दुनिया की तीन विचारधाराऐं: भाग - 3 - इस्लाम

इस्लामी आयडियोलोजी


इस्लाम यह बताता है कि इस कायनात (सृष्टि), हयात (जीवन) और इंसान (मनुष्य) के पीछे एक ख़ालिक़ (रचयिता) है और उसी ने इन तमाम चीजों को पैदा किया है। वह अल्लाह तआला है। इसलिए इस्लाम की बुनियाद और असास अल्लाह तआला के वुजूद पर यक़ीन रखना है। यही अक़ीदा अशिया (चीजों) के रूहानी (spiritual-अध्यात्मिक) पहलू का तअय्युन करता है। रूहानी पहलू से मुराद सिर्फ यह है कि इंसान, हयात, और कायनात एक ख़ालिक़ की मख़लूक़ (रचना) हैं। कायनात का अपने मखलूक़ होने के नाते से, खालिक़ के साथ तआल्लुक़, कायनात का रूहानी पहलू है। इसी तरह हयात (जीवन) का अपने ख़ालिक़ (अल्लाह तआला) के साथ तआल्लुक़ उस का रूहानी पहलू हैं। और इसी तरह इंसान का खालिक़ के साथ तआल्लुक़ इंसान का रूहानी पहलू है। इस से मालूम हुआ कि रूह (आत्मा) से मुराद इंसान का अपने ख़ालिक़ के साथ पाए जाने वाले इस तआल्लुक़ का इदराक़ (समझना) है।
अल्लाह पर इमान के साथ मुहम्मद صلى الله عليه وسلم की रिसालत और क़ुरआन के कलामुल्लाह (अल्लाह की किताब) होने पर इमान भी वाजिब है। पस हर उस चीज़ पर इमान लाना वाजिब है, जिसको क़ुरआन ने बयान किया है। चुनाँचे इस्लाम का अक़ीदा इस अम्र का तक़ाज़ा करता है कि हयात से कब्ल किसी ऐसी ज़ात (अस्तित्व) का पाया जाना ज़रूरी है जिस पर इमान लाना वाजिब (अनिवार्य) है और वह अल्लाह तआला की ज़ात है। इस तरह दुनियावी ज़िन्दगी के बाद (hereafter) पर भी ईमान लाना ज़रूरी है और वह क़ियामत का दिन है। यह इस अम्र का तक़ाज़ा भी करता है कि इंसान इस दुनियावी ज़िन्दगी मे अल्लाह तआला के अवामिर (आदेश) और नवाही (निषेद) में मुक़य्यद (प्रतिबन्धित) है। यही इस हयाते दुनिया का अपने से क़ब्ल (before life) से ताल्लुक़ है। इसी तरह इंसान का मुहासिबा अवामिर की इŸोबा (पालना) और नवाही से इजतेनाब करने या न करने के हवाले से किया जायेगा और यही दुनियावी ज़िन्दगी का अपने बाद के साथ तआल्लुक़ है। इसलिए मुसलमान के लिए ज़रूरी है कि वह किसी भी अमल को सरअंजाम देते वक़्त साथ अपने इस रब्तो तआल्लुक़ का इदराक़ करे, ताकि उस के आमाल (कर्म) अल्लाह तआला के अवामिर और नवाही के मुताबिक़ हों। चुनाँचे माद्दे (पदार्थ) के साथ रूह (आत्मा) के इमतेजाज (mixing) का यही मआनी है कि आमाल को अल्लाह तआला के अवामिरो नवाही के मुताबिक़ बजा लाया जाए। आमाल की असल ग़ायत और मक़सूद अल्लाह तआला की रज़ा (प्रसन्नता) का हुसूल है और आमाल की बजाआवरी के दौरान इसका फोरी (immediate) मक़सद वह कीमत (value) है ,जो इस अमल के नतीजे में हासिल होती है।
इसलिए मुआशरे (समाज) की हिफाज़त के लिए बुलंद मक़ासिद, इंसान के अपने वज़ाकर्दा (legislate) नहीं होना चाहिए, बल्कि यह अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही की रूह से मुतय्यन होने चाहिए जो हमेशा यकसां (constant) रहते है, न तब्दील होते हैं और न उनकी तावील हो सकती है। पस इंसान, इंसानी अक़्ल, इंसानी शराफत, इंसान की ज़ात, इनफिरादी मिल्कियत, दीन, अमनो-आमान, और रियासत मुआशरे की हिफाज़त के लिए बुलंद