8 नवंबर 2016 को रातों रात हिन्दुस्तानी सरकार ने 500 और 1000 के नोट बंद करने के फ़ैसले का घोषणा कर दि। लोगों को इस बात से वाखबर किया गया कि वो ये नोट सरकारी, निजी बैंकों और पोस्ट ऑफ़िस से बदलवा सकते हैं। और कोई शख़्स 2,50,000 रुपय तक की रक़म बिना किसी टैक्स के डर के अपने खातों में जमा करा सकता है। इस जल्दबाज़ी से भरे फ़ैसले ने लोगों में ज़ाहिरी तौर पर बदहवासी, बेचैनी और उलझन पैदा कर दी है और कई तरह के अनसुलझे सवालात सामने लाकर खड़े कर दिए हैं। इस मसले को ठीक ढंग से समझने के लिए हिंदुस्तान की अर्थव्यवस्था का अध्य्यन करना ज़रूरी है।
प्रथम: पिछले कुछ सालों से हिंदुस्तान के सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा संचालिक बैंकों ने 2.5 लाख करोड़ (37 बिलीयन डालर) का नुक़्सान उठाया है। ये नुक़्सान साफ तौर पर क़र्ज़दारों के क़र्ज़ ना अदा कर सकने की वजह से हुआ। पिछले दो सालों में सिर्फ स्टेट बैंक आफ़ इंडिया ने ग़ैर-अदाशुदा कर्ज़ों के नतीजे में 75,000 करोड़ रुपय (11 बिलीयन डालर) का नुक़्सान उठाया है (जिनके चुकाये जाने की बैंक को कोई उम्मीद नहीं है)।
पब्लिक सेक्टर बैंकों की द्रव्यता (नक़दी) की कमी इस हद तक़ पहुंच गई की उन्होंने देख में कारोबारों को क़र्ज़ देना बंद कर दिया है। बहुत सारे कारोबार अब कर्ज़ों के लिए विदेशी पूंजीपतियों और बैंकों की तरफ़ लौटने लगे हैं। जून के महीने की शुरूआत में, मूडीज़ इन्वेस्टर सर्विसेज़ (Moodys Investor Services) ने कहा था कि पब्लिक सैक्टर यूनिट (सरकारी) बैंकों में हिन्दुस्तानी हुकूमत को 2020 तक 1.2 लाख करोड़ रुपय उपलब्ध करने होंगे ताकि उनकी बैलेंस शीट (balance sheet) को सहारा मिल सके और उनके नुक़्सान की भरपाई हो सके। इसी बात को हिंदुस्तान के वित्त मंत्री ने अपनी बजट तक़रीर में दोहराया था। उन्होंने बयान दिया कि हुकूमत पुनर्निमाण की मंसूबाबंदी (revamp plan) का ऐलान कर चुकी है जिसका नाम 'इंद्रधनुष' है ताकि चार साल में सरकारी बैंकों में 70,000 करोड़ रुपय उपलब्ध किए जा सकें और 1.1 लाख करोड़ रुपय बैंकों को मार्किट से इकट्ठे करने होंगे ताकि पूंजी की ज़रूरीयात को वैश्विक जोखिम के मानदन्ड बसील III ( global risk norms Basel III) के मुताबिक़ पूरा किया जा सके।
दूसरा: हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा नक़दी पर आधारित है। एक रिसर्च पेपर जिसका शिर्षक "भारत मे केश की क़ीमत" (The Cost of Cash) है, ने ध्यान दिलाया है की भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उद्धयोग) का करंसी (मुद्रा) का अनुपात (12.2%) दूसरे देशो से ज़्यादा है जैसे रूस का (11.9%), ब्राज़ील (4.1%) और मेक्सीको (5.7%) है. प्राइस वाटर हाउस कूपर्स (Price Water House Coopers) की 2015 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 98 प्रतिशत सभी बडे लेन-देन केश मे होते है. छोटे बडे सभी लेने देन मे 68 प्रतिशत लेन-देन नक़दी के ज़रीया होते हैं।
