इस साल मुस्लिम देशो
में रमज़ान का आगाज़ .... जुलाई को और बर्रे सग़ीर हिंद में ....... जुलाई से हो गया
है। ये वो अज़ीम बाबरकत महीना है जिसमें अल्लाह سبحانه وتعالى की ख़ास रहमत आम हो
जाती है और जन्नत के दरवाज़े खोल दिए जाते हैं और शतीन को क़ैद कर दिया जाता है। इसी
महीना को अल्लाह (سبحانه
وتعالى)
ने रोज़े के लिए ख़ास किया, और इसी महीने को ये फ़ज़ीलत बख्शी कि पिछले अम्बियाओं को तौरात, इंजील, ज़बूर और इब्राहीम अलैहिस्सलाम
को सहीफ़े अता किए गए।
इसी बाबरकत रमज़ान
में मुसलमान फ़ितरी तौर पर अपने नेक कामों में इज़ाफ़ा करते हुए अल्लाह سبحانه وتعالى की खूशनुदी हासिल करने
की कोशिश करते है। ये सिलसिला रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ करने के बाद से लेकर आज तक बदस्तूर
चालू है। इतिहास इस बात का गवाह है कि मुसलमान आज भी इस्लाम की रोशनी से अपने सीनों
को गर्म कर रहें है।
हर बालिग़ मर्द और औरत
पर रोज़े फ़र्ज़ है, सुबह सादिक़ से लेकर ग़ुरूबे अफताब तक उनको खाने और पीने से रुके रहना पड़ता है।
भूख और प्यास की हालत में ये सवाल फ़ितरी तौर पर सामने आता है कि हम भूखे प्यासे रह
कर अल्लाह سبحانه وتعالى की इबादत क्यों कर रहे हैं और इससे हम क्या हासिल करना चाहते हैं।
बदक़िस्मती से हमारे
कुछ भाई रमज़ान के महीने में ही इबादात की तरफ़ राग़िब होते हैं और साल भर की इबादत इसी
महीने में करने की सआदत हासिल करने की जद्दोजहद कर साल भर की इबादत से फ़ुर्सत पा लेते
हैं। बहुत से भाई सिर्फ़ रमज़ान के महीने में महसूस करते हैं कि वो भी मुसलमान है और
इस्लाम से उनका थोडा बहुत रिश्ता बाक़ी हैं। इससे पहले मुसलमानों का रवैय्या इस्लाम
के लिए ऐसा कभी नहीं रहा। ये मुसलमान रमज़ानी मुसलमान के नाम से जाने जाते हैं। जो अपने अमल और रवैय्या से इसी महीने में नमाज़, रोज़ा, तरावीह, तिलावत और तहज्जुद की पाबंदी करते हैं। हलाल और हराम का भी ख़्याल रखने के साथ
साथ मस्जिदों की रौनक भी यही बडा़ते है। फिल्में, टी.वी, गपबाजी से भी बहुत हद तक परहेज़ और बहुत सी फिज़ूलियात से जो साल भर अंजाम देते
है इस महीना में उसे तलाक़ दे देते हैं। रमज़ानी मुसलमानों में मुसलमानों की सी खूबीयॉं
हमारे बुज़ुर्गों, नौजवानों, माओं और बहनों में आसानी से देखी जा सकती हैं।
ईद की नमाज़ के साथ
ही अक्सर ये देखा जाता है कि जितने भी हसनात और इबादात का ईज़हार मस्जिदों और घरों
में होता था वो सब ग़ायब होने लगता है, मस्जिदें वीरान और सुबह बेजान नज़र आने लगती हैं। माओं और बहनों के सरों से हिजाब
छूट जाता है। बेहूदा और अश्लील प्रोग्रामों में लोगो की तादाद बड़ जाती है। क़ुरआन
को कवर में लपेट कर आने वाले साल के लिए रख दिया जाता है। हमारा ये रवैय्या रमज़ान
