रियासते इस्लामी अल्लाह के रसूल की वफात के बाद - 29
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) की वफ़ात के बाद सहाबा ए किराम रज़ि0 का इज्माअ़ हुआ के आप (صلى الله عليه وسلم) के ख़लीफ़ा को मुन्तख़ब करके उस पर बैअ़त की जाये और वोह रियासत की सरबराही में हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) का जाँनशीन हो। उस शख़्स को ख़लीफ़ा, अमीरूलमुमेनीन, इमाम या सुलतान कहा गया और बेअ़त के बगै़र कोई भी ख़लीफ़ा नहीं बना, मुसलमान इसी तरह 1342 हि़0 मुताबिक़ 1924 ई़ तक रियासत का सरबराह मुंतख़ब करते रह। इस्लामी रियासत आख़री ख़लीफ़ा तक यानी अपने इख़्तिताम तक उसी तरह चलती रही के कोई भी शख़्स बेअ़त बग़ैर ख़लीफा़ नहीं बना, बेअ़त की नौइय्यत अलबत्ता मुख़्तलिफ़़ रही, किसी को बराहे रास्त बेअ़त दीगई, किसी ख़लीफ़ा ने दूसरे शख़्स को जो उसका अ़ज़ीज या रिश्तेदार न था नामज़द किया, बाज़ ने अपने अक़ारिब में से या अपने बेटे को नामज़द किया, बाज़ ने अपने अक़ारिब में से एक से ज़्यादा को नामज़द किया। लेकिन कोई भी मेहज़ एैसी नामज़दगी भरसे ख़लीफ़ा नहीं बना, मनसब हासिल करते वक़्त बैअ़त लेकर ही उसकी खि़लाफ़त का इन्इक़ाद अ़मल में आता।
इसी तरह बैअ़त हासिल करने का तरीक़ा-ए-कार अलग अलग रहाः कभी येह बैअ़त अहले हल ओ अक़्द से लीगई, कभी अ़वाम से और कभी ’शैख़ुल इस्लाम’ से’, बाअ़ज़ औक़ात इसका ग़लत इस्तेमाल भी हुआ, लेकिन बहर हाल मनसबे ख़िलाफ़त के लिये हमेशा बैअ़त का ही तरीक़ा अपनाया गया, मेहज़ वली अ़हदी से कोई ख़लीफ़ा नहीं बना, हर ख़लीफ़ा ने अपने मुआविनीन मुक़र्रर किये जिन्हें किसी किसी दौर में ’वज़ीर’ का नाम दिया गया। हर दौर में ख़लीफ़ा ने वाली, क़ाज़ी-उल कु़ज़ात और फा़ैज के क़ायेदीन और मुख़्तलिफ़़ मेहकमात के सरबराहान मुक़रर्र किये, और हर दौर में यही षक्ल क़ायम रही और उसमें किसी तग़य्युर के बग़ैर उस वक़्त तक चलती रही जब काफ़िर मुस्तअ़मरीन ने उ़स्मानी ख़िलाफ़त का ख़ात्मा करके आलमे इस्लामी को कई छोटे छोटे टुकडों में तक़्सीम कर दिया।
इस तवील तारीख़ में कई वाक़िआत रूनुमा हुये जो किसी बैरूनी असर के बाइस नहीं बल्के उस वक़्त के हालात पर इस्लामी समझ या फे़हम का नतीजा थ। हर एक ने मौजूदा हालात को अपने फ़ेहम ओ इदराक पर तसव्वुर किया, येह लोग मुजतहिद थे, जिन्होंने सूरते हाल से निमटने का तरीक़ा सूरते हाल के अपने फे़हम के मुताबिक़ समझा, यही वजह है के तनाजेअ़ या इख़्तिलाफ़ का मेहवर ख़लीफ़ा की ज़ात थी न के इख़्तिलाफ़ ख़िलाफ़त के मौज़ू पर