विदेशी सहायता: गुलामी का रास्ता (मुकम्मल लेख)

विदेशी सहायता: गुलामी का रास्ता


बडे पूंजीवादी देश जैसे अमरीका, केनाडा और ब्रिटेन, मुस्लिम देशो के दी जाने वाली सहायता को एक दान की हैसियत से पेश करते है मगर हकीक़त मे यह दौलत एक पूंजीनिवेश (इंवेस्टमेंट) होता है जो की पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकतों को मुस्लिम सरज़मीनों पर अपने असरात को बाकी रखने के काम मे आता है. विदेशी सहायता एक हथियार है जिस के ज़रिये पूंजीवादी देश अपना कमज़ोर देशो पर अपना काबू बनाये रखते है. हमें उम्मत को इस बात की दावत देनी चाहिये की वोह अपने मामलात मे साम्राज्यवादी (कलोनियल) ताकतों की मोहताजी को रद्द कर दें. हमें अहले नुसरत और असरात रखने वाले लोगों के दावत देनी चाहिये की वोह फोरेन ऐड (विदेशी सहायता) को रद्द कर दें और एक ऐसा रास्ता निकाले जो सिर्फ अल्लाह की मोहताजी की तरफ जाता हो और किसी की मोहताजी की तरफ नही.
सन 2009 मे अमरीकी सदर बराक ओबामा ने पाकिस्तान के साथ “ऐनहेंस पार्टनरशिप” का कानून पास किया. इस बिल के मुताबिक जिस को केरी लूगर बिल भी कहा जाता है, इस बात का वादा किया गया है की पाकिस्तान को 7.5 बिलियन डालर मदद के तौर पर पांच साल के अरसे मे दिये जायेंगे. हालांकि इस बिल मे जो शर्तें लगाई गई है वोह बहुत सारे लोगों के लिये चिंता का विषय है जिस मे पाकिस्तानी फौज भी शामिल है जो कि इस बिल को राष्ट्र की सुरक्षा मे हस्तक्षेप के रूप मे देखती है. जब हम पूंजीवादी विचारधारा को अपनाने वाले देशो के कार्यो को, खास तौर से अमरीका को देखते है तो हमें यह समझना ज़रूरी है की वोह कोई भी मदद, चाहे वोह माली हो या किसी और तरीके की, मुफ्त मे नही देते. अगर हम केरी लूगर बिल को गहरी नज़र से देखे, तो हमें पता चलेगा की यह “ऐड पेकेज” निम्नलिखित शर्तों के साथ आया है:
1। अमरीका जब चाहे पाकिस्तान के न्यूक्लियर प्रोग्राम की जांच अपनी शर्त पर कर सकता है.
2। पाकिस्तानी मिलीट्री मे कोई भी प्रोमशन (पदोन्नति) या नियुक्ति होगी तो उसके लिये वाशिंगटन से इजाज़त लेना ज़रूरी है. जब भी कोई पाकिस्तानी सिवीलियन लीडर सेना मे नियुक्ती करेगा तो उसके लिये वाशिंगटन की रज़ामन्दी ज़रूरी है.
3। पाकिस्तान को बिना किसी इख्तिलाफ के अमरीका और ब्रिटेन की तरफ से इस इल्ज़ामो को कुबूल करना होगा की वोह अफग़ानिस्तान मे नाकाम हो चुके है.
4। पाकिस्तानी फौज को हर हाल मे तशद्दुद पसन्द और आतंकवादी संघठनो की सहायता बन्द करनी होगी जिसमें यह भी शामिल है की वोह मुसलमान जो की कश्मीर और अफग़ानिस्तान मे नाजाइज़ कब्ज़े के खिलाफ प्रतिरोध कर रहे है, उन्हे इस बात से रोकना होगा की वोह पडोसी मुल्कों मे किसी तरह का ओपरेशन न करे. पाकिस्तान के राष्ट्रिय, क्षेत्रिय और लोकल अफसरान और सिवील सोसायटी के मेमबरान, प्राइवेट सेक्टर और शहरी, और कबिलाई लीडरो को हर हाल मे उन प्रोजेक्टों के कार्यांन्वित करना होगा जिन को अमरीका चाहता है.
5। पाकिस्तान को अपने मदरसों का पाठ्यक्रम बदलना होगा.
पाकिस्तान से यह भी उम्मीद की जाती है की वोह अपने फौजीयों की क़ुर्बानी दे, वोह फौजी जो इस उम्मत के बेटे हैं, ताकि वोह अमरीका का कब्ज़ा, जो अफगानिस्तान मे हो चुका है, उसकी मदद मे शामिल हो. यह सब उन जानों के जाने के अलावा है जो अमरीका की बोम्बिंग अभियान मे ड्रोन (मानवरहित हवाईजहाज़) के हमलों की वजह से जायेगी.
केरी लूगर बिल कोई पहला सहायत पैकेज नही है जो पाकिस्तान को दिया गया है. सन्युक्त राष्ट्र सन्घ की एक एजेंसी के मुताबिक़, जो अंतर्राष्ट्रिय विकास की ऐजेंसी है, अब तक अमरीका 16.60 बिलियन डालर सन 1946 से लेकर सन 2007 तक पाकिस्तान को आर्थिक और मिलीट्री सहायता के रूप मे दिया जा चुका है. इन सहायताओं की दिये जाने के बाद भी पाकिस्तान के हालात अभी तक नहीं सुधरे. आखिर यह पैसा कहाँ चला जाता है? जो भी पैसा ब्रिटेन, अमरीका, केनेडा या दूसरे पूंजीवादी देशो के ज़रिये दिया जाता है, यह ज़्यादातर मल्टिनेश्नल कम्पनियों की जेब मे ही खत्म हो जाता है.

