हुक्मे शरई





हुक्मे शरई

बंदो के अफआल से मुताल्लिक़ शारे (legislator) के खिताब को हुक्मे शरई कहते है। यह खिताब कभी क़तईउस सबूत (definitive in evidence) होता है जैसे क़ुरआन करीम और हदीसे मुतावातिर या ज़न्नीउस सबूत (speculative in evidence) जैसे गैर-मुतावातिर हदीसें। अगर यह खिताब क़तई (definitive) हो तो देखा जाऐगा की यह कतिउद दलाला (definitive in meaning) भी है या नहीं। अगर यह कतिउद दलाला भी हो तो इसमें मौजूद हुक्म क़तई हुक्म होगा। मसलन फर्ज नमाजों की तमाम रकअतें, क्येांकि यह मुतावातिर हदीसो के ज़रिये मनक़ूल है। इसी तरह सूद की हुरमत, चोर का हाथ काटना, जानी को संगसार करना, यह सब क़तई हुक्म है। इनका दुरुस्त होना यक़ीनी है। इनमें एक क़तई राय के सिवा कोई दूसरी राय है ही नही।

अगर शारे का खिताब सबूत के ऐतबार से तो क़तई हो लेकिन दलालत के (evidential) ऐतबार से ज़न्नी हो, मसलन जज़िया की आयत, कि यह सबूत के ऐतबार से क़तई है, लेकिन दलालत के लिहाज से ज़न्नी है। और इस ज़न की वजह से आहनाफ शर्त लगाते है कि इसको जज़िया ही कहा जाऐगा। और जज़िया देते वक्त जज़िया देने वाले की महकूमी का इज़हार भी जरूरी है। लेकिन शवाफे यह शर्त नही लगाते बल्कि इनके नजदीक इसको दुगनी ज़कात के नाम से भी वुसूल किया जा सकता है और देने वाले की महकूमी का इज़हार भी कोई ज़रूरी नही। बल्कि इसका इस्लामी आहकामात के सामने झुकना ही काफी है।

अगर शारे का खिताब ज़न्नीउस सबूत हो, जैसे गैर-मुतावातिर अहादीस, तो इसमें मौजूद हुक्म भी ज़न्नी होगा, इस बात से क़तअ नज़र की वोह अपनी दलालत के ऐतबार से क़तई हो। मसलन शव्वाल के छह रोजे, या उसकी दलालत ज़न्नी है जैसे जमीन को किराये पर देने की मुमानियत, क्योकी यह सुन्नत से साबित है।

शारे के खिताब से हुक्मे शरई को समझना हो तो इज्तेहाद ही इसका जरिया है। पस मुजतहेदीन के इज्तेहाद से शरई हुक्म का इज़हार होता है। यह ही वजह है कि हर मुजतहिद के लिये अल्लाह का हुक्म वोह होता है जिसे वोह इज्तेहाद के ज़रिये मालूम करता है, और मुजतहिद को उसके सही होने का ग़ालिब गुमान होता।

लिहाज़ा अगर किसी मुकल्लफ के अंदर किसी मसले या तमाम मसाइल में इज्तेहाद करने की सलाहीयत पाइ जाऐ और वोह इज्तेहाद करे और हुक्म तक पहुँच जाऐ, तो इस सूरत में सबका इत्तेफाक है कि इस मुजतहिद के लिये अपने ज़न के बरखिलाफ कोई और मुजतहिद की तक़लीद करना जायज़ नही। उसके लिये अपने ज़न को छोड़ना भी जायज़ नहीं, सिवाऐ इन चार सूरतों के: अव्वल: जब इस पर यह ज़ाहिर हो जाऐ की जिस दलील को उसने अपनी इज्तिहाद की बुनियाद बनाया है वोह कमज़ोर है और दूसरे मुजतहिद की दलील उससे ज्यादा क़वी है। इस हालत मे उस पर वाजिब है की वोह उस हुक्म को छोड दे जिस पर वोह अपने इज्तिहाद के ज़रिये से पहुंचा था और क़वी दलील की बुनियाद पर मबनी हुक्म को इख्तियार कर ले.

दोम: जब एक़ मुजतहिद पर यह बात ज़ाहिर हो जाऐ की दूसरा मुजतहिद रब्त मे उससे बढ कर है या उसे हक़ीक़त से ज्यादा आगही हासिल है और शरई अदिल्ला के मुताल्लिक़ उसका फहम ज्यादा क़वी है या समई दलाईल (शरई मसादिर) से ज्यादा मुतला है तो उस सूरते हाल मे उसके लिये जायज़ है के वोह उस हुक्म को तर्क कर दे जिस पर वोह खुद इज्तिहाद के ज़रिये पहुंचा और उस मसले मे उस मुजतहिद की तक़लीद कर ले जिसका इज्तिहाद उसके नज़दीक उसके अपने इज्तिहाद से ज्यादा क़ाबिले वसूख है.