के लिए साफ़ बताता है कि अच्छी ख़ासी तादाद ने रमज़ान के महीने को नहीं समझा है। रमज़ान
को भी उन्होंने दूसरे धर्मों के व्रत और ऊपवास की तरह मान लिया है। रमज़ान भी नवरात्री
की तरह हो गया कि हिन्दू नौ दिन मंदिरों और घरों में हंगामा और पूजा उपासना करते हैं
और हम एक माह मुसलमानों की तरह इबादत करेंगे।
ये कोई राज़ की बात
नहीं कि अक्सर मुसलमान ऐसा क्यों करते है। हमारा इस्लाम के लिए पार्ट टाइम (part-time) रवैय्या हमारे समाज में राइज पार्ट टाइम (part-time) इस्लाम की तरफ़ ही ईशारा करता है। पश्चिमी और पूर्वी संस्कृतियों के ज़ेरे असर
इस्लामी निज़ाम (व्यवस्था) के ना होने की वजह से इस्लाम की नुमाइंदगी सिर्फ़ व्यक्तिगत
(इन्फ़िरादी) ज़िंदगी में ही नज़र आती है। इस्लाम की हुक्मरानी सिर्फ़ व्यक्तिगत (इन्फ़िरादी)
ज़िंदगी में ही होनी चाहिए बाक़ी ज़िंदगी में इस्लाम क़ाबिले क़बूल नहीं है; इस नज़रिये की
वजह से इस्लाम सिर्फ़ रमज़ान के महीने में ही नज़र अता है। संडे के संडे चर्च और नवरात्री
और शिवरात्री की तरह जुमा और रमज़ान के महीने में ही इस्लाम की नुमाइंदगी नज़र आती है।
बहुत से मुसलमान ये
दावा करते हुए देखे जा सकते है या जो ये ऐलान करते हैं कि हम इस्लाम में यक़ीन रखते
हैं और इस्लाम पूरी ज़िंदगी में रहनुमाई करता है मगर एक वक़्त में वो अमलन इस बात का
भी ऐलान करते हैं कि इस्लाम का दायरा सिर्फ़ मस्जिद और घर में और इस पर मुकम्मल पाबंदी
साल के एक महीने रमज़ान में होनी चाहीए। एक मुसलमान जो इस तरह का रवैय्या इस्लाम, क़ुरआन और रमज़ान के साथ रखता है वो अल्लाह
को भी इसी तरह मानता है जैसे एक हिंदू, जैनी और ईसाई अपनी अक़्ल की और ख्वाहिशात के मुताबिक़ अपने अपने ख़ुदा को मानते
है और ख़ुद से ये राय क़ायम कर लेते हैं कि इससे उनका ख़ुदा राज़ी हो जाएगा। रमज़ानी
मुसलमानों ने भी ये राय क़ायम कर ली है कि बस अल्लाह भी उनके एक महीने के रोज़े से ख़ुश
हो जाएगा।
ऐसे लोग जो इबादत को
सिर्फ़ रमज़ान के महीने के लिए ख़ास समझ लेते है इस माह में वो बहुत जज़बाती हो जाते
है। पूरा महीना वो इबादात, नमाज़, ज़िक्र और अज़कार में गुज़ार देते है। टी वी पर पर्दा डाल दिया जाता है। जो कुछ साल
भर में ख़ता और गुनाह किए है उन पर नदामत और अपने लिए बख्शिश के तलबगार बन जाते हैं
और नई ज़िंदगी में एक मुसलमान की तरह ज़िंदगी बसर करने का अह्द लेते है। अल्लाह का शुक्र
है कि वो इस्लाम की तरफ लौटना चाहते है और ये मानते है कि हमें इस ज़िंदगी का हिसाब
देना है। इस दुनिया में हम आज़ाद जानवर की तरह ज़िंदगी नहीं बसर कर सकते। मगर अफ़सोस कि
ईद के साथ ही ये नदामत (अफसोस) और नया इरादा भी आहिस्ता आहिस्ता रुखसत हो जाता है।
ये दिमागी व
रूहानी बैचेनी और बेक़रारी हमेशा उन लोगों के साथ लगी रहती है जो एक तरफ़ ये मानते है
