खिलाफ़त की वापसी की बशारतों से मुतअल्लिक़ सही अहादीस और उनकी असनाद





इस किताब में ख़िलाफत की मुसलमानों पर फ़र्ज़ियत के दलायल क़ुरआन व सुन्नत से पेश किये गये हैं और बाद में खिलाफ़त की वापसी की बशारतों से मुतअल्लिक़ सही अहादीस और उनकी असनाद को जमा किया गया है। जिसके मुतालेअ (studies/अध्ययन) से मोमिनों के सीने सुकून व क़रार से लबरेज़ हो जाते हैं और ख़ास तौर से उन मुसलमानों के लिए जो एक इस्लामी रियासत के क़याम (स्थापना) की कोशिशों में मसरूफे अमल हैं, यह बशारतें मज़ीद इख़लास और ज्यादा संजीदगी से काम में लग जाने की मुहर्रिक (प्रेरक) होती हैं। इंशाअल्लाह उनकी मेहनतों के सिले में ख़िलाफते इस्लामिया का क़याम अमल में आएगा और उन्हें दुनिया में सुकून व आख़िरत की अबदी ज़िन्दगी (हमेशा रहने वाली ज़िन्दगी) में इसका अज्रे अज़ीम अता होगा, इस दुनिया में फतेह और आख़िरत में बेहतरीन ठिकाना।

ये अहादीस जिनमें ख़िलाफत की वापसी की बशारतें हैं, हमारे सल्फो स्वालेहीन (नेक पूर्वजों) के लिए भी मुहर्रिक थीं। गो कि यह अहादीस हमारे लिए भी मुहर्रिक हैं, लेकिन यह मुनासिब नहीं कि हम उन पर मुकम्मल तकिया करके ख़ामोश बैठ कर उन बशारतों के पूरा होने का इंतिज़ार करें। क़ुसतुन्तुनिया (इस्तमबूल को फतह करने वाली फौज ने उस शहर के फतह होने की बशारतों को ऐसे ही समझा और इन बशारतों ने उनके हौसले बढ़ाए। ख़ुलफा और उनके सिपाही क़ुसतुन्तुनिया फतह करने के लिए बेताब रहते थे ताकि वह उन लोगों में शामिल हो सकें जिनके लिए अल्लाह سبحانه وتعال के नज़दीक ख़ास इज्ज़त का मुक़ाम है। यह क़ुर्बत का मुक़ाम बिलआख़िर उस्मानी ख़लीफा मुहम्मद अलफातेह رحمت اللہ علیہ के हिस्से में आया, और यह शहर जो हरकुल के नाम से जाना जाता था ''इस्लामबुल'' यानी इस्लाम का शहर हुआ और इस्लामी रियासत की राजधानी बन गया, बाद में उसे इस्तमबुल कहा जाने लगा। इन अहादीस को इस काम के लिए मुतहर्रिक (motives) के तौर पर ही समझना चाहिए ताकि हम और ज़्यादा इख़लास से इस काम में लग जाऐं और उस इज्ज़त व कामरानी में हिस्सेदार बन जाऐं जिनकी इन अहादीस में बशारत है और दोनों जहानों में इसका अज्र मिले जो हक़ीक़त में एक अज़ीम कामयाबी है।

क्या वाक़ई ख़िलाफ़त आने वाली है? या यह नेक और परहेज़गार लोगों का सिर्फ सपना भर है, बेहतर होगा कि हम ख़िलाफ़त की तारीफ़ और ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी (नियुक्ति) के हुक्म और उसके दलायल पर मुख़्तसर (संक्षिप्त) नज़र डाल लें:

ख़िलाफ़त मुसलमानों की आम दुनियावी क़ियादत (नेतृत्व) है जो इस्लामी शरीअत को लागू करती है और सारे आलम में इसकी दावत को फैलाती है, लिहाज़ा यह आलमी क़ियादत हुई न कि इलाक़ाई। ख़लीफ़ा, मुसलमानों का अमीर और नबी अकरम صلى الله عليه وسلم का, इस्लाम को नाफ़िज़ (लागू) करने वाले की हैसियत से नायब (उत्तराधिकारी) होता है न कि आप صلى الله عليه وسلم के मुबल्लिग़ के हैसियत से, जानशीन होता है, इसलिये ख़िलाफ़त दुनियावी क़ियादत हुई न कि अल्लाह سبحانه وتعال की तरफ से अता करदा। ख़लीफ़ा न तो अल्लाह سبحانه وتعال की तरफ से मुक़र्रर किया जाता है और न ही वह अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाने वाला होता है, बल्कि ख़लीफ़ा को मुसलमान मुक़र्रर करते हैं ताकि वह दारुल इस्लाम की हुदूद (सीमाओं) में इस्लाम को नाफ़िज़ करे और सारे आलम में उसकी दावत पहुँचाए।

ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी (नियुक्ति) मुसलमानों पर फ़र्ज़े किफ़ाया है, यानी हर मुसलमान इसका ज़िम्मेदार है और जब तक कि यह काम अंजाम नहीं पाता या उसके लिए ज़रूरत के मुताबिक कोशिश नहीं की जाती, उसका गुनाह ज़ाइल (ख़त्म) नहीं हो सकता। दूसरे लफ्ज़ों में जब तक कि ख़िलाफ़त क़ायम नहीं कर ली जाती, कोई भी इस गुनाह से बरी नहीं हो सकता जब तक कि वह पूरी लगन व मेहनत और संजीदगी से ख़िलाफ़त क़ायम करने की मेहनत में मशग़ूल नहीं हो जाता। अल्लाह के रसूल صلى الله عليه وسلم ने बज़ाते ख़ुद पहली बार मदीने में इस्लामी रियासत क़ायम करके इस काम के करने का तरीक़ा बता दिया है, अलबत्ता इस तरीक़े की तफ़सीलात एक अलग मौज़ू (विषय) है।

ख़िलाफत की फ़र्ज़ियत के दलायल:


