्क़ी हुई। महदी के ज़माने में ज़मीनों के मापने और उसकी व्यवस्था करने वाला विभाग क़ायम हुआ और पूरी सल्तनत की ज़मीनों को मापा गया। कोशिश यह होती थी कि किसानों के साथ अन्याय न हो सके, इन पर टैक्स ज़्यादा न हो और इसकी वसूली में ज़ुल्म और जब्र से काम न लिया जाए। हारून रशीद ने क़ाज़ी अबू यूसुफ़ से 'किताबुल-खिराज' इसी उद्देश्य के लिए लिखवाई थी। मिस्र और इराक़ में उस समय दुनिया का सबसे बडा़ 'जल संसाधन विभाग' क़ायम था। जिस प्रकार मिस्र को 'तोहफ़-ए-नील' (नीद नदी का तोहफ़ा) कहा जाता है उसी प्रकार इराक़ दजला और फ़ुरात का पुरस्कार है। इराक़ और मिस्र के इस जल संसाधन व्यवस्था की अब्बासी काल में न केवल पहले की भॉंति पूरी-पूरी देखभाल की गई बल्कि नई-नई नहरें निकालकर उसका विस्तार भी किया गया। मिस्र और इराक़ के अतिरिक्त ख़ूजिस्तान, सीसतान और मरू के क़रीब मरग़ाब नदी की वादी में भी नहरों द्वारा सिंचाई की उत्तम व्यवस्था थी जिसने इन इलाक़ो को इराक़ और मिस्र की तरह दुनिया के सबसे हरे-भरे और उपजाऊ क्षेत्रों में बदल दिया था। बसरा अपनी खजूरों के लिए और ख़ूजिस्तान अपने गन्ने और शकर के लिए सारी दुनिया में मशहूर था। नींबू और संतरे की खेती उसी काल में इस्लामी दुनिया में शुरू हुई। ये फल हिनदुसतान से लाए गए थे।
चौथी सदी हिजरी के प्रसिद्ध पर्यटक मुक़द्दसी ने इराक़ के बारे में, जो अब्बासी खिलाफ़त का हृदय समझा जाता था, लिखा है – ''यह सुसभ्य, सुसंस्कृत लोगों और आलिमों का केन्द्र है। इसमें वह विशाल शहर बसरा है जिसे दुनिया कहा जा सकता है। यहीं बग़दाद है जिसकी सारी दुनिया में प्रशंसा होती है। यहीं कूफ़ा और सामरा जैसे सुन्दर और महत्वपूर्ण शहर बसाए गए। इराक़ में गर्व करने लायक़ इतनी चीज़ें है़ कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। इस्लामी दुनिया की राजधानी बग़दाद भी इराक़ में थी। इसे 'सलामती का शहर' कहा जाता था। मक़द्दसी ने बग़दाद की प्रशंसा में लिखा है – ''यहॉं के नागरिक अच्छी पोशाक पहनने वाले और सभ्य हैं। वे सुबुद्धि और विवेकशील हैं। उनमें ज्ञान की गंभीरता है। हर बढिया और उत्तम चीज़ यहॉं है। हर कला और ज्ञान के विशेषज्ञ यहॉं से निकलते हैं। यह शहर हर प्रकाश के फ़ैशन का घर है।''
ख़लीफ़ा मंसूर ने शहर को दजला के पश्चिमी तट पर गोलाकर रूप में आबाद किया था। चारों तरफ फ़सील थी जिसमें चार दरवाज़े थे। यानी बाबुल-कूफ़ा, बाबुल-बसरा, बाबुल-शाम और बाबुल-ख़ुरासान। शहर एक बाक़ायदा नक़्शे के तहत आबाद किया गया था। मध्य में शाही महल और जामा मस्जिद थी और यहॉं से हर दिशा में सीधी-सीधी सड़कें निकलती थीं। बाद में शहर पूर्वी तट पर भी फैल गया। शहर के दोनों हिस्सों को मिलाने के लिए दरिया पर कश्ती के