मदनी इस्लामी रियासत की सियासते खा़रिजा - 31
(The Foreign Policy of first Islamic State/मदनी इस्लामी राज्य की विदेश नीति)
रियासते इस्लामी की ख़रिजा सियासत दुनिया के दीगर मुमालिक ओ अक़्वाम से उसके तअ़ल्लुक़ात का नाम है, उम्मत का वोह हिस्सा जो बैरूने रियासत हो उसके उमूर ओ मुआमिलात की देख भाल करना है। इस्लामी रियासत की ख़रिजा पॉलिसी एक मुस्तहकम और दाइमी नरिज़ये पर मब्नी है जिसमें कोई तब्दीली नहीं आती, इसका मक़्सद आलम के हर मुल्क और हर क़ौम में इस्लाम की दावत का नश्र करना है, और इस्लामी रियासत की ख़रिजा पॉलिसी इसी बुनियाद पर क़ायम होती है और यह बुनियाद कभी तब्दील नहीं होती ख़्वाह हुकूमत करने वाले अशख़ास में कितनी भी तबदीली आती रहे। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के मदीना मुनव्वरा में रियासते इस्लामी क़ायम करने से ख़िलाफ़ते उ़स्मानी जो के आख़री ख़िलाफ़त थी के, इख़्तिताम तक यही पॉलिसी जारी रही और इस में कोई रद्दो बदल नहीं हुआ। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने जब मदीना में रियासत क़ायम की तो उस वक़्त भी बैरूनी दुनिया से तअ़ल्लुक़ात की यही बुनियाद थी के इस्लाम की दावत को सारे आलम में फैलाया जाये, आप (صلى الله عليه وسلم) ने यहूद से मुआहिदा इस ग़र्ज़ से किया के उनकी जानिब से फ़ारिग़ हो सके और हिजाज़ में दावत के काम पर तवज्जोह की जाये, फिर क़ुरैश से हुदैबिया में इसलिये सुलह की के हिजाज़ से बाहर सारे जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब में इस्लाम की दावत दी जासके। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने अ़रब के अंदर और बाहर बादशाहों को इस्लाम की दावत देने के लिये ख़ुुतूत लिखे के वोह इस्लाम की इताअ़त और ताबेदारी कु़बूल करलें।
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ु़लफ़ा-ए-राशिदीन ने भी बैरूनी दुनिया से इसी बुनियाद पर रिश्ते बनाये के इस्लाम की दावत को फ़रोग़ हो, नईं फ़ुतूहात करने और दावते इस्लाम के नष्र करने में हाकिम एक दूसरे से मुख़्तलिफ़़ रहे, मसलन उमवी ख़ु़लफ़ा ने फ़ुतूहात और नश्र ए दावत में अ़ब्बासी ख़ुलफ़ा से बढ़ चड़ कर कामयाबी हासिल की और उ़स्मानी ख़ुलाफ़ा ने मम्लूक ख़ुुलफ़ा पर इस मुआ़िमले में सबक़त हासिल की। इन कामयाबियों में जो फ़र्क़ रहा वोह दर हक़ीक़त इस वजह से हुआ के किस हाकिम के लिये फ़तूहात की क्या तरजीहात थीं, लेकिन इस से क़तअ़ नज़र, हर हाकिम के लिये बैरूनी मुमालिक से तअ़ल्लुक़ात की बुनियाद, हमेशा नश्र ए दावत ही रही और इस मुआमिले में हर ख़लीफ़ा का नुक़्ता-ए-नज़र एक ही रहा, क्योंके रियासते इस्लामी का वजूद ही इस ग़र्ज़ से होता है के इस्लाम को दाख़िली तौर पर मुकम्मल नाफ़िज़ किया जाये और ख़रिजी तौर उसकी दावत सारे आलम तक पहुंचाई जाये, लिहाज़ा इस्लामी रियासत का ख़रिजी नस्बुलएैन (डपेेपवद) दावते इस्लामी का सारे आलम में पहुंचाना है। इस नस्बुलएैन की बुनियाद फ़िल हक़ीक़त हुजू़र अक़्दस सल्ल0 का तमाम इन्सान के लिये मब्ऊ़स होना है, अल्लाह जल्ला जलालुहू ने फ़रमायाः
وَمَاۤ اَرۡسَلۡنٰكَ اِلَّا كَآفَّةً لِّلنَّاسِ بَشِيۡرًا وَّنَذِيۡرًا
हमने आप (صلى الله عليه وسلم) को तमाम लोगों के लिये ख़ुश्ख़बरियां सुनाने वाला और धमकाने देने वाला बनाकर भेजा है।
(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः सबाःआयतः28)
يٰۤاَيُّهَا النَّاسُ قَدۡ جَآءَتۡڪُمۡ مَّوۡعِظَةٌ مِّنۡ رَّبِّڪُمۡ
एै लोगो‘ तुमहारे पास तम्हारे रब की तरफ़ से एक एैसी चीज़ आई है जो नसीहत है (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरह यूनुसः आयतः57)
