मदनी इस्लामी रियासत की दाख़्ली पॉलिसी - 30

मदनी इस्लामी रियासत की दाख़्ली पॉलिसी - 30
 
(The Internal Policy of First Islamic State) 

इस्लामी रियासत की दाख़िली पॉलिसी का हदफ़ इस्लामी अहकाम का निफ़ाज़ होता है और येह सब रियासत हमेशा उन इलाक़ों में जो उसके ताबेअ़ रहे इस्लामी अहकाम ही नाफ़िज़ करती रही। मुआमिलात को इस्लामी अहकाम के तेहत मुनज़्ज़म किया, हुदूद क़ायम कीं, उक़ूबात नाफ़िज़ कीं, आ़ला अख़्लाक़ का लोगों को पाबन्द बनाया और इबादात और दीगर शआइरे इस्लामी की पाबंदी को यक़ीनी बनाया और अ़वाम के तमाम मुआमिलात की निगेहदाश्त इस्लामी अहकाम ही से की। इस्लाम ने वोह तरीक़ा मुतअै़य्यन कर दिया है जिसकी रू से हर शख़्स के मुआमिलात इस्लामी अहकाम के तेहत तय किये जाते हैं जो इस्लामी इक्तिदार में हों, ख़्वाह वोह लोग मुसलमान हों या न हों। इस्लामी रियासत ने यही तरीक़ा इख़्तियार किया था क्योंके इस्लाम में जिस तरह मसाइल ओ मुआमिलात का हल हुक्मे शरई है इसी तरह उनके निफ़ाज़ का उसलूब भी हुक्मे शरई है। इस्लाम के मुख़ातिब तमाम मुसलमान हैं क्योंके अल्लाह जल जलालहू ने बनी नौअ़े इन्सान को सिर्फ़ इन्सान होने के वस्फ़ से मुख़ातिब किया हैः

يٰۤاَيُّهَا النَّاسُ اعۡبُدُوۡا رَبَّڪمُ الَّذِىۡ خَلَقَڪُمۡ وَالَّذِيۡنَ مِنۡ قَبۡلِڪُمۡ لَعَلَّڪُمۡ تَتَّقُوۡنَ ۙ‏

