अल हुक्म ‘अल मुल्क’ और
'अल सुल्तान' हममाने (प्रयायवाची) है। इनसे मुराद एक ऐसा इक़्तिदार (ऑथोरिटी) है जो
अहकामात को नाफिज़ करे या यह लोगों की क़ियादत करने (नेतृत्व करने) का अमल है। जिसे
शरीयत ने मुसलमानों पर फर्ज़ किया है। ईमारत का काम ज़ुल्म को दूर करना और तनाज़ात
(झगडो़) को हल करना है। दूसरे शब्दो में हुकूमत करने का मतलब है देखभाल करना जैसा
के अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :
يَـٰٓأَيُّہَا
ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ
أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ
''ईताअ़त करो अल्लाह की और ईताअ़त करो रसूल صلى
الله عليه وسلم की और अपने में से उन लोगों
की जो साहिबे इक़्तिदार है''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा : आयत
59)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने यह भी ईरशाद फरमाया
:
وَلَوۡ رَدُّوهُ إِلَى ٱلرَّسُولِ وَإِلَىٰٓ أُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ
مِنۡہُمۡ
''अगर वो उसे लौटा देते रसूलुल्लाह صلى الله عليه
وسلم की तरफ और उन लोगों की तरफ जो साहिबे
इख्तियार है''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा : आयत
83)
लिहाज़ा हुकूमत करने का मतलब लोगों के मुआमलात की
अमली तौर पर देखभाल करना है। चूँकि इस्लाम एक नज़रियाऐ हयात (जीवन व्यवस्था) है
जो रियासत, समाज और जिन्दगी का मुकम्मल अहाता किये हुए है, लिहाज़ा रियासत और हुक्मरानी
इसका लाज़मी हिस्सा है और मुसलमानों को हुक्म दिया गया है के वो रियासत व हुक्मरानी
क़ायम (स्थापित) करें यानी वो इस्लाम के अहकामात के मुताबिक हुकूमत करें। क़ुरआने
करीम में कई ऐसी आयात आई है जो मुसलमानों को अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा
अहकामात के मुताबिक हुकूमत करने का हुक्म देती है, चुनांचे ईरशाद होता है
وَأَنزَلۡنَآ إِلَيۡكَ ٱلۡكِتَـٰبَ
بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقً۬ا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ مِنَ ٱلۡڪِتَـٰبِ وَمُهَيۡمِنًا عَلَيۡهِۖ
فَٱحۡڪُم بَيۡنَهُم بِمَآ
أَنزَلَ ٱللَّهُۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ
عَمَّا جَآءَكَ
مِنَ ٱلۡحَقِّۚ
''पस आप صلى الله عليه وسلم इनके दरमियान अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा
(अहकामात) के मुताबिक फैसला करें, और जो हक़ आप صلى الله عليه وسلم के पास आया है, उसके मुकाबले में इनकी ख्वाहिशात
की पैरवी ना करें''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 48)
और ईरशाद फरमाया :
وَأَنِ ٱحۡكُم بَيۡنَہُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ
وَٱحۡذَرۡهُمۡ أَن يَفۡتِنُوكَ عَنۢ بَعۡضِ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ إِلَيۡكَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ
فَٱعۡلَمۡ أَنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ أَن يُصِيبَہُم بِبَعۡضِ ذُنُوبِہِمۡۗ وَإِنَّ
كَثِيرً۬ا مِّنَ ٱلنَّاسِ لَفَـٰسِقُونَ
