ईमान क्‍या है?

अक़ीदे की तारीफ : अक़ीदा इन्‍सान, जीवन और कायनात, और तीनो से पहले और इनके बाद के आपसी सम्‍बन्‍ध, के बारे में कुल्‍ली फिक्र (विस्‍तृत विचार) का नाम हैं। चुनांचे ये ज़िन्दगी की बुनियाद  हैं, और ये वोह बुनयादी फिक्र जो इससे जुडी हुई हैं। यही वोह क़ुल्ली फिक्र हैं (विस्‍तृत विचार/comprehensive though) जो जीवन के ढंग को तय करता हैं और इसके रविय्ये पर असर डालता हैं। इसी से इसकी अहमियत का अन्‍दाज़ा लगाया जा सकता हैं। इस्लाम ने इस मसले को ''ईमान'' से परिभाषित किया हैं यानी इस क़ुल्ली फिक्र पर ईमान लाने का मतलब क्‍या हैं। इसलिए हर मुसलमान के लिए ये बेहद ज़रूरी हैं के वोह ईमान के बुनयादी मसाईल (मसलो) से आगा हो और मज़बूत तरीन दलाईल (दलीलों) की रोशनी में, इनमें सही विचारों को इख्तियार (अपनाए) करे ताके वोह इस बुनियाद पर अपनी ज़िन्दगी इत्मिनान से गुज़ार सकें। जहॉ तक ईमान की शरई परिभाषा का सम्‍बन्‍ध हैं तो उसको तय करने से पहले ये ज़रूरी हैं के इससे सम्‍बन्धित चन्‍द बुनयादी मसाईल पर रोशनी डाली जाए ताके इनके तनाजु़र में ईमान की सही परिभाषा को तय किया जा सके।
 
क्‍या ईमान फक़त (दिल से सम्‍बन्धित) मामला हैं या इसमें आ़माल भी शामिल हैं?


कुछ औलमा ने ईमान की तारीफ (‍परिभाषा), क़ल्‍ब (दिल) से तस्दीक़, ज़बान से ईक़रार और आज़ा (शरीर के अंगो) से अमल, से की हैं जबके औरों ने इस मामले को क़ल्‍बी यानी तस्‍दीक़ करने तक महदूद (सीमित) रखा हैं और आ़माल को ईमान से अलग समझा हैं। दोनो गिरोहो के दलाईल की तहक़ीक़ के बाद यही नतीजा निकला हैं के ईमान फक़त कल्‍बी (दिल से सम्‍बन्धित) मामला हैं और आमाल इससे अलग हैं। इसकी दलील ये आयते हैं :

ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡغَيۡبِ وَيُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَمِمَّا رَزَقۡنَـٰهُمۡ يُنفِقُونَ ( ٣ ) وَٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكَ وَمَآ أُنزِلَ مِن قَبۡلِكَ وَبِٱلۡأَخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ

''जो लोग ग़ैब पर ईमान लाते हैं और नमाज़ को क़ायम रखते हैं और हमारे दिये हुए (माल) में से खर्च करते हैं, और जो लोग ईमान लाते हैं उस पर जो आपकी तरफ उतारा गया और जो आपसे पहले उतारा गया और वोह आखिरत पर भी यक़ीन रखते हैं’’। (अल बक़राह: 3-4)

यहॉ जब अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने गै़ब, नाज़िलकर्दा किताबों और आखिरत का ज़िक्र किया तो उन्‍हें ईमान लाने से जोडा़ यानी उनकी तस्‍दीक़ करने से, जबके नमाज़ और खर्च करने का ज़िक्र किया तो उन्‍हें अदा करने यानी सरअन्‍ज़ाम देने की बात की। यह इस बात की दलील हैं के ईमान लाने (तस्‍दीके़ ज़ाज़िम और अमल करने (अहकामे शरिया) में फर्क़ हैं। इसके अलावा कई आयात में अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने : ''जो लोग ईमान लाए और नेक अमल किये’’ का ज़िक्र किया हैं जिससे इस बात की ताईद होती हैं के ये दो मुख्‍तलिफ बातें हैं। मुनाफिक़ीन के बारे में ये आयत नाज़िल हुई :

قَالَتِ ٱلۡأَعۡرَابُ ءَامَنَّاۖ قُل لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ وَلَـٰكِن قُولُوٓاْ أَسۡلَمۡنَا وَلَمَّا يَدۡخُلِ ٱلۡإِيمَـٰنُ فِى قُلُوبِكُمۡۖ

''देहाती लोग कहते हैं के हम ईमान लाए, आप कह दीजिए के (दरहक़ीक़त) तुम ईमान नहीं लाए लेकिन तुम यूँ कहो के हम इस्लाम लाए हाँलाके अभी तक तुम्‍हारे दिलो में ईमान दाखिल ही नहीं हुआ’’। (अल हुजरात:14)

यहॉं अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने र्इमान लाने और इस्लाम लाने में फर्क ज़ाहिर किया हैं और आयत के आखिर में ये बता दिया हैं के ईमान की जगह दिल हैं। हदिसे जिबरील में रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने इस्लाम और ईमान के फर्क़ को यूँ बयान किया हैं :

