इस्लामी रियासत ने किस तरह तमाम क़ौमों को मिला कर एक उम्मत बना दिया
(How Islamic State Moulded People together in One Ummah)
जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब में जब शिर्क का खा़त्मा कर दिया कर दिया गया और वोह पूरा का पूरा इस्लाम में दाख़िल हो गया और इस्लाम वहाँ ब हैसिय्यते अ़कीदा और बशक्ल निज़ाम वहाँ राइज ओ रासिख़ हो गया और दारुल-इस्लाम बन गया, अल्लाह तआला ने इस्लाम को मुकम्मल कर दिया, मुसलमानों पर अपनी नेअ़मत तमाम करदी और इस्लाम को बतौर दीन पसंद कर लिया, हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने पड़ोसी मुमालिक औ का़ैमों के बादशाहों और हुक्काम को ख़ुतूत लिख कर इस्लाम की दावत दे दी, रूम की सरहदों पर तुबूक और मुअता के ग़ज़वात हो चुके, उसके बाद आँहज़रत सल्ल0 की वफ़ात हुई, आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ु़लफ़ा-ए-राशिदीन रज़ि0 ने फु़तूहात के सिलसिले को जारी रखते हुये इराक़ फ़तह किया जहाँ ईसाई, मज़दकी और ज़ोरइश्तरी (आतिश परस्त) की मख़लूत आबादी थी, जिन में अ़रब भी थे और फ़ारसी भी। फिर ईरान फ़तह किया जहाँ अ़जमी लोग आबाद थे और कुछ रूमी और यहूद भी थे। इसके बाद शाम फ़तह किया जो रूम का हिस्सा था और लोग रूमी सक़ाफ़त ओ तेहज़ीब के और मज़हबन ईसाई थे। इनमें बाज़ शामी कुछ आरमीनी और कुछ यहूदी भी थे।
नस्लन येह लोग अ़रब और रूमी थे, फिर मिस्र फ़तह हुआ जहाँ मिस्रयों के साथ कुछ यहूदी और रूमी आबाद थे, उसके बाद फ़ुतूहात का सिलसिला शिमाली अफ़रीक़ा की तरफ़ हुआ जो रूमी इक़्तिदार में था और बर बर नस्ल आबाद थी, ख़ुलाफ़ा-ए-राशिदीन रज़ि0 के बाद उमवी खि़लाफत का दौर आया जिन्होंने सिंध, ख़्वारिज़्म और समरक़न्द फ़तह किये और उन्हें इस्लामी रियासत का हिस्सा बनाया, फिर अन्दलुस (Spain) फ़तह होकर उसी रियासत का हिस्सा बना, येह तमाम इलाक़े अपनी तमाम कौ़मों, जुबानों और मज़हबों के लिहाज़ से, अपनी सिक़ाफ़त, आ़दात और क़वानीन के एैतेबार से एक दूसरे से मुख़्तलिफ़़ थे, उनकी सोच ओ फ़िक्र और उनका नफ़्सियाती मैलान एक दूसरे से जुदा था, लिहाज़ा इन मुख़्तलिफ़़ क़ौमों और नस्लों का आपस में मिल कर एक मुत्तहिदा उम्मत में शामिल होना जिसका एक दीन, एक ज़ुबान, एक तेहज़ीब और एक ही क़ानूनी निज़ाम था, फ़िल-हक़ीक़त निहायत दुशवार और मुिश्कल अ़मल था जिस में कामयाबी हासिल करना एक गै़र मामूली और अ़ज़ीमुश्शान बात थी, जो सिर्फ़़ इस्लाम के ज़रिअ़े और इस्लामी रियायत ही में मुम्किन हुआ। इन मुख़्तलिफ़़ का़ैमों ने जब इस्लाम को देखा, उसके परचम तले आये और उन पर इस्लामी अहकाम नाफ़िज़ हुअे तो यह लोग मुसलमान हो गये और एक उम्मत यानी उम्मते मुसलिमा का हिस्सा बन गये। यह ना क़ाबिले यक़ीन कार नामा इस्लामी हुकूमत के सबब और उनके उस अ़क़ीदा ए इस्लामी पर ईमान रखने के बाइस मुिम्कन हुआ। उन मुख़्तलिफ़़ अक़्वाम का एक उम्मत में ढल पाना मुतअ़िद्द उमूर के बाइस हो पाया जिनमें येह चार निहायत अहम हैं।
1. इस्लामी तालीमात ओ अहकाम,
2. फ़ातेह मुसलमानों का मफ़्तूह अ़वाम से रहन सहन और तमाम उमूरे हयात में गहरा रब्त और मैल जोल।
3. मफ़्तूहा इलाक़ों के लोेगों का इकट्ठा इस्लाम में दाखि़ल हो जाना।
4. उनकी जिन्दगियों में इन्क़िलाबी तब्दीलियों के बाइस जिस से वोह एक हालत से दूसरी और बेहतरी हालत में आ गये।