''और यह के आप صلى الله عليه وسلم इनके दरमियान अल्लाह
(سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक फैसला करे और इनकी ख्वाहिशात की
पैरवी ना करें। और इनसे सतर्क रहे के कहीं यह अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा
बाज़ (अहकामात) के बारे में आप صلى الله عليه وسلم को फितने में ना डाल दे''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 49)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने फरमाया :
وَمَن لَّمۡ يَحۡكُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ
هُمُ ٱلۡكَـٰفِرُونَ
''और जो अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा (अहकामात)
के मुताबिक फैसला ना करें तो ऐसे लोग की काफिर है''।
(तर्जुमा
माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 44)
وَمَن لَّمۡ يَحۡڪُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ
هُمُ ٱلظَّـٰلِمُونَ
''और अल्लाह (سبحانه وتعال) के नाजिलकर्दा (अहकामात)
के मुताबिक फैसला ना करे तो ऐसे लोग ही ज़ालिम है''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 45)
وَمَن لَّمۡ يَحۡڪُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ
فَأُوْلَـٰٓٮِٕكَ
هُمُ ٱلۡفَـٰسِقُونَ
''और जो अल्लाह के नाजिलकर्दा (अहकामात) के मुताबिक
फैसला ना करें तो ऐसे लोग ही फासिक है''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरने अल माईदा : 47)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने यह भी फरमाया :
فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ
فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ
وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا
''ऐ मोहम्मद
صلى الله عليه وسلم आपके रब की क़सम! यह उस वक़्त तक मोमिन नहीं हो सकते जब
तक यह आप صلى الله عليه وسلم को अपने आपसी
इख्तिलाफात में फैसला करने वाला ना बना ले, फिर आप صلى الله عليه وسلم फैसला कर दो तो यह अपने अन्दर कोई गिरानी महसूस
ना करें, बल्के उसके सामने सरे तस्लीमें खम कर दे''।
(तर्जुमा माअनीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा :65)
और ईरशाद फरमाया :
يَـٰٓأَيُّہَا
ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ
أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَأُوْلِى ٱلۡأَمۡرِ مِنكُمۡۖ
''ईताअ़त करो अल्लाह की और ईताअ़त करो रसूल صلى
الله عليه وسلم की और अपने में से उन लोगों
की जो साहिबे इक़्तिदार है''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा : 59)
और फरमाया :
وَإِذَا حَكَمۡتُم بَيۡنَ ٱلنَّاسِ أَن تَحۡكُمُواْ
بِٱلۡعَدۡلِۚ
''और जब लोगों के दरमियान फैसला करो तो अदल के साथ
फैसला करो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अन्निसा :58)
इनके अलावा ऐसी कई आयात हैं जो हुकूमत को इख्तियार
और ऑथोरिटी के तौर पर बयान करती है। और क़ुरआन में कई ऐसी आयात भी आई है जो मुख्तलिफ
(विभिन्न) शोबाए हुकूमत (राजकीय विभागों) की तफासील बताती है। चुनांचे कुछ आयात का
ताल्लुक जंग के अहकामात से है, कुछ सियासी क़वानीन के बारे में है, कुछ जराईम से सम्बन्धित