قُلْ يٰۤاَيُّهَا النَّاسُ اِنِّيْ رَسُوْلُ اللّٰهِ اِلَيْڪُمْ جَمِيْعَا
आप केहदीजएै के एै लोगो‘ में तुम सब की तरफ़ उस अल्लाह का भेजा हुआ हूं। (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह आराफ़ःआयतः158)
وَ اُوْحِيَ اِلَيَّ هٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَ ڪُمْ بِهٖ وَ مَنْۢ بَلَغَ١ؕ
और मेरे पास यह कुऱ्आन ब तौर वही के भेजा गया है ताके में इस कुऱ्आन के ज़रिये से तुमको और जिस जिसको यह कुऱ्आन पहुंचे उन सबको डराऊँ, (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह अनआमः आयतः19)
يٰۤاَيُّهَا الرَّسُوْلُ بَلِّغْ مَاۤ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ١ؕ وَ اِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهٗ١ؕ
एै रसूल जो कुछ भी आप की तरफ़ आप की रब की जानिब से नाज़िल किया गया है पहुंचा दीजये, अगर आप ने एैसा न किया तो आप ने अल्लाह की रिसालत अदा नहीं की, (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह मायदाः आयतः67ः)
हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह तआला के पैग़ाम की तबलीग़ मुतवातिर की और जब आप (صلى الله عليه وسلم) अपने रफ़ीक़े आला से जा मिले तो उस वक़्त तक आप (صلى الله عليه وسلم) इस काम में मश्गू़ल रहे, लिहाज़ा इस दावत की तबलीग़ आप (صلى الله عليه وسلم) से इस्तिमरारन साबित होती है, और बाद में मुसलमान भी उस पर क़ायम रहे और तब्लीग़े दीन जारी रही। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने हज्जतुल विदाअ़ के मौके़ पर फ़रमायाः
ليبلغ الشاهد الغائب فرب مبلغ أوعى من سامع
जो यहाँ मौजूद है, उस शख़्स तक पहुंचा दे जो मौजूद नहीं है, मुम्किन है वोह उस सुन्ने वाले से ज़्यादा हौश्मनद हो, आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
نصّر الله أمرءَاً سمع مقالتي فوعاها ثم أداها إلى من يسمعها
अल्लाह जल्ला जललाहू उसको कामयाब फ़रमाये जो मेरी बात सुने फिर समझ कर उस तक पहुंचाएै जिसने न सुनी हो।
इस तरह दावते इस्लाम का तमाम मुमालिक को, और तमाम क़ौमों को पहुंचाना, ख़ु़द हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) और फिर आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ुलफ़ा-एै-राशिदीन रज़ि0 के दौर में रियासते इस्लामी के ख़रिजी राबितौं की असास और बुनियाद रहा है, और यह हुक्मे शरई है, जो अल्लाह तआला की किताब, अल्लाह के रसूल सल्ला0 की सुन्नत और सहाबा-ए-किराम रज़ि0 के इज्माअ़ से साबित है। लिहाज़ा इस्लामी रियासत की ख़रिजा सियासत की बुनियाद दावते इस्लाम का पहुंचाना है।
इस बात से क़तअ़ नज़र के हुक्काम बदलते रहें रियासते इस्लाम की उस ख़रिजा पॉलिसी को निफ़ाज़, हमेशा यकसूई से जारी रहता है और हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के वक़्त से खि़लाफ़त के आख़री वक़्त तक येह बग़ैर किसी तग़य्युर के उसी तरह जारी रहा, हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने मदीने में रियासत क़ायम करते ही फ़ौज की तशकील शुरू की ताके जिहाद के ज़रिअ़े दावते इस्लाम की राह में हाइल किसी भी माद्दी रुकावट का इज़ाला किया जा सके। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) इसी पर क़ायम रहे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने कु़रैश को उस राह से ज़ाइल किया और इसी तरह दीगर ताक़तों को भी जो दावत की राह में रुकावट बनी हई थीं, यहाँ तक के जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब इस्लाम की ताबेदारी में आगया। इसके बाद रियासत ने दूसरी क़ौमों और मुमालिक के दरवाजों पर दस्तक दी लेकिन उन सबका मुआमिला येह था के वहाँ पर हाकिम निज़ाम इस दावत की राह में हाइल थे जिनका इज़ाला किया जाना दावत के फ़रोग़ के लिये नागुज़ीर था। चुनाँचे यही किया गया ताके बराहे रास्त अ़वाम से रुजूअ़ किया जाये और वोह ख़ुद इस्लाम की भलाइयों को देखंे, उसके बेहतर अ़दल ओ इन्साफ़ को मेहसूस करें और उसके साये में चैन सुकून, तरक़्क़ी और ख़ुशहाली से रह सकें जिस में किसी किस्म का जब्र ओ इस्तिबदाद नहीं है।