न्यूयोर्क टाइम्स के मुताबिक ब्रिटिश एडमिनीस्ट्रेश के द्वारा दी गई सहायता का पैंतालीस प्रतिशत हिस्सा अमरीका के प्राइवेट ठेकेदारों के हाथों मे पहुंचता है. अफग़ानिस्तान का भी यही मामला है. ऐक्शन ऐड (Action Aid) के नाम की एक संस्था के मुताबिक इस सहायता के 60% हिस्से को “फेंटम ऐड” यानी खयाली सहायता समझा जाता है जो हक़ीक़त मे अफग़ानिस्तान के लिये नही दी जाती है. बल्कि यह सीधी की सीधी अमरीकन कारपोरेशंस के बैंक अकाउंट मे पहुंचा दी जाती है. यह सहायता खास तौर से कठपुतली हुकूमतों को सहायता देने के लिये भी दी जाती है. द टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के अनुसार करज़ई सरकार राजस्व के लिये 90 प्रतिशत बहरी देशो पर निर्भर करती है जिस का एक बहुत बडा हिस्सा अमरीका से आता है जिसने कर्ज़े के तौर पर 10 बिलीयन डालर सन 2008 मे दिये थे. इस मज़मून मे यह भी बताया जायेगा की इस पैसे के बग़ैर करज़ई हुकूमत कभी भी तालिबान के खिलाफ खडी नही हो सकती थी. यह सहायता इलाकाई कठपुतली सरकारों को फंड करने के लिये दी जाती है जो उसके बदले मे स्पोंसर देशो की अपने देशो मे फोरेन पॉलिसी (विदेशी निती) को कार्यांवित करने मे मदद करते है. दूसरे अलफाज़ों मे कहो तो यह पैसा अफग़ानिस्तान के गरीब लोगों की मदद के लिये नही दिया जाता है. बल्कि यह कठ्पुतली सरकारो को ताक़तवर बनाने के लिये दिया जाता है जो की उन देशो का आर्थिक और राजनैतिक शोषण करने का अमरीका का एक हथियार है.