इस्लामी तालीमात का तक़ाजा येह है के लोगों को इसकी तरफ़ दावत दी जाये और उसकी हिदायत को जहाँ जहाँ मुम्किन हो आम किया जाये, जिहाद के ज़रिअे़ मुल्क फ़तह किये जायें ताके लोग इस्लामी अ़क़ीदे को समझें और उसके अहकाम और उनकी हक़ीक़त को परख सकें, येह तालीमात तक़ाजा करती हैं के यह इख़्तियार लोगों पर छोड़ दिया जाये के वोह पसंद करे तो उस दीन के मानने वाले बन जायें और न चाहें तो उन्हें अपने ही मज़हब पर रहने की आज़ादा हो, तो उनके लिये इतनाही काफ़ी औैर ज़रूरी है के वोह मुआमिलात और उ़क़ूबात में इस्लामी अहकाम के ताबेअ़ हों ताके अ़वाम के मुआमिलात एक निज़ाम के तेहत मुनज़्ज़म हो सकें, उनमें हम आहंगी हो और एक ही नज़्म में उनके मसाइल हल किये जायें। इस तरह गै़र मुसलमान येह मेहसूस करते के वोह भी मुसलमानों की तरह एक ही मुआ़शिरे का हिस्सा हैं और उन पर यकसां तौर से अहकाम नाफ़िज़ हो रहे हैं। वोह इस निज़ाम में रह कर इसके पुरसुकून माहौल से मेहज़्ाूज़ हों और परचमे इस्लामी के साये में आबाद रहें।
तालीमाते इस्लामी का तक़ाज़ा है के महकूम कौ़म से नस्ली, मज़हबी या फ़िरक़ा बंदी से क़तअ़ नज़र सिर्फ़़ बहैसिय्यते इन्सान सुलूक किया जाये। लिहाज़ा अहकाम का निफ़ाज़ हर एक पर यकसां होता है और इसमें किसी के मुस्लिम या गै़र मुस्लिम होने को दख़ल नहीं होता। अल्लाह अज़्ज़ा व जल का सूरहः मायदा में फ़रमान हैः
وَلَا يَجۡرِمَنَّڪُمۡ شَنَاٰنُ قَوۡمٍ عَلٰٓى اَ لَّا تَعۡدِلُوۡا ؕ اِعۡدِلُوۡا هُوَ اَقۡرَبُ لِلتَّقۡوٰى وَاتَّقُوا اللّٰهَ ؕ اِنَّ اللّٰهَ خَبِيۡرٌۢ بِمَا تَعۡمَلُوۡنَ ﴿۸﴾
किसी क़ौम की अ़दावत तुम्हें खि़लाफे़ अ़दल पर आमादा न करदे, अ़दल किया करो जो परहेज़गारी के ज़्यादा क़रीब है और अल्लाह तआ़ला से डरते रहो, यकी़न मानों के अल्लाह तआला तुमहारे आमाल से बा खबर हे (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः मायदा आयतः8)
लिहाज़ा इस्लामी हुकूमत में तमाम इन्सान हुकूूूमत और फै़सलों में यकसां हैं चुनांचे जब एक हाकिम अ़वाम के मुआमिलात में उन पर हुकूमत करता है और एक काज़ी जब लोगों के दरमियान फ़ैसले करता है तो उनकी नज़र में वोह अश्ख़ास सिर्फ़़ इन्सान होते हैं जिनपर अहकाम नाफ़िज़ होना है या जिनके माबैन फ़ैसले होना है। इस्लाम के निज़ामें हुकूमत का तक़ाज़ा है के रियासत के तमाम हिस्सों से यकसां सुलूक हो, और रियासत की हर विलायत की ज़रूरियात बैतुल माल से पूरी की जायें, ख़्वाह उस विलायत से हासिल शुदा मेहसूलात उसकी ज़रूरियात के लिये काफ़ी हो या नहीं, और चाहे उस विलायत से मेहसूल कम आ रहा हो या ज़्यादा। इस्लाम का तक़ाज़ा है के हर विलायत से एक मुत्तहिदा माली निज़ाम के तेहत मेहसूलात बैतुल माल में जमा हों, इसी तरह मफ़्तूहा मुमालिक एक ही रियासत की विलायात बन जाती हैं और वोह सब के सब एक ही रियासत में बाहम मिल जाती हैं।
इन तमाम क़ौमों और नस्लों का एक उम्मत में पिरोये जाने और मफ़्तूह क़ौम के इस्लाम कु़बूल करने में सब से अहम किरदार फ़ातेह मुसलमानों का मफ़्तूह क़ौम से मेल जौल और रेहन सेहन था। मुसलमान मुमालिक फ़तह करके वहीं आबाद हो गये और उन्होंने मफ़्तूह क़ौम के बीच उन्हीं के पड़ोस में ख़ुद को बसा लिया और मफ़्तूह क़ौम को इस्लामी सक़ाफ़त की तरबियत दी। इन मुमालिक में अब फा़तेह और मफ़्तूह क़ौम साथ साथ रहते थे, उन पर एक ही निज़ाम नाफ़िज़ होता था, अब येह फ़ातेह और मफ़्तूह जैसे दो जुदा फ़िरक़े नहीं थे, न इनमें एक ग़ालिब और दूसरा मग़लूब था। जिन्दगी के तमाम मुआमिलात में येह मुश्तरक थे।
इन मफ़्तूह क़ौमों ने एैसे नएै क़िस्म के हुक्काम पहले कभी नहीं देखे थे जिनकी नज़र में येह मफ़्तूह अ़वाम उन्ही जैसे हों और जो इन मफ़्तूह अ़वाम के मुआमिलात ओ उमूरे ज़रूरियात में उनकी खि़दमत करें। इन हुक्काम में इन्होंने वोह आ़ली सिफ़ात पाईं जिनकी तवक़्क़ो कोई मफ़्तूह क़ौम नहीं कर सकती थी। इन लोगों को अपने हुक्काम से और उनके दीने इस्लाम से लगाव होगया। यह हुक्काम और तमाम मुसलमानों ने मफ़्तूह अ़वाम के साथ शादी के रिश्ते इस्तवार किये, उनके साथ उठना बैठना और खाना पीना रखा और यह इख़्तिलात इन मफ़्तूह अ़वाम के इस्लाम में दाखि़ल होने का सब से बड़ा मुहिर्रक बना। इन लोगों ने हुक्काम में इस्लाम की तासीर पाई और अहकाम के निफ़ाज़ में इस्लाम का नूर देखा और इस तरह येह मुख़्तलिफ़़ और मुतज़ाद अक़्वाम एक दूसरे में जैसे पिरो दिए गये और एक मुत्तहिदा उम्मत में बंध गये।