''इस्लाम ये हैं के तुम उसकी गवाही दो के अल्‍लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और मोहम्‍मद अल्‍लाह के रसूल हैं और फिर तुम पाबन्‍दी से नमाज़ पडो़ और ज़कात अदा करो, रमज़ान के रोज़े रखो और ज़ादे राह मयस्‍सर हो तो बैतुल्‍लाह का हज करो . . . (ईमान ये हैं के) तुम अल्‍लाह को और उसके फरिश्‍तो को और उसकी किताबो को, उसके रसूलो को और क़यामत के दिन को दिल से मानो और इस बात पर यक़ीन रखो के बुरा भला जो कुछ पेश आता हैं वोह नोश्ताऐ तक़दीर के मुताबिक हैं’’।

इब्‍ने अलस़लाह इस हदीस के बारे में कहते हैं : 

''ये ईमान की असल का बयान हैं और वोह तस्‍दीके बातिन हैं, और इस्लाम की असल का बयान हैं और वोह फरमाबरदारी और ईताअत से ज़ाहिर हैं। और ज़ाहिर में इस्लाम का हुक्‍म दो शहादतो से साबित होता हैं और उन दोनों में नमाज़ और ज़कात और हज और रोज़ो की ईज़ाफत इस वजह से हैं क्‍योंके इनका शाईरे इस्लाम होना ज़ाहिर हैं’’। (शरह सहीह मुस्लिम)

जी हॉ! ईमान तस्‍दीक़ (गवाही देना) से सम्‍बन्धित हैं जो कुफ्र के मुक़ाबिल हैं जैसा कि आयत से वाज़े (पता चलता) हैं। पस वोह जिसका ईमान नहीं यानी गै़र-मोमिन, तो वोह कतअ़न काफिर हैं क्‍योंके या तो बन्‍दा ईमान लाए या ना लाऐ यानी आधा मोमिन और आधा काफिर नहीं हो सकता! जहॉ तक अहकामे शरिया का ताल्‍लुक़ हैं, तो जैसे पहले बताया जा चुका हैं, इनका ताल्‍लुक़ अदायगी से हैं ख्‍वाह ये ईजाबन हो या सलबन, यानी सरअन्‍ज़ाम देना जैसे नमाज़ पढ़ना, या तर्क करना (मना होना) जैसे चोरी ना करना।

हुक्‍मे शरई की मुखालिफत, ईमान (अक़ीदे) की मुखालिफत से मुख्‍तलिफ हैं यह इसलिए क्‍योंके ईमान की मुखालिफत कुफ्र हैं जबके किसी शरई हुक्‍म को अदा ना करना फिस्‍क़ व गुनाह हैं मसलन नमाज़ न पढ़ना या शराब पीना। कुफ्र सिर्फ उस सू़रत में होगा जब या तो इसमें इन्‍कार पाया जायेगा मसलन नमाज़ की फर्जियत या शराब की हुरमत का, या अन्जीर व अन्‍गूर के मुबाह होने का इन्‍कार, या ऐसी कोई बात जो कुफ्र अक़ीदे से ताल्‍लुक़ रखती हो जैसे कि बुतो को सजदा करना या काफिरो के तरीके़ पर नमाज़ अदा करना या किसी नबी को क़त्‍ल करना वगैराह। चुनांचे कुफ्र व गुनाह में बहुत फर्क़ हैं। अलबत्‍ता इसका मतलब ये हरगिज़ नहीं के गुनाह को लापरवाही की नज़रो से देखा जाए बल्‍के इसकी सज़ा इस दुनिया में ईस्‍लामी रियासत की तरफ से या आखिरत में अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) की तरफ से दी जायेगी। लेकिन किसी मुसलमान पर, बिना क़तई दलील के, को काफिर करार देना भी अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) के यहॉ बहुत बडा़ गुनाह हैं और हम किसी की ज़ाहिरी हालात पर फैसला देने के मुकल्‍लफ हैं ना के उसकी बातिनी (क़ल्‍बी) हालत पर। इसकी दलील :

قَالَتِ ٱلۡأَعۡرَابُ ءَامَنَّاۖ قُل لَّمۡ تُؤۡمِنُواْ وَلَـٰكِن قُولُوٓاْ أَسۡلَمۡنَا وَلَمَّا يَدۡخُلِ ٱلۡإِيمَـٰنُ فِى قُلُوبِكُمۡۖ
 
''देहाती लोग कहते हैं के हम ईमान लाए, आप कह दीजिए के (दरहक़ीक़त) तुम ईमान नहीं लाए लेकिन तुम यूँ कहो के हम इस्लाम लाए हॉंलाके अभी तक तुम्‍हारे दिलो में ईमान दाखिल ही नहीं हुआ’’। (अल हुजरात: 14)