कठपुतली हुक्मरान तबके को तनख्वाह बाटना सरमायादार देशो का नियमित कार्य रहा है. मिसाल के तौर पर हम पाकिस्तान और फ्रांस की सबमेरीन (पनडुब्बी जहाज़) सौदे को सामने रखते है. फ्रांस की एक कम्पनी को ठेका दिया गया की वोह पाकिस्तान के लिये पनडुब्बी जहाज़ बनाऐ. सन 2002 मे फ्रांस के ग्याराह इंजीनियर जो की इस कम्पनी के लिये काम कर रहे थे वो एक बोमब्लास्ट मे मार दिये गये. यह घटना कराची, पाकिस्तान मे हुई थी. शुरू मे इसका दोष अलक़ायदा पर डाला गया लेकिन इस मामले की जांच पडताल करने वाले फ्रांस के एक जज ने यह दावा किया की इस घटना का समबन्ध फ्रांस और पाकिस्तान सरकारी का इस सौदे के बिगड जाने से है. जज ने इस बात का दावा किया की पाकिस्तानी आर्मी ने उन फ्रांस के शहरियों का क़त्ल किया क्योकि फ्रांस ने पाकिस्तान के आर्मी पदअधिकारियों को सबमेरीन की फरोख्त पर कमिशन देना बन्द कर दिया था.
ठीक इसी तरह मिस्र मे भी देश के उच्च वर्गिय अफसरान और अमरीकन अफसरान मे समबन्ध पाये गये. सन 2006 मे साप्ताहिक पत्रिका “अलहरम” मे यह बात सामने आई की 1.3 मिलियन डालर मिस्र की मिलट्री को फाइनेंस करने के लिये दिया गया और 1.2 मिलीयन मिलीट्री एजूकेशन और ट्रेनिग पर खर्च करने के लिये दिया गया. मिलट्री को सीधे तौर पर पैसा उपलब्ध करवाना पूरी तरह से अमरीका की मोहताजी को बनाऐ रखता है. और इस तरह की ट्रेनिग के इक़दाम से अमरीका अपने ऐजेंटों की फौज मे भरती कर सकता है. डेविड वेल्श, जो की इस्टर्न अफेयर्स का सेक्रिटरी है, के एक लेख के मुताबिक मिस्र अमरीका की विदेश निती का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. जिसको अमरीका अपना राजनैतिक प्रभाव फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान बग़ैराह पर डालने के लिये इस्तेमाल करता है. अमरीका कोई अकेला देश नही है जो अपना प्रभाव मुस्लिम सरज़मीनों पर डालने के लिये आर्थिक सहायता का सहारा लेता है. केनेडा भी इस खेल को खेलने मे पूरा हिस्सेदार है. अफगानिस्तान मे केनेडा यह सहायता गैर-सरकारी संघठनों (एन.जी.ओ) के ज़रिये भेजता है जिसमे ओक्सफाम (Oxfam) और केयर (CARE) केनेडा भी शामिल है. केनेडियन सरकार यह नहीं चाहती की यह रूपये क़रज़ई सरकार को या अमरीका की कठपुतली हुकूमत को दिये जाये. इसके अलावा करज़ई भ्रष्टाचार के दलदल मे इतना डूबा हुआ है की इस पैसे का रूख दूसरी तरफ मुड सकता है जिससे कैनेडा को कोई फायदा हासिल नही होने की सूरत बनी रहती है.

उपनिवेशवाद (colonialism) का आधार पूंजीवादी (capitalism) आस्था है
आज पश्चिमी देश, जो की मुस्लिम देशो मे अपने प्रभाव बनाने के लिये प्रतिस्पर्धा कर रहे है, हक़ीक़त मे उपनिवेशवाद है जो अपना भेस बदल कर आया है. उपनिवेशवाद की पॉलिसी पूंजीवादी आस्था से निकलती है जिसका यह मानना है की कोई भी अमल करने की कसौटी सिर्फ फायदा या नुक्सान है. पूंजीवाद की विदेश निती की बनावट इस बुनियाद पर है की राष्ट्र अपनी विदेश निती अपने स्वार्थ पूरा करने के लिये तथा दूसरे राष्ट्रो मे अपने स्वार्थ की रक्षा करने के लिये बनाता है।