क़वानीन को बयान करती है, कुछ आयात सामाजिक क़वानीन से सम्बन्धित है और कुछ मुआमलात
क़वानीन के बारे में है। इसके अलावा कई दुसरे मुआमलात से मुताल्लिक आयात क़ुरआ़न में
मौजूद है। अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :
يَـٰٓأَيُّہَا
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قَـٰتِلُواْ ٱلَّذِينَ يَلُونَكُم مِّنَ ٱلۡڪُفَّارِ وَلۡيَجِدُواْ
فِيكُمۡ غلۡظَةً۬ۚ
''ऐ ईमान वालो! लडो़ उन कुफ्फार से जो तुम्हारे
इर्द-गिर्द हैं और वो पाए तुम्हारे अन्दर सख्ती''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अत्तोबा :123)
अल्लाह (سبحانه وتعال) ने यह भी ईरशाद फरमाया :
فَإِمَّا تَثۡقَفَنَّہُمۡ فِى ٱلۡحَرۡبِ فَشَرِّدۡ
بِهِم مَّنۡ خَلۡفَهُمۡ لَعَلَّهُمۡ يَذَّڪَّرُونَ وَإِمَّا تَخَافَنَّ مِن قَوۡمٍ
خِيَانَةً۬ فَٱنۢبِذۡ إِلَيۡهِمۡ عَلَىٰ سَوَآءٍ
''पस जब लडा़ई में इनसे सामना हो तो इन्हें ऐसी मार
मारो के जो लोग इनके पसे पुश्त हो वो खौफज़दा हो जाए और ईबरत हांसिल करें। और अगर
तुम्हे इनकी तरफ से ख्यानत का डर हो तो बराबरी की हालत में इनसे अहद तोड़ दो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अनफाल :57, 58)
और अल्लाह (سبحانه وتعال) ने ईरशाद फरमाया :
وَإِن جَنَحُواْ لِلسَّلۡمِ فَٱجۡنَحۡ لَهَا وَتَوَكَّلۡ
عَلَى ٱللَّهِ
''और अगर वो सुलेह की तरफ झुक जाए तो तुम भी सुलेह
की तरफ झुको और अल्लाह पर भरोसा रखो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अनफाल :61)
يَـٰٓأَيُّهَا
ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ
أَوۡفُواْ بِٱلۡعُقُودِ
और ईरशाद फरमाया :
''ऐ ईमान वालो अहद व पैमान पूरे करो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा : 1)
وَلَا تَأۡكُلُوٓاْ أَمۡوَٲلَكُم بَيۡنَكُم بِٱلۡبَـٰطِلِ
وَتُدۡلُواْ بِهَآ
إِلَى ٱلۡحُڪَّامِ لِتَأۡڪُلُواْ فَرِيقً۬ا مِّنۡ أَمۡوَٲلِ ٱلنَّاسِ بِٱلۡإِثۡمِ وَأَنتُمۡ
تَعۡلَمُونَ
''और एक दुसरे का माल नाहक़ ना खाया करो और ना ही
उसे हाकिमों तक इस गरज़ से पहुचाओ के तुम लोगों के माल का कुछ हिस्सा नाजाईज़ खाओ,
हाँलाके तुम जानते हो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल बकरा :188)
وَلَكُمۡ فِى ٱلۡقِصَاصِ حَيَوٰةٌ۬ يَـٰٓأُوْلِى ٱلۡأَلۡبَـٰبِ
''ऐ अक़्ल वालो! तुम्हारे लिए क़िसास में जिन्दगी
है''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल बकरा : 179)
وَٱلسَّارِقُ وَٱلسَّارِقَةُ فَٱقۡطَعُوٓاْ أَيۡدِيَهُمَا
جَزَآءَۢ بِمَا كَسَبَا
نَكَـٰلاً۬ مِّنَ ٱللَّهِۗ
''चोर मर्द और चोर औरत दोनो के हाथ काट दो, यह बदला
है उसका जो उन्होंने किया और अल्लाह की तरफ से ईबरतनाक सज़ा''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अल माईदा :38)
فَإِنۡ أَرۡضَعۡنَ لَكُمۡ فَـَٔاتُوهُنَّ
أُجُورَهُنَّۖ
''और अगर वो तुम्हारे लिए (बच्चे को) दूध पिलाए
तो उन्हें उनकी उजरत दे दो''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अत्तलाक़ :6)
لِيُنفِقۡ ذُو سَعَةٍ۬ مِّن سَعَتِهِۦۖ وَمَن قُدِرَ