यहॉं पर अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने हमें इस दुनिया में देहातियों की ज़ाहिरी हालत की बुनियाद पर उनसे 
मुआमला करने की तरफ ईशारा किया हैं अगरचे वोह हक़ीक़त में ईमान ना भी लाते हो (मुनाफिक़ीन), जब तक वोह वाजे़ह तरीके़ से एलानिया अपने कुफ्र का इज़हार नहीं करते। लिहाज़ा मुसलमान के लिए अक़ीदे और हुक्‍मे शरीई में फर्क़ निहायत अहम हैं और वोह ये के ईमान एतक़ादी (आस्था का) मामला हैं जबके हुक्‍मे शरई फेअ़ली (अमल करने से सम्‍बन्धित) हैं। ईमाम नववी (رحمت اللہ علیہ) कहते हैं :

''और जान लेना चाहिए के अहले हक़ का मज़हब (मसलक) यही हैं के अहले किबला (मुसलमानो) में से गुनाह की वजह से किसी पर तक्‍फीर (कुफ्र का फतवा) ना की जाए और न ही अहले अहवा और बदा को और ये के जो कुछ दीने र्इस्‍लाम से ज़रूरी तौर पर मालूम हो (ज़िना या खमर या क़त्‍ल वगै़राह की हुरमत), इसका इन्‍कार करें तो उस पर इरतिदाद (इस्लाम से फिर जाने) व कुफ्र का हुक्‍म हैं.’’ (शरेह सहीह मुस्लिम)

क़ुराफी इस मामले में ये कहते हैं :

''और अक्सर कुफ्र को कबाईर (बडे़ गुनाह) से गड़मड़ कर दिया जाता हैं, अगरचे आला कबाईर का रूत्‍बा अदना कुफ्र के रूत्‍बे से नीचे हैं . . . . और कुफ्र की असल रबूबियत की बेहुरमती से मख्‍सूस हैं’’। (अल फरूक़)
इसके अलावा जब ईमान का ज़िक्र बिना क़राईन (इशारे के) हो तो उसका इस्‍तलाही माअ़नी लिया जायेगा जबके अगर इस माअ़नी में मज़कूर (ज़िक्र) ना हो तो क़रीना (इशारा) इसके तोज़ीह (तफ्सील बयान) करेगा। मसलन अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं:

''और अल्‍लाह तआ़ला तुम्‍हारे ईमानो (नमाज़ो) को ज़ाया नहीं करेगा’’।

यहॉ ईमान से मुराद नमाज़ हैं कयोंकि यह आयत तहवीले क़िबला (क़िबले के बदलने) के बाद मुसलमानों को ये इत्मिनान दिलाने के लिए नाज़िल हुई के साबिक़ा (पुराना) किबला की जानिब उनकी पुरानी नमाज़ो को अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने क़बूल फरमाया हैं और उनका अज़र उन्‍हें मिलेगा यानी उनकी पिछली नमाजे़ बेकार नहीं हुई। ये इस बात की दलील हैं के क़ुरआन में ईमान फक़त अपने इस्‍तलाही (शाब्दिक) माअने में ही नहीं आया हैं। इसके अलावा रसूल (صلى الله عليه وسلم) का फरमान :

''ईमान की सत्‍तर शाखे हैं, सबसे आ़ला लाईलाहा इलल्‍लाह का कलमा और सबसे अदना राह में से नुक़सान देह चीज़ हटाना’’। (मुत्तफिक़ अलय)

ये बात साफ हैं के राह में से नुक़सानदेह चीज़ ना हटाना इन्‍सान को काफिर नहीं बना देता, इसलिए यहॉं ईमान से मुराद आमतौर पर अल्‍लाह के अहकाम की पाबन्‍दी हैं। इसी तरह रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का फरमान :

''ज़ानी ज़िना करते वक्‍़त मोमिन नहीं रहता’’। (मुत्‍तफिक़ अलेह)
रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने ज़ानी को मुरतद की सज़ा नहीं दी बल्‍के उस पर ज़िना की सज़ा नाफिज़ की और उसे मुसलमान माना क्‍योंके आप (صلى الله عليه وسلم) ने उस पर नमाज़े जनाज़ा भी पडी़ और उसे मुसलमानों में दफनाया भी। चुनांचे रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये फैल इस बात का क़रीना हैं के यहॉ ईमान से मुराद कुफ्र का मुक़ाबिल नहीं, बल्‍के उससे ज़िना के एक बडे़ गुनाह होने पर दलालत पाई जाती हैं।
दूसरे शब्‍दो में यहॉ किसी कार्य को करना यानी ज़िना के अमल को करते वक्‍़त ईमान की कमी हो जाती हैं, इस जुर्म की अज़मत पर, बतौरे मिजाज़ (अलता‍बीर अलमिज़ाज़ी) दलालत हैं। (अल तेसीर फिउसूल अलतफ्सीर अलअबी अररूश्‍ता)।
इब्‍ने रूश्‍द (رحمت اللہ علیہ) इस मसले के बारे में ये कहते हैं : ''जहॉ तक उन लोगों का ताल्‍लुक़ हैं जो ये कहते हैं के इस (तर्के नमाज़/नमाज़ के छूटना) पर क़त्‍ल की हद नाफिज़ की जाए तो ये ज़ईफ (राय) हैं और ये सिवाए कमज़ोर शुबे की बुनियाद पर क़यास करने के और कुछ नहीं . . . . इसके अलावा कुफ्र का लागू होना हक़ीक़त में तक्‍ज़ीब (इन्‍कार करना) पर होता हैं, और ये मालूम हैं के तारीके नमाज़ (नमाज़ का छोडने वाला) इन्‍कारी नहीं हैं सिवाए जब वोह ऐतक़ादन (दिल से मानते हुए) इसको तर्क कर दें। बस हमारे पास दो बातो का इख्‍तीयार हैं :
(अव्‍वल) अगर हम हदीस को हक़ीक़ी कुफ्र के माअ़नी में समझे तो हम पर वाजिब होगा के इसकी ये तावील करें के (यहॉ) रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की मुराद वोह शख्‍स हैं जो ऐतक़ादन नमाज़ को तर्क करे, तो ये कुफ्र हैं।
(दोवम) लफ्ज़े कुफ्र को इसके पहले मुक़ाम के अलावा किसी और (माअ़नी/अर्थ) पर महदूद करना या लिमिटेड करना, और वोह इन दो में से एक हो सकता हैं :

