खिलाफत और बर्रेसगीरे हिन्द (भाग - 2)
मुहम्मद शाह हम्दानी (तृतिय) [1463-1482] उस्मानी खलीफा सुल्तान मुहम्मद दोम को यहाँ से खिराज भेजा करता था। जो के इसका हक़ था. सुल्तान बीजापुर का शाही निशान भी वही था जो उस्मानी सल्तनत का था. मलिक अपाज़, जो के गुजरात के नामवर हुक्मरान रहे है, उन्होने भी सुल्तान सलीम प्रथम को खलीफा ही की हैसियत से खिताब किया. जिस अदब और अहतराम से मुग़ल सुल्तान उस्मानी खलीफा से पेश आते थे उसकी शहादत उसी खतो किताबत से मिलती है जो दहली और इस्तम्बोल के दर्मियान हुई. सुल्तान सुलेमान को लिखे गये खत मे हुमायूँ ने “अज़ीम सिफ्फात के हामिल खलीफा” कह कर खिताब किया है. और खिलाफत के हमेशा क़ायम रहने की दुआ की है. इसने एक खत मे कुरआने मजीद की इस आयत का हवाला दिया है की खलीफा ज़मीन पर अल्लाह का नायब होता है. सुल्तान इब्राहीम ने एक खत शाहजहान को लिखा जिसमें खुद को दुनिया के तमाम बादशाहों के लिये अल्लाह का साया यानी ज़िल्लिल्लाह बताया जिसे दुनिया की खिलाफत अता की गई.
1690 मे औरंगज़ेब के दरबार मे खलीफा के सफीर अहमद आग़ा खलीफा की तरफ से औरंगज़ेब के लिये पैग़ाम लाये जिसमें क़ुरआनी आयात का हवाला था और उस्मानी सुल्तान को खलीफाऐ इस्लाम कह कर ताबीर किया गया था। 1723 मे मुहम्मद शाह (1719-1748 इसवी) और उस्मानी खिलाफत के दर्मियान खतो किताबत हुई जिसमे उस्मानी खलीफा को अज़ीम सलातीन की पनाहगाह, बादशाहों के मुहाफिज़, तख्ते खिलाफत के शायाने शान, अहकामे शरिया के मुबल्लिग़ के अलक़ाब से मौसूम किया गया.
ज़मानाऐ क़दीम की बाकियात से भी (Antiquities) से भी हिन्दुस्तान और रियासते खिलाफत के दर्मियान क़ायम रिश्तों का सुबूत मिलता है. मिसाल के तौर पर सुल्तान शम्सुद्दीन अल्तमश (1211-1236) वालीऐ हिन्द के ज़माने की चान्दी के सिक्के है, जिनके एक तरफ खलीफा अलमुस्तंसिर और दूसरी तरफ खुद अल्तमश का नाम खलीफा के नायब की हैसियत से लिखा है.
हिन्दुस्तान मे इस्लामी हुकूमत के दौर मे आलमे इस्लाम के बडे औलमा पैदा हुऐ. मसलन हज़रत शेख अहमद सरहिन्दी (रहमतुल्लाहे अलैय) जिन की वफात 1624 इसवी मे दिल्ली मे हुई. यह फिक़हे इस्लामी के बहुत बडे आलिम थे जो मुजद्दिद अल्फसानी के नाम से जाने जाते है. उन्होने उस्मानी खलीफा को 536 खतूत लिखे जिन का मजमूआ “मक्तूबात” के नाम से मश्हूर है.
हज़रत शाह वलीउल्लाह (1703-1762) जिन का शुमार हिन्दुस्तान के मुअज़्ज़िज़ तरीन ओलमा मे होता है और जुनूबी ऐशिया और उस के बाहर भी तमाम ही मकातिबे फिक्र के लोगों मे उन की इस्लामी इल्मी मरतबा तस्लीम किया जाता है। वोह अज़ीम और हमगीर मुसन्निफ थे और उन्होने मुताद्दिद इस्लामी मौज़ूआत पर किताबें भी लिखी है। इन का शुमार क़ुरआन का उर्दू तर्जुमा करने वाले इब्तिदाई लोगों मे किया जाता है. इस ज़माने के लोगों ने उन की इस काविश की ज़बरदस्त मुखालिफत की थी जिनका यह कहना था कुरआन को उसकी असल हालत मे ही रहना चाहिये. कुछ अरसे बाद हिन्दुस्तान के ओलमा ने उनकी कोशिशों को तस्लीम किया और फिर सराहा भी. उनकी लिखी हुई मशहूर किताबों मे “हुज्जतुल्लाह बालिगा”, “तफहीमाते इलाहिया” शामिल है.