इस काम की फ़र्ज़ियत के दलायल क़ुरआन, सुन्नत और सहाबाऐ किराम के इजमाअ से माख़ूज़ (प्राप्त) हैं।

क़ुरआन मजीद से माख़ूज़ दलायल:

सबसे पहले हम क़ुरआन मजीद से माख़ूज़ दलायल पर ग़ौर कर लें, जिसमें मुन्दर्जा ज़ेल (निम्नलिखित) आयात हैं:

فَٱحۡڪُم بَيۡنَهُم بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ‌ۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡ عَمَّا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡحَقِّ‌ۚ

''पस लोगों के दर्मियान तुम उसके मुताबिक़ फैसला करो जो अल्लाह ने नाज़िल किया है और जो हक़ तुम्हारे पास आ चुका है, उसे छोड़ कर उनके ख्वाहिशात की पैरवी न करना।'' (तर्जुमा मानीये क़ुरआन अलमाइदा: 48)



فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤۡمِنُونَ حَتَّىٰ يُحَكِّمُوكَ فِيمَا شَجَرَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ لَا يَجِدُواْ فِىٓ أَنفُسِہِمۡ حَرَجً۬ا مِّمَّا قَضَيۡتَ وَيُسَلِّمُواْ تَسۡلِيمً۬ا


''पस तुम्हें तुम्हारे रब की क़सम! यह मोमिन नहीं हो सकते, जब तक कि उनके दरमियान जो इख़्तिलाफ हो, उसमें यह तुम से फैसले न कराऐं, फिर तुम जो फैसला कर दो उस पर यह अपने दिल में कोई तँगी भी न पाऐं, और पूरी तरह तसलीम कर लें।'' (तर्जुमा मानीये क़ुरआन अन्निसा:65)

وَٱعۡتَصِمُواْ بِحَبۡلِ ٱللَّهِ جَمِيعً۬ا وَلَا تَفَرَّقُواْ‌ۚ


''और सब मिल कर अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से पकड़ लो और तफर्क़े में न पड़ो।'' (तर्जुमा मानीये क़ुरआन आले इमरान: 103)

ऊपर लिखी आयात में से पहली आयत में अल्लाह سبحانه وتعال का ख़िताब (संबोधन) नबी करीम صلى الله عليه وسلم. से है जो दरहक़ीक़त तमाम उम्मत से ख़िताब होता है जब तक कि उसकी मुसतक़िल तख़सीस न कर दी गई हो। फिर यह कि अल्लाह के नाज़िल करदा एहकाम से हुकूमत करना एक हाकिम का ही काम है।

दूसरी आयत के हुक्म की तकमील भी एक हाकिम ही कर सकता है और किसी फ़र्ज़ को पूरा करने के लिए जो चीज़ ज़रूरी हो, वह ख़ुद भी फ़र्ज़ हो जाती है।

तीसरी आयत में अल्लाह سبحانه وتعال हमें एक मुत्ताहिदा जमाअत की शक्ल में रहने और इंतिशार (बिखराव) से दूर रहने का हुक्म देता है, चूँकि जमाअत का वजूद ख़लीफ़ा के बग़ैर मुमकिन ही नहीं और यह बात जमाअत से मुतअल्लिक़ दलायल व शवाहिद से वाज़ेह  (स्पष्ट) हो जाती है, लिहाज़ा इस तरह भी ख़लीफ़ा मुक़र्रर किए जाने की फ़र्ज़ियत पिछली आयात से लिये गये दलायल के साथ एक और दलील ठहरी।


सुन्नते नबवी से माख़ूज़ दलायल:


इसके बाद हम ख़िलाफ़त के दलायल के लिए सुन्नते नबवी صلى الله عليه وسلم पर ग़ौर करें, मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर رضي الله عنه से रिवायत नक़ल है कि उन्होंने हुज़ूर नबी अकरम صلى الله عليه وسلم से सुना:

((من خلع یداً من طاعۃ لقي اللّٰہ یوم القیامۃ لا حجۃ لہ و من مات ولیس في عنقہ بیعۃ مات میتۃ جاھلیۃ))


''जिसने अमीर की इताअत से अपना हाथ खींच लिया, वह क़यामत के दिन अल्लाह سبحانه وتعال से इस हाल में मिलेगा कि उस पर कोई हुज्जत नहीं होगी और जो कोई इस हाल में मरा कि उसकी गर्दन पर ख़लीफ़ा की बैत का तौक़ ही न हो, तो वह जाहिलियत की मौत मरा।''

इस हदीस में मुसलमानों पर यह फ़र्ज़ किया गया है कि उनकी गर्दन पर ख़लीफ़ा की बैत का तौक़ हो, न यह कि वह बज़ाते ख़ुद ख़लीफ़ा को बैत दें, बैत का तौक़ होने के लिए ख़लीफ़ा का वजूद काफ़ी होता है चाहे किसी मुसलमान ने शख्सी तौर पर बैत दी हो या न दी हो, लिहाज़ा यह हदीस ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी के लिए दलील है क्योंकि बैत ख़लीफ़ा के सिवा किसी और को नहीं दी जा सकती। इसी तरह हज़रत अबु हुरैरा رضي الله عنه से मरवी है कि आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

((إنَّمَا الإمام جُنّۃ یُقَاتَلُ مِن وراۂٖ و یتقی بہٖ))

''बेशक इमाम एक ढाल है जिसके पीछे लड़ा जाता है और अपना बचाव किया जाता है।''


यह हदीस हालाँकि बुनियादी तौर पर अख़बारिया में से है लेकिन इस ख़बर में क़स्दे हुक्म है कि यह ढाल मौजूद हो। मुसनद अहमद رحمت اللہ علیہ, निसाई और तयालसी में हारिसुल अशअरी से नक्ल किया कि नबी करीम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''मैं तुम्हें पाँच चीज़ों का हुक्म देता हूँ जिनका अल्लाह ने मुझे हुक्म दिया है: जमाअत में रहना, सुनना, इताअत अमीर की करना, दारुल इस्लाम की तरफ़ हिजरत करना और अल्लाह के रास्ते में जिहाद करना, क्योंकि जो भी कोई जमाअत से बालिश्त भर भी बाहर हुआ उसने इस्लाम का तौक़ अपनी गर्दन से उतार फैका यहाँ तक कि वह रुजूअ (वापस न लोटे) और जिसने जाहिलियत (दूसरे अदयान) की दावत दी वह जहन्नुमी है। सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم अगर्चे वह रोज़ा रखे और नमाज़ पढ़े? फ़रमाया हाँ गर्चे वह नमाज़ पढ़े और रोज़े रखे और मुसलमान होने का दावा करे।''

