अंतर्राष्ट्रिय ओलमा कांफ्रेंस (इंडोनेशिया) मे हिन्दुस्तान के प्रतिनिधी की तरफ से दिया खिताब

अंतर्राष्ट्रिय ओलमा कांफ्रेंस (इंडोनेशिया) मे हिन्दुस्तान के प्रतिनिधी की तरफ से दिया खिताब




सब से पहले मै विलायते हिन्दुस्तान के ओलमा और मुसलमानो की जानिब से तमाम हाज़िरीन की खिदमत मे सलाम पेश करता हूँ: अस्सलामुअलैयकुम व रहमतुल्लाहे व बरकातहु.
अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का सद शुक्र और अहसान है की उस ने मुझे इस क़ाबिले तहसीन कांफ्रेंस मे शिरकत का मौका अता फरमाया। फिर मै हिज़्बुत्तहरीर और उस के अमीर आलिमे जय्यद शेख अता अबु रुश्ता का ममनून हूँ के हमे इस अज़ीम और इंशा अल्लाह तारीख साज़ कांफ्रेंस मे शिर्कत मे मदू फरमाया.



बर्रे सग़ीरे हिन्दो पाक की सरज़मीन नौजवान मुजाहिद मुहम्मद बिन क़ासिम अल-सक़फी के हाथों फतह हुई जिन्हे उमवी खलीफा वलीद विन अब्दुल मलिक ने एक फौज का क़ाईद बना कर भेजा था. वाकिया यह था की सीलोन यानी मौजूदा श्रीलंका से कुछ मुसलमान अपनी छोटी-छोटी कश्तियों पर सवार अरब ममालिक जा रहे थे और जब वोह साहिले सिन्ध के क़रीब पहुंचे तो उन्हें लूट लिया गया और हमारी बहनों को यरग़माल बना लिया गया. उस वक्त के खलीफा आज के खाईन हुक्मरानों की तरह नही थे की हर जगह मुसलमानों पर जब्र और तशद्दुद होता रहे मगर यह हुक्मरान खामोश बैठे तमाशा देखते रहे और मुसलमान फौज को मदद के लिये भेजने की बजाये अपनी और अपने महमानों की सलामी देने के लिये बैठे रहते है.
अल-गरज़ पहली सदी हिजरी ही के आखिर मे हिन्दुस्तान के फतह हो जाने के बाद चौधवी सदी तक यानी एक हज़ार साल से ज़्यादा अरसे तक हिन्दुस्तान इस्लामी खिलाफत ही का हिस्सा रहा. खलीफा हारून रशीद के दौर मे फतूहात का सिलसिला जारी रहा और अब यह बढ कर मश्रिक मे गुजरात के सूबे तक फैल गया. मुसलमान फौजी इसी इलाक़े मे बसते गये और नये शहर तामीर होते गये. इस दौरान हिन्दुस्तान की आवाम की कसीर तादाद जो मकामी फासिद मुआशरती रिवाजो और कुफ्र के मन घडंत ढांचों मे मज़लूम और पिसी हुई थी वोह उठ कर रौशनी की जानिब आई और इस्लाम की आलमी बिरादरी का हिस्सा बन गई. उन्हें कुफ्र के अन्धेरों से इस्लाम के नूर की जानिब हिदायत नसीब हुई. अब बोह अपने खुद साख्ता बुतों और खुदाओं की परस्तिश को खैरबाद कह चुके थे और अल्लाह अज़वजल की बन्दगी मे आ गये थे. आज के मौजूदा हिन्दुस्तान, पाकिस्तान, कश्मीर, बंगलादेश पर अब इस्लाम की हुक्मरानी मुस्तहकम हो चुकी थी जो एक हज़ार साल से ज़्यादा क़ायम रही.



