वोट देने और इंतखाब में हिस्सा लेने के रद्द में

उस दलील के रद्द में की काफिराना निज़ाम में वोट देना जायज़ है


तआर्रुफ
"उन के दर्मियान उस के मुताबिक फैसला करो जिसे अल्लाह तआला ने नाज़िल फरमाया है, और उन की ख्वाहिशात की पैरवी ना करो, उस हक़ को छोड़ कर जो तुम्हारे पास आया है" (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआन, सुरा अल-मायदा: 46)
अल्लामा हाफिज़ इब्ने कसीर رحمت اللہ عليه ने इस आयत के एक टुकड़े "और उन के दर्मियान उस के मुताबिक फैसला करो जिसे अल्लाह तआला ने नाज़िल फरमाया है" की तफ़सीर बयान करते हुए फरमाया: यह आयत हुक्म देती है: ऐ मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) लोगों के दर्मियान फैसला करो, चाहे वोह अरब हो या गैर-अरब, तालीमयाफ्ता हो या गैर-तालीमयाफ्ता, उस के मुताबिक़ जो अल्लाह سبحانه وتعالى ने इस अज़ीम किताब में नाज़िल फरमाया है। "और उन की ख्वाहिशात की पैरवी न करो" यहाँ ख्वाहिशात से मतलब वोह अफकार है जिसे वोह मनवाना चाहते थे। यह वही अफकार थे जिस की वजह से वोह अल्लाह और उस की वह्यी से दूर हो गये थे। इसलिये क़ुरआन चेतावनी देता है:
"और उनकी ख्वाहिशात की पैरवी न करो, कही ऐसा न हो की वोह तुम्हें उस हक़ से फेर दे जो तुम्हारे पास आया है।" यह आयत लोगों को हुक्म देती है की अल्लाह तआला ने जो रास्ता दिखाया है उस पर सच्चाई के साथ जमे रहें और जाहिल लोगों कि बेजा ख्वाहिशात की पैरवी न करे।
ऐ इस्लामी भाईयों और बहनो! हम मुसलमानो को अल्लाह سبحانه وتعالى की तरफ से यह हुक्म दिया गया है इस उम्मत के दर्मियान अल्लाह तआला के नाज़िल करदा अहकामात के मुताबिक़ फैसला करे। यानी यह है की उन लोगों की बातों पर कान न धरें जो अपने खोखले अफकार और फिज़ूल ख्वाहिशात के साथ कुफ्र के मुताबिक़ मुसलमानों पर हुकूमत करना चाहते है। इसके बावजूद भी ऐसे कुछ लोग है जो इस बात पर इसरार करते है और तुम्हें पुकारते है की तुम उन्हें इंतेखाब (election) में चुन कर मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दुनिया में इस वक्त मौजूद काफिराना निज़ाम मे इक़्तिदार दो। हक़िक़तन यह एक बहुत बढ़ा हराम अमल है। काफिराना हुकूमत को इक़्तिदार दे कर हम इक़्तिदार की साझेदारी, शरीअत का अधूरा निफाज़ और तदर्रुज (शरीअत के क़वानीन का टुकड़ों में निफाज़) के कांटों भरे रास्ते पर चल रहे है। इंशा अल्लाह इस गुमराहकुन रास्ते को हम बेनक़ाब कर देंगे, और इस की बदसूरती को आप लोगों सामने वाज़ह कर देंगे ताकि तुम इस मुन्कर को हतमी तौर पर ठुकरा दो।
चुनाव: एक निज़ाम का या एक लीडर का
सब से पहले ज़हन में यह बात साफ रहनी चाहिये की एक लीडर को चुनने और एक निज़ाम (system) को चुनने में फर्क़ है। जहाँ तक लीडर के चुनाव की बात है तो इस्लाम इसको फर्ज़ क़रार देता है। यह बहुत मारुफ़ है खुलफाऐ राशिदीन भी बिलावस्ता चुने गये थे। अफसोस आज सन 1924 से खिलाफत का निज़ाम मौजूद नहीं है जिस में मुस्लिम रहनुमाओं को चुना जाता था। आज जो कुछ बचा है उस पर कुफ्फार कलोनियलिस्टो (उपनिवेशवादीयों) की तरफ से खतरा मँडराता रहता है जो मुसलसल मुस्लिम दुनिया का इस्तहसाल करते रहते है जो कभी मुत्तहिद रियासत हुआ करती थी। आज जो कोई भी चुनाव होता है वोह कोई हुक्मरान या लीडर के लिये नहीं होता है बल्कि वोह पूरे निज़ाम का चुनाव होता है। आज मुस्लिम दुनिया में यह नज़ारा आम तौर पर देखने को मिलता है की बहुत सी "इस्लामी" जमातें लादीनी (सेक्यूलर) जमातों ले साथ कुफ्रिया क़ानूनसाज़ असेम्बलियों में सीटें हासिल करने के लिये तहरीके चलाती रहती है। बक़ौल उनके, उनका मक़सद इन मजलिसों में कुछ असरो-रसूख हासिल करके वोह धीरे-धीरे इन मे इस्लामी क़वानीन को मुतार्रिफ करा के इन निज़ामो को ‘‘इस्लामी’’ बना देना है। यही वजह है की इंतख़ाब (election) मे हिस्सा लेने और मुक़ाबला करने का मतलब हो जाता है: इक़्तिदार में साझेदारी, तदर्रुज (धीरे-धीरे लम्बे अरसे मे शरीअत के क़वानीन नाफिज़ करना), हलेवस्त निकालना (compromise), या शरीअत का आधा-अधूरा निफाज़।
खलीफा का इंतख़ाब नहीं किया जाना, और गैर-इस्लामी निज़ाम में लीडर का चुना जाना यह वोह मामला है जो क़तई तौर पर हराम है जिस में इख्तिलाफे राय की कोई गुंजाइश नहीं है। मुसलमानों को यह शरई हक़ हासिल है की वोह अपने उपर खलीफा का चुनाव करे लेकिन उन्हें इस की इजाज़त नहीं कि वोह अपने लिये क़ानून का चुनाव करें, जैसा की क़ुरआने करीम में बयान कर दिया गया है:
"मुसलमान मर्द और औरत को यह हक़ नहीं पहुंचता की जब अल्लाह और रसूल उन के लिये हुक्म सादिर फ़रमा दे तो उनका अपने मुआमले में कोई इख्तियार बाक़ी रह जाये। और जो कोई भी अल्लाह और उसके रसूल की इताअत से मुंह फेरेगा, वोह खुली गुमराही में जा पड़ा।" (सूरा-अहज़ाब: 36)
हाफिज़ इब्ने कसीर फरमातें है की यह आयत अपने मआनी के ऐतबार से आम है और हर किस्म के मुआमलात से ताल्लुक़ रखती है, यानी अगर अल्लाह और उसके रसूल ने कोई फैसला कर दिया है, तो किसी को यह हक़ हासिल नहीं की उसके खिलाफ जाये, किसी को कोई दूसरी राय रखने की गुंजाइश नहीं है। क़ुरआन इसको इस तरह वाज़ेअ करता है: "..आपके रब के क़सम है, कोई उस वक्त तक मोमिन नहीं हो सकता जब तक वोह अपने इख्तिलाफ में आप को हकम (judge) नहीं बना ले, और आप के दिये हुए फैसले पर तंगी भी महसूस न करे, और दिल से मान ले" [तरजुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा-निसा: 65]
अल्लाह और रसूल के हुक्म के खिलाफ जाने पर कड़े लफ्ज़ो में चेतावनी दी गई है: "और वोह जो पैग़म्बर (صلى الله عليه وسلم) के हुक्म की मुखालफत करते है, उनके लिये चेतावनी है की वोह किसी फितने में मुब्तिला न हो जाये या उन पर कोई दर्दनाक अज़ाब नाज़िल किया जाये" [तरजुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा-अन-नूर: 63] (इब्ने कसीर, जिल्द 7, 694-95)
तो उन जमातों के बारे में क्या कहें जो उस मामले में मुसलमानों को अपनी राय देने की तरफ दावत देती है जिसका अल्लाह और रसूल ने पहले से ही फैसला कर दिया हो? बल्कि उन्हें नसीहत लेनी चाहिये की कहीं ऐसा न हो की उन पर कोई फितना नाज़िल हो, उन लोगों की तरह जो अपनी ‘नफ़सानी ख़्वाहिशों’ को अपनी फिक्र का मेयार बना लेते है। ये अपनी उन खोखली ख्वाहिशों की बुनियाद पर, क़ानून साज़ मजलिसों में हिस्सा लेते हुए, लोगों को इस्लाम के कुछ अहकामात की तरफ बुलाते है जब की दूसरे अहकामात को छोड़ देते है। ऐसे चुनिन्दा अहकामात के निफाज़ के बारे में अल्लाह तआला की खुली हुई चेतावनी है: "तो उनके दर्मियान फैसला करो उस के मुताबिक जो कुछ अल्लाह ने नाज़िल किया है और उनकी ख्वाहिशात की पैरवी न करो, और इस बात से आगाह रहना की कहीं वोह तुम्हें उसके एक हिस्से से भी से फेर दे जिसे अल्लाह ने नाज़िल फरमाया है। और अगर वोह मुंह मोड़ते है तो समझलो के अल्लाह उनको उनके गुनाहों की पादाश में सज़ा देना चाहता है. बेशक, बहुत से लोग फासिक़ों में से है" [तरजुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा-मायदा: 49]