सोम: जब कोई राय मुसलमानो को जमा करने का बाअस हो जिसमें मुसलमानो की मसालिहत हो तो उस हालत मे मुजतहिद के लिये जायज़ है की वोह अपनी राय को तर्क कर दे जिस पर उस के इज्तिहाद ने उसे पहुचांया और उस हुक्म को इख्तियार कर ले जो मुसलमानो को जमा करने का बाअस हो। जैसा की बैत के वक्त उसमान (रज़िअल्लाहो अन्हो) ने किया।

चहारम: अगर ख़लीफा किसी शरई हुक्म की तबन्नी करे और ख़लीफा का यह हुक्म उस हुक्म के मुखालिफ हो जिस पर वोह मुजतहिद अपने इज्तिहाद के ज़रिये से पहुंचा है। उस सूरत उस पर वाजिब है की वोह उस राय पर अमल तर्क कर दे जिस पर वोह अपने इज्तिहाद के ज़रिये से पहुंचा और उस हुक्म पर अमल करें जिस की इमाम (ख़लीफा) ने तबन्नी (adoption) की है। क्योंकि इस बात पर सहाबा (रिज़वानुल्लाहे अलैयहिम अजमईन) का इज्मा है की “इमाम का हुक्म इख्तिलाफ को दूर करता है” और यह के इमाम का हुक्म तमाम मुसलमानो पर नाफिज़ होता है। कोई ऐसे शख्स, जिसके अंदर इज्तेहाद की सलाहियत तो पाइ जाती है, लेकिन वोह खुद इज्तेहाद नहीं करता, बल्कि किसी और मुजतहिद की तक़लीद करता है, तो यह उसके लिये जायज़ है। क्योंकि इस पर सहाबा (रिज़वानुल्लाहो अलैयहिम अजमईन) का इज्मा है कि किसी मुजतहिद के लिये दूसरे मजतहिद की तक़लीद करना जायज़ है।

जिस शख्स के अन्दर इजतिहाद की सलाहियत ना पाइ जाती हो, वह मुक़ल्लिद है। मुक़ल्लिद की दो किस्में हैं : मुत्तबे और आम्मी। मुत्तबे वह है जिसने इज्तेहाद के लिए मोतबर उलूम मे से बाज़ उलूम हासिल किये हो। मुत्तबे दलील की मारफत के बाद मुजतहिद की तक़लीद करेगा। इस मुत्तबे के लिये अल्लाह का हुक्म मुजतहिद का वोह कौल है जिसकी यह इत्तेबा करता है। आम्मी वोह शख्स है जिसने इज्तेहाद के लिये मोतबर उलूम में से कोई इल्म हासिल ना किया हो। पस वह दलील को समझे बगैर ही मुजतहिद की तक़लीद करेगा। इस आम्मी पर लाज़िम है की वोह मुजतहेदीन के कौल की तक़लीद करें और उन आहकामात को इख्तियार करे जिन्हे मुजतहेदीन ने मुस्तंबित किया हो। क्योकी उसके हक़ मे हुक्मे शरई वही होगा जिसका उस मुजतहिद ने इस्तिंबात किया हो। चुनाचे हुक्मे शरई वोह हुक्म है, जिसको ऐसे मुजतहिद ने मुस्तंबित किया हो, जो इज्तेहाद की सलाहियत है। वोह इस आम्मी के हक में अल्लाह का हुक्म है। उसकी मुखालिफ अमल या उसे छोड़ कर दूसरे मुजतहिद की तक़लीद आम्मी के लिये जायज़ नही। इसी तरह यह उस शख्स के हक में भी अल्लाह का हुक्म है, जो उस मुजतहिद की तक़लीद करता है। उस शख्स के लिये इसके मुखालिफ अमल करना जायज़ नहीं।

मुक़ल्लिद जब नऐ मसाइल में से किसी एक मसले में किसी मुजतहिद की तक़लीद करे और उसके कौल पर अमल शुरू करदे तो अब उस हुक्म मे इस मुजतहिद को छोड कर किसी और इजतिहाद की तरफ रूुजू करना उसके लिये बिल्कुल जायज़ नहीं। अलबत्ता वोह इस मसले के अलावा किसी दूसरे मसले मे किसी भी मुजतहिद की तक़लीद कर सकता है क्योंकि यह इजमाऐ सहाबा (रिज़वानुल्लाहो अलैयहिम अजमईन) से साबित है कि मुक़ल्लिद मुखतलिफ उलेमा की राए मुखतलिफ मसाइल मे तलब कर सकता है। जब एक मुक़ल्लिद एक मोअय्यन मज़हब पर चलना शुरू करे, मसलन वो कह दे कि मै शाफई (रहमतुल्लाहि अलैह) के मज़हब पर हूँ, तो इसकी यह तफसील है: हर वोह मसला जिस पर उसने इस मज़हब के मुताबिक़ अमल किया, जिसका वह मुक़ल्लिद है, तो उस मसले मे किसी दूसरे मज़हब की तक़लीद बिल्कुल जायज़ नही। और वोह मसाइल जिनमे उसने इस मज़हब के मुताबिक़ अमल नही किया, इनमे वोह दूसरे किसी भी मज़हब की राय को इख्तियार कर सकता है।


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