इस हदीस से तीन बातें साबित होती हैं:

1. दीन की सही तर्तीब ऐसी जमाअत है जिसके अमीर की इताअत सभी लोग करें।

2. जमाअत से अलग होकर रहना गोया इस्लाम से अलेहदा होने के मुतरादिफ़ (प्रयायवाची) है।

3. हज़रत उमर का यह क़ौल इस हदीस के इस हिस्से की वज़ाहत कर रहा कि हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने जमाअत से अलग होने वाले को उसकी नमाज़ और रोज़े और मुसलमान होने के दावे के बावजूद इस्लाम से निकलने वाला क़रार दिया। अब इस हदीस की रौशनी में कोई कम्युनिज्म, कैपिटलिज्म (पूंजीवाद) और जम्हूरियत पर यक़ीन रखने वाला मुसलमान ख़ुद को जांच परख ले।

जमाअत का वजूद एक इमाम के बग़ैर मुमकिन नहीं जैसा कि इस हदीस से वाज़ेह होता है जो हज़रत हुज़ैफ़ा बिन यमान رضي الله عنه से मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत किया गया कि नबी करीम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''तुम मुसलमानों की जमाअत और उनके अमीर के साथ रहना।''

यही बात एक और हदीस से भी साबित हो जाती है जिसे मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत उरफ़जा رضي الله عنه से नक्ल किया गया है:

''जब तुम एक ख़लीफ़ा के तहत मुत्तहिद हो और कोई दूसरा आकर तुम में तफ़र्रका पैदा करना चाहे और तुम्हारे इत्तिहाद को तोड़ना चाहे तो उसको क़त्ल कर दो।''

इसी तरह मसनद अहमद और बैहक़ी में फुज़ाल इब्ने उबैद رضي الله عنه से मरवी है कि ऑंहज़रत صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''तीन लोगों के बारे में न पूछो कि वह बदबख्त हैं एक वह जो जमाअत से अलेहदा हुआ, दूसरा वह जिसने इमाम की नाफ़रमानी की और वह शख्स जो इसी नाफ़रमानी की हालत में फौत हो गया।''

इसी तरह हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने हमें जमाअत में रहने का हुक्म दिया है और यह वाजेह कर दिया है कि जमाअत के लिए इमाम का होना लाज़मी है। लिहाज़ा जैसा कि शरीअत का उसूल है कि जिस चीज़ के बग़ैर कोई फ़र्ज़ पूरा न होता हो तो वह चीज़ भी फ़र्ज़ हो जाती है। इसी तरह चूँकि एक ख़लीफ़ा के बग़ैर जमाअत का तसव्वुर नहीं, इसलिए ख़लीफ़ा की तक़र्रुरी भी फ़र्ज़ हो जाती है।


इजमाऐ सहाबा से माख़ूज़ दलायल:
अब क़ुरआन और सुन्नत के बाद हम सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم के इजमाअ पर नज़र डालें। सहाबा-ए-किराम का इस बात पर इजमाअ रहा कि ख़लीफ़ा का तक़र्रुर (appointment) तीन दिन के अंदर अंदर हो जाना चाहिए और यह इस क़द्र मुस्तेहकम इजमाअ है कि इसमें मज़ीद किसी तफ़सील की ज़रूरत नहीं। लिहाज़ा ख़िलाफ़त को क़ायम करना फ़र्ज़ हुआ और यह ऐसा फ़र्ज़ है जिस पर दूसरे फ़राइज़ का दारोमदार है ख़िलाफ़त का क़ायम हो जाना और इसकी फ़र्ज़ियत दोनों अलेहदा चीज़ें हैं और जिन पर भी यह फ़र्ज़ आयद होता है उनके लिए यह कत्तई जाएज़ नहीं कि वह अल्लाह के इल्म पर ख़ामोशी इख़्तियार करके और उसे हीला बना कर ख़ुद इस काम से ग़फ़लत बरतने का जवाज़ बना लें। इसकी मिसाल ऐसी ही है जैसे किसी शख्स पर मसलन अपने अहले ख़ाना (घर वालों) की ज़रूरियात पूरी करने के लिए माल न हो तो वह माल न होने के सबब ख़ामोश बैठा रहे, बल्कि उस पर यह लाज़िम और फ़र्ज़ होता है कि वह मेहनत करके उनकी किफ़ालत (परवरिश) करे। एक हदीस से बात वाज़ेह हो जाती है:

''एक शख्स के लिए यह गुनाह काफ़ी है कि वह अपने अहले ख़ाना की हाजात को फ़रामोश करे जिनकी माली इयानत उसकी ज़िम्मेदारी है।''