मुस्लिम इतिहासकार जैसे अल्लामा इब्ने कसीर अलदमिश्की (रहमतुल्लाहे अलैय) ने अपनी मश्हूरे ज़माना किताब अलबिदाया वन्निहाया मे बर्रे सग़ीर हिन्द को दारुल इस्लाम से ताबीर किया है और उस के फतह के सिलसिले मे इस हदीस का हवाला दिया है:
हज़रत अबूहुरैरा (रज़ीअल्लाहो अन्हू) फरमाते है: मेरे हक़ीक़ी दोस्त अल्लाह के रसूल (سلم و عليه الله صلى) ने फरमाया: इस उम्मत की फौज सिन्ध और हिन्दुस्तान को रवाना कि जायेगी। हज़रत अबू हुरैराह (रज़ीअल्लाहो अन्हू) फरमाते है की अगर मै इस फौज मे शरीक हो सका और शहीद हो गया तो यही सआदत बहुत बडी हुई और अगर ज़िन्दा लौट आया तो मै आज़ाद अबू हुरैरा होउंगा. मालिके आला से मेरी इल्तिजा है की वोह मुझे जहन्नुम की आग से महफूज़ रखे. (मसनद अहमद)




दहली सल्तनत जो सन 1205 से 1526 तक रही और फिर मुग़ल सल्तनत जो 1526 से 1857 तक रही, इस दौरान हिन्दुस्तान खिलाफते इस्लामी का हिस्सा रहा. हिन्दुस्तान मे अज़ीमुल मरतबा ओलमा पैदा हुऐ मसलन हज़रत शेख सरहिन्दी शहीद (रहमतुल्लाहे अलैय) जिन की बफात दिल्ली मे सन 1624 मे हुई थी और हज़रत शाह वलीउल्लाह दहलवे (रहमतुल्लाहे अलैय) [1703-1762].
आज भी इस्लामी हुकूमत की यादें हिन्दुस्तान मे ताज़ा है। हमारे इस वफ्द मे एक ऐसे आलिमे दीन भी शामिल हैं जिन के दादा हिन्दुस्तान के शहर भोपाल के इस्लामी दौर मे क़ाज़ी हुआ करते थे. 1819 मे जब बरतानिया ने हिन्दुस्तान पर जब फौजी हमला किया तो वहाँ उसे मुसलमानों की तरफ से शदीद मज़ाहमत का सामना करना पडा. हिन्दुस्तान के मुसलमान आज भी बडे फख्र से अपने मुजाहिदों को याद करते है, जिन्होनें बरतानिया का डट कर मुकाबला किया जैसे शेरे मैसूर हज़रत टीपू सुल्तान (रहमतुल्लाहे अलैय) जो जुनूबी हिन्दुस्तान के वाली थे.




जब बरतानिया ने हिन्दुस्तान मे इस्लामी हुकूमत का खात्मा कर दिया, तब भी हिन्दुस्तान के मुसलमान इस्तम्बोल मे खलीफा के वफादार ही रहे और बरतानिया के खिलाफ जिहाद जारी रखा। मसलन शेख अहमद सरहिन्दी (रहमतुल्लाहे अलैय) और खास तौर पर यागिस्तान जो की मश्रिक़ी अफग़ानिस्तान का पख्तून क़बाईली इलाक़ा है, वहाँ उलेमा बरतानिया के खिलाफ अहतीजाजी तहरीके चलाते रहे.




पहली आलमी जंग के दौरान हिन्दुस्तान की मसाजिद मे निहायत वलवला अंगेज़ और दर्दआमेज़ दुआऐ की जाती थी और खित्ते मे खलीफा की आफियत, उनके फौजियों के लिये कामरानी और फतहयाबी की दुआऐ शामिल होती थी जो कुफ्र की ताक़तों से नबर्दआज़मा थे। खलीफा की फौजो के लिये चन्दा करने को ओलमा ने इजलास का अहतमाम किया और हम मे से बाज़ को अब तक याद है की किस तरह हमारी दादियाँ इस मुहीम की हिमायत करने के लिये अपने ज़ेवर और गहने तक उतार कर भरे मजमे मे दे दिया करती थी.