मक़ासिद हैं। इन में तग़य्युर (change) और तरक्की नहीं होता। फिर इन बुलंद मक़ासिद की हिफाज़त की खातिर इस्लाम ने सख्त किस्म की सज़ाऐ रखी है और दायमी मक़ासिद की हिफाज़त के लिए हुदूद और उकूबात (punishment) वज़अ किये गए हैं। इन बुलंद मक़ासिद की हिफाज़त वाजिब है क्योंकि यह अल्लाह तआला के अवामिरो-नवाही (commands and prohibitions) हैं। यह हिफाज़त इसलिए वाजिब करार नहीं दी गई कि इनकी कोई माद्दी कीमत (material value) हासिल होती है। इस तरह मुसलमान और रियासत अपने तमाम आमाल को अल्लाह तआला के अवामिरो-नवाही के मुताबिक़ बजा लाते है। क्योंकि अल्लाह तआला के अवामिरो-नवाही ही है जिन के ज़रिये इंसान के तमाम मोआमलात मुनज़्ज़म (organize) होने चाहिए। आमाल को अल्लाह तआला के अवामिरो-नवाही के मुताबिक़ बजा लाना ही दरअसल वह चीज़ है जो मुसलमानो के अंदर इत्मिनान पैदा करती है। पस मालूूम हुआ कि इंसान की सआदत इस मंे नहीं की इंसानी जिस्म को खूब सेर किया जाए और उसे जिस्मानी लज़्ज़तों को पूरा किया जाऐ बल्कि इंसानी सआदत सिर्फ अल्लाह तआला की रज़ा में है।
जहाँ तक जिस्मानी ज़रुरियात और जिबिल्लतों (needs an instincts) का तआल्लुक़ है, तो इस्लाम ने इनको इस अंदाज में मुनज्ज़म किया है कि इस तनज़ीम में हर किस्म की हाजात, मसलन मेदे की भूख, जिबल्लते-नो की हाजत और रूह की हाजत को सेर करने की ज़मानत दी है। इस्लाम ने यह तंज़ीम इस तरह नहीं की कि एक भूख या हाजत को पूरा करने के लिए दूसरी को कुरबान कर दिया हो, या कुछ को आजाद छोड़ कर बाकी सब को दबा दिया हो ‘या सब को बेलगाम छोड दिया हो। बल्कि इस्लाम ने एक बड़े दक़ीक़ निज़ाम के ज़रिये इन सबको इस तरह सेर किया है और इनमें नज़्म व नस्क़ पैदा किया है ‘जो इंसान के लिए खुशगवारी और राहत मुहय्या करता है। वो इंसान की जिबल्लतों को लगाम देकर इंसान को ‘हैवानियत के गढे में गिरने से रोकता है।
इस तंज़ीम की ज़मानत देने के लिए इस्लाम जमाअत को इस नज़र से देखता है कि ये एक ऐसा कुल है ‘जिसके अजज़ा (अंग) एक दूसरे से अलग-अलग नहीं होते! इस तरह इस्लाम फर्द को इस नज़र से देखता है कि ‘फर्द इस जमाअत का ऐसा जुज़ होता है जो कभी भी इस से जुदा नहीं होता’। लेकिन फर्द के जमाअत का जुज़ होने का ये मतलब नहीं है कि इसकी ये जुज़वियत ऐसी हो जैसा कि पहिये के तार पहिये का एक जुज़ हुआ करते है। बल्कि ये उस कुल (whole) का इस तरह जुज़ होता है जिस तरह के हाथ अपने जिस्म का जुज़ होता है। चुनाँचे इस्लाम ने फर्द निगरानी इस हवाले से की है कि ये जमाअत का एक जुज़ है और इससे अलग-थलग नहीं। वोह इस हैसियत से फर्द पर तवज्जोह देता है की जमाअत की हिफाज़त हो सके। उसी वक़्त इस्लाम जमाअत की भी निगरानी करता है और वोह उसे तवज्जोह और इनायत का मौजू इस हैसियत से नहीं बनाता कि ये एक कुल है जिसके अजज़ा नहीं है बल्कि इस्लाम उसे एक ऐसा कुल समझता है जो अपने अजज़ा यानी अफराद पर मुश्तमिल है। इस इनायत और तवज्जोह के नतीजे में, जमाअत का जुज़ होने की हैसियत से, अफराद की भी खुद-ब-ख्ुद हिफाज़त हो जाती है। यही वजह है कि रसूलल्लाह صلى الله عليه وسلم ने फरमाया :