एै लोगो, अपने उस रब की इ़बादत करो जिसने तुम्हें और तुमसे पहले के लोगों को पैदा किया, यही तुम्हारा बचाव है, (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरह बकराःआयतः21)
 يٰۤاَيُّهَا الۡاِنۡسَانُ مَا غَرَّكَ بِرَبِّكَ الۡڪَرِيۡمِۙ‏ ﴿۶﴾
एै इन्सान, तुझे अपने रब्बे करीम से किस चीज़ ने बहकाया? (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः इन्फ़ितारः आयतः6)
उसूले फ़िक़ा के अइम्मा किराम, रहिमहुमुल्लाह के नज़्दीक शरीअ़त के अहकाम का मुख़ातिब हर आक़िल शख़्स है ख़्वाह वोह मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम, हज़रत इमाम ग़ज़ाली रहमतुल्लाहे तआला अ़लैह अपनी किताब ’अल मुस्तसफ़ा फ़ी इल्मिल उसूल’ में लिखते हैः
महकूम अलैह (रिआया का कोई भी फ़र्द) मुकल्लफ़ है बा शर्तेके वोह इतनी अ़क़्ल रख्ता हो के खि़ताब को समझे.......जो चीज़ किसी इन्सान को अहकामे शरईआ पर अ़मल पैरा होने का मुकल्लफ़ बनाती है, वोह उसका मेहज़ इन्सान होना है जिसके बाइस उसमें वोह अ़क़्ल है जिसके ज़रिये वोह अल्लाह तआला के अहकाम के इदराक करता है।
लिहाज़ा इस्लाम के मुख़ातिब तमाम बनी आदम हैं और येह ख़िताब उनके लिये एक पुकार भी है और अ़मल के लिये उन्हें मुकल्लफ़ भी करती है। ख़िताब का पुकार होने से मुराद लोगों को इस्लाम कु़बूल करलेने की दावत से है जबके ख़िताब का अ़मल के लिये मुकल्लफ़ बनाने से मक़्सूद लोगों को इस्लाम के अहकाम का पाबंद करने से है। येह बात तमाम इन्सानों के लिये ब एैतेबार इन्सान है, रही बात उन लोगों की जो इस्लामी रियासत के ताबे हों यानी उसके शहरी हों तो इस्लाम उन्हें एक एैसी जमाअ़त की हैसिय्यत से देखता है जिस पर उसके अहकाम नाफ़िज़ हो रहे हों, उसमें उन लोगों की क़ौमिय्यत या नस्ल की कोई अहमियत नहीं, जेरे नज़र सिर्फ़ येह है के वोह रियासत के शहरी हों यानी रियासत का हिस्सा और उसके क़ानून के ताबे हों। इस रियासत में किसी फिरके के अक़ल्लियत होने का कोई तसव्वुर नहीं होता बल्के मेहज़ इन्सान होने के एैतेबार से रियासत की रिआया होता है, जब तक के उसके ताबे रहे, लिहाज़ा जो कोई इस रियासत का ताबे होता है क़त्अे नज़र इससे के वोह मुस्लिम है या ग़ैर मुस्लिम, उसके हुक़ूक़ वही होते हैं जो शरीअ़त ने तय किये हैं मसलन एक मुस्लिम शख़्स है जो इस रियासत का शहरी है, उसकी वालिदा ईसाई और रियासत की शहरी हो और उस शख़्स का वालिद मुसलमान लेकिन रियासत का शहरी न हो, एैसी हालत में वोह ईसाई वालिदा बेटे की तरफ़ से नफ़्क़ा पाने की हक़्दार होगी जबके वालिद को नफ्क़े का हक़ नहीं होगा। अगर माँ नफ़्क़े का मुतालिबा करती है तो क़ाज़ी उसके हक़ में फ़ैसला देगा क्योंके वोह अपने बेटे की तरह रियासते इस्लामी की शहरी है जबके उसके वालिद की जानिब से नफ़्के की दरख़्वास्त को क़ाज़ी इस बिना पर मुस्तरद करदेगा के वोह रियासत का शहरी नहीं है। यहाँ क़ाज़ी के फ़ैसले में येह बात मलहूज़ है के जो जमाअ़त अहकामे इस्लाम का ताबे है वोह रियासत के शहरी हैं, लिहाज़ा अ़वाम की रियासते इस्लाम से ताबेदारी का वस्फ़ उन्हें एक जमाअ़त का हिस्सा बनाती है जो दारूल इस्लाम के शहरी होते हैं और जिनके मुआमिलात इस्लाम के अहकाम के तेहत मुनज़्जम किये जाते हैं।

रिआया के मुआमिलात की निगहदाश्त और उन पर हुकूमत करने के लिहाज़ से रियासते इस्लामी का येह मौक़िफ़ होता है, रही बात इस्लाम के अहकाम के लिहाज़ से रियासत का मौक़िफ़ की तो यह तश्रीई़ या क़ानूनी ज़ाविया से होता है न के रूहानी नुक़्त-ए-नज़र से, क्योंके इस्लाम उस नज़ाम को जो अ़वाम पर नाफ़िज़ हो रहा हो, तश्रीई या क़ानूनी नज़रिये से देखता है न के मज़हबी या रूहानी एैतेबार से, ब अल्फ़ाजे़ दीगर हुकूूूमत एक तश्रीई मुआमिला है न के रूहानी मुआमिला, क्योंके नुसूसे शरअ़ मसाइल के हल करने की गर्ज़ से नाज़िल हुये हैं और शारेअ़ (अल्लाह जल्ला जलालुहू) का मन्शा येह है के उसके नाज़िल करदा नुसूस के मआनी का इत्तिबा किया जाय न के मेहज़ नुसूस के अल्फ़ाज़ पर वकू़फ़ कर लिया जाये। लिहाज़ा अहकाम के इस्तिंबात में हुक्म की इल्लत क़ाबिले लिहाज़ होती है, यानी नुसूस से अहकाम अख़्ज़ करने में उन्के तशरीई पहलू जे़रे गा़ैर होते हैं।