पूंजीवादी राष्ट्रो के स्वार्थ मे सब से बडा स्वार्थ उनका आर्थिक लाभ है. इसका मतलब यह है की यह सारे राष्ट्र एक दूसरे से इस बात के लिये मुकाबला करते है की उन्हें इन कमज़ोर राष्ट्रो के ज़रिये से सस्ते दामों पर प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हो जाये. उम्मत ने इस पॉलिसी को अमरीका के इराक पर कब्जे के ज़रिये देखा. कब्ज़ा करने वाली अमरीकी फौज ने तेल मंत्रालय को बचा कर रखा लेकिन बाकी आम लोगों को अपना बचाव आप करने के लिये छोड दिया. इसके अलावा पूंजीवादी अर्थव्यवस्था इस बात पर निर्भर करती है की उसे सस्ते दामो मे प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हो जाये तथा उसे सस्ते मजदूर मिल जाये जिस से वोह अपने कोरपोरेशन की मदद करे. और स्टॉक की किमतो और स्टाक की रेखा (indices) को और उपर की तरफ ले जाये।


अगर हम इसकी तुलना इस्लामी इतिहास के मुस्लिम हुक्मरानों से करें तो हमारे सामने एक बिल्कुल ही दूसरी तस्वीर सामने आती है. हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के सहाबा (साथी) अल्लाह (سبحانه وتعالى) और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) के वफादार थे. उदाहरण के लिये जब काब बिन मालिक का उम्मत ने (अल्लाह के हुक्म से) बहिष्कार कर दिया था, तो उस वक्त उन्हे गस्सान के एक हुक्मरान (जो इस्लाम के लिये बहुत घृणा रखता था) का खत मिला जिसने उन्हें मदीना छोड कर इसाईयों के साथ “आराम और इत्मिनान” के साथ रहने की दावत दी. इस खत को पढ कर काब बिन मालिक ने उसे जला दिया. लेकिन आज के हुक्मरानों की कहानी बिल्कुल अलग है. आज हम देखते है की मुस्लिम दुनिया के हुक्मरान और उनके सहायक अमरीका और ब्रिटेन के पीछे इस तरह से भाग रहे है जिसमें उनके लिये कोई इज़्ज़त बाकी नही रहती. इस बात को देख कर बडी हैरानी होती है की उम्मत उस इज़्ज़त के अज़ीम मकाम से गिर कर आज की ऐसी दायानीय स्थिती मे कैसे आ गई.

बौद्धिक गुलामी: हम इस हालत तक पर कैसे पहुंचे?

हालांकि हमारा वैचारिक पतन कई सौ साल पहले शुरू हो गया था लेकिन इसकी शुरूआत खिलाफत के खत्म होने और यूरोपिय देशो का मुस्लिम ज़मीनो पर क़ब्ज़ा करने से हुई जिसके कारण मुस्लिम उम्मत पर आज के इन ज़ालिमो को उम्मत पर हुक्मरानी करने का मौका मिला। इस सीधे कब्ज़े के ज़रिये युरोपियन इस काबिल हो गये की वोह मुस्लिम सरज़मीनो मे सीधे तौर पर ताकत हासिल कर सके. उनमे इतना सामर्थ आ गया की वोह वहाँ का राजनैतिक ढांचा बदल सकें. वहाँ की शिक्षा व्यवस्था, शासन व्यवस्था, न्यायतंत्र, आर्थिक व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था बदल सकें. इन व्यवस्थाओं के साथ लोगों मे पाये जाने वाले सार्वजनिक जज़बात और सार्वजनिक विचार जो समाज को बान्धते है, उनके ज़रिये यूरोप उम्मत को खराब करने मे कामयाब हुआ. उम्मत ने जब भी कोई इस्लामी विकल्प जो इस साम्राज्यवाद के दौर मे पेश करने की कोशिश की तो उसे जड समेत हटा दिया गया. इसकी मिसाल अलजीरिया है जहाँ ओलमा ने इस बात की कोशिश की वोह इस्लामी संस्कृती, विरासत और भाषा की हिफाज़त करें. फ्रांस की साम्राज्यवादी सरकार के द्वारा उनको लगातार डराया गया, धमकाया गया, गिरफ्तार किया गया और उनको तरह तरह की पीडाऐं दी गई यहाँ तक की उन्हें खामोश कर दिया गया.