इस बात की इजाज़त नहीं कि कोई अल्लाह سبحانه وتعال के राज़िक़ होने का बहाना बना कर काम न करे और ख़ामोश बैठा रहे। ख़िलाफ़त के क़ायम होने से फतह व कामरानी और रिज्क़, दोनों अल्लाह سبحانه وتعال के हाथ में है, वही है जो फतह बख्शता है और रिज्क़ अता करता है, उसमें अल्लाह के बंदे का कोई दख़ल नहीं। बंदे का काम यह है कि वह मेहनत करे और अपने वाजिबात को पूरा करे और ख़िलाफ़त क़ायम करने के लिए मेहनत करे। अल्लाह سبحانه وتعال किसी पर ऐसा बोझ नहीं डालता जो उसकी ताक़त से बाहर हो। अमरीका और दूसरे देशों का बहुत बड़ी ताक़त होने का हम बहाना बना कर इस काम से ग़ाफ़िल नहीं बैठ सकते। जब तक हम पर यह फ़र्ज़ आईद है हमें इसके लिए कोशिश करते रहना है, रही फतह तो वह अल्लाह سبحانه وتعال के हाथ में है। अल्लाह ने इस मौज़ू से मुतअल्लिक़ अपने इल्म का कुछ हिस्सा नाज़िल फ़रमाया है जो यह साबित करता है कि ख़िलाफ़त दोबारा क़ायम की जाएगी और यह बात हमारे लिए होने वाले अदल व इंसाफ़ की उम्मीद है। हमारे ईमान, अज़्म और संजीदगी को इस इल्म से तक़वियत (शक्ति) मिलना चाहिए क्योंकि यह रिवायात अपने मानी के एतबार से मुतवातिर हैं और ख़ामोश बैठने या इन पर शुब्हा का अब कोई जवाज़ बाकी नहीं रहता। इसके दलाइल हस्बे ज़ैल हैं:


सबसे पहले एैन मंहजे नबवी पर ख़िलाफ़त दोबारा क़ायम होने के बारे में:

मसनद अहमद में नोमान इब्ने बशीर رضي الله عنه से रिवायत है कि हम मस्जिदे नबवी में बैठे थे, बशीर رضي الله عنه (यानी रावी के वालिद कम गुफ़तार (कम बोलने वाले) शख्स थे, वहाँ अबु शलबा رضي الله عنه आए और कहा कि ऐ बशीर इब्ने साद, क्या तुम्हें हाकिमों के बारे में अल्लाह के नबी صلى الله عليه وسلم के अक़वाल याद हैं? हज़रत हुज़ैफ़ा रज़ि. ने कहा कि हाँ मुझे याद हैं, चुनान्चे अबु शलबा رضي الله عنه वहाँ बैठ गए और हज़रत हुज़ेफ़ा رضي الله عنه ने कहा कि हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''तुम में उस वक्त तक नबूवत रहेगी जब तक अल्लाह سبحانه وتعال की मर्ज़ी होगी कि नबूवत रहे, फिर अल्लाह سبحانه وتعال जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर एैन नबूवत ही की तर्ज़ पर ख़िलाफ़त होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह سبحانه وتعال की मर्ज़ी होगी, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर काट खाने वाली बादशाहत होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह سبحانه وتعال की मर्ज़ी होगी, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर जबरी और इस्तबदादी हुकूमत होगी तो वह रहेगी जब तक अल्लाह سبحانه وتعال की मर्ज़ी होगी, फिर वह जब चाहेगा उसे उठा लेगा। फिर एैन नबूवत ही की तर्ज़ पर ख़िलाफ़त क़ायम होगी। फिर आप صلى الله عليه وسلم ख़ामोश हो गये।“

दूसरी हदीस इस्लाम का दुनिया के हर घर में दाख़िल होने से मुतअल्लिक है। मुसनद अहमद में तमीमुददारी रज़ि. से रिवायत है, वह कहते हैं कि नबी करीम صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''बेशक यह यानी इस्लाम हर उस जगह पहुँचेगा जहाँ दिन और रात होते हैं, मिट्टी से बना कोई घर या खाल से बना कोई ख़ेमा ऐसा न होगा जिसे अल्लाह इस दीन में न ले आए, चाहे वह इज्ज़त वालों की तरह इज्ज़त से हो या ज़लील होकर, इज्ज़त वह है जो अल्लाह سبحانه وتعال इस्लाम से दे और रुसवाई वह है जो अल्लाह سبحانه وتعال कुफ्र से दे।''

हैसमी رحمت اللہ علیہकहते हैं कि यह हदीस मसनद अहमद और तबरानी में नक़्ल है और मसनद अहमद के रावी रिजाले सहीह हैं। इसी हदीस को हाकिम رحمت اللہ علیہने अपनी मुस्तदरक में रिवायत किया है और उसे शैखीन की शर्त पर सहीह बताया है, हाकिम رحمت اللہ علیہकी मुस्तदरक सही अहादीस का ज़ख़ीरा है जो बुख़ारी رحمت اللہ علیہऔर मुस्लिम رحمت اللہ علیہकी शर्त पर खरा है। अलबत्ता यह बुख़ारी और मुस्लिम में नक़ल नहीं की गईं हैं। यही हदीस सुनन बैहक़ी में भी रिवायत की गई है लेकिन उसके आख़री अल्फाज़ यूँ हैं:

''या वह उन्हें ज़लील कर देगा और वह उसकी इताअत कुबूल कर लेंगे।''

हज़रत अल मिकदाद رضي الله عنه से, इस हदीस को मसनद अहमद और तबरानी  رحمت اللہ علیہकी अलकबीर में भी रिवायत किया गया है, हैसमी رحمت اللہ علیہ कहते हैं कि तबरानी की इस रिवायत के रावी सहीह हैं, और इब्ने हिब्बान رحمت اللہ علیہ ने इसे अपनी सहीह में रिवायत किया है।

हाकिम رحمت اللہ علیہ ने अबु शलबा رضي الله عنه से रिवायत किया है कि ''जब ऑंहज़रत صلى الله عليه وسلم किसी ग़ज़वे (जंग) से लौटते तो पहले मस्जिदे नबवी जाकर दो रकअत नमाज़ अदा करते, फिर अपनी बेटी के घर जाते और फिर अपनी अज़वाजे मुत्तहरात के घर जाते थे। एक बार जब आप صلى الله عليه وسلم लौटे तो नमाज़ अदा करने के बाद हज़रत फ़ातिमा رضي الله عنها के घर पहुँचे जहाँ वह दरवाज़े पर थीं, वह रोती जा रही थीं और आप صلى الله عليه وسلم का बशरा-ए-मुबारक चूम रही थीं कि आप صلى الله عليه وسلم ने दरयाफ्त किया कि बेटी क्यों रोती हो? कहा कि आप صلى الله عليه وسلم के फटे कपड़े और आप صلى الله عليه وسلم की यह हालत देख कर रोना आता है, आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