अव्‍व्‍ल : इस पर काफिर का हुक्‍म लगाना, मतलब यह हैं के क़त्‍ल व कुफ्र करने से मुताल्लिक़ अहकाम में अगरचे वोह इन्‍कारी ना हो।

दोवम : उसके अफआल (कार्य), सख्‍ती और डॉंट की जुहत से उसके लिए, काफिरो के कार्य हैं यानी उसके कार्यों में काफिर की तश्‍बीह पाई जाती हैं (यानी उसके अफआ़ल काफिर जैसे हैं) क्‍योंके काफिर भी नमाज़ नहीं पढ़ता। और इसी तरह रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) का ये फरमान :

''ज़ानी ज़िना करते वक्‍़त मोमिन नहीं रहता’’।
यहॉ बिना दलील इस पर काफिर का हुक्‍म नहीं लगाया जा सकता क्योंके यह एक ऐसा हुक्‍म होगा जो इस तरह से शरअ़ में साबित नहीं हुआ के उस पर किसी नतीजे का दारोमदार हो। चूंके हमारे नज़दीक ऐसे हक़ीक़ी कुफ्र होने की कोई दलील नहीं हैं जो तक्‍ज़ीब (इन्‍कार करने या झुठलाने) के माअ़ने में हो, तो ये लाज़मी होगा कि ये मिजाज़ी मआ़नी (Metaphorically/तुलना करके बताया जाने वाले) पर दलालत करें और इस तौर पर नहीं जो शरेअ़ में साबित नहीं हैं। बल्‍के उसके विपरीत यही साबित हैं के इसका खून हलाल नहीं क्‍योंके ये उन तीन सू़रतो से खारिज़ हैं जो शरेअ़ में मखसू़स (खास) हैं। मतलब ये हैं के हमें दो में से एक को चुनना पडे़गा : या तो हम कलाम को महजू़फ मुक़र्रर करें अगर हम कुफ्र के इस्म (नाम) को इसके शरई मआ़ने में समझते हैं, या फिर हम उसे मुस्‍तेआ़र (metaphor) पर महमूल करें (इस्‍तीआरा मिजाज़ की एक किस्‍म हैं)। जहॉ तक ये बात हैं के इस पर तमाम अहकाम में काफिर का हुक्‍म लगाया जाऐ जबके वोह मोमिन हो, तो यह एक ऐसी चीज़ हैं जो अ़सल से अलग हैं, खा़सतौर पर जबके नसे़ हदीस ये साबित करती हैं के किसें कुफ्र की सज़ा मौत दी जाऐ या हद लागू की जाऐ, इसलिए यह क़ौल उन लोगों जैसा हैं जो गुनाहगारो पर तक्‍फीर (कुफ्र का फतवा दिया) करते हैं’’। (बिदाया अलमुश्‍तहिद व निहाया अलमुस्‍तनद)
अल्लामा आलूसी (رحمت اللہ علیہ) ने भी ईमान को तस्दीक़ तक महदूद किया हैं और उसे जमहूर मुहक्‍़क़ीन का मज़हब बताया हैं। उन्होंने हजरत अली की वोह रिवायत नक्‍़ल की हैं जहॉ आप (رضي الله عنه) ने फरमाया :
''बेशक ईमान मार्फत (किसी चीज तक पहुंचना) हैं और मार्फत तस्‍लीम (क़ुबूल करना) हैं और तस्‍लीम तस्‍दीक़ (गवाही) हैं’’।
फिर उसकी ताईद में उन आयात का हवाला दिया जो ईमान का महल (विषय) क़ल्‍ब साबित करती हैं। इस तरह आलूसी (رحمت اللہ علیہ) कहते हैं के ईमान को से़हते आमाल की शर्त करार दिया गया हैं जैसा के अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं :
''और जो नेक आमाल करे और वोह ईमानदार भी हो’’