जिहाद, दावते इस्लाम के फ़रोग़ का तरीका कार रहा और नएै मुमालिक की फु़तूहात का रासता साफ़ करता रहा, करोड़ों की तादाद में लोगों ने दीन कु़बूल किया और इसकी हुकूमत के ताबेदार हुय। अपनी ख़रिजा सियासत को नाफ़िज़ करने के लिये रियासते इस्लामी ने बिला किसी तग़य्युर के जिहाद ही को वसीला बनाये रखा। जिहाद इस्लाम की राह में दावत और अल्लाह के रास्ते में क़िताल है ख़्वाह बरााहे रास्त हो या माली, अपनी आरा या उसकी तरग़ीब के लिये कुतुब ओ रिसालों की नश्र वग़ैरह के ज़रिअे़ से, जिहाद मुसलमानों पर फ़र्ज़ है और इसकी फ़र्ज़ीयत कुऱ्आन और सुन्नते रसूल (صلى الله عليه وسلم)से क़तअन साबित है। मुसलमानो ंने जिहाद में कभी हमला करने में पहल नहीं की, तावक़्तैके दुशमन को इस्लाम कुबूल करने की दावत न दी हो और अगर वोह उसे तस्लीम न करें तो जिज़्ये की पेशकश की, शरीअ़त में जिहाद का हुक्म यही है के जब कुफ़्फ़ार की घेराबंदी हो जाये तो उन्हें इस्लाम की दावत पेश की जाये, अगर वोह इसे कु़बूल करले तो वोह उम्मते मुस्लिमा का जुज़्व बन जाते हैं और अब उन्से क़िताल हराम हराम होगा। अगर वोह इस्लाम की दावत क़ुबूल करने से इन्कार करदें तो उन्से जिज़्या का मुतालिबा होगा, अगर वोह अदा करदें तो उनकी जान ओ माल मेहफ़़ूज़ हो जाते हैं और उनका मुल्क दारूल-इस्लाम बन जाता है जिसपर इस्लाम की हुकूमत होगी, अब अ़दल ओ इन्साफ़ के मुआमिले में उन्के हुकूक़ मुसलमानों ही की तरह होगे, उनकी हिफ़ाजत और उन्के मुआ़िमलात की देख भाल मुसलमानों के मुआमिलात ही की तरह होगी और उन्की जिंदगी के तमाम मुआमिलात की ज़मानत होगी, रियासत और निज़ाम से उन्की ताबेदारी एैन मुसलमानों ही की तरह होगी, लेकिन अगर वोह इस्लाम की दावत कु़बूल नहीं करते और जिज़्या अदा करने से भी इन्कार कर देते हैं तो फिर उनसे क़िताल जाइज़ हो जाता है।
लिहाज़ा क़िताल जाइज़ होने के लिये किसी मुल्क के बाशिन्दों पर इस्लाम की दावत का पहुंचा दिया जाना शर्त है, बल्के फु़क़हा ने लिखा है के हमारे लिये किसी एैसे से क़िताल करना हलाल नहीं है जिसे इस्लाम की दावत न दी जा चुकी हो। चुनाँचे क़िताल से पहले यह लाज़िम है के उस मुल्क में अ़वाम की राय आम्मा से खि़ताब किया जाये, इस्लाम की झलक मोटे तौर पर ही सही, वाजे़ह की जाये, राये आ़म्मा इस्लाम के हक़ में हमवार की जाये, वहाँ के बाशिनदौं को इस्लाम की सही तसवीर पेश की जाये, यह कोशिश की जाये के अ़वाम तक इस्लाम के अहकाम पहुंचें, ताके वोह येह मेहसूस कर सकें के इस्लाम उन्हें उन पर छाअ़ी ज़्ाुलमतौं से निजात दिलाता है। हुकूमते इस्लाम पर यह वाजिब है के वोह एैसे सियासी इक़्दामात करे जिनसे वहाँ के अ़वाम को इस्लाम की वाज़ेह मालूमात फ़राहम हो, इसके अफ़्कार को फ़रोग़ हो, और इन अफ़्कार की तशहीर हा। इस में रियासते इस्लाम की ताक़त ओ कु़व्वत का मुज़ाहिरा भी हो और मुसलमानों की दिलैरी ओ जाँबाज़ी भी झल्के, ख़ुद हुजू़र अक़्दस सल्ल0 का अ़मल यही था के वोह एैन शिर्क के गहवारे में इस्लाम की तश्हीर के लिये इक़्दाम करते, आप (صلى الله عليه وسلم) ने चालीस अफ़्राद को इस्लाम की तशहीर के लिये नज्द भेजा था, इसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लामी फ़ौज की कु़व्वत का मुज़ाहिरा भी करवाते जैसा आप (صلى الله عليه وسلم) ने ग़ज्वा-ए-तबूक पर रवांगी से क़ब्ल फ़ौज को मदीने में गश्त करवाया था और इसीलिये उस मौक़े पर फ़रमाया थाः