हज़रत शाह वलीउल्लाह ने खिलाफत के ताल्लुक से अपनी किताब “इज़ाला अलखफा” मे अपने खयालाता का इस तरह इज़हार किया “खिलाफत लोगों की मुत्तहिदा क़यादत का नाम है जिसका वजूद ही दीन को क़ायम रखने के लिये होता है जिसमें मुख्तलिफ दीनी उलूम का अहया, इस्लामी इबादत पर अमल दरामद की निगरानी, जिहाद का नज़्म, फौज की तैयारी, असलहे की तैयारी, अदालती निज़ाम का क़याम, शरीअत का निफाज़, जराईम की रोकथाम वग़ैराह शामिल है। यह तमाम काम इसी के ज़रिये अंजाम पाते है क्योंकि खलीफा रसूल (سلم و عليه الله صلى) का नुमाइन्दा और नायब होता है”
इस्लाम मे विलायते आम्मा (General Governorship) की इजाज़ता
बर्रेसग़ीर के हुक्मरानों को खलीफा की तरफ से विलायते आम्मा की दी गई थी जिस को आज की इस्तलाह मे (General Governorship) से ताबीर किया जाता है। यह हक़ीक़त है की सूबों मे या विलायतों मे वाली (governor) मुकर्रर करने और उन्हें माजूल करने के ताल्लुक से खुलफा से कोताही हुई है। यह कायदा आम हो गया था की मुख्तलिफ सूबों मे जो भी अपने दम पर इक्तदार मे आ जाता था उसे तस्लीम कर लिया जाता था, ताहम यह भी हकीक़त है की खलीफा की जानिब से उन को वली तस्लीम किये जाने की वजह से ही उन की हैसियत क़ानूनी होती है.
इस्लाम मे दो तरह की विलायतें (governorship) होती है, इस सिलसिले मे शेखतक़ीउद्दीन अल-नबहानी और शेख अब्दुल कदीम ज़ल्लूम की किताब “इस्लाम का निज़ामे हुकूमत” मे से इक्तबासात पेश किये जा रहे है जिन से दोनों तरह की विलायत की शरई हैसियत वाज़ेह हो जाती है:
“विलायत की दो किस्मे होती है: विलायते आम और विलायते खास। विलायते आम मे किसी विलायत या सूबे की हुकूमत से मुताल्लिक तमाम अमवार (matters) शामिल होते है, इस का तक़र्रूर (appointment) इस तरह होता है की खलीफा किसी को पूरे सूबे, इस के तमाम अफराद और उन के तमाम अमूर (affairs) पर निगरानी के लिये मुकर्रर करे.”
लिहाज़ा वालीऐ आम की निगेहदाश्त (supervision) वहाँ के तमाम मामलात पर होती है. जबके विलायते खास मे वली के काम तक़सीम हो जाते है. लिहाज़ा वालीऐ खास इस इलाके मे मसलन फौजों के इंतेज़ाम, अवाम की देखभाल, इलाके की हिफाज़त, औरतों की हिफाज़त मे से किसी पर महदूद होता है. वालीऐ खास वहाँ की फिज़ा या खिराज व सदक़ात के मामलात मे दखल नही देता. हुज़ूरे अकरम (سلم و عليه الله صلى) ने आम और खास दोनों किस्म के वाली मुकर्रर फरमाये थे. मसलन अमरू बिन अलहज़म (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को यमन का वालीऐ आम मुकर्रर फरमाया था और हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को यमन मे खास मामला यानी क़ज़ा का वाली मुक़र्रर फरमाया था. आप (سلم و عليه الله صلى) के बाद खुलफा भी इसी तर्ज़ पर क़ायम रहे और उन दोनों अक़साम के वाली मुकर्रर किये: मसलन हज़रत उमर (रज़ीअल्लाहो अन्हू) ने मुआविया इब्ने सुफियान को वालीऐ आम मुकर्रर किया, और हज़रत अली (रज़ीअल्लाहो अन्हू) ने अपने दौरे खिलाफत मे हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को बसरा का वालीऐ खास मुकर्रर किया जिसमें माली (financial) उमूर शामिल नही थे, फिर हज़रत ज़ियाद (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को वहाँ के माली उमूर पर वालिये खास मुकर्रर कर दिया.