पूरे के पूरे मुल्कों का इस्लाम में दाखि़ल होना आम नौइयत का था, हर जगह के लोग फ़ौज दर फ़ौज इस्लाम में दाख़िल हो रहे थे, यहाँ तक के उन मुल्कों की एक बड़ी अक्सरियत इस्लाम के दायरे में आगई। अब इस्लाम मेहज़ फ़ातेह का़ैम का दीन नहीं रह गया था, मफ़्तूह क़ौम भी उसी की मानने वाली बन गई थी और येह सब मिलकर एक उम्मत बन गई थी।
अब जो लोग इस्लाम में दाख़िल हूये थे, उनकी जिन्दगियों में एक इन्क़िलाबी तब्दीली इस्लाम की बदौलत आई थी, इस्लाम ने अपने मानने वालों की फिक्री सतेह को बुलंद और उनके सोच के मेअ़यार को रफ़ीअ़ किया। इस्लामी अ़क़ीदा उनकी फ़िक्र और सोच का मेअ़यार और तराजू़ (क़ायदा-ए-फ़िक्रिया) बन गया जिस पर उनके अफ़्कार की बुनियाद थी, उसी क़ायदा-ए-फ़िक्री पर वोह लोग अपने अफ़्कार को जाँचते थे, उसी तराज़ू से वोह अपने ख़्यालात के अच्छे या बुरे, सही और ग़लत होना तय करते थे। उनकी इस सोच के सबब उनका ईमान अब मेहज़ जज़्बाती नहीं रह गया था बल्के उसमें रफ़्अ़त ओ बुलंदी आई और येह शुऊ़री ईमान बन गया था जिस की शहादत इनके दिल देते थे और अक़्ल उन्हें तसलीम करती थी। उन्की इबादात अब बुतों, आतिश और तस्लीस वगै़रह जो सोच के उथलेपन और फ़िक्र की गिरावट से पैदा होती हैं, अब अरफ़अ़ होकर बुलंदी को पहुंची और अल्लाह जल्ला जलालहू की इ़बादत करने लगे जिसका तक़ाजा़ है के फ़िक्र रौशन हो और नज़र में वुस्अ़त आये। उन्हें इस जिंदगी के बाद वाली दूसरी जिंदगी का यक़ीन हुआ, वोह उस उख़रवी जिंदगी पर उसी तरह यक़ीन रख़ते जैसा के अल्लाह जल्ला जलालहू की किताब और आँहज़रत सल्ल0 की सुन्नत में है और, आखि़रत के अ़ज़ाब ओ निअ़मत उनपर उसी तरह वाजेह थी जिस तरह नुसूस में आया है और वोह उस आने वाली जिंदगी को ही हक़ीक़ी जिंदगी मानने लगे थे। यह हक़ीक़त उनपर अ़यां थी के अ़क़ाइद ओ आमाल की बुनियाद पर अ़ज़ाब ओ निअ़मत है, वोह इस जिंदगी का अस्ली रूप देख रहे थे के येह आने वाली अ़ब्दी जिंदगी की तैयारी की मोहलत है।
उन्हांेने उस जिंदगी को तर्क नहीं किया बल्के उसको खुले दिल से गुज़ारा, अल्लाह ने रिज़्क़ में जो तैय्येबात और नेअ़मात अपने बंदों के लिये बनाई हैं और जो अस्बाब रखे हैं उनसे मेहज़ाूज़ होते रहे। उन्हांेने जिंदगी के वोह सही मेअ़यार इख़्तियार किये जिन में उस जिंदगी का मक़्सद मेहज़ मन्फ़अ़त नहीं था जो फासिद निज़ाम में हर अ़मल के लिये इन्सान में तेहरीक पैदा करता है, नफ़ा ही हर अ़मल मा मक़्सद होता है और मनाफ़े हासिल करने के लिये ही आमाल अंजाम किये जाते हैं, अब उनकी जिंदगियों का मेअ़यार, उसमें आमाल का मेअ़यार हलाल ओ हराम हो गया, अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही उनके आमाल की बुनियाद और अल्लाह तआला की रज़ा हर अ़मल का मक़्सद बन गया। हर अ़मल से मक़्सूद क़ीमत ही उस अ़मल की ग़ायत हो गई, चुनाँचे नमाज़ और जिहाद वगै़रह की क़ीमत रूहानी हुई, तिजारत और ख़रीद ओ फ़रोख़्त वग़ैरह की मक़्सूद क़ीमतंे माद्दी नफा़ हुआ, और एैतेबार ओ एैतेमाद या सिला रहमी जैसे आमाल की क़ीमत अख़्लाक़ी हो गई। वोह हर अ़मल में उसकी मक़्सूद क़ीमत पर नज़र रख़ते और उन्में तमीज़ करते थे, उन्की पुरानी ज़िन्दगी की तसवीर बदल कर मुन्क़लिब हो गई थी, अब ज़िन्दगी की हक़ीक़ी तसवीर उनके सामने थी जिस मे आमाल का मेअ़यार अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही यानी हलाल ओ हराम थे।
उनकी नज़र में ख़ुषी के मफ़्हूम में इन्क़िलाबी तब्दीली आई, अब से पेशतर वोह जिस्म की ख़्वाहिश पूरा करने और भूक मिटाने को ख़ुषी समझते थे, अब मेहसूस किया के अल्लाह जल्ला जलालुहू की रज़ा हासिल करना ही सच्ची ख़ुषी है, क्योंके सआदत या ख़ुषी दाइमी सुकून का नाम है जो वक़्ती लज़्ज़तों और शहवतों से हासिल नहीं की जा सकती, बल्के सिर्फ़़ अल्लाह की रज़ा से मिलती है।