((مَثَلُ اۡلقَائِمِ عَلٰی حُدُو دِ اللّٰہِ وَاۡلوَاقِعِ فِیھَا کَمَثَلِ قَوۡ مٍ اِسۡتَھَمُّوۡ ا عَلَی سَفِینَۃٍ فَاصَابَ بَعضُھُم اَعۡلَاھَا وَ بَعضُھُم اَسۡفَلَھَا فَکَانَ الَّذِینَ فِیۡ اَسفَلِھَا اِذَاسۡتَسقَو ا مِنَ الۡمَائِ مَرُّوۡ ا عَلٰی مَن فَوۡ قِھِم فَقَالُو: لَوانَّاخَرَقۡنَا فِینَصِیبِنَا خَر قًا وَ لَمۡ نُوۡ ذِ مَنۡ فَوۡ قَنَا۔ فَاِنۡ تَرَکُوۡ اھُمۡ وَ مَا اَرَادُوۡ ا ھَلَکُوۡ ا جَمِیعًا۔ وَاِنۡ أخَذُوۡ ا عَلَی اَیۡدِیھِمۡ نَجَوۡ ا وَنَجَوۡ ا جَمِیۡعًا))

“हुदूदुल्लाह को क़ायम करने वाले और इनकी खिलाफ वरज़ी करने वालों की मिसाल उस गिरोह की सी है जिस ने कश्ती के ऊपर और नीचे जगह पाने के लिये कुरआ अंदाजी कि। पस इनमें से कुछ अफराद तो कश्ती के ऊपर वाले हिस्से में चले जाएं और कुछ नीचे रह जाएं। सो जो लोग निचले हिस्से में हों जब वो अपनी प्यास बुझाने के लिए ऊपर वालों के पास पानी लेने के लिए जाएं और इनसे (ऊपर वालों) से कहें कि अगर आप हमे निचले हिस्से में सुराख कर लेंने दे तो आप भी तकलीफ से बच जाएंगे। अब अगर ऊपर वाले नहीं इन्हे इससे बाज़ न रखें और आजाद छोड़ दें तो नीचे वाले और ऊपर वाले दोनों हलाक हो जाएंगे। और अगर वो नीचे वालों को रोकेगें तो दोनों निजात पाऐंगे”।

फर्द और जमात का यह नुक्तए नज़र मुआशरे के बारे में
एक मखसूस तसव्वुर वुजूद मेेें लाता है। एक जमात के अजज़ा होने के नाते अफराद के लिये ज़रूरी है कि उनके पास अफकार हों जो उन्हें बाहम मरबूत रखें और वह उनके मुताबिक़ ज़िन्दगी गुजारेें। इसी तरह यह भी ज़रूरी है कि उन सब के पास एक जैसे मशाइर (एहसासात-مشاعر) हों, जिन से वह मुतास्सिर भी होें और उन की तरफ मिलान भी रखंे। इसी तरह उन सब पर एक ही निज़ाम नाफिज़ हो, जो उनकी ज़िन्दगी के तमाम मसाइल को हल करे। इसलिए मालूम हुआ कि मुआशरा अफराद (individuals), इंसानी अफकार (thoughts), एहसासात (emotions) और निज़ाम (system) पर मुश्तमिल होता है और इंसान अपनी ज़िन्दगी मेंे इन अफकार, एहसासात और निज़ाम में मुक़य्यद होता है। लिहाज़ा एक मुसलमान अपनी ज़िन्दगी मेें हर लिहाज़ से इस्लाम के साथ मरबूत है और उसकेे लिए इसमे कोई आजादी नहीं। चुनाँचे मुसलमान का अक़ीदा इस्लाम की हुदूद के अंदर मुक़य्यद है और वोह किसी भी तरीक़े से आजाद नहीं। यही वजह है कि मुसलमान के लिए मुर्तद होना बहुत बड़ा जुर्म है। अगर तौबा ना करे तो वह सज़ा का मुस्ताहिक़ हो जाता है। इसी तरह एक मुसलमान का शख्सी पहलू (personal aspect) भी इस्लामी निज़ाम में मुक़य्यद हो जाता है। इसी लिये ज़िना को एक बहुत बड़ा जुर्म समझा जाता है, जिसकी सज़ा अवाम के सामने किसी क़िस्म की नरमी या शफक़त के बिना मिलती है, फरमाया गया:

﴿وَلْيَشْهَدْ عَذَابَهُمَا طَائِفَةٌ مِنَ الْمُؤْمِنِينَ﴾
‘‘और उन दोनों ज़ानी और ज़ानिया को सज़ा देते वक्त मुसलमानों की एक जमात मौजूद होना चाहिए।’’ (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे नूर, आयत: 2)