نصرت بالرعب من مصيرة الشهر
एक महीना की मसाफ़त के फ़ासले से दुशमन पर रोअ़ब पैदा करके कामयाबी हासिल की।
मुसलमानों की फ़ौज हर जमाने में दुशमन को हिला देती थी, यही वजह थी के अहले यूरोप को इस बात का यक़ीन था के मुसलमान फौ़ज को कभी शिकस्त नहीं दी जा सकती और उनका यह नज़रिया सदयों तक उन पर छाया रहा। लिहाज़ा एैसे सियासी इक़दामात करना लाज़िमी है जिनसे इस्लाम के अफ़्कार को फ़रोग़ हो, रियासत की क़ुव्वत का मुज़ाहरा हो, और फिर क़िताल किया जाये। चुनाँचे गोके जिहाद नश्र दावत का एैसा तरीक़ा है जिस में कभी कोई रद ओ बदल नहीं हुआ, येह भी नागुज़ीर है के क़िताल से क़ब्ल के तमाम सियासी इक़्दामात किये जायें। एैसे बुनियादी इक़्दामात रियासते इस्लामी के दूसरे मुमालिक से राब्तों की असास होते हैं जिनमें इक़्तिसादी तअ़ल्लुक़ात, बेहतर पड़ोसी के रिश्ते वगै़रह शामिल हैं जिन से इस्लाम की दावत देने में मदद मिले।
लिहाज़ा वोह सियासी फिक्र जिसकी बुनियाद पर इस्लामी रियासत दीगर मुमालिक और क़ौमों से राब्ते रखती है वोह यही इस्लाम की दावत का पहुंचाना है जिसका तरीक़ा जिहाद है। अल्बतता रियासते इस्लामी इसके लिये मख़्सूस मन्सूबे और उसलूब मुतअैय्यन करती है और वसाइल मुहय्या करती है, मसलन रियासते इस्लामी अपने कुछ दशमनों से बेहतर पड़ोस के रिश्ते इस्तवार करने के लिये महदूद मुद्दत के मुआ़हिदात तय करती है और बाज़ दूसरों से क़िताल करती है जैसा के हुजू़र सल्ल0 ने मदीना आते ही किया, या तमाम दुशमनों से बएकवक़्त ही मुक़ाबिला कर सकती है जैसा के हज़रत अबू बक्र सिददीक़ रज़ि0 ने किया के एक ही वक़्त इराक़ और शाम दोनों के लिये फ़ौजें रवाना कीं, या मुअ़य्यिना मुददत के मुआहिदे करे जिस से राय आम्मा इस्लाम के हक़ में इस्तवार हो सके, जैसा कें आप (صلى الله عليه وسلم) सुलह हुदैबिया में किया। रियासते इस्लामी के लिये एक वसीला यह भी हो सकता है के वोह मुक़ामी तौर पर कुछ झड़पें करे जिस से दुशमन दहषत ज़दा हो जाये, जैसा के हुजू़र अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने जंगे बदर से पहले फौ़जी मुहिम्मात भेज कर किया था, या जिस तरह उमवी ख़िलाफ़त के दौर में रूमी सल्तनत के ख़िलाफ़ मोसमे सरमा और मोसमे गरमा में उनकी सरहदों पर किया था।
इसी तरह का मुआमिला तिजारती तअ़ल्लुक़ात में भी दावत की मस्लेहत के मुताबिक़ बाज़ मुमालिक से तिजारती मुआहिदात करके और बाज़ दूसरों से मुआहिदात किये बगै़र किया जासकता है के कुछ मुमालिक से रिश्ते बढ़ाये जायें और बाज़ दूसरों से न बढ़ाये जायें, और यह सब इस बात पर मुन्हसिर है के दावत पहुंचाने लिये किया मन्सूबा इख़्तियार किया गया है। हुकूमत येह भी कर सकती है के बाज़ मुमालिक के साथ दावत नश्र करने में तशहीर का सहारा ले और बाज़ दूसरे दुशमन मुमालिक की ख़ुफ़ि़या साज़िशों को बेनिक़ाब करे या उनसे र्सद जंग छेड़ दे। इस तरह रियासत मुख़्तलिफ़़ वसाइल ओ मुख़्तिलफ़ अनवाअ़ के हरबे इस्तेमाल कर सकती है जो दावत के फ़रोग़ में मौज़ूँ और मुआविन हां। मंसूबे और उसलूबे ख़रिजी सियासत में उसी तरह अहम होते हैं जिस तरह दुशमन मुमालिक के अ़वाम की इस्लाम और इस्लामी रियासत के तईं राय आ़म्मा होती है, येह तमाम वसाइल, असालीब और मंसूबे दावत की नश्र के लिये हैं जिसका तरीक़ा अल्लाह तआला की राह में जिहाद है।