ख़लीफ़ा जब एैसे माख़ूज़ अहकाम नाफिज़ करे तो यह क़ानून बन जाते हैं जिनका नाफ़िज़ किया जाना वाजिब हो जाता है, इससे येह साबित होता है के रियासते इस्लामी के हर शहरी पर अहकाम की ताबेदारी मुत्लक़ और क़त्ई मुआमिला है। पस जो लोग इस अ़क़ीदे के मानने वाले यानी मुसलमान होंगे, वोह अपने इस एैतिक़ाद के बाइस इन अहकाम के पाबंद होंगे क्योंके अ़क़ीदे को मानलेने का मतलब उससे मुस्तंबत हर हुक्म को मानना होता है और एक मुसलमान का अ़क़ीदा उसे इस अ़क़ीदे से माख़ूज़ हर हुक्म का हतमी और क़तई तौर से पाबंद बनाता है और एक मुसलमान के लिये इस्लाम एक एैसी शरीअ़त है जिस में क़ानून साज़ी शामिल है, यानी एैसा दीन जिस से क़ानून भी बरआमद होते हैं। मुसलमान इस बात के पाबंद हैं के वोह इस्लाम के तमाम अहकाम का इत्तेबाअ़ करें, ख़्वाह येह अहकाम मुसलमानों के अल्लाह तआला से तअ़ल्लुक़ के एैतेबार से हों यानी इबादात, या अपनी ज़ात से मुतअल्लिक़ हों जैसे अख़्लाक़ और मतऊ़मात (ग़िज़ा) या दूसरे इन्सानों से रिश्तों से मुतअ़ल्लिक़ हों जिनमें मुआमिलात और उ़क़ूबात (सजाएैं-च्मदंस स्ंूे)। तमाम मुसलमान किताबुल्लाह और सुन्नते रसूल (صلى الله عليه وسلم)पर जा ेके अदिल्ला-ए-शरईया के माख़िज़ हैं, नीज़ शरई क़वाइद और अहकामे शरईआ पर मुकम्मल तौर से मुत्तफ़क़ हैं और कोई भी इन से ज़रा भी इख़्तिलाफ़ नहीं रखता- अल्बतता इज्तिहाद के हुक्म के बाइस मुसलमानों में किताबुल्लाह और सुन्नते रसूल (صلى الله عليه وسلم)का फ़ेहम ओ तसव्वुर मुख़्तलिफ़़ है- कुऱ्आन ओ सुन्नत के फे़हम में इस इख़्तिलाफ़ के सबब मुख़्तलिफ़़ मज़ाहिब (मस्लक) और फ़िरके़ उभरे, क्योंके ख़ुद इस्लाम ही ने मुसलमानों को इज्तिहाद का तरीक़ा बताया ताके वोह अहकाम मुस्तंबत कर सकें। इस तरह सोच में फ़र्क़ के बाइस अ़क़ीदे से मुतअ़ल्लिक़ अफ़्कार ओ आरा में और अहकाम के इस्तंबात में और ख़ुद अहकाम में इख़्तिलाफ़ पैदा हुआ और मुतअ़द्द फ़िरके़ और मज़ाहिब वुजूद में आए। हुजू़र अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने ख़ुद मुसलमानों को इज्तिहाद की तरफ़ राग़िब फ़रमाया और यह वाज़ेह कर दिया के हाकिम जब इज्तिहाद करे और उस से ख़ता सरज़द हो जाये तो उसे एक अज्र मिलता है और अगर उसका इज्तिहाद सही होतो दो अज्र।