शेखुल हिन्द हज़रत मौलाना महमूदुल हसन (रहमतुल्लाहे अलैय) इस वक्त बर्रेसग़ीर के मशहूर दारुल उलूम देवबन्द के मोहतमीम हुआ करते थे जहाँ हमारे बाज़ साथियों ने तालीम हासिल की. उन्होने तो दारुलउलूम देवबन्द को बन्द करने का ऐलान और खिलाफत की हिमायत मे जिहाद की तैयारी भी शुरू कर रखी थी. शेखुलहिन्द हज़रत मौलाना महमूदुल हसन (रहमतुल्लाहे अलैय) खिलाफत की बराहे रास्त इमदाद फरमाया करते थे और इसके बचाये रखने के लिये उन्होने बेपनाह जद्दो-जहद की. उन्होने हिजाज़ का सफर किया और मक्का मुकर्रमा मे खलीफा के वाली और मआविनीन से मुलाक़ात की. शेखुलहिन्द हज़रत मौलाना महमूदुल हसन (रहमतुल्लाहे अलैय) को बरतानिया के ऐजेंट शरीफ हुसैन गद्दार ने 23 सफर 1335 हिजरी को बरतानिया के हाथों गिरफ्तार करवा दिया. वोह चाहता था की शेखुलहिन्द उस्मानी खलीफा से बराअत का ऐलान कर दे जिसका शेखुलहिन्द और उनके साथियों और दिगर ओलमा ने सख्ती से मुस्तरद कर दिया. इन हज़रात को बरतानिया के हवाले कर दिया गया जो उन्हें 29 रबिउस्सानी 1135/ 21 फरवरी 1917 को जहाज़ के ज़रिये काहिरा के रास्ते जज़ीरानुमा माल्टा (Malta) ले गये और वहाँ यह हज़रात पूरे तीन साल चार माह पर मशक्कत क़ैद मे रहे. बिल आखिर उन्हे रिया किया गया और वोह 8 जून 1920 को बम्बई पहुंचे. यही वोह वक्त था जब हिन्दुस्तान मे तहरीके खिलाफत का आगाज़ होता है.
इन के अलावा हिंदुस्तान के और भी दिगर मोअज़्ज़िज़ ओलमा खिलाफत की अहमियत को खूब समझते थे और उन्होने इस की हिफाज़त के लिये मुख्तलिफ तदबीरें की. हज़रत मौलाना उबेदुल्लाह सिन्धी (रहमतुल्लाहे अलैय) ने नज़ारतुल मआरिफ के नाम से एक इदारा कायम किया जिस का मक़सद मुस्लिम दानिश्वरों के ज़रिये दुश्मन की जानिब से किये जा रहे इस्लाम मुखालिफ प्रोपगंडे का मुकाबला करना और इस्लामी अफ्कार को फरोग़ देना था.
उस वक्त हिन्दुस्तान मुफक्किरीन और सर-गर्म कारकुनान का गहवारा बना हुआ था जो हिन्दुस्तान से बरतानवी हुकूमत को उखाड फौकना और खिलाफत की हिमायत करना चाहते थे. उस दौर के मुस्लिम दानिश्वरों की खिलाफत से वफादारी काबिले ज़िक्र और नाक़ाबिले फरामोश है. मुख्तलिफ मस्लक के उलेमा जो मुख्तलिफ शख्सियतों के मालिक थे, उन्होने मिल कर मशहूरे ज़माना तहरीके खिलाफत का आग़ाज़ किया जिसका नसबुलऐन खिलाफत की हिमायत करना था ता कि वोह टूटने से महफूज़ रहे और हिन्दुस्तान मे बरतानवी मज़ाहमत की जा सके. इन उलेमा ने इस अज़ीम मक्सद के लिये आपसी इख्तिलाफ को नज़रअन्दाज़ कर दिया और खिलाफत के नाम पर मुत्तहिद हो गये, लिहाज़ा इस तहरीके खिलाफत मे जहाँ देवबन्दी ओलमा शामिल थे, वहीं सूफी और ज़ाहिरी मसलक के ओलमा भी पेश-पेश रहे.
हज़रत शेखुल हिन्द मौलाना महमूदुल हसन रहमतुल्लाहे अलैय के अलावा इस तहरीक मे मौलाना मुहम्मद अली जौहर, उन के भाई शौकत अली जौहर, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डा। मुख्तार अहमद अंसारी और दिगर मुताद्दिद ओलमा इस अज़ीम तहरीक का हिस्सा बने.




मौलाना अबुलकलाम आज़ाद (रहमतुल्लाहे अलैय) जो हमारे वफ्द मे शामिल मौलाना फारूक़ साहब के वालिद के क़रीबी अहबाब मे थे, उन्होने अपनी किताब मसलऐ खिलाफत मे जो 1920 मे शाया हुई थी इस पूरे मुआमले को पेश किया, वोह लिखते है:
“खिलाफत के बग़ैर इस्लाम का वजूद मुम्किन नहीं, हिन्दुस्तान के मुसलमानों को चाहिये के वोह अपनी तमामतर कोशिशों को बरूऐकार लाकर इस काम को अंजाम दें”.
इस तहरीक ने हिन्दुस्तान भर के कई मक़ामात पर खिलाफत कांफ्रेंस का आयोजन किया जिन मे हिन्दुस्तान के नामवर ओलमा शरीक रहे। अप्रेल 5 और 6, सन 1920 को आयोजित ऐसी ही एक कांफ्रेंस मे तमाम ओलमा की शिरकत मे इन अहमतरीन बिन्दुओं पर करारदाद पास की गई:




1। ओलमा पर लाज़िम है की वोह मसलऐ खिलाफत पर राये आम्मा हमवार करने के लिये पूरी महनत से जुट जायें.