अगर हम इसकी तुलना अमरीका और इंगलैंड से तुलना करें तो ये वहां बतरतीब 55 प्रतिशत और 48 प्रतिशत है। नतीजतन हिंदुस्तान में "अनऔपचारिक" और "छुपी हुई अर्थव्यवस्था" पनपी है - जिस पर कि ना कोई टैक्स लगता है, ना उस की निगरानी होती है और ना ही इस को जी डी पी में शामिल किया जाता है। मेक-किनसी ऐंड कंपनी (McKinsey & Company) के मुताबिक़ ये अर्थव्यवस्था हिंदुस्तान की जी डी पी का 26 फ़ीसद है और हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था का एक चौथाई है।
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ पब्लिक फाईनेन्स ऐंड पॉलिसी (National Institute of Public Finance and Policy) जो कि वित्त मन्त्रालय के अंतर्गत एक सार्वजनिक आर्थिक निती की संस्था है, की मई 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ नक़दी पर आधारित काली अर्थव्यवस्था देश जी डी पी का 75 प्रतिशत है।
तीसरा: चूँकि इस छुपी हुई अर्थव्यवस्था का लेन-देन बैंकिंग व्यवस्था के दायरे के बाहर होता है इस लिए हुकूमत उस की निगरानी करने मे अयोग्य है और इस लिए वो शामिल पून्जी और हासिल शुदा नफ़ा पर कोई टैक्स वसूल नहीं कर पाती जो की इसकी जी.डी.पी का कुल 26 प्रतिशत के बराबर है। पूंजीवादी हुकूमतों और संस्थाओं का मानना है कि ये अनदेखी नक़दी का बहाव अनऔपचारिक या छुपी हुई अर्थव्यवस्था को फलने फूलने और जारी रहने के मौक़े देता है।
चौथा: सबसे ज़्यादा भ्रष्टचार होने की छवी के लिये हिन्दुस्तान पूरी दुनिया मे जाना जाता जिसके सबब अंतर्राष्ट्रिय उद्धयोग और पूंजीनिवेश के लिये यह छवी सब से बडी रुकावट बनी हुई है। हालाँकि मोदी हुकूमत मे गुज़श्ता दो सालों में कोई उच्च स्तरीय घोटाला नहीं हुआ लेकिन निचली सतह पर रोज़ाना होने वाले भ्रष्टाचार में बिना रुके वृद्धी हुई है जिसने देश के कमज़ोर नागरिकों को बहुत नुक़्सान पहुंचाया है। करप्शन परसेप्शन इंडैक्स (Corruption Perception Index) एक विख्यात निगरां (watchdog) संस्था है जो कि देशो के सार्वजनिक क्षेत्र के भ्रष्टाचार मे विलिप्त होने के आधार पर स्कोर और रैंक देती है, वो हिंदुस्तान को भ्रष्टाचार में 38 नंबर पर रखती है जो कि इस को सर्वे किए गए 168 देशों में 76वें पोज़ीशन पर ला खड़ा करता है। मौजूदा हुकूमत को इस की वजह से विदेशी निवेशको को हिंदुस्तान में पूंजीनिवेश के लिये मनाने मे मुश्किल होती है।असल कारण जिनकी वजह से करंसी बंद करना पड़ी।