कि हमारा पैदा करने वाला अल्लाह है और उसी की मर्ज़ी के मुताबिक़ हमें अपनी ज़िंदगी गुज़ारना
चाहिए। दूसरी तरफ़ वो ये इनकार करते है कि इस्लाम ज़िंदगी के दूसरे मामलों में क़ाबिले
क़बूल नहीं है। कैसे इस्लाम आज 21वी सदी में नई मुश्किलों को हल करने की अहलीयत रखता
है? व्यवहारिक तौर वो इस
बात को क़बूल नहीं कर पाते कि इस्लाम हमारे मसाइल का साफ हल दे सकेगा। यही एक हक़ीक़ी
उलझन है जिसकी वजह से वो ये फ़ैसला नहीं कर पाते कि पार्ट टाइम इस्लाम पर चलें या मुकम्मल
इस्लाम पर क़ायम हो जाये। आइए इस मसले का हल तलाश करने के लिए हमें इस मुबारक महीने
में अपने आप से कुछ संजीदा सवाल करने चाहिए।
क्या हम इस बात पर यक़ीन रखते है कि क़ुरआन जो इस बाबरकत माह में नाज़िल हुआ है
सारी दुनिया की हिदायत और तमाम ज़िंदगी के लिए है या सिर्फ़ साल के एक महीना के लिए
है?
हमारे इस यक़ीन की
क्या बुनियाद है कि रमज़ान के दिनों में रोज़ा और नमाज़ें अदा करने से और साल के ग्यारह
महीने के फ़राइज़ को भूल जाना हमारी बख्शिश के लिए काफ़ी है?
क्या रमज़ान के रोज़े रखने से ये इजाज़त मिल जाती है कि साल भर इस्लाम से दूर रहा
जाये?
अल्लाह (سبحانه وتعالى)
क़ुरआने क़रीम में फ़रमाता है :
شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِي
أُنزِلَ فِيهِ الْقُرْآنُ هُدًى لِلنَّاسِ وَبَيِّنَاتٍ مِنْ الْهُدَى
وَالْفُرْقَانِ فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمْ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ
रमज़ान का महीना वो है जिस में क़ुरआन नाज़िल किया गया, जिस में इंसानियत के
लिए हिदायत और खुली हुई निशानीयां और (हक़-ओ-बातिल के दरमयान) फ़र्क़ है। सोतम में जो
ये महीना पाए वो इस महीना के रोज़े रखे। (सूरा-ए-बक़रा आयत: 185)
इस्लाम का मुक़ाबला
दूसरे मज़हबो के साथ हरगिज़ नहीं किया जा सकता। इस्लाम एक दीने हक़ है जो ज़िंदगी के
तमाम मामलो में वाज़ेह (साफ) और हक़ीक़ी रहनुमाई (मार्गदर्शन) करता है, इसमें सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आयली सबके
लिए खुला हुक्म है, और उन अहकाम को लागू करने का तरीक़ा भी इस्लाम में मौजूद है। अल्लाह (سبحانه وتعالى)
ने हरगिज़ सिर्फ़ रमज़ान के रोज़ों के लिए ही हुक्म नहीं दिया कि कब रोज़ा रखा जाये और
कब इफ़तार किया जाये बल्कि ज़िंदगी के तमाम मामलों (मामलात) के लिए अहकाम नाज़िल लिए
है कि किस तरह कारोबार किया जाये, बीवी और बच्चों की तालीम और तर्बीयत और उम्मत के मामलात की देख भाल के लिए क्या
तरीक़ा अपनाया जाये।
आधुनिक हराम और ग़ैर-इस्लामी
समाज में कैसे इस्लामी शनाख्त (पहचान) बाक़ी रखी जाये। कैसे काफ़िराना विचारों से उम्मत
को बचाया जाये। इसी तरह नबी (صلى الله عليه وسلم) की सीरते पाक से भी हमें ये हुक्म मिलता