2। वोह मुनाफिक़ ओलमा और दूसरे जो इस मसले की मुखालिफत करते हों, उन का मुकम्मल बायकाट किया जाये.




3। ओलमा अपने पैरूकार से अहद ले की वोह तमाम ज़िन्दगी पूरी महनत से इस मसलऐ खिलाफत की हिमायत मे बोलने और लिखने के लिये वक्फ कर दे.




4। मुसलमानों को चाहिये की वोह दस्तूरी और आईनी इंतेखाबात से दूर रहे.




नदवतुल ओलमाऐ हिन्द, एक बहुत मशहूर दीनी इदारा, के गुज़िस्शता नाज़िम और मोहतमिम हज़रत सय्यद सुलेमान नदवी साहब ने खलीफा के लाज़िमन होने की फर्ज़ियत पर शिद्दत से ज़ोर दिया, वोह फरमाते है: “अल्लामा नसफी, इमाम राज़ी, क़ाज़ी अज़दावर दिगर मोतबर ओलमा ने इस मसलऐ खिलाफत पर विस्तार से अपनी किताब मे लिखा है और यह हस्तियाँ इस मौजूअ पर हर्फे आखिर की हैसियत रखती है। एक सहीह हदीस जो सहीह मुस्लिम मे मरवी है, उस मे आता है की अगर मुसलमान खलीफाऐ वक्त को बैत दिये बग़ैर मर जाये तो वोह काफिर की मौत मरा” (दी मुस्लिम आउटलुक, मार्च 1920)




यहाँ सय्यद सुलेमान नदवी साहब ने जिस हदीस का हवाला दिया है वोह मुकम्मल हदीस इस तरह से है: “जो कोई इस हालत मे मरे की उस की गर्दन मे खलीफा से बैत का तौक न हो, तो वोह जाहिलियत की मौत मरा।”




बरतानिया बिल आखिर 28 रजब 1342 हिजरी को खिलाफत मिटा देने के अपने मज़मूम इरादे मे कामयाब हो गया. खिलाफत के खात्मे पर मौलाना अली जौहर ने कहा के खिलाफत खत्म कर दिये जाने के बाद मुसलमानों के ज़हनों पर इस के असरात का सही अन्दाज़ा लगा पाना बहुत मुश्किल है. लेकिन मै यक़ीन के साथ कह सकता की यह इस्लाम और मुसलमानों के लिये बहुत बडा अलमिया (tragedy) साबित होगा. मुसलमानों के देरीना इदारे का खात्मा जो आलमे इस्लाम मे इस्लामी इत्तेहाद की खनाख्त थी, अब इस्लाम का शीराज़ा पारा-पारा हो जायेगा. (अखबार:Times तारीख 4 मार्च 1924)
इन अल्फाज़ मे किस क़दर सदाक़त थी, खिलाफत के खात्मे के बाद दुनिया ने देखा की ऐन वैसा ही हुआ जो मौलाना ने फरमाया था। खिलाफत के खत्म हो जाने के बाद बरतानिया ने मज़ीद मुस्लिम मुमालिक को अपनी नौ आबादियात (colonies) बना लिया और मुसलमानों को बे पनाह नुक्सान पहुंचाया. हज़ारों मुस्लिम ओलमा को शहीद कर दिया और मुसलमानों पर शदीद मज़ालिम ढाये गये और क़त्ल कर दिये गये.




जवाहर लाल नहरू के नेतृत्व मे हिन्दुस्तान को नाम-निहाद आज़ादी दिये जाने के बाद वही मज़ालिम आज भी जारी है। कश्मीर मे लाखों मुसलमानों का कत्ल किया जा चुका है और अभी भी जारी है. हज़ारो खवातीन की आबरू रेज़ी की गई है, सैंकडों मस्जिदो को गिरा दिया गया. मुसलमान होंना खुद एक जुर्म बन कर रह गया है. सन 2002 मे हम ने निहायत संगीन हलाकत का समां देखा जहाँ मुसलमानों पर गुजरात राज्य मे बे-पनाह मज़ालिम ढाये गये और 3000 से ज़्यादा को हलाक कर डाला गया और यह सब हुकूमत की मुकम्मल पुश्त पनाही (sponsorship) मे हुआ.