1. मोदी हुकूमत को इस बात का एहसास था कि बैंकों में रक़म भरने के लिये परिमाणात्मक नरमी (या नई मुद्रा छाप कर बढाने) से अर्थव्यवस्था में और ज़्यादा महंगाई बढ़ेगी जबकि अर्थव्यवस्था पहले से महंगाई का शिकार है। इस के बजाय हुकूमत ने बैंकों में ज़रूरी द्रव्यता (liquidity/केश रक़म) को लाने के लिए इस नोट बंदी के तरीक़ेकार को चुना। और हाल में ही कार्यांवित इस फ़ैसले का असर दिखाई दिया। इस का अंदाज़ा इस से लगाया जा सकता है कि इस ऐलान के दो दिन बाद 12 नवंबर को वित्त मंत्री ने फ़ख़्रिया तौर पर यह घोषणा हैं कि "पब्लिक और निजी बैंकों में हफ्ते की शाम तक तक़रीबन 2 लाख करोड़ रुपय जमा हो चुके हैं।" ख़बरों से पता चलता है कि अकेले स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) में इस ऐलान के बाद सिर्फ एक दिन में 39,677 करोड़ रुपय जमा हुए जब कि आम तौर से इतनी रक़म एक महीने में जमा होती है।
2. मोदा सरकार अपनी इस कोशिश के ज़रिये देश के कृषी और उस से सम्बंधित मार्केट को मल्टीनेश्नल कम्पनियों जैसे की अमरीकी "वालमार्ट" के लिये खोलना चाहती है, जिसका मंडियों की ट्रेड यूनियनो (व्यापार संध) और होलसेल केंद्रों ने शदीद विरोध किया, जिनका ज़्यादातर लेन देन नक़दी मे होता है और जो किसान का ज़्यादातर माल खरीदते है और फुटकर व्यापारियों बेचते है. अब नक़दी की गैर-मौजूदगी मे यह व्यापार संघ सरकार पर ज़्यादा दवाब नही डाल सकेंगे और साथ ही साथ कृषी उद्धोग और समबंधित मार्केट का दरवाज़ा अंतर्राष्ट्रिय कमपनियों के लिये खुल जायेगा.
3. मोदी हुकूमत शिद्दत से आर्थिक समावेश की स्कीम के लिए काम कर रही है जिसके अंतरगत पिछले दो सालों में हिंदुस्तान के ज़्यादातर देहाती इलाक़ों में 265 मिलियन बैंक खाते खोले गए। ये स्कीम 'जनधन' योजना के नाम से जानी जाती है और इस का विशेष मक़सद देहाती शहरीयों को बैंकों पर संलग्न करना है। हालाँकि हुकूमत की तरफ से प्रेरित करने के बावजूद भी ये खाते ज़्यादातर ख़ाली रहे हैं।
इसके अलावा, मोदी हुकूमत नक़दी पर आधारित अर्थव्यवस्था के दायरे को सीमित करना चाहती है और लोगों के ज़्यादातर लेन-देन के मामलात को हुकूमत की निगरानी में लाना चाहती है जैसा कि ज़्यादातर तर विकसित देशो का ममला है। और बड़े नोटों (500 और 1000) को बंद करके हिन्दुस्तानी हुकूमत देहाती और शहरी दोनों तरह के हिंदुस्तानियों को अपनी रक़म जमा करने पर मजबूर कर रही है ।
2. मोदा सरकार अपनी इस कोशिश के ज़रिये देश के कृषी और उस से सम्बंधित मार्केट को मल्टीनेश्नल कम्पनियों जैसे की अमरीकी "वालमार्ट" के लिये खोलना चाहती है, जिसका मंडियों की ट्रेड यूनियनो (व्यापार संध) और होलसेल केंद्रों ने शदीद विरोध किया, जिनका ज़्यादातर लेन देन नक़दी मे होता है और जो किसान का ज़्यादातर माल खरीदते है और फुटकर व्यापारियों बेचते है. अब नक़दी की गैर-मौजूदगी मे यह व्यापार संघ सरकार पर ज़्यादा दवाब नही डाल सकेंगे और साथ ही साथ कृषी उद्धोग और समबंधित मार्केट का दरवाज़ा अंतर्राष्ट्रिय कमपनियों के लिये खुल जायेगा.