इसी तरह शराब खोरी एक जुर्म है, जिसकी सज़ा मिलेगी। दूसरांे पर ज़ुल्म और ज़्यादती को भी जुर्म करार दिया गया है। इस ज़ुल्म और ज्यादती की अपने एतबार से मुख्तलिफ सज़ाएंे हैं। मसलन कज़फ, क़त्ल बगैरा। इसी तरह इक़तिसादी पहलू भी शरई अहकाम के साथ मुक़य्यद हैं और उसके असबाब सिर्फ वही हो सकते है, जिन को शराअ ने मुबाह करार दिया हो और जिन की तारीफ शरीअत में इनफिरादी मिल्कियत की है। दर हक़ीक़त यह इनफिरादी मिल्कियत भी शारेअ (شَرَع - legislator) की तरफ से वोह इजाज़त है, जो उसने किसी चीज़ से नफा उठाने के लिए दी है चुनाँचे शरीअत की इन हुदूद-ओ-क़ुयुद (restrictions) से निकलना भी जुर्म है, जिसकी मुख्तलिफ सूरतंे और अक़साम हो सकती है, चोरी, ग़सब वगैरा। लिहाज़ा एक ऐसी रियासत का पाया जाना इन्तेहाइ ज़रूरी है जो इस फर्द और जमाअत की हिफाज़त कर सकें, और जमाअत पर निज़ाम को नाफिस और मुन्तबिक़ कर सके। चुनाँचे यह भी ज़रूरी है कि इस आयडियोलोजी (मब्दा) के मानने वालों के आयडियोलोजी के असरात भी पाए जाते हों, ताकि हिफाज़ती अमल खुद लोगो की जानिब से तबाइ (स्वाभाविक) तौर पर अंजाम पा सकें। इसलिए वह आयडियोलोजी ही वह चीज़ है जो मुआशरे को पाबंद और महफूज रखता है जबकि रियासत अहकामात को नाफिज़ करती है जो इस आयडियोलोजी से अखज़ किये जाते हैं। मालूम हुआ कि सियादा (سياده - Sovereignty या इक़्तिदारेआला) शरीयत को हासिल है ना कि रियासत और उम्मत को। अगरचे क़ुव्वत व ताकत ( سلطان - authority) उम्मत के पास ही होती है और रियासत इसका मज़हर होती है। पस इस्लामी निज़ाम को नाफिज़ करने का तरीक़ा रियासत है। अगरचे इसका असल एतेमाद भी अल्लाह तआला के खौफ पर होता है, जो उस फर्दे मोमिन में पाया जाता है, जो इस्लामी अहकाम को बजा लाता है। मजीद इसके लिए वह क़ानून भी नागुज़ीर है, जिसे रियासत नाफिज़ करे। और मोमिन फर्द के लिये हिदायतो-रेहनुमाइ मिले ताके वह तक़वा के जज़्बे के तहत इस्लाम पर चल सकें।
इस्लाम एक अक़ीदा भी है और निज़ामे हयात (system of life) भी। इस्लाम एक ऐसा मब्दा (ideology) है जो ‘फिकरा (idea - فكره) भी है और ‘तरीक़ा’ (method - طريقه) भी है, और यह ‘तरीक़ा फिकरा की जिंस (स्रोत) से है। इस्लाम का निज़ाम इस्लाम के अक़ीदे से जन्म लेता है। इस तरह इसकी तहज़ीब भी एक मखसूस तर्ज़े हयात पर मबनी है।

खुलासाए कलाम
इस्लामी मे दावत को आगे पेश करने का तरीकेकार यह है कि इस्लाम को रियासत की जानिब से नाफिज़ किया जाये और फिर इस्लाम को फिकरी क़यादत के तौर पर दुनिया के सामने पेश किया जाये जो इस्लाम को समझने और इस पर अम्ल करने की बुनियाद पर बने। लोगों पर हुकूमत के ज़रिये से इस्लाम को नाफिज़ करना ही इस्लाम की दावत को पेश करना है। क्योंकि ग़ैर-मुस्लिमों पर इस्लामी निज़ाम की तन्फीज़ ही को इस्लाम की दावत के लिए अमली तरीक़े-कार गरदाना जाता है। आलमे इस्लामी को पैदा करने में इस तन्फीज (implementation) का बहुत बड़ा असर है जो आज दूर-दूर तक फैला हुआ है।
खुलासा कलाम ये है कि दुनिया में तीन मबादी (ideologies) मौजूद है। सरमायादारियत, इश्तिराकियत और तीसरा मब्दा इस्लाम है। इनमें से हर एक मब्दा का अपना अक़ीदा है जिससे निज़ाम जन्म लेता है। हर एक के पास ज़िन्दगी में इंसानी आमाल (कर्मों) को जांचने के लिये एक मेयार है और हर एक का मुआशरे के बारे में एक खास नुकताए नज़र और निज़ाम को नाफिस करने का खास तरीक़ा है।
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