'' रो मत, अल्लाह سبحانه وتعال ने तुम्हारे बाप صلى الله عليه وسلم को ऐसा काम दिया है कि दुनिया भर में मिट्टी या खाल से बना कोई भी घर ऐसा न होगा कि अल्लाह का हुक्म उनमें दाख़िल न हो, चाहे इज्ज़त से या उन्हें ज़लील करके, और यह वहाँ तक होगा जहाँ तक रात पहुँचती है।''

हाकिम رحمت اللہ علیہ कहते हैं कि इसकी असनाद सहीह हैं अलबत्ता उसे शैख़ीन ने रिवायत नहीं किया है। इस हदीस को तबरानी رحمت اللہ علیہ और मसनद अलशामीन ने भी रिवायत किया है।

इस हदीस को तीन सहाबा-ए-किराम ने रिवायत किया है और ताबईन तक पहुँची है। ताबई वह होता है जो सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم से तो मिला हो लेकिन हुज़ूर صلى الله عليه وسلم से न मिला हो, फिर उसे नौ तबेअ ताबईन ने रिवायत किया है, तबेअ ताबई वह होता है जो ताबईन से मिला हो लेकिन सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم से न मिला हो। इसमें कहा गया है कि इस्लाम दुनिया के हर घर में दाख़िल होगा, आज मग़रिबी यूरोप के ज़्यादतर हिस्सों, शुमाली (उत्तरी) और जुनूबी (दक्षिणी) अमेरीका और अफरीक़ा के एक बड़े हिस्से में इस्लाम नहीं पहुँचा है। यहाँ इस्लाम में दाख़िल होने से मुराद उनका मुस्लिम हो जाना या इस्लामी रियासत की इताअत कुबूल कर लेने के माअनी में है और यह उन पर हुकूमत किए बिना मुमकिन नहीं।

हाकिम رحمت اللہ علیہ की रिवायत के अलावा सभी अहादीस, लोगों के इस्लाम कुबूल कर लेने की बात करती हैं, इस हदीस का मफहूम यह है कि अगरचे वह लोग इस्लाम में एतक़ादी (आस्था के) तौर पर दाख़िल न भी हों, लेकिन उन्हें जिज़या देने और इस्लाम की इताअत कुबूल करने पर मजबूर कर दिया जाएगा। इस तरह इस रिवायत का सियाक़ व सबाक़ दिगर रिवायात से जुदा है। मज़ीद यह कि किसी का इस्लाम की इताअत कुबूल कर लेने के लिए ज़रूरी है कि इस्लामी रियासत का वजूद हो, लिहाज़ा इस हदीस में इस्लामी रियासत के लौट आने की ख़बर है जिसका दबदबा पूरी दुनिया पर होगा।


मुताल्लिक़ हदीसें:

हाकिम رحمت اللہ علیہ ने अपनी मुस्तदरक में हज़रत उमर رضي الله عنه से नक़्ल किया है, वह कहते हैं कि हम नबी करीम صلى الله عليه وسلم के साथ बैठे थे कि आप صلى الله عليه وسلم ने पूछा:

''सबसे आला ईमान रखने वाले कौन हैं?'' हज़रत उमर رضي الله عنه ने जवाब दिया कि वह फ़रिश्ते हैं, आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: ''वह ऐसे हैं और यह उनका हक़ है, जो अल्लाह سبحانه وتعال ने उन्हें मर्तबा दिया है तो फिर उन्हें क्या चीज़ इससे रोक सकती है, लेकिन बेहतरीन ईमान वाले कोई और हैं'' हज़रत उमर رضي الله عنه ने जवाब दिया कि वह अल्लाह के अम्बिया अलैहिस्सलाम हैं, आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: ''वह ऐसे हैं और यह उनका हक़ है, जो अल्लाह ने उन्हें मर्तबा दिया है तो फिर उन्हें क्या चीज़ इससे रोक सकती है, लेकिन बेहतरीन ईमान वाले कोई और हैं।'' आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया: ''वह लोग वह क़ौम हैं जो पेटों में हैं और मेरे बाद आऐंगे, उन्होंने गो कि मुझे देखा नहीं होगा लेकिन उन्हें मुझ पर ईमान होगा, उन्हें वह नुसूस एहकाम मिलेंगें जो मुअल्लक (Hanging) होंगें और वह उसके मुताबिक़ अमल करेंगे, उनका ईमान बेहतरीन ईमान है।''


इसी मज़मून की एक हदीस मसनद अल बज्ज़ार में हज़रत उमर  رضي الله عنه ही की रिवायत करदा है जिसमें आप صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''वह क़यामत के दिन बेहतरीन ईमान और बेहतरीन दरजात वाले होंगे।''


इस हदीस के रावियों में एक सहाबी तीन ताबईन और तीन तबेअ ताबईन हैं और इसमें यह इशारा किया गया है कि रियासते ख़िलाफ़त ख़त्म हो जाने के बाद दोबारा वजूद में आएगी। यह इशारा ''और वह उसके मुताबिक़ अमल करेंगे'' यहाँ लफ्ज़ ''मा'' इस्तेमाल किया गया है जो उसकी आम होने पर दलालत करता है, यानी नुसूस (क़ुरआन और हदीस) में जो कुछ भी है उसके मुताबिक़। इसमें एक फ़र्द (व्यक्ति) के तमाम फ़राईज़ शामिल हैं जैसे रोज़े, नमाज़, रियासत के फ़राइज़, दावत का पहुँचाना, मुआहिदे करना और अल्लाह سبحانه وتعال के तमाम एहकाम नाफ़िज़ करना जिसका ज़िम्मा रियासत को दिया गया है। फिर इसमें यह इशारा भी मुज़मिर (छुपा हुआ) है कि यह काम ख़िलाफ़त के मिटा दिए जाने के बाद होगा, कहा गया कि ''उन्हें वह नसूस मिलेंगी जो मुअल्लक़ (Hanging) होंगी'' यहाँ वरक़े मुअल्लक़ से मुराद क़ुरआन और सुन्नत हैं, जो सहाबा किराम رضی اللہ عنھم के ज़माने में मौजूद थे आम तौर पर यह आयात वरक़ पर लिख कर दीवारों पर मुअल्लक़ थी और यही सिलसिला ताबईन के दौर में रहा। उनके घर में यह आयात मुअल्लक़ थीं और उनके सामने एक रियासत थी जो इन आयात को नाफ़िज़ कर रही थी, अलबत्ता आज हमें यह आयात तो मिलती हैं लेकिन इन्हें नाफ़िज़ करने वाली रियासत का कोई वजूद हमारे सामने नहीं है, लिहाज़ा हम उस रियासत को क़ायम करने के लिए इन आयात के मुताबिक़ काम करते हैं। अब इस हदीस की रू से हमें वह औराक़ मिले हैं जो पूरी तरह मुअल्लक़ (Hanging & Suspended) हैं। लिहाज़ा यहाँ ताकतवर ईमान की बशारत उन लोगों के लिए है जो इन मतरूका (जिन्हें छोड़ दिया गया हो) एहकाम को अमलन नाफ़िज़ करेंगे।