आज की मुस्लिम दुनिया के मौजूदा शासक और बुद्दिजीवी वर्ग जैसे सीविल सर्वेंट और शिक्षाविद वग़ैराह इस माहौल मे पल कर बडे हुऐ हैं की यह पूरी तरह से यूरोपियन विचार और धारणाओं मे डूबे हुये है. उनको यूरोपिन इतिहास और यूरोपियन जंगों के बारे मे पढाया जाता है लेकिन उनको हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) की सीरत और खिलाफत का इतिहास नही बताया जाता है. नतीजतन वोह यूरोपिय फिलोसोफरों के बारे मे ज़्यादा जानते है इसके बजाये की वोह मुसअब बिन उमैर (रज़ीअल्लाहु अन्हो), साद बिन मुआज़ या दूसरे सहाबा (रज़िअल्लाहो अनहुमा) को जाने. योरूपियन शिक्षा पद्धति के अपनाने की वजह से इस्तेमारी (साम्राज्यवादी) शख्सियात उनके लिये एक रोल मोडल बन गई. 1834 मे माउंटस्टूअर्ट एलफिस्टोन ने साम्राज्यवादी ज़हनियत का नज़रिया दिया था. उसने कहा था की हमें हमेशा क़ाबिज़ रहने का सपना नहीं देखना चाहिये बल्कि हमें अपने आप को पूरी तरह इस बात मे लगा देना चाहिए की हम वहाँ के मकामी लोगों को रियासत मे लेकर आयें. उन्हें इस तरह से लाया जाये की वोह खुद इस बात को माने की वोह अपने आप पर खुद हुक्मरानी कर रहे है और इस तरह वोह हमारे मफाद के लिये भी फायदे मन्द होंगे.
इसका नतीजा यह हुआ की आज मुस्लिम देशो मे जितना भी शासक वर्ग है वोह पूरी तरह से अपने देश की समस्याओं के हल के लिये यूरोप और अमरीका की तरफ देखता है क्योंकि वोह सिर्फ इसी हल से वाकिफ है। इसलिये यह स्वाभाविक है की इन लोगों के उन गहरे दुश्मनों से बडे अच्छे समबन्ध होते है जिन्होने कभी उन पर क़ब्ज़ा किया था! अगर इसको और वाज़ेह किया जाये तो यह बात बिल्कुल स्वाभाविक है समाज का यह हिस्सा आज भी लगातार अमरीका, ब्रिटेन और फ्रांस के अपने देश और उम्मत के मामलात मे हस्तक्षेप को स्वीकार करता है. चाहे वोह विदेशी सहायता, आर्थिक सहायता या सीधे तौर पर हस्तक्षेप की शकल मे ही क्यों न हो.

राजनैतिक आज़ादी: उम्मत के लिये सब से महत्वपूर्ण मसला

जैसा की उपर बताया गया की विदेशी सहायता हक़ीक़त मे एक ज़रिया है जिसे पूंजीवादी राष्ट्र मुस्लिम देशो को अपना ग़ुलाम बनाने के लिये देते है। सबसे अहम बात यह है की मुस्लिम देशो के लिये यह हराम है की वोह अपने आप को दूसरे देशो की (कोलोनी) उपनिवेश बनाये.
अल्लाह (सुबहानहु व तआला) फरमाता है: अल्लाह मुश्रिकीन को इस बात की बिल्कुल भी इजाज़त नही देता की मुश्रिकीन का मोमिनों पर (प्रधानता का) कोई भी रास्ता बाकी रहे। [तर्जुमा मआनीये कुरआन, सूर: निसा आयत – 141]