है कि किस तरह इस्लाम की दावत पेश की जाये कि हमारे नौजवान, बुज़ुर्ग और नौ उम्र अल्लाह के घर मस्जिद
की शान बड़ा सके और इस्लाम को एक महीना ही नहीं बल्कि ज़िंदगी भर और तमाम दुनिया के लिए
क़ायम कर दे। इसलिए रमज़ान एक ऐसा महीना होना चाहिए जिसमें हम अपना ताल्लुक़ अल्लाह
(سبحانه وتعالى) से क़रीब कर ज़िंदगी भर इसमें तरक़्क़ी कर सके ना कि ये रिश्ता
एक महीने का हो।
अल्लाह (سبحانه وتعالى)
क़ुरआने क़रीम में इशाद फ़रमाता है :
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا
كُتِبَ عَلَيْكُمْ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَى الَّذِينَ مِنْ قَبْلِكُمْ
لَعَلَّكُمْ تَتَّقُونَ (البقرة: 183
ए ईमान वालों! तुम पर रोज़े फ़र्ज़ किए गए, जैसे तुम से पहले लोगों
पर किए गए थे, ताकि तुम तक़्वे वाले हो जाओ। (सूरा-ए-बक़रा आयत:
183)
तक़्वा लफ़्ज़ वक़अ
से निकाला है जिसके मानी हिफ़ाज़त करने से है। ये हिफ़ाज़त अल्लाह سبحانه وتعالى के ग़ुस्से से बचने के लिए और उसके अज़ाब से निजात पाने के लिए है। इसलिए किसी
अमल को करते वक़्त तक़्वा (अल्लाह का खौफ) रखने का हुक्म है ताकि उन कामों को किया
जाये जिनके करने से उसकी रज़ा हासिल होती है और उन कामों से बचा जाये जिनके करने से
उसका ग़ज़ब और नाराज़गी मिलती है। तक़्वा के मानी है कि तमाम कामों को करते वक़्त अल्लाह
के हुक्म और उसकी मन्शा को सामने रखा जाये। रोज़ा हमारे तक़्वे को बडा़ने में मददगार
होना चाहिए, ये भूख और प्यास की हालत हमें इस बात का पल पल एहसास कराती है कि भूक, प्यास और थकन से हम क्या हासिल करना चाहते
है। हमारे रब ने रोज़े किस मक़सद से फ़र्ज़ किए है और हम इससे क्या हासिल कर रहें हैं?
हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने कुछ नमाज़ियों को देखा तो ये फ़रमाया :
'तुम्हारे कसरत से सर उठाने और सजदों में सर झुकाना मुझे धोखे में नहीं डाल सकता।
हक़ीक़ी दीन तो ये है कि जिन कामों से अल्लाह ने बचने का हुक्म दिया है उनसे बचा जाये
और जिन कामों को करने का हुक्म दिया है उनको किया जाए।''
अमल करने का और ना
करने का मियार तो अल्लाह का हुक्म है, हज़रत अली (رضي الله
عنه)
के बेटे हज़रत हसन (رضي الله عنه) ने एक बार फ़रमाया :
''मुत्तक़ी तो वो होते
है जो उन कामों से रुकते है जिनको अल्लाह ने मना किया है और उन कामों को करते है जिनको
करने का हुक्म दिया है।''
हज़रत उमर बिन अब्दुल अजीज़ (رحمت
اللہ علیہ)
ने कहा:
''तक़्वा ये नहीं कि दिन में रोज़ा रखा जाये और रातों को इबादत की जाये या दोनों
को मिला दिया जाये। तक़्वा तो ये है कि उन कामों को छोड़ दिया जाये जिनको अल्लाह ने
हराम किया है और उन कामों को किया जाये जिनको करने का हुक्म दिया है।''
इब्ने जोज़ी ने अपनी तफ़्सीर में
लिखा है :
''तक़्वा के मानी ख़ुशु