عَلَيۡهِ رِزۡقُهُ ۥ فَلۡيُنفِقۡ مِمَّآ
ءَاتَٮٰهُ ٱللَّهُۚ
''खुशादगी वाला अपनी खुशादगी के मुताबिक खर्च करे
और वो जिसके रिज़्क में तंगी की गई हो वो इसमें से खर्च करें जो अल्लाह ने उसे अता
किया''।
(तर्जुमा
माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अत्तलाक़ : 7)
خُذۡ مِنۡ أَمۡوَٲلِهِمۡ صَدَقَةً۬ تُطَهِّرُهُمۡ
''{ऐ मोहम्मद صلى الله عليه وسلم} उनके अम्वाल
में से सदक़े लेकर उन्हें पाक़ करें''।
(तर्जुमा माअ़नीऐ क़ुरआन – सूरे अत्तोबा: 103)
पस ऐसी सैकडो़ आयात में असकरी (फौजी), सियासी, आर्थिक
मुआमलात और जुर्म व सज़ा समेत दुसरे कई मुआमलात के लिए क़ानून बनाने के बारे में विस्तृत
रहनुमाई मौजूद है। जबके बडी तादाद में सहीह अहादीस इसके अलावा है। यह सब इसलिए नाजिल
की गई ताकि इन्हें नाफिज़ किया जाए और इन पर अमल किया जाए। यह क़वानीन रसूलुल्लाह
صلى الله عليه وسلم के दौरे मुबारका में अमली
तौर पर नाफिज़ थे और उन्हें खुल्फाए राशिदीन और उनके बाद आने वाले खुल्फा के दौरे
हुकूमत में ही नाफिज़ किया गया।
यह अम्र सिर्फ इसी बात पर दलालत करता है के इस्लाम
हुकूमत और रियासत, समाज व हयात, उम्मत व अफराद के लिए एक निज़ाम है। यह इस बात पर
भी दलालत करता है के रियासत को हुकूमत करने का कोई इख्तियार नहीं जब तक के वो इस्लाम
के निज़ाम की पाबन्दी ना करें। और इस्लाम का कोई अमली वजूद नहीं होता जब तक के इस्लाम
एक रियासत की शक्ल में ज़िन्दा ना हो जो इस्लाम के अहकामात को लागू करें। इस्लाम एक
दीन और तरीकेकार है जिसे इस्लाम ने अपने अहकामात की नज़रियाऐ हयात (मब्दा/विचारधारा)
है और रियासत और हुकूमत इसके हिस्से है और रियासत ही वो वाहिद शरई ततबीक़ (अनुसरण)
और आम जिन्दगी पर इन्हें नाफिज़ करने के लिए जारी किया है। अगर एक रियासत इस्लाम
को हर हालत में नाफिज़ ना कर रही हो तो इस्लाम का ज़िन्दा व मुतहर्रिक वजूद बाकी नहीं
रहता। इसके अलावा रियासत एक इन्सानी और सियासी वजूद होती है ना के कोई मुकद्दस या
रूहानी चीज़। ना तो इसमें दरवेशी है और ना ही रियासत का हुक्मरान गलतियों और गुनाहो
से मासूम होता है।
इस्लाम का निजा़मे हुकूमत ही रियासत की शक़्ल व
हैईय्यत (ढांचा) और उसकी सिफ्फात (विशेषताऐ) को तय करता है। रियासत की बुनियाद, उसके
सुतून (Pillars) और ढांचा वो बुनियाद है जिस पर रियासत की ईमारत खडी़ होती है, वो अफ्कार
व तसव्वुरात (विचार और अवधारणाए) और वो मेयार जिसके रियासत लोगों के मुआमलात की देखभाल
करती है और वो दस्तूर व क़वानीन जिन्हे यह नाफिज़ करती है, निज़ामे हुकूमत ही इस
सब को तय करता है।
यह एक मुन्फरद (unique/मुमताज़) रियासत के लिए एक
मुन्फरद निज़ाम (व्यवस्था) है, वो असास (बुनियाद) जिस पर इस्लाम की ईमारत क़ायम
है, वो विचार व अवधारणाऐ और वो मियार जिसके ज़रिए यह लोगों के मुआमलात की देखभाल करता
है। वो दस्तूर और वो क़वानीन जो यह लागू करता है, इस व्यवस्था की शक़्ल व हैईय्यत,
गरज़ यह के हर लिहाज़ से यह व्यवस्था दुनिया की दूसरी तमाम व्यवस्थाओ और हुकूमतो
से बिल्कुल मुख्तलिफ है।
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