इस हदीस के तअल्लुक़ से एक नुक़्ते की वज़ाहत (व्याख्या) ज़रुरी है, वह यह कि लोगों का गिरोह मलाईका (फरिश्तों या अम्बिया) से बेहतर नहीं है क्योंकि जब मलाईका और अम्बिया का जवाब दिया गया तो हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया कि हाँ वह तो हैं। इससे मालूम हुआ कि अम्बिया और मलाईका का ईमान इस गिरोह से यक़ीनन आला है, लोगों का यह गिरोह अम्बिया और मलाईका के बाद सबसे आला ईमान रखता है। मज़ीद यह कि इस आला ईमान के बावजूद उनका दरजा सहाबा से ऊँचा नहीं हो सकता, क्योंकि हुज़ूर صلى الله عليه وسلم ने इस गिरोह की बरतरी को सिर्फ ईमान के तअल्लुक़ से आला बताया है, जबकि बरतरी ईमान, तक़वा और आमाल में सभी की हो सकती है। इस गिरोह की बरतरी सिर्फ ईमान की हद तक आला बताई गई है क्योंकि वह नबी करीम صلى الله عليه وسلم को देखे बग़ैर इन मुअल्लक़ औराक पर अमल करेंगे। अगर इन तमाम पैमानों से बरतरी को देखा जाए तो बग़ैर किसी शुब्हे (सन्देह) के सहाबा किराम رضي الله عنه सबसे आला थे।


ख़िलाफ़त का अर्ज़े मुक़द्दस में आना:


सुनन अबु दाऊद में इब्न ज़ग़बी अल अयादी से रिवायत है कि अली अब्दुल्लाह बिन हवाला अल अज़दी رضي الله عنه ने उन्हें बताया कि हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم ने उन्हें माले ग़नीमत वसूल करने के लिए भेजा और उन्हें माल नहीं मिला, जब यह हुज़ूर صلى الله عليه وسلم के पास वापिस पहुँचे तो आप صلى الله عليه وسلم ने उनके चेहरे पर थकावट के आसार देखे और उठ कर खड़े हुए और दुआ की कि:

        ''ऐ अल्लाह तू इन्हें मेरे हवाले न कर क्योंकि मैं इनकी देख भाल के लिए कमज़ोर हूँ, न ही इन्हें इन्ही के हाल पर छोड़ दे क्योंकि यह अपनी देख भाल नहीं कर सकते, न ही तू उन लोगों के हवाले कर क्योंकि वह लोग बेहतरीन अशया इन्हें न देकर अपने लिए रख लेंगे।''

फिर उनके सर और पेशानी पर अपना दस्ते मुबारक रखा और फ़रमाया:

''ऐ इब्ने हवाला जब तुम देखो कि ख़िलाफ़त अर्ज़े मुक़द्दस अल क़ुद्स में आ गई है तो ज़लज़ला, आफ़ात और अज़ीम वाक़िआत होंगे। उस वक्त क़यामत लोगों से इतनी क़रीब होगी जितना मेरा हाथ तुम्हारे सर से है।''

इसी रिवायत को हाकिम رحمت اللہ علیہ ने भी रिवायत किया है और इसकी असनाद को सही बताया है। मसनद अहमद और हाकिम رحمت اللہ علیہकी असनाद एक जैसी हैं, अलबत्ता इसे शैख़ीन ने रिवायत नहीं किया है। अगर यह इब्ने ज़ग़बी अब्दुल्लाह सहाबी हैं तो इस रिवायत में दो सहाबा हुए और अगर यह ज़ग़बी अब्दुर्रहमान ताबई हैं तो रिवायत में एक सहाबी और दो ताबई हुए, दोनों सूरतों में तीन तबे ताबईन हैं।

इस हदीस में इशारा है कि खिलाफ़त अलक़ुद्स में आएगी, इससे पहले हज़रत उमर رضی اللہ عنھم के दौर में जब ख़िलाफ़त अलक़ुद्स पहुँची थी वह दूसरा मामला था क्योंकि उस वक्त ज़लज़ला वग़ैरा का हादसा पेश नहीं आया था। यानी वहाँ खिलाफ़त फिर आएगी और इन वाक़िआत का ज़हूर होगा।