हुआ हो। बल्के खि़लाफ़त तो फ़ी नफ़्सिही हमेशा बालाये इख़्तिलाफ़ रही, या इख़्तिलाफ़ की नौइय्यत येह रही के ख़लीफ़ा कौन हो, इस बात पर इख़़्ितलाफ़ नहीं हुआ के हुकूमत की षक्ल किया हो। मज़ीद येह इख़्तिलाफ़ जब भी हुआ हमेशा किसी फुरूई या तफ़्सीली मौज़ू पर हुआ, न के किसी उसूल पर या हैकल की नौईय्यत पर हो, मुसलमानों में इख़्तिलाफ़ कभी भी अल्लाह की किताब या सुन्नते रसूल सल्ल0 पर नहीं हुआ बल्के इन चीजो़ं पर उनका फ़ेहम ही मौज़ू ए इख़्तिलाफ़ रहा।
इसी तरह ख़लीफ़ा को मुक़र्रर करने पर कभी तनाज़िआ़ नहीं हुआ बल्के इस बात पर के ख़लीफ़ा कौन हो, और न ही इस्लाम के पूरे-पूरे निफ़ाज़ और सारे आलम में उसकी दावत कभी उम्मत में तनाज़िअ़ का मौज़ू बनी, हमेशा यही हुआ के इस्लाम को नाफ़िज ़किया गया और इस्लाम की दावत को आलम मे पहुंचाया गया। येह अलबत्ता हुआ के इस्लाम के निफ़ाज़ में बअ़ज़ औक़ात ग़लतियां र्हुइं जो कभी इस्लाम के हुक्म के ग़लत तसव्वुर के बाइस थीं तो कभी उन्से मक़्सूद ग़लत था, लेकिन जो चीज़ हमेशा नाफ़िज़ की गई वोह सिर्फ़ इस्लाम थी न के कुछ और। हर दौर में इस्लामी रियासत के दूसरे मुमालिक और इलाकों से तअल्लुक़ात के मेहवर इस्लाम और सारे आलम को उसकी दावत पहुंचाना ही रहे, यही वजह है के अन्दुरूनी इख़्तिलाफ़ात के बावजूद नई फ़ुतूहात होती रहीं और दावत पहुंचाई जाती रही, येह दोनों चीज़ें कभी अन्दुरूनी तनाज़िआत से मुतअस्सिर नहीं हुईं क्योंके येह अन्दुरूनी तनाजिआ़त का मौज़ू कभी थीं ही नहीं, और रियासते इस्लामी में नई फ़ुतूहात का सिलसिला इसी तरह ग्यिारहवीं सदी हिजरी मुताबिक़ सतरहवीं सदी ईसवी तक जारी रहा.
ईरान, हिन्दुस्तान, और कोहे क़ाज़ (Caucases) इन फ़ुतूहात में से थे और इस्लामी रियासत की सरहदें फैलती हुई चीन और रूस से होती हुई बहरे क़जवीन (Caspian Seaw) से जा मिलीं, शिमाल में शाम फ़तह हुआ, मग़रिब की जानिब मिस्र, मुकम्मल एलाक़ा-ए-शिमाली अफ़रीक़ा और अन्दुलुस यानी स्पैन फ़तह हुएै। इसी तरह अनातौलिया (तुर्की) बल्क़ान, (Balkans सरबिया, बोसनिया, वग़ैरह,) और योरोप के मशरिक़ी और जुनूबी हिस्सों से होता हुआ बहरे असवद (Black Sea) तक इहाता कर लिया जिसमें किरैम्या (Cremea) और यूकरैन (Ukrain) के जुनूबी हिस्से भी आ गये। इस्लामी फ़ौजी आगे बढ़ते हुये आस्टिृया (Austria) के पाया-ए-तख़्त विएन्ना (Vienna) के दरवाजौ़ं तक पहुंच गये थे मुसलमान फ़ौज कभी भी फ़ुतूहात से और दावत के पहुंचाने से ग़ाफ़िल नहीं रही, येह उसी वक़्त हुआ जक उस में इस्लाम के तअ़ल्लुक़ से कमज़ोरी आगई और इस्लाम के मफ़ाहीम ओ अफ़्कार उम्मत के ज़ेहनों में अपनी अस्ली षक्ल खो बैठे, इस्लाम का फ़हम उम्मत में इस क़दर कमज़ार हो गया के उसका निफ़ाज़ मुतअस्सिर होने लगा और मुख़ालिफ़ मब्दा के आरा ओ मफ़ाहीम को येह समझकर अपना लिया के येह इस्लामी फ़िक्र से मुख़्तलिफ़़ नहीं हैं, और यही सोच बिल-आख़िर रियासते इस्लाम की र्बबादी पर मुनतज हुई।
रियासते इस्लामी की तरक़्क़ी हमेशा मुसलमानों की फ़िक्री बुलंदी, तख़्लीक़ी महारत और इज्तिहाद के साथ हम क़दम रही, पहली सदी हिजरी में फ़ुतूहात बहुत फैलीं तो उम्मत में इज्तिहाद की सतह भी उतनी ही बुलंद थी और नएै इलाक़ों के नए मसाइल के लिये हल का इस्तिंबात उसी इज्तिहाद से हुआ, नएै मफ़्तूहा इलाका़ जैसे शाम, मिस्र, ईरान, हिन्दुस्तान, स्पैन, इराक़, और क़फ़्क़ाज़, में नएै मसाइल पर शरिअ़ते इस्लामी की तत्बीक़ उसी इज्तिहाद से हुई और इन इलाक़ों के लौग इस्लाम के साये में आते गये। यही इस्तंबात के सही होने, इज्तिहाद के वसी होने और मुसलमानों की ज़बरदस्त कु़व्वते तख़्लीक़ का सुबूत हैं, क्योंके इस्लाम एक ना क़ाबिले इंकार हक़ है और उसका सही फ़ेहम इस बात को मुम्किन और यक़ीनी बनाता है के लोग अहकाम के लिये इस्लाम से रुजूअ़ करें और उसके अहकाम की तालीम दे।
येह ख़साइस यानी मुसलमानों का फ़िक्री इम्तियाज़, उनकी कुव्वते तख़्लीक़ी और वसीअ़ इज्तिहाद पाचँवीं सदी हिजरी मुताबिक़ गियारहवीं सदी ईसवी तक मुसलमानों में रहे, और फिर तख़्लीक़ी कू़व्वत में जहाँ ज़ोअ़फ़ आया, वहीं इज्तिहाद में कमजा़ेरी आई और उसका असर रियासते इस्लामी के वजूद पर पड़ने लगा। फिर सलीबी जंगों का आग़ाज़ हुआ, मुसलमान इन जंगों में घिरे रहे जो बिल आख़िर मुसलमानों की फ़तह पर ख़त्म हुईं और ममलूक बादशाहों का दौर आया। ममलूक सलातीन तो एक तरफ़ तो इज्तिहाद की इस्तिताअ़त नहीं रखते थे और दूसरी तरफ़ उन्होंने इस्लामी मफ़ाहीम पर भी तवज्जोह नहीं दी, जिसके बाइस रियासते इस्लामी पहले फ़िक्री तनज़्जुल की शिकार हुई और फिर सियासी तदब्बुर का फु़क़दान आया। फिर तातारियो का हमला हुआ जिन्होंने बेशुमार कुतुब नहरे दज्ला (ज्पहतपे) में बहा डालींे और इस तरह उम्मत के तेहज़ीबी ज़ख़ीरे को ताराज कर दिया। इज्तिहाद का फ़ुक़दान दर हक़ीक़त इसी फ़िक्री बुलंदी के ख़ात्में का नतीजा था। अब नएै मसाइल के हल के लिये फ़िक्री बहस की जगह सिर्फ़़ फ़तावा जारी करने तक सिमट कर रह गई और नुसूसे शरईया की तावीलें होने लगीं और यहीं फ़िक्री पस्ती की षक्ल में वाज़ेह थी।