इस तरह इस्लाम ने इन अक़्वाम के नज़रिये को मुतअस्सिर किया और उनकी ज़िंदगीयों के आमाल पर असर अन्दाज़ हुआ। उन्की नज़र में अशया की तरजीहात ;च्तपवतपजपमेद्धबदल गईं, बाज़ अशया की तरजीह ऊंची हुई तो बाज़ तरजीहात में नीचे आगईं। पहली जिन्दगी का मरतबा तरजीहात में अ़क़ीदे से बुलंद था अब इन्क़िलाब आया और यह पलट कर अ़क़ीदा तरजीहात में ज़िन्दगी से बुलंद तर हो गया, लिहाज़ा अब मुसलमान ज़िन्दगी को इस्लाम की राह में लगाने लगा क्योंके इस्लाम की क़ीमत ज़िन्दगी से बुलंद तर थी और अब उसके लिये इस्लाम की ख़ातिर मसाइब और मशक़्क़ात झेलना आसान हो गया था। जिन्दगी में अशया की क़ीमत और उनकी तरजीहात वोह हो गईं थीं जिस की वोह अशया लायक़ हैं, जिन्दगी अब मोहतरम हो गई थी और मुसलमान दाइमी ख़ुषी मेहसूस कर रहा था। उसने सारे आलम के सामने जिन्दगी का वोह तसव्वुर रखा जिसमें एक ही साबित नसबुलएैन था, यानी अल्लाह सुबहानहू व तआला की रज़ा, अब तक इन अक़्वाम के लिये जिन्दगी में मुतअ़िद्द और बार बार तब्दील होनो वाले नस्बुलएैन, उनकी जुस्तजू का महवर रहे थे जो बदल कर सिर्फ़़ एक और साबित हो गया था के सबका मक़्सद अल्लाह सुबहानहू व तआला की रजा है।
जिन्दगी के नसबुलएैन में तग़ैय्युर आने से अशया की जहाँ तरजीहात मुतग़ैय्युर हुईं वहीं ज़िन्दगी की अक़्दार में हैरत अंगेज़ इंक़िलाब आया, शख़्सियत में शुजाअ़त, आला ज़रफ़ी और शराफ़त, अपनी क़बाइली या क़ौमी रुजहान ओ तअ़स्सुब और मैलान, अपने नसब और दौलत पर तफ़ाखु़र, फ़िराख़ दिली में इसराफ, अपनी क़ौमियत या क़बीले से वफ़ादारी, इन्तिक़ाम में शिद्दत और संगदिली वगै़रह इन अक़्वाम के शुआर थे, इस्लाम आया तो उसने अफ़ज़लियत के यह मेअ़यार नहीं रखे और न उन्हें यूंही छोड़ दिया, बल्के इन तमाम सिफ़ात को अल्लाह तआला के अहकाम के ताबेअ़ कर दिया, पस इनमें जिस चीज़ का हुक्म सीग़ा-ए-इजाबत में हो वोह इख़्तियार की जाये, और जिसका हुक्म नफ़ी में हो वोह तर्क करदी जाये। अब येह सिफ़ात किसी मनफे़अ़त, किसी इज़्ज़त या वक़ार या तक़ालीद या रिवाज ओ मौरूसियत का मौज़्ाू नहीं रह गईं, जिन पर फ़र्ख़ किया जाये और उन्का तहफ़्फ़ुज़ किया जाये, इस्लाम ने इताअ़त का तक़ाज़ा यह रखा के इन्सान अल्लाह के अवामिर का पाबन्द हो और उसके नवाही से इज्तिनाब करे और इन्फ़िरादी क़बाईली या क़ौमी मफ़ाद को इस्लाम के ताबेअ़ कर दिया।
इस नेहज पर इस्लाम उन मुमालिक के मुसलमानों की जे़हनिय्यत और नफ़्सियात दोनों पर असर अन्दाज़ हुआ और इनको अपनी पिछली हालत से मुन्क़लिब करके नईं शक्ल दी। इस्लाम कुुबूल कर लेने के बाद अब उनकी शख़्सीयत पहले जैसी नहीं रह गई थी, उनके इन्सान, हयात और क़ायनात के तईं तसव्वुर और रुजहान में हैरत अंगेज़ तग़ैय्युर बरपा होगया था, अश्या के मुतअ़ल्लिक़ उन्के अफ़्कार बदल गये थे, अब वोह समझने लगे थे के हयात के मआनी अच्छाअ़ी और कमाल के हैं। जिन्दगी में उनका आला तरीन नस्बुलएैन अल्लाह तआला की रज़ा और खुशनूदी हासिल करना बन गया था। यही वोह ख़ुषी और सआदत थी जिस की अब उन्हें तलब रह गई, अब वोह एक जुदा मख़्लूक़ बनगये थे जो उनकी साबिक़ा खि़ल्क़त से सरासर मुख़्तलिफ़़ थी।
इन चारों अ़वामिल के सबब येह अक़्वाम जिन्होंने इस्लाम कु़बूल किया था, अपनी पिछली हालत से तब्दील हुईं। जिन्दगी के बारे में उनके अफ़्कार और नज़िरयात मुत्तहिद होकर एक नज़्ारिया में ढल गये। जिस इलाज से उन्के मसाइल हल किये जाते थे वोह एक मुत्तहिद निज़ाम था, जिन्दगी उन सब का मक़्सद मुत्तहिद होकर एक मक़्सद में ढल गया यानी अल्लाह सुब्हानहू व तआला के कलिमा को बुलंद करना, अब येह नागुजीर और क़तई हो गया था के येह मुख़्तलिफ़़ अक़्वाम पिधल कर इस्लाम के सांचे में ढल जायें और एक उम्मत बन जायें।