"क्या वोह जाहिलीयत से अपना फैसला चाहते है? और अल्लाह से बेहतर फैसला करने वाला कौन हो सकता है उन लोगों के लिये जो उस पर पुख्ता ईमान रखते है" [तरजुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा अल-मायदा: 50] हाफिज़ इब्ने कसीर इस आयत की तशरीह बयान करते हुए कहते है, "अल्लाह उन को तनक़ीद का निशाना बाना रहा है जो अल्लाह के हुक्म को नज़र-अन्दाज़ करते है.... बल्कि वोह अपनी राय, ख्वाहिशात, रसूमात जिसे लोगों ने खुद गढ़ लिया है, की तरफ तवज्जोह करते है जिस की अल्लाह के दीन में कोई जगह नहीं है.... तातारी अपने उस क़ानून की इताअत करते थे जो उन्हें विरासत में मिला था.... उनकी किताब में ऐसे क़वानीन थे जो इस्लाम, यहूदीयत और नसरानियत से लिये गये थे... इसलिये जो भी ऐसा करता है वोह काफिर है और उससे उस वक्त तक लड़ा जाना चाहिए जब तक की वोह अल्लाह और रसूल (صلى الله عليه وسلم) के फैसले पर वापस न लौट आये, ताकि कोई भी क़ानून चाहे वोह छोटा हो या बड़ा उसे अल्लाह के क़ानून की तरफ लौटाया जाये. (इब्ने कसीर, जिल्द 3, सफा-202). यहाँ यह भी बताना ज़रूरी है की ऐसे लोग उस वक्त काफिर हो जाते है जब वोह वाक़ई इस्लामी क़ानून के जुज़वी निफाज़ पर यक़ीन रखते हों. (अत-तबरी, 10:355) इब्ने कसीर की राय यह समझाने के लिये काफी है की किस बात पर उलमाऐ इस्लाम पूरी तरह से मुत्तफिक़ है: इस्लाम के जुज़वी निफाज़ की हुरमत (हराम होने) पर.
ऐ मुसलमानों उन लोगों के बहकावे में न आओ जो तुम्हें इस बात से गुमराह करना चाहते है की तुम शरीअत के जुज़वी निफाज़ (partial implementation) के लिये इंतखाब (election) में हिस्सा लो. वोह अपनी नफसानी ख्वाहिशात के ज़रिये यह तय करना चाहते है की अल्लाह के भेजे हुए कौन से क़ानून पर आज अमल होना चाहिए और कौन से पर कल. इस बात को समझ लो की यह हराम है की ऐसी जमातों को वोट दे कर नेकी के काम में तआवुन के नाम पर उनकी मदद की जाये. गुनाह के काम के लिये कोई तआवुन नहीं है। यह एक अच्छा काम नहीं है, यह हराम है, ज़ुल्म है, और इस काम को करने वाले कुफ्र के दहाने पर खड़े है. तुम्हें हुक्म है की इस मुन्कर को रोको न के इसमें तआवुन करो.
काफिराना हुकूमत में हिस्सेदारी की कहाँ इजाज़त है
किसी भी कुफरिया निज़ाम में सरकारी दफ्तरों में हिस्सेदारी की उसी वक्त इजाज़त है जब यह हुक्मरानी के ओहदों से ताल्लुक़ नहीं रखती हों. ऐसे ओहदे मुबाह के दरजे में आते है. किसी भी मुलाज़मत को करना जायज़ है जब तक उसके हराम होने की मख़सूस दलील न मिल जाये. वोह काम (मुलाज़मत) जिस का ताल्लुक़ हुक्मरानी से ना हो, ऐसी मुलाज़मत उपर ज़िक्र की गई आयत के तहत नहीं आती जो की कुफ्र के ज़रिये हुकूमत करने को हराम क़रार देती है. नतीजतन, एक मुसलमान को इस बात की इजाज़त है की वोह पोस्ट ऑफिस, सीक्यूरिटी ऑफिस, या इसी तरह के किसी इदारे के लिये चुना जाये जिन में हुक्मरानी दाखिल नहीं हो, चाहे वोह ग़ैर-इस्लामी हुकूमत के दफातिर ही क्यों न हो.
कुछ ऐसे मुस्लिम इस्लाम पसन्द भाई है जो यह कहते है कि काफिराना निज़ाम में हुकूमत का कोई भी ओहदा हलाल नहीं है. यह बात उस हदीस से टकराती है जिस में बताया गया है की कुछ ऐसे भी काम है जो की किसी ज़ालिम हुक्मरान की हुकूमत में भी किये जा सकते है. जैसे की जिहाद एक ऐसा फर्ज़ है जिसे एक फाजिर शख्स की रहनुमाई में भी अदा किया जा सकता है.