दारुल इस्लाम के शाम में होने से मुतअल्लिक़

इब्ने हब्बान  رحمت اللہ علیہ ने अपनी सही में रिवायत किया है कि क़यामत के क़रीब मुसलमानों का अल मर्कज़ शाम होगा, शाम से मुराद, जार्डन, सीरिया, लेबनान, फिलिस्तीन और ईराक़ का कुछ हिस्सा है। इस रिवायत को अबु नवास समआन ने रिवायत किया है। इसी को मसनद अहमद رحمت اللہ علیہ  ने भी सलमा बिन नफ़ील से रिवायत किया है कि ''बेशक मुसलमानों का उक्र शाम होगा।'' तबरानी ने भी इसे इन्हीं असनाद से रिवायत किया है और इसके रिजाल को सक़ा बताया है। इसकी असनाद में दो सहाबा, दो ताबईन और पाँच तबेअ ताबईन आए हैं क्योंकि अहादीस में ख़िताब हुज़ूरे अकरम صلى الله عليه وسلم का होता है। जिसकी सदाक़त (सच्चाई) बिला शुब्हा होती है, यह कहा जाएगा कि पहले जब ख़िलाफ़त शाम में थी, यहाँ उसका ज़िक्र नहीं है क्योंकि उस वक्त ख़िलाफ़त का अस्ल मर्कज़ मदीना मुनव्वरा था, यानी इन अहादीस में भी ख़िलाफ़त के दोबारा क़याम का इशारा है और इस्लामी रियासत के यहां क़ायम होने का सुबूत है।


अद्ल व इंसाफ़ के मुतअल्लिक़:


मसनद अहमद में मुअक्क़िल इब्ने यसार رضي الله عنه से रिवायत है:

''मेरे बाद नाइंसाफ़ी देर तक ख़ामोश नहीं बैठी रहेगी, यह सर उठाएगी। जिस क़द्र नाइंसाफ़ी पैदा होगी, उस क़द्र इंसाफ़ ख़त्म होगा और लोग इसी नाइंसाफ़ी की दुनिया में पैदा होंगे और उन्हें इस नाइंसाफ़ी के सिवा कुछ न पता होगा, फिर अल्लाह سبحانه وتعال इंसाफ़ लाएगा, इसमें जिस क़द्र इंसाफ़ किया जाएगा, इस क़द्र नाइंसाफ़ी ख़त्म होती जाएगी और लोग अद्ल के आलम में पैदा होंगे और उन्हें इस अद्ल के सिवा कुछ न मालूम होगा।''

इस हदीस के रावियों में एक सहाबी, एक ताबई और दो तबेअ ताबईन हैं और इसमें यह इशारा है कि अल्लाह سبحانه وتعال के नाज़िल करदा एहकाम से रुगरदानी की हुकूमत के बाद फिर इस्लाम की हुकूमत होगी। हमने देख लिया कि लोग नाइंसाफ़ी की दुनिया में पैदा हो रहे हैं जिन्हें सिर्फ नाइंसाफ़ी ही मालूम है। अल्लाह سبحانه وتعال जल्द इंसाफ़ लाएगा और इस्लामी रियासत क़ायम होगी और अल्लाह سبحانه وتعال के नाज़िल करदा एहकाम नाफ़िज़ होंगे जिन पर ग़ैर इस्लाम का ज़रा भी असर न होगा।

इस हदीस से यह मतलब निकालना सही नहीं होगा कि अद्ल व इंसाफ़ बतदरीज (step by step) आएगा और इस बीच एक ही जगह अद्ल और नाइंसाफ़ी साथ साथ रहेंगे और फिर अद्ल नाइंसाफ़ी से आज़ाद हो जाएगा। यह इसलिए सही नहीं है कि अद्ल और नाइंसाफ़ी साथ साथ नहीं रहते और न ही इनके मुरक्कब (mixture) को अद्ल कहा जाता है। जो हाकिम अवामी मिलकियत (public property) को हडप जाऐ और फिर चोर के हाथ कटवाए उसे आदिल हाकिम नहीं कहा जा सकता, जो हाकिम इंफरादी (व्यक्तिगत) आमाल के लिए दावत देने वाले गिरोह को काम करने की छूट भी दे और इस्लामी तहज़ीब पर किताबें छापने की इजाज़त भी दे लेकिन इस्लाम पर क़ायम सियासी जमाअतों यानी इस्लामी निज़ाम की दावत देने वालों को ख़त्म करने के दर पे हो तो वह भी आदिल हाकिम नहीं हो सकता। न ही वह हाकिम इंसाफ पसन्द हो सकता है जो बैरूनी मुमालिक (विदेश) से तो हथियार ख़रीदे लेकिन रियासत के अंदर उनके बनाए जाने की कोशिश न करे। ऐसा हाकिम भी आदिल नहीं हो सकता जो बंजर ज़मीन पर खेती के लिए सूदी क़र्ज़े की इजाज़त दे। ऐसा हाकिम जो मर्द और औरतों को खुले में मिलने जुलने की इजाज़त दे और फिर ज़िना के मुरतकिब के लिए हुदूद जारी करे लिहाज़ा इस हदीस का सही मफ़हूम यह होगा कि दुनिया के मुख़्तलिफ हिस्सों में नाइंसाफ़ी होगी और एक एक करके वहाँ इंसाफ़ क़ायम होता रहेगा। जैसे जैसे एक हिस्सा इस्लामी रियासत में शामिल होता जाएगा वहाँ इंसाफ़ क़ायम होता जाएगा।


हिजरते इब्राहिमी और हिजरत के बाद हिजरत के मुतअल्लिक़:


सुनन अबु दाऊद में हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर رضي الله عنه से रिवायत है कि ऑंहज़रत صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

       ''हिजरत के बाद एक और हिजरत होगी, पस सबसे बेहतर वह लोग हैं जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की हिजरत वाली ज़मीन (शाम) की तरफ़ हिजरत करेंगे।''

इस हदीस को मूसा इब्ने अली इब्ने रबाह ने अपने वालिद फिर हज़रत अबु हुरैरा رضي الله عنه और फिर हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने उमर  رضي الله عنه से रिवायत किया है, हाकिम ने इस रिवायत को लिया और शैख़ीन की शर्त पर सहीह बताया है गो कि शैख़ीन ने उसे शामिल नहीं किया है और मसनद अहमद में भी रिवायत है। इसकी असनाद में कम अज़ कम पाँच तबेअ ताबईन, तीन ताबईन और दो सहाबा-ए-किराम हैं। इस हदीस में मदीना की हिजरत के बाद शाम की तरफ हिजरत के लिए इशारा है जिसका मक़सद दारुल कुफ्र को छोड़ कर दारुल इस्लाम को हिजरत करना है और इस हदीस से शाम के उक्र (केन्द्र/मर्कज़) होने वाली हदीस की ताईद भी होती है।