कई पुल थे। नहरों की अधिकता के कारण पानी की कमी नहीं थी और बागों-उद्यानों की बहुलता थी। जहॉं नहरों के गन्दे होने की संभवना थी वहॉं उन्हें ऊपर से ढक दिया गया था। कर्ख़ का मुहल्ला जो चार मील लम्बा और दो मील चौडा़ था, न केवल बग़दाद का बल्कि दुनिया का सबसे बडा़ व्यापारिक केन्द्र था। यहॉं हर चीज़ के बाज़ार अलग-अलग थे। कागज़ और किताबों के बाज़ार भी थे। बग़दाद में कपडा़ उद्योग बहुत विकसित था। वहॉं के कारीगर विभिन्न प्रकार के रेशमी कपडे़, बारीक मलमल और ऊनी चादरें बनाने में बडे़ प्रसिद्ध थे। मलमल सुन्दरता और बारीकी में अपनी मिसाल आप थी। यह कहावत मशहूर थी कि यदि किसी को सुन्दर और बारीक कपडे़ की ज़रूरत हो तो इराक़ पहँचे। गहने, चमडे़, सुगंधित तेल, इत्र, साबुन और शीशा उद्योग ने बग़दाद में विशेष रूप से तरक़्की की थी। बग़दाद में बाग़ों की अधिकता, शानदार महलों और कोठियों के अलावा पोलो खेलने का मैदान भी था और बाद में एक चिडियाघर भी बन गया था।
कूफ़ा – रेशमी, सूती और ऊनी कपडो़ं के लिए प्रसिद्ध था। विशेषकर यहॉं के अमामे यानी पगडियॉं सारी इस्लामी दुनिया में पसंद की जाती थीं। वाद्ययन्त्र, हथियार, ज़ेवर और चमडे़ के उद्योग भी तरक़्क़ी पर थे। मिट्टी के बरतन और गुलदान, जिन पर तरह तरह के बेलबूटे बने होते थे, का उद्योग कूफ़ा का प्रमुख उद्योग था। मुक़द्दसी ने लिखा है – ''यहॉं का पानी अच्छा, इमारतें सुन्दर, बाज़ार शानदार और चारों ओर खजूर के बाग़ हैं और सबसे सही अरबी भाषा कूफ़ा में बोली जाती है।'' अब्बासी खिलाफ़त के उत्थान काल में कूफ़ा शहर बग़दाद के समान समझा जाता था।
बसरा – बसरा वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था। पूर्वी क्षेत्र का सारा माल बसरा के रास्ते इराक़ में आता था। यहॉं के व्यापारी दुनिया के हर हिस्से में पाए जाते थे। वे तमाम चीजे़ं जिनके लिए कूफ़ा मशहूर था, बसरा में भी बनाई जाती थीं।
इराक़ में उद्योग – इराक़ के दूसरे उद्योग जो बग़दाद, बसरा और कूफ़ा लगभग हर शहर में मौजूद थे निम्नलिखित है –
क़ालीन उद्योग - क़ालीन ऊनी होते थे। यह क़ालीन फ़र्श पर बिछाने के अलावा दीवारों पर लटकाए भी जाते थे।
शीशा उद्योग – आईना निर्माण और शीशे के बरतनों के उद्योग ने भी अब्बासी काल में बडी़ तरक़्क़ी की। हालॉंकि शीशा उद्योग का सबसे बडा़ केन्द्र शाम (सीरिया) था लेकिन इराक़ में भी यह उद्योग तरक़्क़ी पर था और यहॉं के बनाए हुए क़ंदील, झाड़-फ़ानूस और जाम (गिलास) दूर-दूर तक जाते थे।
लकडी़ उद्योग – लकडी़ उद्योग में कश्ती बनाना सबसे प्रमुख उद्योग था। इराक़ के बढ़ई 36 प्रकार की कश्ती बनाते थे। उबल्ला कश्ती निर्माण का सबसे बडा़ केन्द्र था।