(How Islamic State Moulded People together in One Ummah)
जज़ीरा नुमा-ए-अ़रब में जब शिर्क का खा़त्मा कर दिया कर दिया गया और वोह पूरा का पूरा इस्लाम में दाख़िल हो गया और इस्लाम वहाँ ब हैसिय्यते अ़कीदा और बशक्ल निज़ाम वहाँ राइज ओ रासिख़ हो गया और दारुल-इस्लाम बन गया, अल्लाह तआला ने इस्लाम को मुकम्मल कर दिया, मुसलमानों पर अपनी नेअ़मत तमाम करदी और इस्लाम को बतौर दीन पसंद कर लिया, हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने पड़ोसी मुमालिक औ का़ैमों के बादशाहों और हुक्काम को ख़ुतूत लिख कर इस्लाम की दावत दे दी, रूम की सरहदों पर तुबूक और मुअता के ग़ज़वात हो चुके, उसके बाद आँहज़रत सल्ल0 की वफ़ात हुई, आप (صلى الله عليه وسلم) के बाद ख़ु़लफ़ा-ए-राशिदीन रज़ि0 ने फु़तूहात के सिलसिले को जारी रखते हुये इराक़ फ़तह किया जहाँ ईसाई, मज़दकी और ज़ोरइश्तरी (आतिश परस्त) की मख़लूत आबादी थी, जिन में अ़रब भी थे और फ़ारसी भी। फिर ईरान फ़तह किया जहाँ अ़जमी लोग आबाद थे और कुछ रूमी और यहूद भी थे। इसके बाद शाम फ़तह किया जो रूम का हिस्सा था और लोग रूमी सक़ाफ़त ओ तेहज़ीब के और मज़हबन ईसाई थे। इनमें बाज़ शामी कुछ आरमीनी और कुछ यहूदी भी थे।
नस्लन येह लोग अ़रब और रूमी थे, फिर मिस्र फ़तह हुआ जहाँ मिस्रयों के साथ कुछ यहूदी और रूमी आबाद थे, उसके बाद फ़ुतूहात का सिलसिला शिमाली अफ़रीक़ा की तरफ़ हुआ जो रूमी इक़्तिदार में था और बर बर नस्ल आबाद थी, ख़ुलाफ़ा-ए-राशिदीन रज़ि0 के बाद उमवी खि़लाफत का दौर आया जिन्होंने सिंध, ख़्वारिज़्म और समरक़न्द फ़तह किये और उन्हें इस्लामी रियासत का हिस्सा बनाया, फिर अन्दलुस (Spain) फ़तह होकर उसी रियासत का हिस्सा बना, येह तमाम इलाक़े अपनी तमाम कौ़मों, जुबानों और मज़हबों के लिहाज़ से, अपनी सिक़ाफ़त, आ़दात और क़वानीन के एैतेबार से एक दूसरे से मुख़्तलिफ़़ थे, उनकी सोच ओ फ़िक्र और उनका नफ़्सियाती मैलान एक दूसरे से जुदा था, लिहाज़ा इन मुख़्तलिफ़़ क़ौमों और नस्लों का आपस में मिल कर एक मुत्तहिदा उम्मत में शामिल होना जिसका एक दीन, एक ज़ुबान, एक तेहज़ीब और एक ही क़ानूनी निज़ाम था, फ़िल-हक़ीक़त निहायत दुशवार और मुिश्कल अ़मल था जिस में कामयाबी हासिल करना एक गै़र मामूली और अ़ज़ीमुश्शान बात थी, जो सिर्फ़़ इस्लाम के ज़रिअ़े और इस्लामी रियायत ही में मुम्किन हुआ। इन मुख़्तलिफ़़ का़ैमों ने जब इस्लाम को देखा, उसके परचम तले आये और उन पर इस्लामी अहकाम नाफ़िज़ हुअे तो यह लोग मुसलमान हो गये और एक उम्मत यानी उम्मते मुसलिमा का हिस्सा बन गये। यह ना क़ाबिले यक़ीन कार नामा इस्लामी हुकूमत के सबब और उनके उस अ़क़ीदा ए इस्लामी पर ईमान रखने के बाइस मुिम्कन हुआ। उन मुख़्तलिफ़़ अक़्वाम का एक उम्मत में ढल पाना मुतअ़िद्द उमूर के बाइस हो पाया जिनमें येह चार निहायत अहम हैं।
1. इस्लामी तालीमात ओ अहकाम,
2. फ़ातेह मुसलमानों का मफ़्तूह अ़वाम से रहन सहन और तमाम उमूरे हयात में गहरा रब्त और मैल जोल।
3. मफ़्तूहा इलाक़ों के लोेगों का इकट्ठा इस्लाम में दाखि़ल हो जाना।
4. उनकी जिन्दगियों में इन्क़िलाबी तब्दीलियों के बाइस जिस से वोह एक हालत से दूसरी और बेहतरी हालत में आ गये।
इस्लामी तालीमात का तक़ाजा येह है के लोगों को इसकी तरफ़ दावत दी जाये और उसकी हिदायत को जहाँ जहाँ मुम्किन हो आम किया जाये, जिहाद के ज़रिअे़ मुल्क फ़तह किये जायें ताके लोग इस्लामी अ़क़ीदे को समझें और उसके अहकाम और उनकी हक़ीक़त को परख सकें, येह तालीमात तक़ाजा करती हैं के यह इख़्तियार लोगों पर छोड़ दिया जाये के वोह पसंद करे तो उस दीन के मानने वाले बन जायें और न चाहें तो उन्हें अपने ही मज़हब पर रहने की आज़ादा हो, तो उनके लिये इतनाही काफ़ी औैर ज़रूरी है के वोह मुआमिलात और उ़क़ूबात में इस्लामी अहकाम के ताबेअ़ हों ताके अ़वाम के मुआमिलात एक निज़ाम के तेहत मुनज़्ज़म हो सकें, उनमें हम आहंगी हो और एक ही नज़्म में उनके मसाइल हल किये जायें। इस तरह गै़र मुसलमान येह मेहसूस करते के वोह भी मुसलमानों की तरह एक ही मुआ़शिरे का हिस्सा हैं और उन पर यकसां तौर से अहकाम नाफ़िज़ हो रहे हैं। वोह इस निज़ाम में रह कर इसके पुरसुकून माहौल से मेहज़्ाूज़ हों और परचमे इस्लामी के साये में आबाद रहें।