इस्लाम के अव्वलीन दौर मे विलायत (governorship) की दो किस्मे रही: विलायतुस्सलात और विलायतुल खिराज। चुनांचे तारीख की किताबों मे वालियों की इन दोनों तरह से ताबीर की गई है, पहले इमारत अस्सलात और दूसरी इमारत अस्सलात वल खिराज, यानी वाली या तो सलात व खिराज का वाली होगा या सिर्फ सलात का. यहाँ वालीउस्सलात से मुराद यह नही है की वोह लोगों को नमाज़ मे इमामत करे. वालीउस्सलात वोह होता है जो मालियाती अमूर (financial matters) या महसूल (revenues) की वसूली को छोड कर हर चीज़ पर वाली होता है. इस पहलू से सलात से यहाँ मुराद हुकूमत के हर मामले से है, सिवाये अमवाल (funds) और महसूल की वसूली के. लिहाज़ा जब इन दोनों को जमा कर दिया जाये तो वोह शख्स वालीउस्सलात व खिराज यानी वालीऐ आम होता है; और वोह अगर सिर्फ सलात या सिर्फ खिराज का हो तो वोह वालीऐ खास होता है. बहरहाल यह इंतेज़ामी उमूर है जो खलीफा की सवाबदीद (फैसले) पर मुन्हसर होते है और वोह किसी को वालीऐ खास मुकर्रर करे या किसी को सिर्फ अमूरे क़ज़ा (judiciary) तक महदूद करे या किसी को अमूरे मालियात (finance), क़ज़ा या अस्करी (army) मामलात के सिवा दूसरे दिगर मामलत तक. वोह जो विलायत के लिये हर वोह फैसला ले सकता है जिसे वोह बहतर समझता है. इस का सबब यह है की शरिअत ने वाली के लिये न तो काम मुतय्यन किये है और न ही पाबन्दी रखी है की वोह किसी खास काम पर ही मुकर्रर किया जाये. सिर्फ यह तय है की इस का काम हुकूमत करना है और वोह खलीफा का नायब होता है और यह तहदीद की है की वोह किसी खास इलाके पर मुकर्रर किया जाये. यही हुज़ूरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहिवस्सल्लम का अमल था. अलबत्ता शरीअत ने खलीफा को यह इख्तियार दिया है की वोह किसी को वालीऐ खास या वालीऐ आम, जैसी उसकी मसलिहत हो, मुकर्रर करे और यही हुज़ूर (سلم و عليه الله صلى) से साबित है. लिहाज़ा सीरत इब्ने हिश्शाम मे आया है की हुजूर (سلم و عليه الله صلى) ने फरवा बिन मुसेक (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को मुराद, ज़ुबेर और मिज़हाज पर मुकर्रर फरमाया था. इसी किताब मे यह है कि आप (سلم و عليه الله صلى) ने ज़्याद इब्ने लबेद अंसारी (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को हज़रमोत के सदक़ात पर और हज़रत अली (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को यमन का क़ाज़ी मुकर्रर फरमाया था. इस्तेआब की रिवायत है की आप (سلم و عليه الله صلى) ने हज़रत माज़ बिन जबल अंसारी (रज़ीअल्लाहो अन्हू) को अलजिन्द पर मुकर्रर किया था की वोह वहाँ लोगों को क़ुरआन और इस्लाम के अहकाम सिखाये और साथ ही इन्हे यमन के इलाक़े मे जो अम्माल (Aamils) मुकर्रर किये गये थे उन से सदक़ात वसूल करने की इजाज़त दी थी. सीरत इब्ने हिशाम मे ही रिवायत है की आप ने गज़वऐ ओहद जाते वक्त उम्मे मक्तूब को मदीना मे सलात का वाली मुकर्रर फरमाया था.”
(आगे जारी..........)
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