पश्चिम से लिया गया इस्तेमारी लादीनी व्यावस्था (Secular Capitalistic System) आज भी हिन्दुस्तान की अवाम के मसाइल को हल नही कर पा रहा है। आज भी 40% से ज़्यादा आबादी गरीबी की सतह से नीच ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर है जिनको कुल गुज़र बसर के लिये महज़ एक डालर प्रतिदिन से कम मयस्सर है. आज भी करीब आधे हिन्दुस्तान को बिजली मयस्सर नही है. ना ही पेट भर खाना और सफाई की सहूलियत है. 80% हिन्दुस्तान आज भी केवल 2 डालर प्रतिदिन से कम पर ज़िन्दा है यानी 900 मिलीयन की आबादी 2 डालर प्रतिदिन से कम पर ज़िन्दा है. वहाँ इस नाम निहाद आज़ादी के 60 साल बाद भी 40% बच्चे साधारण वज़न से कम के होते है.




हिन्दुस्तान के मुसलमान और ग़ैर-मुस्लिमों की समस्याओं का हल इस्लाम की न्याय पर आधारित व्यवस्था मे छुपा हुआ है जिसे हमारे महबूब नबी (سلم و عليه الله صلى) ने खिलाफत का नाम दिया है। यही खिलाफत इस बात को यकीनी बना सकती है की वसाइल की सहीह तक्सीम हो जो एक एक व्यक्ति के पास पहुंचे ना की केवल चन्द के हाथों तक महदूद रहे. मुझे यकीन है की खिलाफत की वापसी के बाद अक्सीरियत मय उन ग़ैर-मुस्लिमों के जो ग़रीबी मे रहने के लिये मजबूर है, वोह इस्लामी निज़ाम के आदिलाना तर्ज़ को देख कर, की किस तरह इस की आर्थिक व्यव्स्था गरीबी के खिलाफ जंग छेडती है, इस्लामी हुकूमत के तहत ज़िन्दगी बसर करना पसन्द करेंगे.




हालांकि हिन्दुस्तान के मुसलमानों की मौजूदा नस्ल ने खिलाफत का खुद मुशाहिदा नही किया है, फिर भी उसके अन्दर एक दर्द है की वोह खिलाफत के साये मे रह कर इस्लाम के मुताबिक ज़िन्दगी नहीं जी पा रहे है। मुताद्दिद ग्रुप, ओलमा, मुफक्किरीन आज इस्लामी निज़ाम के अहया, और वापसी का मुतालबा कर रहे है और हम सब खिलाफत की वापसी के लिये दुआ गो है.




जैसा की हुजूर अकरम (سلم و عليه الله صلى) ने बशारत दी है, खिलाफत सारे आलम को अपने न्याय के साये मे ले आयेगी। अल्लाह तआला से दुआ है की वोह हमे खिलाफत की इस मौजूदा तहरीक मे, जिस की कयादत हिज़्बुत्तहरीर कर रही है, ले आये. हम उम्मीद करते है के जो हुजूरे अकरम (سلم و عليه الله صلى) ने फरमाया था की मुझे हिन्दुस्तान से ठंडी हवा महसूस हो रही (हदीस अबूदाउद), हम सब उसका हिस्सा बने.




हज़रत अबू हुरैरा (سلم و عليه الله صلى) से रिवायत है की हुज़ूर अक़दस (سلم و عليه الله صلى) ने फरमाया: “तुम मे से एक गिरोह हिन्दुस्तान को फतह करेगा, अल्लाह तआला हिन्दुस्तान को फतह करवायेगा और वहाँ के बादशाह ज़ंजीरों मे जकडे हुऐ यहाँ आयेंगे. अल्लाह तआला इस गिरोह के गुनाह को माफ फरमायेगा और जब वोह हिन्दुस्तान से लौट कर आयेंगे तो वोह इब्ने मरियम (हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम) को शाम मे पायेंगे”. (नईम इब्ने हम्माद: अल-फितन)

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