तालीमाते इस्लामी का तक़ाज़ा है के महकूम कौ़म से नस्ली, मज़हबी या फ़िरक़ा बंदी से क़तअ़ नज़र सिर्फ़़ बहैसिय्यते इन्सान सुलूक किया जाये। लिहाज़ा अहकाम का निफ़ाज़ हर एक पर यकसां होता है और इसमें किसी के मुस्लिम या गै़र मुस्लिम होने को दख़ल नहीं होता। अल्लाह अज़्ज़ा व जल का सूरहः मायदा में फ़रमान हैः
وَلَا يَجۡرِمَنَّڪُمۡ شَنَاٰنُ قَوۡمٍ عَلٰٓى اَ لَّا تَعۡدِلُوۡا ؕ اِعۡدِلُوۡا هُوَ اَقۡرَبُ لِلتَّقۡوٰى وَاتَّقُوا اللّٰهَ ؕ اِنَّ اللّٰهَ خَبِيۡرٌۢ بِمَا تَعۡمَلُوۡنَ ﴿۸﴾
किसी क़ौम की अ़दावत तुम्हें खि़लाफे़ अ़दल पर आमादा न करदे, अ़दल किया करो जो परहेज़गारी के ज़्यादा क़रीब है और अल्लाह तआ़ला से डरते रहो, यकी़न मानों के अल्लाह तआला तुमहारे आमाल से बा खबर हे (तर्जुमा मआनी कुऱ्आन करीमः सूरहः मायदा आयतः8)
लिहाज़ा इस्लामी हुकूमत में तमाम इन्सान हुकूूूमत और फै़सलों में यकसां हैं चुनांचे जब एक हाकिम अ़वाम के मुआमिलात में उन पर हुकूमत करता है और एक काज़ी जब लोगों के दरमियान फ़ैसले करता है तो उनकी नज़र में वोह अश्ख़ास सिर्फ़़ इन्सान होते हैं जिनपर अहकाम नाफ़िज़ होना है या जिनके माबैन फ़ैसले होना है। इस्लाम के निज़ामें हुकूमत का तक़ाज़ा है के रियासत के तमाम हिस्सों से यकसां सुलूक हो, और रियासत की हर विलायत की ज़रूरियात बैतुल माल से पूरी की जायें, ख़्वाह उस विलायत से हासिल शुदा मेहसूलात उसकी ज़रूरियात के लिये काफ़ी हो या नहीं, और चाहे उस विलायत से मेहसूल कम आ रहा हो या ज़्यादा। इस्लाम का तक़ाज़ा है के हर विलायत से एक मुत्तहिदा माली निज़ाम के तेहत मेहसूलात बैतुल माल में जमा हों, इसी तरह मफ़्तूहा मुमालिक एक ही रियासत की विलायात बन जाती हैं और वोह सब के सब एक ही रियासत में बाहम मिल जाती हैं।
इन तमाम क़ौमों और नस्लों का एक उम्मत में पिरोये जाने और मफ़्तूह क़ौम के इस्लाम कु़बूल करने में सब से अहम किरदार फ़ातेह मुसलमानों का मफ़्तूह क़ौम से मेल जौल और रेहन सेहन था। मुसलमान मुमालिक फ़तह करके वहीं आबाद हो गये और उन्होंने मफ़्तूह क़ौम के बीच उन्हीं के पड़ोस में ख़ुद को बसा लिया और मफ़्तूह क़ौम को इस्लामी सक़ाफ़त की तरबियत दी। इन मुमालिक में अब फा़तेह और मफ़्तूह क़ौम साथ साथ रहते थे, उन पर एक ही निज़ाम नाफ़िज़ होता था, अब येह फ़ातेह और मफ़्तूह जैसे दो जुदा फ़िरक़े नहीं थे, न इनमें एक ग़ालिब और दूसरा मग़लूब था। जिन्दगी के तमाम मुआमिलात में येह मुश्तरक थे।
इन मफ़्तूह क़ौमों ने एैसे नएै क़िस्म के हुक्काम पहले कभी नहीं देखे थे जिनकी नज़र में येह मफ़्तूह अ़वाम उन्ही जैसे हों और जो इन मफ़्तूह अ़वाम के मुआमिलात ओ उमूरे ज़रूरियात में उनकी खि़दमत करें। इन हुक्काम में इन्होंने वोह आ़ली सिफ़ात पाईं जिनकी तवक़्क़ो कोई मफ़्तूह क़ौम नहीं कर सकती थी। इन लोगों को अपने हुक्काम से और उनके दीने इस्लाम से लगाव होगया। यह हुक्काम और तमाम मुसलमानों ने मफ़्तूह अ़वाम के साथ शादी के रिश्ते इस्तवार किये, उनके साथ उठना बैठना और खाना पीना रखा और यह इख़्तिलात इन मफ़्तूह अ़वाम के इस्लाम में दाखि़ल होने का सब से बड़ा मुहिर्रक बना। इन लोगों ने हुक्काम में इस्लाम की तासीर पाई और अहकाम के निफ़ाज़ में इस्लाम का नूर देखा और इस तरह येह मुख़्तलिफ़़ और मुतज़ाद अक़्वाम एक दूसरे में जैसे पिरो दिए गये और एक मुत्तहिदा उम्मत में बंध गये।