(The Foreign Policy of first Islamic State/मदनी इस्लामी राज्य की विदेश नीति)
रियासते इस्लामी की ख़रिजा सियासत दुनिया के दीगर मुमालिक ओ अक़्वाम से उसके तअ़ल्लुक़ात का नाम है, उम्मत का वोह हिस्सा जो बैरूने रियासत हो उसके उमूर ओ मुआमिलात की देख भाल करना है। इस्लामी रियासत की ख़रिजा पॉलिसी एक मुस्तहकम और दाइमी नरिज़ये पर मब्नी है जिसमें कोई तब्दीली नहीं आती, इसका मक़्सद आलम के हर मुल्क और हर क़ौम में इस्लाम की दावत का नश्र करना है, और इस्लामी रियासत की ख़रिजा पॉलिसी इसी बुनियाद पर क़ायम होती है और यह बुनियाद कभी तब्दील नहीं होती ख़्वाह हुकूमत करने वाले अशख़ास में कितनी भी तबदीली आती रहे। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के मदीना मुनव्वरा में रियासते इस्लामी क़ायम करने से ख़िलाफ़ते उ़स्मानी जो के आख़री ख़िलाफ़त थी के, इख़्तिताम तक यही पॉलिसी जारी रही और इस में कोई रद्दो बदल नहीं हुआ। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने जब मदीना में रियासत क़ायम की तो उस वक़्त भी बैरूनी दुनिया से तअ़ल्लुक़ात की यही बुनियाद थी के इस्लाम की दावत को सारे आलम में फैलाया जाये, आप (صلى الله عليه وسلم) ने यहूद से मुआहिदा इस ग़र्ज़ से किया के उनकी जानिब से फ़ारिग़ हो सके और हिजाज़ में दावत के काम पर तवज्जोह की जाये, फिर क़ुरैश से हुदैबिया में इसलिये सुलह की के हिजाज़ से बाहर सारे जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब में इस्लाम की दावत दी जासके। फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने अ़रब के अंदर और बाहर बादशाहों को इस्लाम की दावत देने के लिये ख़ुुतूत लिखे के वोह इस्लाम की इताअ़त और ताबेदारी कु़बूल करलें।
हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ु़लफ़ा-ए-राशिदीन ने भी बैरूनी दुनिया से इसी बुनियाद पर रिश्ते बनाये के इस्लाम की दावत को फ़रोग़ हो, नईं फ़ुतूहात करने और दावते इस्लाम के नष्र करने में हाकिम एक दूसरे से मुख़्तलिफ़़ रहे, मसलन उमवी ख़ु़लफ़ा ने फ़ुतूहात और नश्र ए दावत में अ़ब्बासी ख़ुलफ़ा से बढ़ चड़ कर कामयाबी हासिल की और उ़स्मानी ख़ुलाफ़ा ने मम्लूक ख़ुुलफ़ा पर इस मुआ़िमले में सबक़त हासिल की। इन कामयाबियों में जो फ़र्क़ रहा वोह दर हक़ीक़त इस वजह से हुआ के किस हाकिम के लिये फ़तूहात की क्या तरजीहात थीं, लेकिन इस से क़तअ़ नज़र, हर हाकिम के लिये बैरूनी मुमालिक से तअ़ल्लुक़ात की बुनियाद, हमेशा नश्र ए दावत ही रही और इस मुआमिले में हर ख़लीफ़ा का नुक़्ता-ए-नज़र एक ही रहा, क्योंके रियासते इस्लामी का वजूद ही इस ग़र्ज़ से होता है के इस्लाम को दाख़िली तौर पर मुकम्मल नाफ़िज़ किया जाये और ख़रिजी तौर उसकी दावत सारे आलम तक पहुंचाई जाये, लिहाज़ा इस्लामी रियासत का ख़रिजी नस्बुलएैन (डपेेपवद) दावते इस्लामी का सारे आलम में पहुंचाना है। इस नस्बुलएैन की बुनियाद फ़िल हक़ीक़त हुजू़र अक़्दस सल्ल0 का तमाम इन्सान के लिये मब्ऊ़स होना है, अल्लाह जल्ला जलालुहू ने फ़रमायाः
وَمَاۤ اَرۡسَلۡنٰكَ اِلَّا كَآفَّةً لِّلنَّاسِ بَشِيۡرًا وَّنَذِيۡرًا
हमने आप (صلى الله عليه وسلم) को तमाम लोगों के लिये ख़ुश्ख़बरियां सुनाने वाला और धमकाने देने वाला बनाकर भेजा है।
(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरहः सबाःआयतः28)
يٰۤاَيُّهَا النَّاسُ قَدۡ جَآءَتۡڪُمۡ مَّوۡعِظَةٌ مِّنۡ رَّبِّڪُمۡ
एै लोगो‘ तुमहारे पास तम्हारे रब की तरफ़ से एक एैसी चीज़ आई है जो नसीहत है (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमः सूरह यूनुसः आयतः57)