और ख़ुज़ू से अल्लाह की इबादत की जाये और उसकी नाफ़रमानी वाले कामों को छोड़ दिया जाये।
यही तमाम खैर की जमा है।''
तक़्वा हासिल करने
के लिए और रमज़ानी मुसलमान का ठप्पा मिटाने के लिए हमारे पास एक मज़बूत बुनियाद होना
चाहिए कि अल्लाह سبحانه
وتعالى
हमारा और इस कायनात का ख़ालिक़ है और हम अपने सब कामों के लिए
उसके सामने जवाबदेह है। हमारे ईमान और एक ग़ैर-मुस्लिम हिंदू या ईसाई के ईमान में फ़र्क़
होना चाहिए। वो भी ये कह सकते है कि हमारा मज़हब सच्चा है मगर जब उनसे कहा जाता है कि
साबित करो तो वो ये साबित नहीं कर सकते कि उनका दीन सच्चा है, चूँकि उन्होंने अपने बाप दादाओं से यही सुना
है कि इनका मज़हब सहीह है बस मान लिया। अगर एक मुसलमान का रवैय्या भी यही हो तो उनके
और एक ग़ैर-मुस्लिम के ईमान में क्या फ़र्क़ हुआ। इसके मुक़ाबले मे दीने इस्लाम मे अल्लाह
के वजूद का होना और क़ुरआन का उसका कलाम होना पूरी तरह से साबित किया जा सकता है ठीक
उसी तरह जैसे यह साबित किया जा सकता है कि आग जलाने का काम करती है। इस हक़ीक़त को हासिल
करने के लिए अल्लाह (سبحانه وتعالى) की दी हुई अक़्ल का इस्तिमाल कर हक़ीक़त को पाया जा सकता
है ना कि अंधी तक़लीद जैसे दूसरे लोग और दौरे जाहिलियत में कुफ़्फ़ारे मक्का किया करते
थे।
हज़रत इबने अब्बास
(رضي الله عنه) ने फ़रमाया : ''ग़ौर-ओ-फ़िक्र करना ईमान
की रोशनी है।''
अगर हम उस खजूर पर
ग़ौर करें जिससे रोज़ा इफ़तार किया जाता है तो ये बात आसानी से समझ में आ जाती है कि हम
अपनी ज़िंदगी गुज़ारने के लिए इन ग़िज़ाओं पर निर्भर है, बिना खाए पीए हम ज़िंदा नहीं रह सकते। इसी
तरह दुनिया की तमाम चीज़ें जो खुदमुख़तार (आत्मनिर्भर) नहीं है बल्कि उनको अपना वजूद
(अस्तित्व) बनाए रखने के लिए दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। दुनिया की तमाम चीज़ें
ख़ुदमुख़तार नहीं बल्कि अपने वजूद के लिए ख़ालिक़ की मर्ज़ी पर निर्भर है। इससे अक़ली तौर
पर ये साबित होता है कि दुनिया, हयात और कायनात की हर चीज़ का पैदा करने वाला अल्लाह (سبحانه
وتعالى)
है।
क़ुरआन जिसकी हम रमज़ान
में तिलावत करते है ऐसी कोई किताब नहीं जिसको किसी इंसान ने लिखा हो। ये किताब एक मोजज़ा
है इस्लाम को हक़ साबित करने के लिए. इसी किताब में अल्लाह سبحانه
وتعالى
ने दुनिया को खुली हुई दावत दी है कि अगर तुम्हें इसमें शक है
कि ये किताब अल्लाह की किताब नहीं है और किसी इंसान ने उसको बनाया है तो सारी दुनिया
मिलकर उसकी एक आयत जैसी कोई आयत बनाकर लाए अगर वो अपने दावे में सच्चे है। ये एक हक़ीक़त
है कि आज तक कोई उस जैसी आयत नहीं बना सका है। हॉंलाकि अमरीका और उसके साथी देश अरबों
डॉलर रुपया इस्लाम की दुश्मनी में ख़र्च कर रहे है ताकि इस्लाम को मग़्लूब किया जा सके, उसकी जगह अगर ये क़ुरआन की एक आयत अपने साथीयों