जबके ये क़तई बात हैं के मशरूत शर्त में दाखिल नहीं होता और इसी तरह उस (शख्‍स) का ईमान साबित हैं जो बाज़ आमाल को तर्क करता हैं जैसे कि अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं :


''और अगर ईमान वालो की दो जमाअ़ते आपस में लड़ पडे़ तो उनमें मेल-मिलाप करा दिया करो, फिर अगर उन दोनों में से एक जमाअ़त दुसरी जमाअ़त पर ज्‍़यादती करें तो तुम उस गिरोह से जो ज्‍़यादती करता हैं, लडो़, यहॉं तक के वोह अल्‍लाह के हुक्‍म की तरफ लौट आये, जबके वोह (अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ)) किसी चीज़ की, बगै़र उसके रूक्‍न के, तौसीक़ नहीं करता’’। (रूहूल माअनी)

आलूसी (رحمت اللہ علیہ) ने यहॉ एक अहम बिन्‍दु को उजागर किया हैं : वोह यह के अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने यहॉ उन लोगों के ईमान की तौसीक़ की हैं :

''ईमान वालो की जमाअ़तें’’

बावजूद ये के वोह गुनाह करें (ज्‍़यादती) बदलील :

''तो तुम उस गिरोह से जो ज्‍़यादती करता हैं, लडो़, यहॉ तक के वोह अल्‍लाह के हुक्‍म की तरफ लौट आये’’।
फिर एक क़ाईदा बयान किया के कोई भी अम्र (हुक्‍म), अल्‍लाह के यहॉ, उसके रुक्‍न की अदायगी के बगै़र बातिल होता हैं। मसलन नमाज़, के अगर सज़दा या रूकू नहीं किया तो ये बातिल होगी। इसी तरह ईमान की बात हैं, तो जब अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने इर्तीकाबे गुनाह के बावजूद इस गिरोह को इनसे जोडा है तो यह इस बात की दलील हैं के इनका ईमान सही हैं ना के बातिल, वरना उसे क़बूल न किया जाता।

क्‍यो अकीदे में ज़न ज़ाईज़ हैं या उसकी दलील क़तई होनी चाहिए?
अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं :

وَمَا يَتَّبِعُ أَكۡثَرُهُمۡ إِلَّا ظَنًّاۚ إِنَّ ٱلظَّنَّ لَا يُغۡنِى مِنَ ٱلۡحَقِّ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ
''और उनमें से अकसर सिर्फ गुमान (ज़न) पर चल रहे हैं, यक़ीनन गुमान हक़ (को हांसिल करने मे) में कुछ भी काम नहीं दे सकता, जो कुछ यह कर रहे हैं यक़ीनन अल्‍लाह को सब खबर हैं’’। (युनुस :36)
आलूसी (رحمت اللہ علیہ) ने इस आयत की तफ्सीर में यह कहा : 
''और यहॉ हक़ से मुराद वोह सहीह ईल्‍म व एतक़ाद हैं जो हक़ीक़त के मुताबिक हो . . . . इसमें उन लोगों के लिए दलील हैं जो ये कहते हैं के ऐतक़ादियात (अक़ीदे से सम्बन्धित) में ईल्‍म का हुसू़ल वाजिब हैं और बेशक मुक़ल्‍लीद का ईमान सही नहीं . . .

إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ
 में उन लोगों के बुरे और नापसन्‍दीदा आमाल पर वईद (चेतावनी) हैं और इसमें, जो उनके बारे में बताया गया हैं, इनकी क़तई दलील (अल बराहीन अलक़तिया) से नज़रअन्दाज़ करना शामिल हैं और सबसे पहले उनके फासिद गुमानों (अल ज़नून अलफासिदा   ) की इत्तिबा शामिल हैं’’। (रुहुल माअनी)

ईमाम शोकानी इस आयत की तफ्सीर में कहते हैं :

''फिर अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने हमें ये खबर दी के सिर्फ ज़न हक़ (की मार्फत/पहुंच) में कुछ काम नहीं दे सकता क्‍योंके दीन (अक़ीदे) का मामला सिर्फ ईल्‍म पर मबनी हुआ करता हैं’’। (फताहुल क़दीर)
नेज़ कहा गया हैं :
''ये क़ुरआन में इस बात की स़रीह नस़ हैं के ईल्‍म को हमेशा के लिए ज़न सें खारिज़ कर दिया गया हैं और क़ुरआनी नस़ से ये लाज़िम आता हैं के हक़ ईल्‍म पर मबनी हो :

وَلِيَعْلَمَ الَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ أَنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَبِّكَ فَيُؤْمِنُوا بِهِ فَتُخْبِتَ لَهُ قُلُوبُهُمْ

''और उस लिए भी के जिन्‍हें ईल्‍म फरमाया गया वोह यक़ीन कर लें के ये आपके रब ही की तरफ से सरासर हक़ ही हैं, फिर वोह इस पर ईमान लाऐ और उनके दिल इसकी तरफ झुक जाये’’। (अल हज्ज:54) . . . . और ईल्‍म यक़ीन और ऐतकाद हैं, पस ज़न ऐतकाद पर बतौर दलील मुनासिब नहीं।'' (नहू तास़ील मफूम क़ुरआनी लिल ईमान)

और अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं :

وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ
''जिस बात का तुझे ईल्‍म ना हो उसके पीछे मत पड़’’। (अल इसरा:36)

आलूसी (رحمت اللہ علیہ) का कहना हैं :

  ''वला तफक़ यानी इत्तिबाह ना कर . . . और तमाम मुफस्‍सीरीन ने इसे एक ही चीज़ पर निर्भर किया हैं, बस उन्‍होंने कहा के (इससे) मुराद मुश्‍रिकीन के उलूहियत व नबूवत के बारे में हैं, उनके बाप-दादा की तक्‍़लीद और ख्‍वाहिशात की इत्तिबा पर नहीं हैं. . . पस जिस बात का क़तई ईल्‍म ना हो, उसकी नहीं (मनाही) अक़ाईद के खास हैं (यानी आमाल में तक्‍़लीद ज़ाईज़ हैं)’’। (रुहुल माअनी)

जरजानी (رحمت اللہ علیہ) ने ईल्‍म की तारीफ ये बताई हैं :

''वोह जो ऐतक़ादे जाज़िम जो हक़ीक़त (reality) के मुताबिक हो’’। (अलतारीफात)

इसके अलावा ईमाम शातबी (رحمت اللہ علیہ) यह कहते हैं :

''अगर उसूले फिक़ में किसी ज़न्‍नी चीज़ को अस़ल (आधार) क़रार देना जाईज़ समझा जाऐ तो उसका मतलब ये होगा के उसू़ले दीन में भी उसे अस़ल करार देना जाईज़ हैं, और इस बात पर किसी का भी इत्तिफाक़ नहीं और यहॉ भी यही बात हैं क्‍योंके उसूले फिक़ का असल शरियत से जो सम्बन्ध हैं वही सम्बन्ध उसू़ले दीन से हैं . . . असल का बहरहाल क़तई होना ज़रूरी हैं, इसलिए के अगर अस़ल ही मज़नून (शक पर आधारित) हो तो उस पर उसके बरअक्स का भी ऐहतमाल हैं। ऐसी चीज़ दीन में अस़ल नहीं क़रार दी जा सकती’’। (अल मवाफिकात)

उपर के बयान से ये नुक्‍़ते साबित होते हैं :

(1) उसूले दीन यानी अक़ीदे मे तकलीद नाजाईज़ हैं।
(2) अक़ीदे का दलील पर मबनी होना लाज़मी हैं।
(3) इस दलील का क़तई होना वाजिब हैं, याने ये किसी किस्‍म के शक व गुमान से बालातर हो।
(4) ईल्‍म ज़न का मुक़ाबिल (rival) हैं, यानी ये क़तई (definitive) हैं।


क्‍या खबरे वाहिद ईल्‍म को फायदा देती हैं और क्‍या उसे अक़ीदे में इख्तियार किया जा सकता हैं?

अब जबकि ये ज़ाहिर हो चुका हैं के अक़ीदा क़तई ही हो सकता हैं यानी उसकी दलील सिर्फ क़तई हो सकती हैं, तो सवाल ये पैदा होता हैं के कौनसी दलील क़तई हैं और कौनसी नहीं? इस बात पर इत्तिफाक़ हैं के हदीसे मुतवातिर ईल्‍म को फायदा देती हैं यानी ये क़तई हैं, तो बहस खबरे वाहीद की बाक़ी ही रह जाती हैं। असनवी (رحمت اللہ علیہ) कहते हैं :

''जहॉ तक आहाद (खबरे वाहिद) का ताल्‍लुक़ हैं तो ये बातिल हैं (की यह क़तई को फायदा देती है) क्‍योंके आहाद की रिवायत अगर फायदा देती हैं तो वोह सिर्फ ज़न को, और शारे ने ज़न की ईज़ाजत सिर्फ अमली मसाईल में दी हैं और वोह फरूह (शाख) हैं, ईल्‍मी मसाईल में नहीं दी जैसाकि उसूले दीन के क़वाईद’'। (निहायतल सऊल)
बाज़ ने खबरे वाहीद को, अगर ये क़राईन के साथ हो, ईल्‍म तक पहुँचने का गलत दावा किया हैं।

इब्‍ने अल हमाम (رحمت اللہ علیہ) कहते हैं :

''और फुक़हा व मुहद्दसीन में से अक्सर का कहना हैं के खबरे वाहीद ईल्‍म को मुतलक़न फायदा (मदद) नहीं देती यानी ख्‍वाह वोह क़राईन के साथ हो या नहीं’’। (तहसिरूल तहरीर)