قُلْ يٰۤاَيُّهَا النَّاسُ اِنِّيْ رَسُوْلُ اللّٰهِ اِلَيْڪُمْ جَمِيْعَا
आप केहदीजएै के एै लोगो‘ में तुम सब की तरफ़ उस अल्लाह का भेजा हुआ हूं। (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह आराफ़ःआयतः158)
وَ اُوْحِيَ اِلَيَّ هٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَ ڪُمْ بِهٖ وَ مَنْۢ بَلَغَ١ؕ
और मेरे पास यह कुऱ्आन ब तौर वही के भेजा गया है ताके में इस कुऱ्आन के ज़रिये से तुमको और जिस जिसको यह कुऱ्आन पहुंचे उन सबको डराऊँ, (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह अनआमः आयतः19)
يٰۤاَيُّهَا الرَّسُوْلُ بَلِّغْ مَاۤ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ١ؕ وَ اِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهٗ١ؕ
एै रसूल जो कुछ भी आप की तरफ़ आप की रब की जानिब से नाज़िल किया गया है पहुंचा दीजये, अगर आप ने एैसा न किया तो आप ने अल्लाह की रिसालत अदा नहीं की, (तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःसूरह मायदाः आयतः67ः)
हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने अल्लाह तआला के पैग़ाम की तबलीग़ मुतवातिर की और जब आप (صلى الله عليه وسلم) अपने रफ़ीक़े आला से जा मिले तो उस वक़्त तक आप (صلى الله عليه وسلم) इस काम में मश्गू़ल रहे, लिहाज़ा इस दावत की तबलीग़ आप (صلى الله عليه وسلم) से इस्तिमरारन साबित होती है, और बाद में मुसलमान भी उस पर क़ायम रहे और तब्लीग़े दीन जारी रही। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने हज्जतुल विदाअ़ के मौके़ पर फ़रमायाः
ليبلغ الشاهد الغائب فرب مبلغ أوعى من سامع
जो यहाँ मौजूद है, उस शख़्स तक पहुंचा दे जो मौजूद नहीं है, मुम्किन है वोह उस सुन्ने वाले से ज़्यादा हौश्मनद हो, आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
نصّر الله أمرءَاً سمع مقالتي فوعاها ثم أداها إلى من يسمعها
अल्लाह जल्ला जललाहू उसको कामयाब फ़रमाये जो मेरी बात सुने फिर समझ कर उस तक पहुंचाएै जिसने न सुनी हो।
इस तरह दावते इस्लाम का तमाम मुमालिक को, और तमाम क़ौमों को पहुंचाना, ख़ु़द हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) और फिर आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ुलफ़ा-एै-राशिदीन रज़ि0 के दौर में रियासते इस्लामी के ख़रिजी राबितौं की असास और बुनियाद रहा है, और यह हुक्मे शरई है, जो अल्लाह तआला की किताब, अल्लाह के रसूल सल्ला0 की सुन्नत और सहाबा-ए-किराम रज़ि0 के इज्माअ़ से साबित है। लिहाज़ा इस्लामी रियासत की ख़रिजा सियासत की बुनियाद दावते इस्लाम का पहुंचाना है।
इस बात से क़तअ़ नज़र के हुक्काम बदलते रहें रियासते इस्लाम की उस ख़रिजा पॉलिसी को निफ़ाज़, हमेशा यकसूई से जारी रहता है और हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के वक़्त से खि़लाफ़त के आख़री वक़्त तक येह बग़ैर किसी तग़य्युर के उसी तरह जारी रहा, हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने मदीने में रियासत क़ायम करते ही फ़ौज की तशकील शुरू की ताके जिहाद के ज़रिअ़े दावते इस्लाम की राह में हाइल किसी भी माद्दी रुकावट का इज़ाला किया जा सके। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) इसी पर क़ायम रहे, आप (صلى الله عليه وسلم) ने कु़रैश को उस राह से ज़ाइल किया और इसी तरह दीगर ताक़तों को भी जो दावत की राह में रुकावट बनी हई थीं, यहाँ तक के जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब इस्लाम की ताबेदारी में आगया। इसके बाद रियासत ने दूसरी क़ौमों और मुमालिक के दरवाजों पर दस्तक दी लेकिन उन सबका मुआमिला येह था के वहाँ पर हाकिम निज़ाम इस दावत की राह में हाइल थे जिनका इज़ाला किया जाना दावत के फ़रोग़ के लिये नागुज़ीर था। चुनाँचे यही किया गया ताके बराहे रास्त अ़वाम से रुजूअ़ किया जाये और वोह ख़ुद इस्लाम की भलाइयों को देखंे, उसके बेहतर अ़दल ओ इन्साफ़ को मेहसूस करें और उसके साये में चैन सुकून, तरक़्क़ी और ख़ुशहाली से रह सकें जिस में किसी किस्म का जब्र ओ इस्तिबदाद नहीं है।