इस तरह इस्लाम ने इज्तिहाद का बाब खोल दिया, लिहाज़ा येह कोई तअ़ज्जुब की बात नहीं के मुख़्तलिफ़़ फ़िरके़ जैसे अहलुस्-सुन्ना, शीआ और मोअ़तज़िला उभरे, इसी तरह मुतअद्दि मज़ाहिब का उभरना जैसे शाफ़ई, मालिकी, हनफ़ी, हंबली, ज़ैदी और जाफ़री मजा़हिब भी कोई हैरत की बात नहीं थी। यह तमाम मज़ाहिब और फ़िरक़े एक ही अ़क़ीद-ए-इस्लामी को मानने वाले थे, येह तमाम मज़ाहिब ओ फ़िरके़ अल्लाह तआला के अवामिर के इत्तेबाअ़, नवाही से इज्तिनाब के मुख़ातिब हैं और अहकामे शरई को मानने के पाबंद हैं न के अपने मज़हिब के, क्योंके दर हक़ीक़त मज़हब या मस्लक किसी शरई हुक्म का एक मख़्सूस फे़हम है जिसकी एक एैसा शख़्स तक़्लीद करता है जो बज़ाते ख़ुद मुज्तहिद नहीं है ,क्योंके वोह इज्तिहाद की इस्तिताअ़त नहीं रखता। एक मुसलमान शरई हुक्म का पाबंद होता है न के मख़्सूस मस्लक का, अगर एक शख़्स मुज्तहिद हो तो वोह उस हुक्म को अपने इज्तिहाद से अख़्ज़ करता है, वरना इत्तिबा और तकलीद से।
हर वोह फ़िरक़ा और मस्लक जो अ़क़ीदा-ए-इस्लाम को मानता है, किताबुल्लाह और सुन्नते रसूल (صلى الله عليه وسلم)पर यक़ीन रखता है और इस बात पर यक़ीन रखता है के किताबुल्लाह और सुन्नते रसूल ही अदिल्ला-ए-शरइऱ्आ, क़वाइदे शरईआ और अहकामे शरईआ के माख़िज़ ओ मस्दर हैं, एैसा हर फ़िरक़ा और मस्लक मुसलिम है और उन पर अहकामे इस्लाम ही नाफ़िज़ किये जायेंगें। रियासते इस्लाम पर यह लाज़िम है हे वोह एैसे फ़िरक़ों और मस्लकों से एैराज़ न करे जब तक के वोह अ़क़ीदा-ए-इस्लाम के पाबंद रहें। अल्बतता अगर कोई शख़्स या कोई फ़िरक़ा अ़क़ीद-ए-इस्लाम से ख़ुरूज करता है तो येह इरतेदाद माना जायेगा और उन अफ़्राद या जमाअ़तौं पर मुर्तददीन के अहकाम का इत्लाक़ होगा। तमाम मुसलमान अहकामे इस्लाम ही के पाबंद होंगे और उन पर यही नाफ़िज़ होंगे, जैसे चोर के हाथ काटना, सूद का हराम होना, ज़कात का फ़र्ज़ होना, पाचँ वक़्त नमाजों का फ़र्ज़ होना वगै़रह जो क़त्ई हैं और जिन में सिर्फ़ एक ही राये है। येह तमाम मुसलमानों पर नाफ़िज़ किये जायेंगे।
इसके अ़लावा बाज़ एैसे अहकाम और अफ़्कार हैं जिनके बारेमें मुसलमानों के फे़हम में फ़र्क़ है और हर मुज्तहिद की राये दूसरे मुज्तहिद से जुदा है, मिसाल के तौर पर ख़लीफ़ा की सिफ़ात, ख़राज की ज़मीन पर उशर का मुआमिला, ज़मीन पर किराया वग़ैरह एैसे मुआमिलात में ख़लीफ़ा तबन्नी करेगा जिसका इत्तिबा का हर शख़्स पाबंद होगा। इस वक़्त जिस शख़्स की राये ख़लीफा़ की तबन्नी से मुख़्तलिफ़़ हो वोह इस बात का पाबंद है के अपनी राये र्तक करके सिर्फ़ ख़लीफ़ा ही की राय का इत्तिबा करे, क्योके इमाम का हुक्म इख़्तिलाफ़ का इज़ाला करता है और इमाम की इताअ़त वाजिब होती है और मुसलमानों पर येह फ़र्ज़ है के वोह ख़लीफ़ा के तबन्नी किये हुये अहकाम ज़ाहिरी और बातिनी तौर पर  अ़लल एैलान और ख़ुफ़िया तौर पर नाफ़िज़ करें। इस के बरख़िलाफ़ जो कोई ख़लीफ़ा के तबन्नी किये हुक्म शरई के अ़लावा किसी और शरई हुक्म कोे नाफ़िज़ करे या उसका हुक्म दे, वोह गुनाहगार होगा। इसका सबब येह है के ख़लीफ़ा जिस हुक्म को तबन्नी या इख़्तियार कर लेता है वोह एक मुसलमान के लिये हुक्म शरई की हैसिय्यत तसव्वुर किया जाता है और इसके अ़लावा हुक्म मुसलमान के लिये हुक्म शरई नहीं क्योंके एक मुआमिले में एक मुसलमान के लिये हुक्म शरई एक ही हो सकता है।