अल जस्‍सास (رحمت اللہ علیہ) का आयते मुबारका   
''अगर कोई फासिक़ कोई खबर लेकर आये तो उसकी तहक़ीक़ कर लिया करो’’। के बारे में यह कहना हैं के : इस आयत में इस पर दलालत पाई जाती हैं के खबरे वाहीद ईल्‍म को लाज़िम नहीं क्‍योंके अगर किसी हाल में ये होता तो इसमें सबूत की ज़रूरत कैसे पेश आ सकती हैं? (अल अहकामुल क़ुरआन) इसके अलावा अल अंसारी (رحمت اللہ علیہ) ने हाशयतुल मुस्‍तस्‍़फी मे इस मौक़फ को तीनो अइमाऐ ईकराम की तरफ मन्‍सूब किया हैं यानी सिवाऐ अहमद बिन हम्‍बल के। ईमाम नववी भी अकसर ओलमा की तरफ इस मौक़फ को मन्‍सूब करते हुए फरमाते हैं :

''और सहीह अहादीस जो मुतावातिर नहीं हैं, सिर्फ ज़न को फायदा देती हैं (सहायता करती हैं) क्‍योंके वोह आहाद हैं।'' (शरह सहीह मुस्लिम)

इमाम रा़जी (رحمت اللہ علیہ) का कहना हैं : 

''जहॉ तक नक़ल का ताल्‍लुक़ हैं तो वोह या तो मुतावातिर या आहाद हैं, पहली ईल्‍म को फायदा देती हैं और दूसरी ज़न को।'' (अल महसूल)

ईमाम बेज़ावी (رحمت اللہ علیہ) :

''मुतावातिर आहाद से मन्‍सूख नहीं हो सकती क्‍योंके क़तई (मामला) ज़न से ज़ाईल (गायब) नहीं हो सकता।'' (यानी ज़न क़तई पर हावी नहीं हो सकता) (अल मिनहाज़)

अबू अब्‍बास अल क़रतबी (رحمت اللہ علیہ) ने ‘इसरा और मेराज़ की रात वाली अपनी हदीस का जो उस हदीस से तारुज़ (टकराव) हैं, जिसमें नबीऐ करीम (صلى الله عليه وسلم) ने अपने रब को देखा, के बारे में कहा हैं :

''ये अमली मामला नहीं जो इसमें ज़न्नी दलाईल पर इक्तिफा किया जाऐ, बल्‍के ये ऐतक़ादी (मामला) हैं जिसमें सिवाऐ क़तई दलील के किफायत नहीं होती।'' (अलमफहूम शरह सहीह मुस्लिम)

मातुरिदी (رحمت اللہ علیہ) : ''लिहाज़ा ऐतक़ादी (अक़ीदे से सम्बन्धित) मसाईल में हुज्जत नहीं हैं क्‍योंके वोह क़तई ईल्‍म पर मबनी होते हैं और खबरे वाहीद ग़ालिब राय और गुमान को तो लाज़िम हैं मगर ईल्‍मे क़तई को नहीं।'' (उसूले फिक)

ईमाम सुबकी (رحمت اللہ علیہ) : 

''. . . . क्‍योंके ये ऐतक़ादी मसाईल में से नहीं हैं जिसमें क़तईयत की शर्त हैं’। (शरे मुख्‍तसर अल जरजानी)
यही मौक़फ क़ाज़ी इब्‍ने बाक़लानी, समरक़न्‍दी, क़राफी, शिराज़ी, बज़दवी, मुल्‍लाह अली क़ारी, अल जज़ीरी और सय्यद क़ुतुब का हैं। लिहाज़ा खबरे वाहिद को अक़ीदे में इख्तियार करना नाजाईज़ हैं।

तारीफ (परिभाषा)

ये साफ हो चुका हैं के ईमान की क्‍या हक़ीक़त हैं, चुनांचे अब ईमान की ये जामेअ व माने (विस्तृत और मुकम्मल) तारीफ (परिभाषा) मन्‍ज़रेआम पर आती हैं :
  
''वोह तस्‍दीके़ जाज़िम जो हक़ीक़त के मुताबिक और दलील पर मबनी हो।''

तस्‍दीक़ से आमाल खारिज़ हैं, नेज़ तस्‍दीके़ ज़ाज़िम का मतलब क़तई क़नाअत हैं (यकीन और सब्र) जिसमें किसी शक व शुबे का कोई ऐहतमाल ना हो और यही ईमान का लुग़वी माने हैं यानी तस्दीके़ ज़ाज़िम, हक़ीक़त के मुताबिक से मुराद ये हैं के वोह महसूस हो जिसकी तस्‍दीक़ की जा सकें चुनांचे इससे ओहाम (वहम) व ख्‍यालात खारिज़ हुए और दलील से तक्‍़लीद खारिज़ हुई। तस्‍दीके़ जाज़िम और हक़ीक़त के मुताबिक़ होने के लिए ये ज़रूरी हैं के ये दलीले क़तई हो ख्‍वाह ये अक्‍़ली हो या नक्‍़ली।                       