जिहाद, दावते इस्लाम के फ़रोग़ का तरीका कार रहा और नएै मुमालिक की फु़तूहात का रासता साफ़ करता रहा, करोड़ों की तादाद में लोगों ने दीन कु़बूल किया और इसकी हुकूमत के ताबेदार हुय। अपनी ख़रिजा सियासत को नाफ़िज़ करने के लिये रियासते इस्लामी ने बिला किसी तग़य्युर के जिहाद ही को वसीला बनाये रखा। जिहाद इस्लाम की राह में दावत और अल्लाह के रास्ते में क़िताल है ख़्वाह बरााहे रास्त हो या माली, अपनी आरा या उसकी तरग़ीब के लिये कुतुब ओ रिसालों की नश्र वग़ैरह के ज़रिअे़ से, जिहाद मुसलमानों पर फ़र्ज़ है और इसकी फ़र्ज़ीयत कुऱ्आन और सुन्नते रसूल (صلى الله عليه وسلم)से क़तअन साबित है। मुसलमानो ंने जिहाद में कभी हमला करने में पहल नहीं की, तावक़्तैके दुशमन को इस्लाम कुबूल करने की दावत न दी हो और अगर वोह उसे तस्लीम न करें तो जिज़्ये की पेशकश की, शरीअ़त में जिहाद का हुक्म यही है के जब कुफ़्फ़ार की घेराबंदी हो जाये तो उन्हें इस्लाम की दावत पेश की जाये, अगर वोह इसे कु़बूल करले तो वोह उम्मते मुस्लिमा का जुज़्व बन जाते हैं और अब उन्से क़िताल हराम हराम होगा। अगर वोह इस्लाम की दावत क़ुबूल करने से इन्कार करदें तो उन्से जिज़्या का मुतालिबा होगा, अगर वोह अदा करदें तो उनकी जान ओ माल मेहफ़़ूज़ हो जाते हैं और उनका मुल्क दारूल-इस्लाम बन जाता है जिसपर इस्लाम की हुकूमत होगी, अब अ़दल ओ इन्साफ़ के मुआमिले में उन्के हुकूक़ मुसलमानों ही की तरह होगे, उनकी हिफ़ाजत और उन्के मुआ़िमलात की देख भाल मुसलमानों के मुआमिलात ही की तरह होगी और उन्की जिंदगी के तमाम मुआमिलात की ज़मानत होगी, रियासत और निज़ाम से उन्की ताबेदारी एैन मुसलमानों ही की तरह होगी, लेकिन अगर वोह इस्लाम की दावत कु़बूल नहीं करते और जिज़्या अदा करने से भी इन्कार कर देते हैं तो फिर उनसे क़िताल जाइज़ हो जाता है।
लिहाज़ा क़िताल जाइज़ होने के लिये किसी मुल्क के बाशिन्दों पर इस्लाम की दावत का पहुंचा दिया जाना शर्त है, बल्के फु़क़हा ने लिखा है के हमारे लिये किसी एैसे से क़िताल करना हलाल नहीं है जिसे इस्लाम की दावत न दी जा चुकी हो। चुनाँचे क़िताल से पहले यह लाज़िम है के उस मुल्क में अ़वाम की राय आम्मा से खि़ताब किया जाये, इस्लाम की झलक मोटे तौर पर ही सही, वाजे़ह की जाये, राये आ़म्मा इस्लाम के हक़ में हमवार की जाये, वहाँ के बाशिनदौं को इस्लाम की सही तसवीर पेश की जाये, यह कोशिश की जाये के अ़वाम तक इस्लाम के अहकाम पहुंचें, ताके वोह येह मेहसूस कर सकें के इस्लाम उन्हें उन पर छाअ़ी ज़्ाुलमतौं से निजात दिलाता है। हुकूमते इस्लाम पर यह वाजिब है के वोह एैसे सियासी इक़्दामात करे जिनसे वहाँ के अ़वाम को इस्लाम की वाज़ेह मालूमात फ़राहम हो, इसके अफ़्कार को फ़रोग़ हो, और इन अफ़्कार की तशहीर हा। इस में रियासते इस्लाम की ताक़त ओ कु़व्वत का मुज़ाहिरा भी हो और मुसलमानों की दिलैरी ओ जाँबाज़ी भी झल्के, ख़ुद हुजू़र अक़्दस सल्ल0 का अ़मल यही था के वोह एैन शिर्क के गहवारे में इस्लाम की तश्हीर के लिये इक़्दाम करते, आप (صلى الله عليه وسلم) ने चालीस अफ़्राद को इस्लाम की तशहीर के लिये नज्द भेजा था, इसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) इस्लामी फ़ौज की कु़व्वत का मुज़ाहिरा भी करवाते जैसा आप (صلى الله عليه وسلم) ने ग़ज्वा-ए-तबूक पर रवांगी से क़ब्ल फ़ौज को मदीने में गश्त करवाया था और इसीलिये उस मौक़े पर फ़रमाया थाः