और हमदर्दो की मदद से बना लाएं तो इस्लाम को ग़लत साबित कर सकते है और मुसलमान इस्लाम
से फिर सकते है, लेकिन ये ऐसा करने में नाकाम है और ताक़त के बल पर चाहते है कि मुसलमान इस्लाम से
बाज़ आ जाये या फिर रमज़ानी मुसलमान बन कर रहें।
ये मज़बूत और कामिल
ईमान जिसकी बुनियाद पर मुसलमान इस्लाम को अपनाता है मजबूर करता है कि वो अल्लाह के
अवामिर व नवाही (हुक्म और मनाही) को मानते हुए तक़्वे के साथ ज़िंदगी बसर करें। यही
ईमाने जाज़िम (decisive belief) मुसलमानों के अमल
की बुनियाद बनती है और वो एक इस्लामी शख्सियत में ढल जाता है। मुसलमान अपने अच्छे
व बुरे की पहचान अपनी अक़्ल या नफ़ा और नुक़्सान की बुनियाद पर नहीं बल्कि अच्छे
और बुरे की तमीज़ इस्लाम की बुनियाद पर करता है। रोज़े की हालत में भी वो ये देखता है
कि इस मामले में अल्लाह का क्या हुक्म है और ग़ैर-रमज़ान के दिनों में भी वो अल्लाह
का हुक्म के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी गुज़ारता है। हलाल और हराम की तमीज़ साल के एक महीना
में ही नहीं बल्कि तमाम उम्र के लिए होती है। वो अपनी ज़रूरतों को पूरा करने के साथ
साथ इस्लाम और इस्लाम की दावत दे ताकि इस्लाम का दोबारा जीवन व्यवस्था के रूप से आग़ाज़
हो सके इसके लिए अपनी तवानाई (एनर्जी) ख़र्च करता है। वो पश्चिमी नज़रिये का इंकार
करता है जो कहता है कि अमल की बुनियाद इंसान की अक़्ल और उसकी ख्वाहिशात होती है।
रमज़ान का महीना हमसे
माँग करता है कि इस्लाम हमारी रगों में ख़ून की तरह बहना चाहीए। हमारी ग़ौरो फ़िक्र का
मर्कज़ और जज़बात सिर्फ़ इस्लाम से वाबस्ता होना चाहीए। मुसलमानों की इसी फ़िक्र और सोच
ने उन्हें जंगे बदर में चट्टान की तरह साबित क़दम रखा जब कि वो नबी (صلى الله عليه وسلم) के नेतृत्व में तीन के मुक़ाबले में एक थे, ईमान की इसी ताक़त की बदौलत उन्होंने 305 की मदद से 900 काफ़िरों की फ़ौज को रूखसत दी।
यही वो अज़म बिल अलख़ज़म
था जिसने मुसलमानों का इतिहास बदला। पूरी तारीख़ उनके शुजाअत और बहादुरी के कारनामों
से भरी हुई है। इसी ईमान के सहारे मुसलमानों ने तारिक़ बिन ज़ियाद के क़यादत (नेतृत्व)
में में 92 हिज्री में स्पेन को रमज़ान माह में फ़तह किया, सलाहुद्दीन अय्यूबी ने भी रमज़ान में 1183 में सलीबी जंगों में इसाई क्रूसेडो को हराकर अल-क़ुदस को आज़ाद कर सहीह हाथों में
दिया।
अल्लाह (سبحانه وتعالى)
ने हमको फिर एक ये मौक़ा दिया है कि हम उस रमज़ान का फ़ायदा उठाते हुए उसकी नज़दीकी
(क़ुरबत) हासिल कर अपने गुनाहों की तौबा मांगें और उसकी रहमत और मग़फ़िरत तलब करते
हुए रमज़ानी मुसलमान से ताउम्र मुसलमान बनने का अहद करें। जो पहले से इस्लाम पर अमलपेरा
है वो अपना अहद और कोशिश दोगुनी कर दें ताकि उम्मते मुस्लिमा अल्लाह की रहमत और उसकी