इसके बाद उ़स्मानी खि़लाफ़त आई और उन्होंने एक बड़ी फ़ौजी ताक़त बनाकर इस्तम्बौल और बल्का़न को फ़तह किया और यूरौप में भी बड़ी फ़तह हासिल की, जिस से येह रियासत दुनिया की सब से बड़ी रियासत और क़ुव्वत बन गई लेकिन फ़िक्री बुलंदी का फिर भी वही फ़ुक़्दान बर क़रार रहा। इस फ़ौजी तरक्क़ी की बुनियाद किसी किस्म की फ़िक्री बुलंदी नहीं थी, लिहाज़ा येह फ़ौजी बुलंदी मांद पड़ती गई यहाँ तक के उसका इख़्तिताम होगया, अलबत्ता रियासत अब भी इस्लाम पर ही क़ायम थी और इसी की दावत दे रही थी, यही वजह है के लाखौं की तादाद में लोग इस्लाम की तरफ़ माइल हुये और आज भी वोह मुसलमान ही हैं।
वाक़िआ येह था के इस्लाम के फ़ेहम के मुख़्तलिफ़़ नज़रियात, ख़लीफ़ा का नज़ामे हुकूमत के लिये अहकाम का तबनी न करना गो के बाज़ मआशी नौईय्यत के अहकाम तबनी किये गये, उनकी वजह से बाज़ हुक्काम और वालीयान पर मनफ़ी असर पड़ा और रियासत की वहदत और क़ुव्वत मजरूह हुई। बहरहाल उसका वजूद बर करार रहा, वालियों को विलायते आममा का दिये जाने और वसीअ़ इख़्तियारात उन्के हवाले करने से वालियों में ख़ुद मुख़्तारी के जज़्बे उभरने लगे, अब इन वालियों की हैसिय्यत क़रीब क़रीब आज़ाद सुलतानों के मानिंद होगई थी जो ख़लीफ़ा को मेहज़ बैअ़त देने पर इक्तिफ़ा करते थे, या मिम्बरों पर उनके नाम से दुआ करवाते या फिर उनके नाम के सिक्के ढल्वाये जाते वगै़रह, जबके अस्ल हुकूमत ओ फ़रमांरवाई इन्ही के हाथों में रहती, इन इलाक़ौं की हैसिय्यत ख़ुद मुख़्तार मुमालिक जैसी हो गई, हमदानी और सलजूकी रियासतें उसकी मिसाल हैं।
येह भी नहीं कहा जा सकता के सिर्फ़ आ़म विलायत देने से रियासत की वहदत मजरूह हुई। अ़म्र इब्नल आ़स की मिस्र में विलायते आममा थी और मुआविया इब्ने अबू सुफ़्यान की शाम में ़जबके यह दोनों इलाके रियासत से अ़लाहिदा नहीं हुये, हक़ीक़तन हुआ येह के जब ख़ुलफा़ ख़ु़द कमज़ोर हुये और उन्होंने इस सूरते हाल को क़ुबूल कर लिया तो एैसी हालत में रियासत की वहदत पर ज़र्ब पड़ी, इस सब के बावजूद रियासत हमेशा एक ही रही ख़लीफ़ा ही वालियों की तक़रुर्र करते रहे और कभी भी किसी ख़लीफ़ा को तस्लीम करने से इन्कार नहीं किया गया ख़्वाह कोई वाली कितना ही बाअसर और मज़बूत क्यों न रहा हो, न ही रियासते इस्लामी किसी भी दौर में मुख़्तलिफ़़ विलायत का एक विफाक़ या इत्तिहाद रहा, हत्ता के जिस वक़्त वालियों की ख़ुद मुख़्तारी अपने उ़रूज पर थी, उस वक़्त भी ख़लीफ़ा ही के पास हमा क़िस्म के इख़्तियारात थे, ख़्वाह वोह मरकज़ के हों, विलायात से मुतअि़ल्लक़ हों, शहरों या कस्बों की बात हो, या गावों का मुआमिला हो।
