आहकामे शरिया की तबन्नी

आहकामे शरिया की तबन्नी (Adoption)


सहाबाऐ इकराम (रज़िअल्लाहो अन्हुम) के जमाने में मुसलमान बज़ाते खुद किताब और सुन्नत से शरई अहकामे अख्ज़ किया करते थे और क़ाज़ी लोगों के माबेन झगड़ों का फैसला किया करते थे, वोह हर पेश आने वाले वाक़ये से मुताल्लिक़ शरई अहकामात का बजाते खुद इस्तिंबात करते थे। हुक्मरान भी, अमीरुलमोमिनीन से लेकर वालियों तक, नेज़ दिगर हुक्काम, हुक्मरानी के दौरान पेश आने वाली किसी भी मुश्किल को हल करने के लिये बज़ाते खुद शरई अहकाम को मुस्तन्बित किया करते थे। अबुमूसा अशअरी और शुरीह दोनों काज़ी थे। यह दोनों अहकाम का इस्तिंबात किया करते थे और अपने इज्तिहाद से फैसला करते थे। मआज़ बिन जबल रसूलुल्लाह صلى الله عليه وسلم के एहदे मुबारक में वाली थे। वह भी खुद अहकामात का इस्तिंबात किया करते थे और अपनी विलाया (सूबा) में अपने इज्तिहाद के मुताबिक़ फैसले किया करते थे। इसी तरह अबुबक्र और उमर (रज़िअल्लाहो अन्हुमा) भी अपनी ख़िलाफत में अहकाम का बज़ाते खुद इस्तिंबात करते थे और अपने-अपने इस्तिंबात करदा अहकामात के मुताबिक़ लोगों पर हुकूमत किया करते थे। इसी तरह माविया और अम बिन आस (रज़िअल्लाहो अन्हुमा) वाली थे, यह दोनों भी अहकाम का इस्तिंबात करते थे और अपनी-अपनी विलायत में अपने इज्तिहाद करदा अहकामात के मुताबिक़ लोगोंे पर हुकूमत करते थे।

वालियों और क़ाज़ियो के इस इज्तिहाद के साथ-साथ ख़लीफा कुछ खास अहकामात की भी तबन्नी (adoption) किया करता था और लोगों को उन पर अमल करने का हुक्म देता था। लोग अपनी-अपनी राय और अपने इज्तिहाद को छोड़ कर उन पर अमल करते थे। क्योंकि यह एक शरई हुक्म है कि ख़लीफा का हुक्म ज़ाहिरन और बातिनन नाफिज़ होता है। इसी बुनियाद पर अबुबक्र (रज़िअल्लाहो अन्हो) ने यह तबन्नी की कि तीन तलाके देने से एक ही वाक़े होती है। आप ने यह भी तबन्नी की कि माल मुसलमानों में मसावी तौर पर तक़सीम किया जायगा और तक़सीम के दौरान यह तफरीक़ नहीं की जाएगी के कोइ शख्स पहले मुसलमान हुआ था या बाद में। चुनाँचे तमाम मुसलमानों ने आप कि इत्तिबा की और काज़ी और वाली भी आप की इस राय पर चलते रहे। फिर उमर (रज़िअल्लाहो अन्हो) ने अपने दौर में इन दोनों मसाइल में दूसरी राय इख्तियार की, जो अबुबक्र (रज़िअल्लाहो अन्हो) की राय के खिलाफ थी। उमर ने तीन दफा तलाक देने को एक कि बजाय तीन करार दिया और माल को मुसलमानों के दरमियान मसावी तौर पर तक़सीम करने के बजाय पहले इस्लाम लाने और किसी फज़िलत के मौजूद होने को मलहूज़ रखा। चुनाँचे मुसलमानों ने इस मसले में उमर की राय का इत्तिबा किया और काज़ी और वालियों ने भी इसी राय के मुताबिक़ अमल किया। फिर आप ने यह तबन्नी भी की कि जो जमीन जंग में मालेग़नीमत के तौर पर हासिल हो जाए, उसे उसके मालिकों के पास ही रहने दी जाए। इसे लड़ने वालों या मुसलमानों में तक़सीम नहीं की जाए। लिहाज़ा क़ाज़ी और वाली आप की इस राय में आप की पैरवी करते रहे और इस तबन्नी के मुताबिक़ फैसले करते रहे।

इस से मालूम हुआ कि इस पर सहाबाए किराम का इज्मा हो चुका था कि खलीफा कुछ मुतय्यन अहकामात की तबन्नी कर सकता है और उन पर अमल करने का हुक्म भी दे सकता है। मुसलमानों पर उसकी इताअत फर्ज़ है अगरचे यह उनके अपने इज्तिहाद के खिलाफ हो। चुनाँचे यह मशहूर शरई क़वाइद है कि :

“इमाम का हुक्म इख्तिलाफ को खत्म करता है”

और :

“इमाम का हुक्म ज़ाहिरी और बातिनी तौर पर नाफिज़ होता है”

इसी तरह: “सुल्तान नये मसाइल के लिये बक़दरे ज़रूरत नया हल तलाश करता है”.

यह ही वजह है कि इसके बाद भी खुलाफा मख़सूस अहकामात की तबन्नी करते रहे। चुनाँचे हारून रशीद ने इक़तिसादी पहलू में किताबुलखिराज की तबन्नी की, और इस किताब में मौजूद तमाम अहकामात पर अमल करने को लोगों पर लाज़मी करार दिया।
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