نصرت بالرعب من مصيرة الشهر
एक महीना की मसाफ़त के फ़ासले से दुशमन पर रोअ़ब पैदा करके कामयाबी हासिल की।
मुसलमानों की फ़ौज हर जमाने में दुशमन को हिला देती थी, यही वजह थी के अहले यूरोप को इस बात का यक़ीन था के मुसलमान फौ़ज को कभी शिकस्त नहीं दी जा सकती और उनका यह नज़रिया सदयों तक उन पर छाया रहा। लिहाज़ा एैसे सियासी इक़दामात करना लाज़िमी है जिनसे इस्लाम के अफ़्कार को फ़रोग़ हो, रियासत की क़ुव्वत का मुज़ाहरा हो, और फिर क़िताल किया जाये। चुनाँचे गोके जिहाद नश्र दावत का एैसा तरीक़ा है जिस में कभी कोई रद ओ बदल नहीं हुआ, येह भी नागुज़ीर है के क़िताल से क़ब्ल के तमाम सियासी इक़्दामात किये जायें। एैसे बुनियादी इक़्दामात रियासते इस्लामी के दूसरे मुमालिक से राब्तों की असास होते हैं जिनमें इक़्तिसादी तअ़ल्लुक़ात, बेहतर पड़ोसी के रिश्ते वगै़रह शामिल हैं जिन से इस्लाम की दावत देने में मदद मिले।
लिहाज़ा वोह सियासी फिक्र जिसकी बुनियाद पर इस्लामी रियासत दीगर मुमालिक और क़ौमों से राब्ते रखती है वोह यही इस्लाम की दावत का पहुंचाना है जिसका तरीक़ा जिहाद है। अल्बतता रियासते इस्लामी इसके लिये मख़्सूस मन्सूबे और उसलूब मुतअैय्यन करती है और वसाइल मुहय्या करती है, मसलन रियासते इस्लामी अपने कुछ दशमनों से बेहतर पड़ोस के रिश्ते इस्तवार करने के लिये महदूद मुद्दत के मुआ़हिदात तय करती है और बाज़ दूसरों से क़िताल करती है जैसा के हुजू़र सल्ल0 ने मदीना आते ही किया, या तमाम दुशमनों से बएकवक़्त ही मुक़ाबिला कर सकती है जैसा के हज़रत अबू बक्र सिददीक़ रज़ि0 ने किया के एक ही वक़्त इराक़ और शाम दोनों के लिये फ़ौजें रवाना कीं, या मुअ़य्यिना मुददत के मुआहिदे करे जिस से राय आम्मा इस्लाम के हक़ में इस्तवार हो सके, जैसा कें आप (صلى الله عليه وسلم) सुलह हुदैबिया में किया। रियासते इस्लामी के लिये एक वसीला यह भी हो सकता है के वोह मुक़ामी तौर पर कुछ झड़पें करे जिस से दुशमन दहषत ज़दा हो जाये, जैसा के हुजू़र अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने जंगे बदर से पहले फौ़जी मुहिम्मात भेज कर किया था, या जिस तरह उमवी ख़िलाफ़त के दौर में रूमी सल्तनत के ख़िलाफ़ मोसमे सरमा और मोसमे गरमा में उनकी सरहदों पर किया था।
इसी तरह का मुआमिला तिजारती तअ़ल्लुक़ात में भी दावत की मस्लेहत के मुताबिक़ बाज़ मुमालिक से तिजारती मुआहिदात करके और बाज़ दूसरों से मुआहिदात किये बगै़र किया जासकता है के कुछ मुमालिक से रिश्ते बढ़ाये जायें और बाज़ दूसरों से न बढ़ाये जायें, और यह सब इस बात पर मुन्हसिर है के दावत पहुंचाने लिये किया मन्सूबा इख़्तियार किया गया है। हुकूमत येह भी कर सकती है के बाज़ मुमालिक के साथ दावत नश्र करने में तशहीर का सहारा ले और बाज़ दूसरे दुशमन मुमालिक की ख़ुफ़ि़या साज़िशों को बेनिक़ाब करे या उनसे र्सद जंग छेड़ दे। इस तरह रियासत मुख़्तलिफ़़ वसाइल ओ मुख़्तिलफ़ अनवाअ़ के हरबे इस्तेमाल कर सकती है जो दावत के फ़रोग़ में मौज़ूँ और मुआविन हां। मंसूबे और उसलूबे ख़रिजी सियासत में उसी तरह अहम होते हैं जिस तरह दुशमन मुमालिक के अ़वाम की इस्लाम और इस्लामी रियासत के तईं राय आ़म्मा होती है, येह तमाम वसाइल, असालीब और मंसूबे दावत की नश्र के लिये हैं जिसका तरीक़ा अल्लाह तआला की राह में जिहाद है।
0 comments :
Post a Comment