3. मोदी हुकूमत शिद्दत से आर्थिक समावेश की स्कीम के लिए काम कर रही है जिसके अंतरगत पिछले दो सालों में हिंदुस्तान के ज़्यादातर देहाती इलाक़ों में 265 मिलियन बैंक खाते खोले गए। ये स्कीम 'जनधन' योजना के नाम से जानी जाती है और इस का विशेष मक़सद देहाती शहरीयों को बैंकों पर संलग्न करना है। हालाँकि हुकूमत की तरफ से प्रेरित करने के बावजूद भी ये खाते ज़्यादातर ख़ाली रहे हैं।
इसके अलावा, मोदी हुकूमत नक़दी पर आधारित अर्थव्यवस्था के दायरे को सीमित करना चाहती है और लोगों के ज़्यादातर लेन-देन के मामलात को हुकूमत की निगरानी में लाना चाहती है जैसा कि ज़्यादातर तर विकसित देशो का ममला है। और बड़े नोटों (500 और 1000) को बंद करके हिन्दुस्तानी हुकूमत देहाती और शहरी दोनों तरह के हिंदुस्तानियों को अपनी रक़म जमा करने पर मजबूर कर रही है ।
4. हिन्दुस्तानी हुकूमत अपने इस अनुपयुक्त तरीक़े को इस छुपी हुई अर्थव्यवस्था के ख़िलाफ़ एक अभियान के तौर पर श्रेय देती है। हिन्दुस्तानी हुकूमत ये तवक़्क़ो रखती है कि कुल अर्थव्यवस्था मे परिसंचालित 17.11 लाख करोड़ रुपय में से तक़रीबन 3 लाख करोड़ (45 बिलीयन डालर) रुपय नए नोटों से नहीं बदले जा सकेंगे (RBI के 28 अक्तूबर 2016 के रिकॉर्ड के मुताबिक़)। इस से हुकूमत ये तास्सुर देना चाहती है कि हुकूमत के ज़्यादा टैक्स और जुर्माना आइद करने के डर से वो लोग अपना पैसा बैंकों में जमा नहीं करेंगे जिनके पास स्याह नक़दी है। वर्ल्ड बैंक के मुताबिक़ 2016 में हिंदुस्तान की GDP (घरेलू सकल उत्पादन) $ 2073.54 बिलीयन डालर थी जिसका ये मतलब है कि छुपी हुई अर्थव्यवस्था का हिस्सा $523 बिलीयन डालर बनेगा क्यों कि हिंदुस्तान की छुपी अर्थव्यवस्था कुल जी. डी. पी. का 26 प्रतिशत है। अब अगर इस मुहीम से हाँसिल 3 लाख करोड़ (45 बिलीयन डालर) काले धन की रक़म को असल में मौजूद $523 बिलीयन डालर के काले धन से तुलना करें तो जो रक़म इस मुहिम से बरामद होगी वो कुल रक़म की सिर्फ 8 प्रतिशत होगी। क्यों कि कई सालों के अर्से में इस को बैंकों में कानूनी तौर से जमा किराया जा चुका है, भूमी सम्पदा व्यापार (real estate) में इस को खर्च किया जा चुका है और एक बड़ा हिस्सा सुरक्षित तरीक़े से विदेशी बैंकों में जमा किया जा चुका है।
इस लिए असल में नोट बंदी के इस फ़ैसले का नाममात्र ही कोई असर पिछले कई सालों से छुपी अर्थव्यवस्था से कमाये हुए पैसे या काले धन पर पड़ने वाला है।
5. ये एक ज़ाहिरी राज़ है कि तमाम राजनैतिक पार्टीयों के पास बे-इंतिहा नक़दी मौजूद रहती है, जो कि सैंकड़ों करोड़ों में होती है। राजनैतिक पार्टीयों के ज़्यादातर चुनावी अभियान के खर्चे इसी ग़ैर-सरकारी रक़म से पूरे होते हैं। पिछली एक दहाई का डाटा इस तरफ़ इशारा करता है कि राजनैतिक पार्टीयों को जाने वाला 75 प्रतिशत पैसा दस्तावेज़ी रिकॉर्ड के बग़ैर होता है। 2016 के सिर्फ बिहार के चुनाव में चुनाव आयोग ने 80 करोड़ रुपय ज़ब्त किए थे।
