खिलाफत और बर्रेसगीरे हिन्द (भाग - 1)

खिलाफत के खात्मे के ताल्लुक से चन्द तारीखी वाक़ेआत पर नज़र डालेंगे और और यह देखेंगे के इस हादसे पर पर बर्रे सग़ीर के मुसलमानों का क्या रद्दे अमल रहा. कुछ लोग ऐसा समझते है की यहाँ के मुसलमानों पर इस वक़ऐ का कोई असर नही हुआ और वोह इस की अहमियत को समझ नही पाऐ. लोगों का यह तास्सुर बिल्कुल ग़लत है. तारीख इस बात की शाहिद है की बर्रेसग़ीर के मुसलमानो ने ज़मीन पर अल्लाह तआला के इस साये यानी खिलाफत के खात्मे पर कितना दर्द महसूस किया और वोह इस हादसे से कितने बेचैन हो गये थे और उन्होने इसे बचाने के लिये किस क़दर जद्दो जहद की थी.

खिलाफत के खात्मे पर मुसलमानों का रद्दे अमल जानने से पहले ज़रूरी है की हम यह भी जाने की इस बर्रेसग़ीरे हिन्द मे खिलाफत पहुंची किस तरह जहाँ आज उम्मते मुस्लिमा का निस्फ हिस्सा क़याम करता है. हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश के मुसलमानो के आबादी को जोड कर देखें तो यह बात आसानी से समझ मे आ जाती है. आज उम्मते मुस्लिमा की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली ज़बान उर्दू हो गई है जो अरबी से भी आगे बड गई है. हिन्दुस्तान मे खिलाफत की तारीख 117 हिजरी का वाक़या है की साहिले सिन्ध के पास कुछ मुसलमान ताजिर हिन्द मे सफर कर रहे थे की उन को लूट लिया गया और वोह क़ैद भी कर लिये गये. जब यह खबर इस्लामी दारुल खिलाफा मे खलीफा वलीद बिन अब्दुल मलिक के पास पहुंची तो खलीफा ने वालीऐ बग़दाद हज्जाज बिन यूसुफ को पैग़ाम भेजा की वोह सिन्ध के राजा से कहे की वोह इस गुस्ताखी पर माफी मांगे और मुसलमानो को रिहा कर दे. इस के बाद सिन्ध की तरफ एक फौज रवाना की गई जिस का सिपे सालारा वोह बहादुस नौजवान था जिस की अज़मत खास करके हिन्दुस्तान के मुसलमानों मे आज भी क़ायम है.

इस दयारे ग़ैर मे इस्लाम को पहुंचाने की ज़िम्मेदारी जिस नौजवान के कन्धो पर डाली गई उस का नाम मुहम्मद बिन क़ासिम अलसक़फी था. उसी ने सिन्ध के रास्ते से बिलादे हिन्द की फतह का आग़ाज़ किया. जब रियासते खिलाफत की फौज डबाल यानि मौजूदा करांची के पास पहुंची तो राजा से मुहम्मद बिन क़ासिम ने मुतालबा किया की मुसलमान क़ैदियों को रिहा कर दिया जाये जिसे राजा ने मुस्तरद कर दिया. इस इन्कार पर नागुज़ीर हो गया की जंग की जाये, जिस के नतीजे मे सिन्ध पर मुसलमानों का क़ब्ज़ा हो गया..