पूरे के पूरे मुल्कों का इस्लाम में दाखि़ल होना आम नौइयत का था, हर जगह के लोग फ़ौज दर फ़ौज इस्लाम में दाख़िल हो रहे थे, यहाँ तक के उन मुल्कों की एक बड़ी अक्सरियत इस्लाम के दायरे में आगई। अब इस्लाम मेहज़ फ़ातेह का़ैम का दीन नहीं रह गया था, मफ़्तूह क़ौम भी उसी की मानने वाली बन गई थी और येह सब मिलकर एक उम्मत बन गई थी।
अब जो लोग इस्लाम में दाख़िल हूये थे, उनकी जिन्दगियों में एक इन्क़िलाबी तब्दीली इस्लाम की बदौलत आई थी, इस्लाम ने अपने मानने वालों की फिक्री सतेह को बुलंद और उनके सोच के मेअ़यार को रफ़ीअ़ किया। इस्लामी अ़क़ीदा उनकी फ़िक्र और सोच का मेअ़यार और तराजू़ (क़ायदा-ए-फ़िक्रिया) बन गया जिस पर उनके अफ़्कार की बुनियाद थी, उसी क़ायदा-ए-फ़िक्री पर वोह लोग अपने अफ़्कार को जाँचते थे, उसी तराज़ू से वोह अपने ख़्यालात के अच्छे या बुरे, सही और ग़लत होना तय करते थे। उनकी इस सोच के सबब उनका ईमान अब मेहज़ जज़्बाती नहीं रह गया था बल्के उसमें रफ़्अ़त ओ बुलंदी आई और येह शुऊ़री ईमान बन गया था जिस की शहादत इनके दिल देते थे और अक़्ल उन्हें तसलीम करती थी। उन्की इबादात अब बुतों, आतिश और तस्लीस वगै़रह जो सोच के उथलेपन और फ़िक्र की गिरावट से पैदा होती हैं, अब अरफ़अ़ होकर बुलंदी को पहुंची और अल्लाह जल्ला जलालहू की इ़बादत करने लगे जिसका तक़ाजा़ है के फ़िक्र रौशन हो और नज़र में वुस्अ़त आये। उन्हें इस जिंदगी के बाद वाली दूसरी जिंदगी का यक़ीन हुआ, वोह उस उख़रवी जिंदगी पर उसी तरह यक़ीन रख़ते जैसा के अल्लाह जल्ला जलालहू की किताब और आँहज़रत सल्ल0 की सुन्नत में है और, आखि़रत के अ़ज़ाब ओ निअ़मत उनपर उसी तरह वाजेह थी जिस तरह नुसूस में आया है और वोह उस आने वाली जिंदगी को ही हक़ीक़ी जिंदगी मानने लगे थे। यह हक़ीक़त उनपर अ़यां थी के अ़क़ाइद ओ आमाल की बुनियाद पर अ़ज़ाब ओ निअ़मत है, वोह इस जिंदगी का अस्ली रूप देख रहे थे के येह आने वाली अ़ब्दी जिंदगी की तैयारी की मोहलत है।
उन्हांेने उस जिंदगी को तर्क नहीं किया बल्के उसको खुले दिल से गुज़ारा, अल्लाह ने रिज़्क़ में जो तैय्येबात और नेअ़मात अपने बंदों के लिये बनाई हैं और जो अस्बाब रखे हैं उनसे मेहज़ाूज़ होते रहे। उन्हांेने जिंदगी के वोह सही मेअ़यार इख़्तियार किये जिन में उस जिंदगी का मक़्सद मेहज़ मन्फ़अ़त नहीं था जो फासिद निज़ाम में हर अ़मल के लिये इन्सान में तेहरीक पैदा करता है, नफ़ा ही हर अ़मल मा मक़्सद होता है और मनाफ़े हासिल करने के लिये ही आमाल अंजाम किये जाते हैं, अब उनकी जिंदगियों का मेअ़यार, उसमें आमाल का मेअ़यार हलाल ओ हराम हो गया, अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही उनके आमाल की बुनियाद और अल्लाह तआला की रज़ा हर अ़मल का मक़्सद बन गया। हर अ़मल से मक़्सूद क़ीमत ही उस अ़मल की ग़ायत हो गई, चुनाँचे नमाज़ और जिहाद वगै़रह की क़ीमत रूहानी हुई, तिजारत और ख़रीद ओ फ़रोख़्त वग़ैरह की मक़्सूद क़ीमतंे माद्दी नफा़ हुआ, और एैतेबार ओ एैतेमाद या सिला रहमी जैसे आमाल की क़ीमत अख़्लाक़ी हो गई। वोह हर अ़मल में उसकी मक़्सूद क़ीमत पर नज़र रख़ते और उन्में तमीज़ करते थे, उन्की पुरानी ज़िन्दगी की तसवीर बदल कर मुन्क़लिब हो गई थी, अब ज़िन्दगी की हक़ीक़ी तसवीर उनके सामने थी जिस मे आमाल का मेअ़यार अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही यानी हलाल ओ हराम थे।
उनकी नज़र में ख़ुषी के मफ़्हूम में इन्क़िलाबी तब्दीली आई, अब से पेशतर वोह जिस्म की ख़्वाहिश पूरा करने और भूक मिटाने को ख़ुषी समझते थे, अब मेहसूस किया के अल्लाह जल्ला जलालुहू की रज़ा हासिल करना ही सच्ची ख़ुषी है, क्योंके सआदत या ख़ुषी दाइमी सुकून का नाम है जो वक़्ती लज़्ज़तों और शहवतों से हासिल नहीं की जा सकती, बल्के सिर्फ़़ अल्लाह की रज़ा से मिलती है।