ख़लीफ़ा अल्बतता अ़क़ाइद के बाब में तबन्नी नहीं करता क्योंके इससे मुसलमानो के अ़क़ाइद में ख़लल या हरज का अनदेशा हो सकता है। लेकिन अगर लोगों के अ़क़ाइद उनकी ख़्वाहिशात के ताबेअ़ होने लगीं और वोह दीन में नईं नई बातें शामिल करके बिदआत में मुलव्विस हो जायें तो हुकूमत उन्की न सिर्फ़ सरजनिश करेगी बल्के मुनासिब क़वानीन के तेहत उनपर रोक भी लगाई जाएगी, और अगर एैसे अ़क़ाइद उसके हामिल को कुफ्ऱ तक ले जाते हों तो एैसी सूरत में उनसे मुआमिला मुर्तददीन का मुआमिला होगा। इसी तरह ख़लीफ़ा ज़कात के अ़लावा इबादात के मुआमिलात में भी अहकाम तबन्नी नहीं करता क्योंके इससे भी मुसलमानों के मुआमिलात में हरज होगा-लिहाज़ा जब तक लोगों के अ़क़ाइद इस्लामी हैं, ख़लीफ़ा इस बाब में कोई मुअय्यिन हुक्म तबन्नी नहीं करता और न ही सिवाय ज़कात, जिहाद और ईदैन मतुअय्यिन करने के, इबादात के बाब में मख़सूस हुक्म तबन्नी करता है जब तक के अहकामे शरईआ के मुताबिक़ रहते हैं। इन इसतिस्नाआत के मासिवा ख़लीफ़ा हर मुआमिले में अहकाम तबन्नी करता है जैसे ख़रीद ओ फ़रोख़्त, किरायेदारी, निकाह ओ तलाक़, नान ओ नफ़क़ा, कंपनी साजी़ ओ किफ़ालत और उ़क़ूबात में हुदूद ओ ताज़ीरात (Penal Code) नीज़ मत्ऊ़मात, (अश्या-ए-ख़ुरदनी) मल्बूसात (लिबास) अख़्लाक़ियात वग़ैरह और मुसलमान पर उन तबन्नी शुदा अहकाम की इताअ़त फ़र्ज़ होती है।
ख़लीफ़ा की येह ज़िम्मादारी है के वोह इबादात नाफ़िज़ करे, चुनाँचे नमाज़ और रमज़ान के रोज़े तर्क करने वाले को सज़ा होगी और इसी तरह तमाम इबादात के अहकाम नाफ़िज़ किये जायेंगे जैसे इबादात के अ़लावा दीगर अहकाम नाफ़िज़ होते हैं क्यांेेके उनका नाफ़िज़ करना हुकूमते इस्लामी का फ़र्ज़ है। वाजे़ह है के मसलन नमाज़ की र्फ़ज़ीयत किसी इज्तिहाद का मौजू़ नहीं और न ही इबादात के अहकाम तबन्नी करना है बल्के इबादात के वोह अहकाम जो तमाम मुसलमानों के लिये क़त्ई हैं, उन्हें नाफ़िज़ करना है। जिस तरह दीगर अहकाम पर उ़क़ूबात होती हैं, इबादात के तर्क करने पर उक़ूबात (सज़ा) एक शरई मुआमिला है जिस पर अ़मल करने के अ़वाम पाबंद होते हैं, यह मुआमिला तो हुआ मुसलमानों के साथ, अब जो दूसरे शहरी हों जिनका अ़क़ीदा इस्लाम नहीं है उनकी मुख़्तलिफ़़ अक़्साम होती हैं जो मुनदरिजा जैल हैंः
1.    एैसे लोग जो किसी मुरतद की औलाद हों और उनकी पैदाइश बाप के इरितदाद के बाद हुई हो, इनके साथ गै़र मुस्लिम का मुआमिला होगा जो उनकी मौजूदा हालात की मुनासिबत से हो यानी अहले किताब या मुश्रिक की हैसिय्यत से।
2.    एैसे लोग जो मुसलिम होने का दावा करते होे लेकिन उनके अ़क़ाइद इस्लाम के खि़लाफ़ हों, इनका साथ मुरतदीन जैसा सुलूक किया जायेगा ।
3.    अहले किताब।
4.    मुश्रिकीन जो बुतों को पूजते हों मसलन हिन्दू और मजूस वग़ैरह, अहले किताब के अ़लावा बाक़ी ग़ैर मुसलिम।