इस इब्तेदाई कामयाबी के बाद भी मुहम्मद बिन क़ासिम ने फतुहात के इस सिल सिले को जारी रखा क्योंकि यह मुसलमानों पर फर्ज़ है की अल्लाह के कलिमे को बुलन्द करे. इस्लामी जज़्बे से सरशार वोह बढते चले गये यहाँ तक की मुल्तान भी उनके क़ब्ज़े मे आ गया. तीन साल की मुख्तसर मुद्दत मे 714 इसवी तक पूरा सिन्ध और पंजाब का कुछ हिस्सा इस्लामी इक़तदार के हिस्से मे आ चुका था. हिन्दुस्तान के शिमाली मगरिबी हिस्से को फतह करने के बाद इस्लामे फौज मुर्ति पूजा करने वालों शिर्क के अन्धेरों से निकाल कर इस्लाम की रौशनी मे ले आई. मुजाहिदे आज़म मुहम्मद बिन क़ासिम ने मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम के दर्मियान कोई इम्तेयाज़ नही किया और मफ्तुहा इलाक़ों मे ग़ैर-मुस्लिमों को उनके ओहदो पर उन के साबिक़ा ओहदो पर बरक़रार रखा. उन्होने ने रियासत के हुक्काम को हिदायत दी की वोह रियासत और अवाम के दर्मियान मुआमलात मे इंसाफ और दयानतदारी से काम ले और लोगों पर उनकी इस्तेक़ामत के मुताबिक़ ही टेक्स आयद करे.
खलीफा हिशाम बिन अब्दुल मलिक के दौरे हुकूमत मे 742-743 के दर्मियान अब्बासी खलीफा अबुजाफर अल-मंसूरी के दौरे खिलाफत मे कन्धार के इलाक़े को फतह कर लिया गया था. रियासत की सरहदों को हिन्दुस्तान मे वुसअत देने के साथ ही इन्हें इस्तेहकाम देने की कोशिश भी जारी रही . खलीफा हारुन रशीद के दौर मे इस्लामी फौज ने अपनी सरहदो को गुजरात तक बढा दिया था. इसी दौरान मुसलमान फौजी यहाँ बस गये और नये नये शहरों के आबाद करना शुरू कर दिया. और इस तरह हिन्दुस्तानियों की बढती तादाद यहाँ के गैर-इंसानी समाजी ढांचे की पस्ती से निकल कर एक आफाक़ी की बिरादरी का हिस्सा बनी. यहाँ की आबादी को जहालत और कुफ्र के अन्धेरों से निकाल कर इस्लाम की रौशनी मे लाया गया. उनके अपने ही जैसे इंसानों की ग़ुलामी से निकाल कर खालिक़े क़ायनात, मालिके हकीकी अल्लाह की बन्दगी मे लाया गया. इस बर्रेसग़ीरे हिन्द मे, जो अब हिन्दुस्तान पाकिस्तान और बंगलादेश के नाम से जाना जाता है, एक हज़ार साल से ज़्यादा इस्लामी हुकूमत क़ायम रही.
जिस तरह दुश्मनाने इस्लाम और कुफ्फार हिन्दुस्तान की तारीख को पेश करते है, उस पर हमें भरोसा न करते हुऐ यह तस्लीम करना चाहिये के यह इलाक़ा रियासते खिलाफत का ही एक हिस्सा रहा है. कुछ खुलफा की लापरवाही की वजह से थोडी मुद्दत के लिये यह इलाक़ा खिलाफत के कंट्रोल से बाहर आ गया था. ताहम यहाँ जो भी हुक्मराँ रहा, यहाँ अहकामे शरिया का निफाज़ जारी रहा. और यह दारुल इस्लाम का हिस्सा बना रहा. जब तक इसे अंग्रेज़ों ने अपनी कोलोनी नही बना लिया.
मुस्तनद तरीन तारीख दान जैसे अल्लामा इब्ने कसीर (वफार 747 हिजरी) अपनी मशहूर किताब ‘अल बिदाया वल निहाया’ मे हिन्दुस्तान का ज़िक्र दारुलइस्लाम के एक हिस्से ही की हैसियत से करते है. उन्होने हिंदुस्तान को फतह किये जाने के ताल्लुक़ से कुछ हदीसे भी नक़ल की है मसलन मसनद अहमद की हदीस है की हज़रत अबुहुरैरा रिवायत करते है की “मेरे हक़ीक़ी दोस्त रसूलुल्लाह ने फरमाया की: उम्मत की अफवाज सिंध और हिन्दुस्तान की तरफ रवाना की जायेंगी” फिर अबूहुरैरा फरमाते है, “मै अगर उस जंग मे शरीक हो सका और शहीद हो गया तो यह मेरे लिये अज़ीम सआदत होगी और अगर ज़िन्दा बच कर आगया तो मै आज़ाद होउंगा यानी अल्लाह मुझे दोज़ख के अज़ाब से निजात दे देगा.” यह बात की हिन्दुस्तान रियासते खिलाफत का ही हिस्सा रहा है, एक हिन्दू मुसन्निफ सी.एम.शर्मा ने अपनी किताब (Religious Ideological and Political Paraxis) मे तस्लीम की है, वोह लिखता है: “दहली सल्तन (1206-1526 तक) अपने पूरे क़याम की मुद्दत मे मुस्लिम सलतन ही का हिस्सा रही, जो के अब्बासी खलीफा के ज़ेरे इक़तदार थी. सुल्तान अपने आप को खलीफा का नायब समझते थे और उनकी हुकूमत का क़ानूनी जवाज़ खलीफा ही की तफवीज़ करदा इख्तियारात से हासिल होता था. क्योकि क़ानूनी तौर पर उम्मत पर इक़्तिदार खलीफा ही को हासिल था. हर बादशाह हुकूमत करने का इख्तियार इमामुल मुस्लिमीन से ही हासिल करता है.” (मुलाखत हो सफा 674)
(आगे जारी..........)
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.