नोट बंदी का साफ़ मतलब ये होगा कि सारी गैर-टेक्स शुदा नक़दी रक़म जिसका इस्तिमाल राजनैतिक पार्टीयां वोटों को ख़रीदने में करती हैं वो केवल काग़ज़ के टुकड़ों में तबदील हो जाएगी।इस तरह से मोदी सरकार ने आइन्दा महीनों में होने वाले असैंबली चुनाव के लिए तमाम बड़ी विपक्षी राजनैतिक पार्टीयों का गला घोट दिया है। अब जिन पार्टीयों और उम्मीदवारों के पास अपने चुनावी अभियान के खर्चे चलाने के लिए इस तरह का ग़ैर-टेक्सशुदा पैसा है उनको अब इस को ठिकाने लगाने और नए सिरे से रकम इकट्ठे करने के नये माध्यम तलाश करने होंगे।
इस्लामिक नुक़्ताए नज़र
1. पूंजीवादी व्यवस्था और उनके बैंक सूदी (ब्याज पर) लेन-देन से चलते हैं जोकि बैंकों की नाकामयाबी की असल वजह है और 2007 से वैश्विक आर्थिक संकट की वजह रहा है।
अल्लाह सुबहानहु वतआला क़ुरआन मजीद में फ़रमाता है:
"وَأَحَلَّ اللَّهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبَا"
"अल्लाह ने तिजारत को हलाल किया है और सूद को हराम किया है।" (अलबक़रा 275)
इस्लाम ब्याज पर आधारित सारे मुआहिदों को ख़त्म करता है और इस की जगह नफा-नुक़सान पर आधारित मुआहिदों को राइज करता है। ब्याज की गैर-मौजूदगी लोगों को बैंकों में पैसा जमा करने से दूर रखती है। पैसे को बैंक में जमा करके इस पर हर साल 2.5 प्रतिशत ज़कात देने की बजाये लोगों के रुझान रक़म को बाज़ार और कारोबार में लगाने पर हो जाते हैं। कारोबार मे पूंजीनिवेश करने से आर्थिक गतिविधियो में इज़ाफ़ा होता है और ये किसी भी अर्थव्यवस्था को बढ़ाती है और बेहतर रोज़गार और बेहतर जीवन स्तर को सुनिश्चित करती है।
2. आजकल करंसी काग़ज़ी है जिसकी अपना कोई मूल्य नहीं है ना ही उसके पीछे कोई वास्तविक सम्पती है (जैसे सोना चांदी वगैराह) नतीजतन यह पूंजीवाद के बनाये हुए झूटे एतबार पर टिकी हुई है। वैश्विक तौर पर हमेशा बढ़ती महंगाई का यह सबसे बडा कारण है। इस्लाम सोने और चांदी की मुद्रा (करंसी) को आधार बना कर इस मसले का हल देता है। सोने और चांदी के मुताल्लिक़ क़ुरआन और सुन्नत में अहकाम और नियम तय किए हुए हैं। नबीए करीम (صلى الله عليه وسلم) ने ठोस और हक़ीक़ी चीज़ो (जैसे सोना और चांदी) को इस्लामिक करंसी की बुनियाद क़रार दिया है। यानी दिरहम और दीनार, इस तरह एक ऐसी करंसी जिसकी का वास्तविक और प्राकृतिक मूल्य हो और जो अपनी क़ीमत को बरक़रार भी रखे। एक ऐसी करंसी जो न सिर्फ अपनी बुनियाद से जुड़ी हो बल्कि इसको वास्तविक मूल्य की करंसी मे परिवर्तित भी किया जा सकता हो। इस लिए खिलाफत की व्यवस्था में कोई भी बैतुलमाल जा सकता है और अपने काग़ज़ के नोट को सोने और चांदी से तबदील भी करा सकता है। सोने और चांदी के स्थिर होने की वजह से महंगाई (inflation) ख़त्म हो जाती है।
3. इस्लाम माल (धन) की जमाख़ोरी का समर्थन नही करता और इस बात पर ज़ोर देता है की माल सिर्फ कुछ लोगों में ही ना घूमता करता रहे। अल्लाह सुबहानहु व ताला माल के मुताल्लिक़ फ़रमाता है:
2. आजकल करंसी काग़ज़ी है जिसकी अपना कोई मूल्य नहीं है ना ही उसके पीछे कोई वास्तविक सम्पती है (जैसे सोना चांदी वगैराह) नतीजतन यह पूंजीवाद के बनाये हुए झूटे एतबार पर टिकी हुई है। वैश्विक तौर पर हमेशा बढ़ती महंगाई का यह सबसे बडा कारण है। इस्लाम सोने और चांदी की मुद्रा (करंसी) को आधार बना कर इस मसले का हल देता है। सोने और चांदी के मुताल्लिक़ क़ुरआन और सुन्नत में अहकाम और नियम तय किए हुए हैं। नबीए करीम (صلى الله عليه وسلم) ने ठोस और हक़ीक़ी चीज़ो (जैसे सोना और चांदी) को इस्लामिक करंसी की बुनियाद क़रार दिया है। यानी दिरहम और दीनार, इस तरह एक ऐसी करंसी जिसकी का वास्तविक और प्राकृतिक मूल्य हो और जो अपनी क़ीमत को बरक़रार भी रखे। एक ऐसी करंसी जो न सिर्फ अपनी बुनियाद से जुड़ी हो बल्कि इसको वास्तविक मूल्य की करंसी मे परिवर्तित भी किया जा सकता हो। इस लिए खिलाफत की व्यवस्था में कोई भी बैतुलमाल जा सकता है और अपने काग़ज़ के नोट को सोने और चांदी से तबदील भी करा सकता है। सोने और चांदी के स्थिर होने की वजह से महंगाई (inflation) ख़त्म हो जाती है।
3. इस्लाम माल (धन) की जमाख़ोरी का समर्थन नही करता और इस बात पर ज़ोर देता है की माल सिर्फ कुछ लोगों में ही ना घूमता करता रहे। अल्लाह सुबहानहु व ताला माल के मुताल्लिक़ फ़रमाता है:
"كَيْ لَا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الْأَغْنِيَاءِ مِنْكُمْ"
"ताकि तुम्हारे दौलत मंदों के हाथ में ही माल घूमता ना रह जाये।" [अलहशर:7]
"ताकि तुम्हारे दौलत मंदों के हाथ में ही माल घूमता ना रह जाये।" [अलहशर:7]
माल और दौलत की गर्दिश को तमाम नागरिकों में क़ायम करना इस्लाम की नज़र में एक फ़रीज़ा (कर्तव्य) है और माल का चन्द लोगों में ध्रुवीकरण होने को इस्लाम ने हराम क़रार दिया है। इस तरह दौलत और सामान की जमाखोरी/एकाधिकार हराम है। बाज़ार मे एकाधिकार (monopoly) को इस्लाम ज़ालिमाना और अत्याचार क़रार देता है। जमाखोरी को ढील नहीं दी जाती है और ना ही एकाधिकार की इजाज़त दी जाती है ताकि कुछ ख़ास लोग ही क़ीमत को तय ना करें। इस की बुनियाद एक हदीस पर है, अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) फ़रमाते हैं:
"जिस किसी ने एकाधिकार किया उसने गलती की।" [मुस्लिम]
4. सरकार के द्वारा झूटा यक़ीन दिलाने के बावजूद कि नोटबंदी एक साफ सुथरी अर्थव्यवस्था पैदा करना है जो आम लोगों के लिये बेहतर होगा जब कि इस आर्थिक अभियान से सिर्फ देश के बीमार बैंक, सरकार का वक़ार और उसके भविष्य मे राजनैतिक स्वार्थ को ही फायदा पहुंचेगा ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का मिज़ाज ही यही है कि वो सिर्फ़ पूंजीपतियों और हुकूमती वर्ग से जुड़े लोगों के फाईदे के लिए काम करता है और इस से तमाम विश्व में फ़साद बरपा है। हिन्दुस्तान का ये आर्थिक संकट सिर्फ़ अकेला नहीं है। वास्तिक तौर पर ऐसे सैंकड़ों संकट हिन्दुस्तान और दूसरे देशो में आते रहे हैं।
इस सेक्यूलर पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था की मिसाल मकड़ी के जाले की मानिंद है जो कि पेचीदा होने के बावजूद भी उतना कमज़ोर होता है।
अल्लाह तआला क़ुरआन मे इरशाद फरमाता है:
"مَثَلُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ أَوْلِيَاءَ كَمَثَلِ الْعَنْكَبُوتِ اتَّخَذَتْ بَيْتًا ۖ وَإِنَّ أَوْهَنَ الْبُيُوتِ لَبَيْتُ الْعَنْكَبُوتِ ۖ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ۔"
" जिन लोगों ने अल्लाह ताला के सिवा और कारसाज़ मुक़र्रर कर हैं उनकी मिसाल मकड़ी सी है कि वो भी एक घर बना लेती है, हालांकि तमाम घरों से ज़्यादा कमज़ोर घर मकड़ी का घर ही है। काश वो जान लेते" (अल-अनकबूत - 41)
नोट बन्दी से पैदा शूदा संकट और तमाम दूसरी आर्थिक समस्याऐं जो कि हिन्दुस्तान और वैश्विक तौर पर इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पैदावार हैं उनका एकलौता हल सिर्फ़ इस्लाम का निफ़ाज़ है जिसकी कि एक मुकम्मल और विस्तृत अर्थव्यवस्था है जो कि पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था की पैदा करदा समस्याओं को अच्छी तरह से हल कर सकता है और एक न्याय पर आधारित, अटल और ख़ुशहाल अर्थव्यवस्था को स्थापित करता है।
"जिस किसी ने एकाधिकार किया उसने गलती की।" [मुस्लिम]
4. सरकार के द्वारा झूटा यक़ीन दिलाने के बावजूद कि नोटबंदी एक साफ सुथरी अर्थव्यवस्था पैदा करना है जो आम लोगों के लिये बेहतर होगा जब कि इस आर्थिक अभियान से सिर्फ देश के बीमार बैंक, सरकार का वक़ार और उसके भविष्य मे राजनैतिक स्वार्थ को ही फायदा पहुंचेगा ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का मिज़ाज ही यही है कि वो सिर्फ़ पूंजीपतियों और हुकूमती वर्ग से जुड़े लोगों के फाईदे के लिए काम करता है और इस से तमाम विश्व में फ़साद बरपा है। हिन्दुस्तान का ये आर्थिक संकट सिर्फ़ अकेला नहीं है। वास्तिक तौर पर ऐसे सैंकड़ों संकट हिन्दुस्तान और दूसरे देशो में आते रहे हैं।
इस सेक्यूलर पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था की मिसाल मकड़ी के जाले की मानिंद है जो कि पेचीदा होने के बावजूद भी उतना कमज़ोर होता है।
अल्लाह तआला क़ुरआन मे इरशाद फरमाता है:
"مَثَلُ الَّذِينَ اتَّخَذُوا مِنْ دُونِ اللَّهِ أَوْلِيَاءَ كَمَثَلِ الْعَنْكَبُوتِ اتَّخَذَتْ بَيْتًا ۖ وَإِنَّ أَوْهَنَ الْبُيُوتِ لَبَيْتُ الْعَنْكَبُوتِ ۖ لَوْ كَانُوا يَعْلَمُونَ۔"
" जिन लोगों ने अल्लाह ताला के सिवा और कारसाज़ मुक़र्रर कर हैं उनकी मिसाल मकड़ी सी है कि वो भी एक घर बना लेती है, हालांकि तमाम घरों से ज़्यादा कमज़ोर घर मकड़ी का घर ही है। काश वो जान लेते" (अल-अनकबूत - 41)
नोट बन्दी से पैदा शूदा संकट और तमाम दूसरी आर्थिक समस्याऐं जो कि हिन्दुस्तान और वैश्विक तौर पर इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की पैदावार हैं उनका एकलौता हल सिर्फ़ इस्लाम का निफ़ाज़ है जिसकी कि एक मुकम्मल और विस्तृत अर्थव्यवस्था है जो कि पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था की पैदा करदा समस्याओं को अच्छी तरह से हल कर सकता है और एक न्याय पर आधारित, अटल और ख़ुशहाल अर्थव्यवस्था को स्थापित करता है।
हिज़्बुत्तहरीर के सदस्य
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