आख़िरी की दोनों अक़्साम को उनके मख़सूस अ़क़ाइद और इबादात की छूट होगी, और उनके निकाह ओ तलाक़ के मुआमिलात उनके दीन के मुताबिक़ तय होंगे। उनके लिये रियासती अ़दालतों में उन्ही में से क़ाज़ी होगा जो उनके मुआमिलात के फ़ैसले करेगा, उनकी ग़िजा और लिबास से मुतअ़ल्लिक़ मुआमिलात उन्ही के दीन के मुताबिक़ शरीअ़त के दायरे में तय होंगे। हुजू़र अकरम (صلى الله عليه وسلم) के फ़रमान के ब मौजिब अहले किताब के अ़लावा वोह दूसरों के साथ मुआमिलात भी अहले किताब ही की तरह होंगे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने मजूस के बारे में फ़रमायाः
سنوا بهم سُنَّة أهل الكتاب
उनके साथ वही मुआमिला करो जो अहले किताब के साथ होता है।
मुआमिलात और उ़क़ूबात का इतलाक़ मुस्लिम और ग़ैर मुस्लिम सब के लिये यकसाँ होगा। जिस तरह ताज़ीरात का इतलाक़ ग़ैर मुस्लिमों पर होगा उसी तरह मुसलमान भी उन्हीं ताज़ीरात के पाबंद होंगे, तमाम सज़ाओं और क़वानीन का इतलाक़ मुसलमान और गै़र मुस्लिम पर बग़ैर किसी तफ़्रीके़ मिल्लत या मज़हब के यकसाँ तौर पर किया जायेगा क्योंके हर वोह शख़्स जो रियासत का शहरी हो ख़्वाह उसका अ़क़ीदा कुछ भी हो वोह मुआमिलात और उ़क़ूबात में शरीअ़त-ए-इस्लामी का मुखातिब होता है और उनके इत्तिबाअ़ उस पर लाज़िम होता है, जो के शरीअ़ते इस्लामी की रू से एक क़ानूनी मुआमिला है न के रूहानी। लेकिन एैेतेकाद के मुआमिले में कोई जब्र नहीं होता, अल्लाह जल्ला जलालुहू का फ़रमान हैः
لَاۤ اِڪۡرَاهَ فِى الدِّيۡنِ‌ۙ
दीन के बारे में कोई ज़बरदस्ती नहीं, (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः बकराः आयतः 256)
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم)ने अहले किताब को उनके दीन में जब्र या सताने से मना फ़रमाया है, अल्बतात शरई अहकाम की पाबंदी हुकूमत पर फ़र्ज़ है चुनाँचे उनकी क़ानूनी हैसिय्यत से इताअ़त हर एक पर वाजिब होगी।
मुख़्तसरन यह के रियासत ए इसलामी की दाख़्लिा पॉलिसी यह है के षरीअ़त के अहकाम हर एक पर जो इस रियासत का षहरी हो, नाफ़िज़ किये जाएं ख़्वाह वोह मुस्लिम हो या गै़र मुस्लिम। षरअ़ी क़वानीन के निफ़ाज़ की षक्ल इस तरह होती हैः
अलिफ़     - मुसलमानों पर इस्लाम के तमाम क़वानीन ओ अहकाम नाफ़िज़ किये जायेंगे।
बा     - गै़र मुस्लिम अपने अ़क़ीदे और इबादात में आज़ाद होंगे।
जीम     - गै़र मुस्लिमों के मतऊ़मात ओ मल्बूसात के मुआमिलात उनके दीन के मुताबिक़ निज़ामे आ़म के दायेरे के ज़िम्न में आयेंगे।
दाल    - ग़ैर मुस्लिमों के निकाह ओ तलाक़ के मुआमिलात उनके क़ाज़ी उनके दीन के मुताबिक़ रियासती अ़दालतों में तय करेंगे न के उनकी किसी अ़दालत में। इस किस्म के मुआमिलात में अगर मुसलमान शामिल हों तो येह मुआमिलात शरीअ़ते इस्लामी के तेहत होंगे।
हा     - हुकूमत षरीअ़त ए इसलामी के बाक़ तमाम अहकामात जिन में मुआमिलात ओ उ़क़ूबात, निज़ामें हुकूमत ओ निज़ाम इक्ति़साद शामिल हैं पूरी तरह हर फ़र्द पर नाफ़िज़ करेगी। इस तन्फ़ीज़ में किसी के मुस्लिम या ग़ैर मुस्लिम होने का कोई दख़ल नहीं होगा।
व     - हर वोह शख़्स जो रियासते इस्लामी की शहरियत रखता हो, रियासत पर वाजिब होता है के वोह उसके हर मुआमिले की निगेहदाश्त करे ख़्वाह वोह मुस्लिम हो या ग़ैर मुस्लिम।

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इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

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