अजनबियों के बारे में:

हज़रत अबु हुरैरा रज़ि. से सही मुस्लिम शरीफ़ में नक़ल है कि ऑंहज़रत صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''बेशक दीने इस्लाम अजनबी हैसियत से शुरू हुआ और यह फिर अजनबी बन जाएगा, तो ख़ुशख़बरी है अजनबियों के लिए।''

इसी हदीस को सुनन इब्ने माजा में हज़रत अनस इब्ने मालिक رضي الله عنه से रिवायत किया गया है, एक और रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह से नक़्ल की है जिसमें आता है:

        ''बेशक दीने इस्लाम अजनबी हैसियत से शुरू हुआ और यह फिर अजनबी बन जाएगा, तो ख़ुशख़बरी है अजनबियों के लिए। पूछा गया कि यह अजनबी कौन हैं? फ़रमाया कि यह वह लोग हैं जो अपने क़बीलों से अलेहदा हो गए हैं।''

इसको तिर्मिज़ी में भी मुख़्तलिफ असनाद से नक़्ल किया गया है और हसन सहीह बताया है। कसीर इब्ने अब्दुल्लाह अपने वालिद और वह अपने वालिद से रिवायत करते हैं कि ऑंहज़रत صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''दीने इस्लाम सिमट कर हजाज़ में इस तरह आ जाएगा जैसे साँप अपने बिल में सिमट जाता है और दीन हजाज़ से इस तरह जुड़ा होगा जैसे बकरियाँ पहाड़ों की चोंटियों से।''

इसी रिवायत को मसनद अहमद में हज़रत अबु हुरैरा رضي الله عنه से नक़्ल किया गया है। इसकी असनाद में सात सहाबा-ए-किराम, नौ ताबईन और नौ तबेअ ताबईन हैं। यहां यह ख़बर दी गई है कि इस्लाम बहैसियत रियासत के फिर लौट कर उसी तरह आ जाएगा जिस तरह पहली बार आया था।

इन तमाम अहादीस पर मजमूई नज़र डालें तो रियासते इस्लामी की वापसी की रिवायात अपनी कसरत की वजह से मुतवातिर हैं। मजमूई तौर पर इनकी रिवायत में 25 सहाबा-ए-किराम رضی اللہ عنھم ने इन रिवायात को 39 ताबईन तक पहुँचाया और उन्होंने 62 तबेअ ताबईन को नक़ल कीं, जिसमें तवातुर क़ायम होता है और किसी क़िस्म के शक की गुंजाइश नहीं रह जाती। इनके अलावा और भी कई अहादीस इस तवातुर को मज़बूत करती हैं जो यहां नक़ल नहीं की गईं, मसलन हाकिम رحمت اللہ علیہ ने अबी शुरैह से नक़ल किया है कि मैंने सुना है कि:

''बारह परचम (झण्डे होंगे और हर एक परचम तले बारह हज़ार आदमी होंगे जो अपने इमाम के साथ बैतुल मुक़द्दस में जमा होंगे।''

इस रिवायत को हाकिम रह. ने सही बताया है। एक और रिवायत इब्ने असाकर मसीरा इब्ने जलीस से नक़ल की है कि हुज़ूर सल्ल. ने फ़रमाया:

''यह मामला ख़िलाफ़त मेरे बाद मदीना में जारी रहेगा फिर शाम पहुँच जाएगा, फिर ज़ज़ीरा-ए-अरब आ जाएगा, फिर इराक़, बलद (शहर), फिर बैतुल मुक़द्दस जो उसका ठिकाना होगा। फिर जो लोग उसके मर्कज़ को हटा देंगे, उन्हें इसका मर्कज़ फिर कभी हासिल न होगा।''

यहाँ बलद से ग़ालिबन शहर हरकुल या इसतम्बुल मुराद है। और इब्ने असाकिर رحمت اللہ علیہ ने अब्दुरर्हमान बिन अबी उमैरा अल मज़नी से नक़ल किया है कि: ''फिर बैतुल मुक़द्दस में सही बैअत होगी।''

हाकिम رحمت اللہ علیہ ने हज़रत अबु हुरैरा رضي الله عنه से नक़ल किया है कि हुज़ूर अक़दस صلى الله عليه وسلم ने फ़रमाया:

''अगर एक संगीन जंग हुई तो दमिश्क़ से बेहतरीन घुड़सवार अरबों का एक झ्रुड आएगा जो असलहा चलाने में माहिर होंगे और अल्लाह سبحانه وتعال उनसे दीन की मदद लेगा।''

हाकिम رحمت اللہ علیہ ने एक और रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर رضي الله عنه से नक़्ल की है और उसे सहीह बताया है, वह कहते हैं कि: ''एक वक्त ऐसा आएगा जब एक भी मोमिन ऐसा न होगा जो शाम का रुख़ न करे।''


लिहाज़ा बशारत है उन लोगों के लिये जो पूरे इख़लास से उन लोगों के साथ काम करें जो रियासते इस्लामी को सिर्फ़ अल्लाह سبحانه وتعال की ख़ुशनुदी के लिए दोबारा क़ायम करने में लगे हुए हैं। वह इसलिए इस काम में लगे हुए हैं कि अल्लाह سبحانه وتعال उनका शुमार उन अजनबियों में कर ले जो अपने क़बीले से हटे हुये हैं और अल्लाह سبحانه وتعال उनसे इस दीन की ख़िदमत ले। बदबख्त है वह जो कुफ्फार और मुनाफ़िक़ों का साथ दे जो इस काम में रोड़े खड़े करते हैं। बेशक ख़सारे में वह है जो ख़ामोश तमाशाबीन की तरह देखता है कि हवा का रुख़ किस तरफ़ है और अपनी ख्वाहिशात के पीछे लगा हुआ है।





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