इस तरह इस्लाम ने इन अक़्वाम के नज़रिये को मुतअस्सिर किया और उनकी ज़िंदगीयों के आमाल पर असर अन्दाज़ हुआ। उन्की नज़र में अशया की तरजीहात ;च्तपवतपजपमेद्धबदल गईं, बाज़ अशया की तरजीह ऊंची हुई तो बाज़ तरजीहात में नीचे आगईं। पहली जिन्दगी का मरतबा तरजीहात में अ़क़ीदे से बुलंद था अब इन्क़िलाब आया और यह पलट कर अ़क़ीदा तरजीहात में ज़िन्दगी से बुलंद तर हो गया, लिहाज़ा अब मुसलमान ज़िन्दगी को इस्लाम की राह में लगाने लगा क्योंके इस्लाम की क़ीमत ज़िन्दगी से बुलंद तर थी और अब उसके लिये इस्लाम की ख़ातिर मसाइब और मशक़्क़ात झेलना आसान हो गया था। जिन्दगी में अशया की क़ीमत और उनकी तरजीहात वोह हो गईं थीं जिस की वोह अशया लायक़ हैं, जिन्दगी अब मोहतरम हो गई थी और मुसलमान दाइमी ख़ुषी मेहसूस कर रहा था। उसने सारे आलम के सामने जिन्दगी का वोह तसव्वुर रखा जिसमें एक ही साबित नसबुलएैन था, यानी अल्लाह सुबहानहू व तआला की रज़ा, अब तक इन अक़्वाम के लिये जिन्दगी में मुतअ़िद्द और बार बार तब्दील होनो वाले नस्बुलएैन, उनकी जुस्तजू का महवर रहे थे जो बदल कर सिर्फ़़ एक और साबित हो गया था के सबका मक़्सद अल्लाह सुबहानहू व तआला की रजा है।
जिन्दगी के नसबुलएैन में तग़ैय्युर आने से अशया की जहाँ तरजीहात मुतग़ैय्युर हुईं वहीं ज़िन्दगी की अक़्दार में हैरत अंगेज़ इंक़िलाब आया, शख़्सियत में शुजाअ़त, आला ज़रफ़ी और शराफ़त, अपनी क़बाइली या क़ौमी रुजहान ओ तअ़स्सुब और मैलान, अपने नसब और दौलत पर तफ़ाखु़र, फ़िराख़ दिली में इसराफ, अपनी क़ौमियत या क़बीले से वफ़ादारी, इन्तिक़ाम में शिद्दत और संगदिली वगै़रह इन अक़्वाम के शुआर थे, इस्लाम आया तो उसने अफ़ज़लियत के यह मेअ़यार नहीं रखे और न उन्हें यूंही छोड़ दिया, बल्के इन तमाम सिफ़ात को अल्लाह तआला के अहकाम के ताबेअ़ कर दिया, पस इनमें जिस चीज़ का हुक्म सीग़ा-ए-इजाबत में हो वोह इख़्तियार की जाये, और जिसका हुक्म नफ़ी में हो वोह तर्क करदी जाये। अब येह सिफ़ात किसी मनफे़अ़त, किसी इज़्ज़त या वक़ार या तक़ालीद या रिवाज ओ मौरूसियत का मौज़्ाू नहीं रह गईं, जिन पर फ़र्ख़ किया जाये और उन्का तहफ़्फ़ुज़ किया जाये, इस्लाम ने इताअ़त का तक़ाज़ा यह रखा के इन्सान अल्लाह के अवामिर का पाबन्द हो और उसके नवाही से इज्तिनाब करे और इन्फ़िरादी क़बाईली या क़ौमी मफ़ाद को इस्लाम के ताबेअ़ कर दिया।
इस नेहज पर इस्लाम उन मुमालिक के मुसलमानों की जे़हनिय्यत और नफ़्सियात दोनों पर असर अन्दाज़ हुआ और इनको अपनी पिछली हालत से मुन्क़लिब करके नईं शक्ल दी। इस्लाम कुुबूल कर लेने के बाद अब उनकी शख़्सीयत पहले जैसी नहीं रह गई थी, उनके इन्सान, हयात और क़ायनात के तईं तसव्वुर और रुजहान में हैरत अंगेज़ तग़ैय्युर बरपा होगया था, अश्या के मुतअ़ल्लिक़ उन्के अफ़्कार बदल गये थे, अब वोह समझने लगे थे के हयात के मआनी अच्छाअ़ी और कमाल के हैं। जिन्दगी में उनका आला तरीन नस्बुलएैन अल्लाह तआला की रज़ा और खुशनूदी हासिल करना बन गया था। यही वोह ख़ुषी और सआदत थी जिस की अब उन्हें तलब रह गई, अब वोह एक जुदा मख़्लूक़ बनगये थे जो उनकी साबिक़ा खि़ल्क़त से सरासर मुख़्तलिफ़़ थी।
इन चारों अ़वामिल के सबब येह अक़्वाम जिन्होंने इस्लाम कु़बूल किया था, अपनी पिछली हालत से तब्दील हुईं। जिन्दगी के बारे में उनके अफ़्कार और नज़िरयात मुत्तहिद होकर एक नज़्ारिया में ढल गये। जिस इलाज से उन्के मसाइल हल किये जाते थे वोह एक मुत्तहिद निज़ाम था, जिन्दगी उन सब का मक़्सद मुत्तहिद होकर एक मक़्सद में ढल गया यानी अल्लाह सुब्हानहू व तआला के कलिमा को बुलंद करना, अब येह नागुजीर और क़तई हो गया था के येह मुख़्तलिफ़़ अक़्वाम पिधल कर इस्लाम के सांचे में ढल जायें और एक उम्मत बन जायें।
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