अबूदाऊद की एक हदीस में जो की हज़रत अबू हुरैरा से रिवायत है, रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: "तुम्हारे उपर जिहाद फर्ज़ है, हर तरह के अमीर की रहनुमाई में, चाहे वोह नेक हो या फासिक़". आप (صلى الله عليه وسلم) ने एक दूसरी हदीस में इस फहम की तस्दीक़ की है जिस में एक ऐसे वक्त की पेशनगोई की गई है जब हुक्मरान बदउनवानी (corruption) की शिकार होंगे: "अगर तुम में से कोई वोह वक्त पाये, तो अरीफ, शुर्ती, जाबी और खाज़िन न होना"[इब्ने हब्बान]
मज़कूरा हदीस में फरमाया गया है चार ऐसी क़िस्मे है जो जिन्हें इंतेज़ामी ओहदो पर काम करने से आम तौर से मुस्तशना रखा गया है. मिसाल के तौर पर इस हदीस में यह नहीं कहा गया की ‘उनके लिये काम न करो या किसी भी तरह का काम न करो’. इसलिये इस हदीस या लब्बेलुबाब यह की ऐसे वक्त में बातिल निज़ाम में ऐसे ओहदों पर मबऊस न हो जाओ.
"अरीफ" का ओहदा हराम है. लफ्ज़ी तौर पर इसके मआनी है ‘तस्दीक़ करने वाला’. अहादीस में इस तरफ इशारा मिलता है की अरीफ वोह है जो किसी मख़सूस जगह के लोगों को जानता हो, ताकि वोह उनके बारे में खबर या राय दे सके या उनकी शादी के बारे में उनकी हैसियत बताता हो. एक हुकूमत के अन्दर यह ओहदा रायशुमारी के अफसर (opinion poll collector) का ओहदा है. यह ओहदे मज़कूरा वाक़ये में बयान किया गया है: पैग़म्बर (صلى الله عليه وسلم) ने जंगे हुनैन के बाद जंगी क़ैदियो को रिहा करने का फैसला किया, जिन का तआल्लुक़ हवाज़िन कबीले से था. उन्होने दूसरों से भी ऐसा करने के लिये कहा, मुम्किन है की मुस्तक़बिल के किसी फायदे को ध्यान ने रखते हुऐ. इस मुआहिदे पर लोग चिल्लाये, लेकिन आप (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया: "अपने खेमों में जाओ! तुम्हारा अरीफ तुम में से एक-एक की तस्दीक़ करेगा और फिर हमें खबर देगा, ताकि हमें मालूम हो सके की कौन वाक़ई मुतमईन हुआ."
मज़कूरा हदीस यह भी वाज़ेअ करती है की हमारे लिये यह हराम है की हम शुर्ती का ओहदा इख्तियार करें. यह खुफिया ऐजेन्सी या पुलिस के ओहदे के हम-मआनी है. यह वाज़ह है की खुफिया एजेंसी में नौकरी करना एक बहुत बड़ा गुनाह है. ना ही हम जब्बी या रियासत के टेक्स कलेक्टर की हैसियत से काम कर सकते है. इसमें सभी तरह के ओहदे हराम है चाहे यह ज़कात के इकट्ठे करने वाले हो, या ख़िराज (ज़मीन पर लिया जाने वाला टेक्स), कस्टम टेक्स या कोई भी दूसरे तरह का टेक्स. हमें इस बात की भी इजाज़त नहीं है की हम खाज़िन का ओहदा इख्तियार करे. खाज़िन के लफ्ज़ी मआनी है ‘स्टोर कीपर’ या गोदाम की निगरानी करने वाला. यह इस्तिलाह आज खाज़िन (खज़ाने का इंतेज़ाम देखने वाले) के लिये मख़सूस है.
तो हमें पता चलता है की इब्ने हब्बान की यह हदीस और दूसरे कई शरई दलाइल जो कुफ्र, ज़ुल्म, नाइंसाफी, और उनके करने वालों, उनकी मदद करना या उनके करीब होना के खिलाफ है, इस बात की पुख्ता दलील है ऐसे कई काम और ओहदे है जो काफिराना और ज़ालिमाना निज़ाम में हराम की हैसियत रखते है. क़ुरआने करीम इस को इस तरह से वाज़ेअ करता है: "और ज़ालिमों की तरफ अपना मिलान न करो, वरना तुम्हें जहन्नुम की आग का मजा चखना पड़ेगा, और अल्लाह के सिवा तुम कोई मुहाफिज़ नहीं पाओगे और ना ही तुम्हें किसी तरह की मदद मिलेगी" [तरजुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा हूद:113]

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