इराक़ के शहरों के अलावा क़ैरवान, स्कंदरिया, फिस्तात, दिमिश्क, इस्फ़हान, रै, नेशापुर, हरात, बुख़ारा, ख्वारिज़्म और समरक़ंद भी बडे़-बडे़ शहर थे, जिनमें से कुछ बसरा और कूफ़ा से कम नहीं थे। यह सभी शहर उद्योग-धन्धे और व्यापार का केन्द्र थे और अब्बासी काल में इनमें ज्ञान-विज्ञान एवं वैचारिक सरगर्मी भी पूरे ज़ोर-शोर से शुरू हो गई थी।
दजला और फ़ुरात व्यापारिक मार्गो का काम करते थे। बसरा हालॉंकि इराक़ की सबसे बडी़ बंदरगाह थी लेकिन बड़े समुद्री जहाज़ सीधे बग़दाद तक जा सकते थे। इसके बाद छोटी कश्तियॉं इस्तेमाल की जाती थीं। जो जहाज़ चीन जाते थे वे ज़्यादा बडे़ होते थे। उनके पेंदे की सतह पानी से इतनी ऊँची होती थी कि उन पर चढ़ने के लिए सीढियॉं इस्तेमाल की जाती थीं जिसमें दस-दस पायदान होते थे। रूम, चीन और भारत से व्यापारिक सम्बन्ध क़ायम थे। भारत से हाथी-दॉंत, आबनूस की लकडी़ और संदल, और चीन से काग़ज, दवात, सोने-चॉंदी के बरतन और रेशमी कपडे़ मँगाए जाते थे। उत्तरी देशों यानी रूस, क़फ़क़ाज़ और आरमीनिया से व्यापार का केन्द्र मौसिल था। इस शहर के विषय में मुक़द्दसी ने लिखा है- ''यहॉं इमारतें दिलकश, हवा अच्छी, पानी उम्दा, बाज़ार अच्छे और सराऍं आरामदेह हैं। कई सैर-सपाटे की जगहे थी हैं। मैसिल ज़ंजीर, चाक़ू-छुरी, फल और अचार-मुरब्बा के उद्योग में प्रसिद्ध था।''
समुद्री व्यापार का एक दूसरा बडा़ केन्द्र सीराफ़ की बन्दरगाह थी। यह शहर अब्बासी काल में इतना आबाद और इमारतें इतनी मनमोहक और बाज़ार इतने सुन्दर थे कि लोग सीराफ़ को बसरा से भी अच्छा समझते थे। सागवान और ईंट की बनी हुई ऊँची-ऊँची कोठियॉं थीं जिनमें एक-एक की क़ीमत पचास-पचास हज़ार रूपये से ज़्यादा थी। सीराफ़ की बंदरगाह चीन से आने-जाने वाले जहाज़ों का सबसे बडा़ केन्द्र था। अरब प्रायद्वीप में अदन और सुहार के बन्दरगाह बडे़ अहम थे। यहॉं से जहाज़ एक ओर भारत और चीन तक और दूसरी ओर पूर्वी अफ्रीक़ा के दक्षिणी बंदरगाहों तक जाते थे। बाहर से आने वाला सामान हिजाज़ के रास्ते या लाल सागर के मार्ग से मिस्र और फिर वहॉं से मराकश जाता था। मुक़द्दसी ने लिख है- ''अदन एक ख़ुशहाल शहर है। याक़ूत, चमडे़, चीते की खाल की मंडी है। यहॉं एक ख़ास किस्म का कपडा़ बनता है।''
ज्ञान और कला एवं लेखन जिसका प्रारंभ बनी उमय्या के दौर में हो गया था, इस दौर में बहुत विकसित हुए। यूनानी, फ़ारसी, सुरयानी और संस्कृत की किताबों के बहुत अधिक अनुवाद किए गए। इस काल में अत्यधिक लेखन का एक कारण यह भी था कि मुसलमान काग़ज बनाने की कला सीख गए थे। यह कला उन्होंने उन चीनी क़ैदियों से सीखी जो बनी उमय्या के काल में समरक़ंद की विजय के समय 704 हि./1304 ई. में गिरफ़्तार हुए थे।
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