यहाँ यह बात ज़रूरी है की हम इस मसले को हलाल और हराम से जोडें क्योंकि सिर्फ यही वोह कसौटी है जो अल्लाह (سبحانه وتعالى) के सामने वास्तविक है। हलाल और हराम के तसव्वुर को अल्लाह से और आखिरत से जोडना ही दावत का बुनियादी पहलू है। पूंजीवादियों की तरह फायदे और नुक्सान को कसौटी बनाने की बजाये हम जब किसी भी समस्या का सामना करे तो उसे अल्लाह के हुक्म से जोडना ही उस समस्या को ठिक तरह से नापने का पैमाना है.

एक बार जब यह कसौटी स्थापित हो जाये तो हम उम्मत को इस बात का यकीन दिलायेंगे की विदेशी सहायता वोह तरीका है जो राजनैतिक तौर से बडी खतरनाक है. हमें अहले नुसरत (people of power) को मुतास्सिर करना चाहिये और उन्हे यकीन दिलाना चाहिये की वोह अपने आप को विदेशी सहायता के दलदल से आज़ाद करें.
इस बात को समझाने के लिये की किस तरह यह पॉलिसी किसी देश को महकूम (अधीन) बनाती है हमें इस बिन्दू को उठाना चाहिये और उन दलीलों को पेश करना चाहिये जिनका ज़िक्र उपर किया गया। अलहम्दूलिल्लाह, अल्लाह तआला ने उम्मत को कुरआन और सुन्नत से नवाज़ा है जिसमे विस्तृत तौर पर ज़िन्दगी के हर पहलू और हर दौर के लिये रहनुमाई मौजूद है। हमें उन लोगों की थ्योरीज़ (सिद्धांत) और समाधान नहीं चाहिये. अल्लाह (سبحانه وتعالى) ने हमारी उम्मत को अच्छे लोगों से नवाज़ा है और हमारी सरज़मीनों को बेतहाशा दौलत अता की है. हमें उन लोगों के कागज़ के डॉलर नहीं चाहिये जो हर दिन अपनी किमत खोते रहते है. इस्लाम को इसलिये भेजा गया ताकि वोह पूरी इंसानियत के लिये रोशनी का मीनार बने. लेकिन ऐसा उस वक्त तक नहीं हो सकता जब तक के उम्मत वैचारिक तौर और राजनैतिक तौर पर सेक्यूलर पूंजीवादी व्यवस्था से अपने आप को आज़ाद न कर ले. और अपने अफकार और अपनी व्यवस्था को इस्लाम की रहनुमाई के मुताबिक कायम न कर ले.
अल्लाह (सुबहानहु व तआला) इस उम्मत की रहनुमाई करें और इसकी खोई हुई इज़्ज़त इसे लौटाऐ। और हमारे उपर हिदायत याफ्त क़यादत (नेतृत्व) कायम करें जो हम पर इस्लाम को नाफिज़ करें और इन साम्राज्यवादी ताकतो का हमारे मामलात मे हस्तक्षेप को खत्म करे.

अल्लाह (सुबहानहु व तआला) फरमाते है: हमने तुम्हारे उपर ऐसी किताब नाज़िल की है जिसमें हर चीज़ की तफ्सील को बयान कर दिया गया है, जिसमे रहनुमाई और रहमत है और इमान रखने वालों के लिये खुशखबरी है. [तर्जुमा मआनीये कुरआन, सूर: अन नहल आयत – 89]
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1 comments :

Asha Joglekar said...

भाई जब दूसरों का मुँह तकोगे तो शर्तें तो होंगी ही कोई खैरात थोडे ही बटेगी । बडी ताकतें हमेशा ही उपनिवेसवाद को बढावा देती हैं चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष ।

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