मदद की मुस्तहिक़ बन सके। हक़ीक़त में जो रमज़ान के महीने में फ़ायदा उठाने में नाकामयाब
होते है वही दरअसल नामुराद और अल्लाह से दूरी इख्तियार किए हुए हैं। नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया :
''रोज़ा एक ढाल है जो बंदे को आग से बचाती है।'' (अहमद)
रमज़ान का माह गुज़र
जाने के बाद भी अल्लाह (سبحانه وتعالى) की इबादत लगातार करते रहना एक असल इम्तिहान है। रमज़ान
के महीने में इबादत करना आसान होता है क्योंकि पूरा मुआशरा इस्लामी रंग में रंग जाता
है। घर और आस पड़ोस के सभी लोग रोज़ा और दीगर इबादात का एहतिमाम करते है, इन दिनों रोज़ा और नमाज़ ना पढ़ना मुश्किल होता
है। ईदुलफितर गुज़रने के बाद रफ़्ता रफ़्ता जब मामलात आम हो जाते हैं और रमज़ानी इस्लाम
का रंग हल्का पड़ने लगता है उस वक़्त हमारे ईमान की पहचान होती है कि हमारा ईमान किन
बुनियाद पर खड़ा हुआ है। क्या ईमान इस बात की इजाज़त देगा कि इस्लाम पर मज़बूती से जमा
जाये या फिर से अल्लाह की नाराज़गी की तरफ़ लौटा जाये।
अगर हमको ये महसूस
होता है कि बाद रमज़ान हमारा रवैय्या इस्लाम के लिए वक़्ती हो जाऐगा और हम फिर अपने
पार्ट टाइम इस्लाम के पैरु हो जायेंगे तो हमें शऊरी तौर पर ग़ौर करना होगा कि हमारी
फ़िक्र में कहा बुनियादी ग़लती हो रही है जिसकी वजह से हम इस्लाम का मज़ा चखने के बाद
फिर से कुफ्रिया ज़िंदगी की तरफ़ रुख़ कर लेते है। हमारा इस्लाम पर चलने का फ़ैसला कहाँ
चला जाता है जब कि हम बराबर तीस दिनों तक रात दिन इस्लाम पर चलने के लिए दुआए मांगते
रहते हैं। रमज़ान में हर पल अल्लाह (سبحانه وتعالى) को याद करने वाली कैफ़ीयत क्यों जुमा
के दिन तक महदूद रह जाती है।
आगर इससे पहले हमारा
रवैय्या ऐसा रहा है तो हमें ज़रूरत है कि हम अपनी इस कमज़ोरी को अभी दूर करें और ग़ौर
करें कि इस्लाम क्या है और हमसे किया डिमान्ड करता है? हम यहां क्यों आए है
और हमारी ज़िंदगी का मक़सद इस्लाम ने क्या तय किया है। अल्लाह (سبحانه وتعالى)
की रज़ा और इस्लामी ज़िंदगी के दोबारा आग़ाज़ के लिए ज़रूरी हैं कि हम अपनी कमज़ोरीयों को
समझें और उनको दूर करने के लिए इस्लाम की समझ रखने वालों से राब्ता रखे और इस बात
को समझने की कोशिश करें कि किस तरह इस्लाम को पार्ट टाइम से निकाल कर फ़ुल टाइम इस्लाम
को दोबारा अमल में लाया जाये ताकि उम्मत इस्लाम की रोशनी में फिर से अपनी मंज़िल को
पा सकें और इस्लाम की रोशनी से सारी दुनिया फ़ैज़याब हो कर अल्लाह के दीन को सर बुलंद
कर सके। ये एक इज्तिमाई फ़र्ज़ है और उसको हम और आप मिल कर पूरा कर सकते हैं। रमज़ान
के महीने में हम अहद करें कि हम पूरे इस्लाम और अपनी पूरी ज़िंदगी इस्लाम के लिए ही
वक़्फ़ करेंगे।
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