अक्‍़ली दलील : अपने आस-पास पाई जाने वाली चीजें को बुनियाद बनाकर अक्‍़ली बुनयादों से नतीजा निकालना, जैसे कि वोह मखलूक़ात जिन्‍हें हम अपने आस-पास महसूस करते हैं उनकी बुनियाद पर दलील देकर अल्‍लाह के वजूद को साबित करना, कलामुल्‍लाह (क़ुरआन शरीफ) पर बहस से इस्‍तेदलाल के ज़रिए इस नतीजे तक पहुचना कि यह वाक़ई अल्‍लाह का कलाम हैं और फिर चूंके मोहम्‍मद (صلى الله عليه وسلم) इस क़लाम को लेकर आये हैं, तो इससे आप (صلى الله عليه وسلم) की रिसालत की तस्‍दीक़ करना।

नक्‍़ली दलील : क़तई नक़ल के तरीके से अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) के तरफ से जो कुछ क़ुरआने करीम में जिक्र हुआ या रसूलल्‍लाह (صلى الله عليه وسلم) के हदीसे मुतवातिर में, जैसाकि गै़बी चीजे़, फरिश्‍तों, पिछली नाजिलकर्दा किताबों, गुज़रे हुए अम्बिया, रोजे़ क़यामत और तक्‍़दीर में के खैर व शर होने पर ईमान लाना। अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फरमान हैं :

يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا آمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَالْكِتَابِ الَّذِي نَزَّلَ عَلَى رَسُولِهِ وَالْكِتَابِ الَّذِي أَنزَلَ مِنْ قَبْلُ وَمَنْ يَكْفُرْ بِاللَّهِ وَمَلاَئِكَتِهِ وَكُتُبِهِ وَرُسُلِهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلاَلاً بَعِيدًا

''ऐ ईमान वालो! अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो उसने अपने रसूल पर उतारी हैं और उन किताबो पर जो उसने इससे पहले नाज़िल फरमाई हैं, ईमान लाओ! जो शख्‍स अल्‍लाह (سبحانه وتعالیٰ) से और उसके फरिश्‍तो से और उसकी किताबो से और उसके रसूलों से और क़यामत के दिन से कुफ्र करे तो वोह बहुत बडी़ दूर की गुमराही में जा पडा़’’। (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन : अन्निसा-136)

क्‍या ईमान बड़ता और घटता हैं?

ईमान (वोह तस्‍दीके़ ज़ाज़िम जो हक़ीक़त के मुताबिक़ और दलील पर आधारित हो) ना बड़ता हैं और ना ही घटता हैं क्‍योंकि ये तस्‍दीके ज़ाज़िम हैं और जुज्‍़म सिर्फ कामिल हो सकता हैं, चुनांचे ये ना 90 फिसद से 95 फिसद तक बढ सकता हैं और ना ही 100 फिसद से 95 फिसद तक घट सकता हैं क्‍योंके इस नुक़सान का मतलब ये होगा के ये अदम जुज्‍़म हैं (यानी क़तई नहीं हैं) यानी इसमें शक व शुबा हैं, फिर वोह ईमान नहीं रहेगा (जैसाकि ईमान की तारीफ का तक़ाजा हैं) बल्‍के कुफ्र होगा। (अलतेसीर फिउसूलूल तफ्सीर अलअबी रूश्‍ता)

ईमान नववी (رحمت اللہ علیہ) कहते हैं : 

''मोहद्दीसीन और फुक़हा और मुतकल्‍लमीन में से अहले सुन्‍नत इस बात पर मुत्‍तफिक़ हैं के मोमिन जिस पर ये फैस़ला दिया जाये के वोह अहले किबला में से हैं और वोह हमेशा दोज़ख में नहीं रहेगा, जो अपने दिल से दीने इस्लाम पर, शक से खाली एतक़ादे ज़ाज़िम के साथ, ऐतक़ाद लाता हैं’’। (शरह सहीह मुस्लिम)

बड़ना और घटना (अल ज्‍़यादा वल नुकसान) अल्‍फाजे़ एक जैसे हैं, इनका मआ़नी दरज़ात में घटना और बड़ना हो सकता हैं, या क़ुव्‍वत और जो़अफ (कमज़ोरी मे)। यहॉ इन दोनो माअ़नी में से कौनसा मक़सूद हैं, इसको तय क़रीना से किया जा सकता हैं। पस जब बड़ना और घटना ईमान से मकरून हो तो वोह क़ुव्‍वत व जो़अफ (कमज़ोरी) पर दलालत करेगा क्‍योंके तस्‍दीके़ ज़ाज़िम के लिए ये सही नहीं के इसमें दरज़ात में घटना और बड़ना हो। चुनांचे वोह नुसू़स जो ईमान के घटने और बड़ने के बारे में वारिद हुई हैं, उन्‍हें ज़िक्र किये गये तय शुदा मआ़नी (क़ुव्‍वत व जो़अफ) में समझा जायेगा। (अल तेहसीर फिल उसूल अल तफ्सीर लीअबी अल रूश्‍ता)।

ये ईमान के उन बुनयादी मसाईल का मुख्‍तस़र बयान था जिनको मुसलमानों के लिए हल करना ज़रूरी हैं ताके इस पुख्‍ता बुनियाद पर, बिला किसी शक व शुबे के, इतमिनान से अपनी ज़िन्दगी इस्लाम के मुताबिक़ ढा़ल सके।

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