स्पैन की खि़लाफ़त और मिस्र में फ़ात्मी खि़लाफ़त का मुआमिला वालियो के मुआमिले से मुख़्तलिफ़़ नौईय्यत का रहा, स्पैन के वालियों ने ख़ु़द मुख़्तार ख़िलाफ़त का एैलान किया और ख़लीफ़ा पर बैअ़त नहीं की, बाद अज़ाँ वोह सिर्फ़़ स्पैन के लोगों का ख़लीफ़ा केहलाया गया न के तमाम मुसलमानों का, मुसलमानों का ख़़लीफ़ा एक ही रहा जिसके पास हुकूमत थी, स्पैन की हैसिय्यत हमेशा एक एैसी विलायत की रही जो ख़लीफ़ा के दायरे से बाहर थी, यही सूरतेहाल उ़स्मानी खि़लाफ़त के दौरान ईरान की भी रही, यहाँ ख़लीफ़ा की फ़रमांरवाई नहीं थी और ईरान ख़िलाफ़ते उ़समानी से बाहर एक आज़ाद एक आज़ाद विलायत तसव्वुर की जाती थी, मिस्र की फ़ातिमी विलायत की बिना इस्माईली फ़िरके़ ने डाली थी जो एक काफ़िर फ़िरक़ा है जिनके अफ़्आल का कोई एैतेबार नहीं है। फ़ातिमी विलायत को न तो इस्लामी रियासत तस्लीम किया गया और न ही ख़िलाफ़त, यहाँ तक के अ़ब्बासी ख़िलाफ़त होते हुये फ़ात्मी विलायत के वुजूद को एक से ज़्यादा ख़िलाफ़त होने पर भी ताबीर नहीं किया गया क्योंके येह कोई शरई ख़िलाफ़त थी ही नहीं।
फ़ातिमी हुकूमत की हैसिय्यत हमेशा यों गरदानी गई के यह काफ़िर फ़िरके की बातिल कोशिश थी के वोह रियासते इस्लामी को अपने हाथ में लेकर उसमें अपने बातिल नज़रिय्यात से हुकूमत करे। लिहाज़ा रियासते इस्लामी एक ही रियासत रही जो मेहज़ अज्ज़ा का मजमूआ नहीं थी बल्के एक मुत्तहिदा हैय्यत थी, इस किस्म की कोश्शिें रियासत को एक मख़्सूस नजि़्रया में ढालने की थीं, लेकिन इनसब के बावजूद रियासते इस्लामी एक मुवह्हिद हैसिय्यत से रही और उसका बएक वक़्त एक ही ख़लीफ़ा रहा। इसबात की एक और दलील के रियासते इस्लाम एक ही रियासत रही येह हक़ीक़त है के एक मुसलमान पूरी तरह आज़ाद था के वोह दुनिया के मश्रिक़ी हिस्से से मग़रबी कोने तक बिला किसी रोक टोक आजा सकता था और कोई उसके मक़ाम के बारे मे पूछता था न ही उसे उस नक्ले मक़ानी के लिये किसी की इजाज़त दरकार थी क्योंके वोह बहरहाल एक ही इस्लामी रियासत के एक हिस्से से दूसरे हिस्से मुन्तक़िल हो रहा होता था। इस तरह इस इस्लामी रियासत ने तमाम मुसलमानों को एक मुत्तहिदा वहदत में जोड़ रखा था, येह रियासत बाज़ दौर में बहुत क़वी भी रही, लेकिन 1924 ई. में काफ़िर सामराज ने उस इस्लामी रियासत को ब एैतेबार एक इस्लामी हुकूमत के अपने मोहरे कमाल पाशा अतार्तुक के हाथों नीस्त ओ नाबूद कर दिया।
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