इस्लामी तहज़ीब

इस्लामी तहज़ीब

हदारा (तहज़ीब या culture) और मदनिय्या (तमद्दुन या material progress) के माबैन फर्क़ है। तहज़ीब ज़िन्दगी के बारे में तसव्वुरात के मजमुए (समूह) को कहते है जबकि तमद्दुन अशयाऐ महसूसा (महसूस करने वाली चीज़ो) की उन माद्दी अश्काल (शक्लो) को कहा जाता है जो ज़िन्दगी के मआमलात में इस्तेमाल आती है। तहज़ीब ज़िन्दगी के बारे में नुक्ताऐ नज़र के लिहाज़ से खास होती है जबकि तमद्दुन खास भी होती है और आम भी। पस तमद्दुनी अशया जो तहज़ीब से जन्म लेते हैं, जैसे मुजस्सिमे (statue), तो वो खास हैंंं। वोह तमद्दुनी अशया जो सांइस (विज्ञान) अैर सनअत (उद्योग) की तरक्की से जन्म लेती है, वोह आम होती है; यह किसी क़ौम के साथ मखसूस नहीं होती बल्कि यह सनअत और साइंस की तरह आलमी होती है।

हदारा (तहज़ीब) और मदनिय्या (तमद्दुन) के माबेन पाऐ जाने वाले इस फर्क़ को हमेशा मद्देनज़र रखना चाहिए जैसा कि उस फर्क़ का लिहाज़ रखना जरूरी है जो उन तमद्दुनी अशया के दर्मियान है जो तहज़ीब से जन्म लेती है जो साइंस और टेक्नालोजी की तरक्की से जन्म लेती है। इसलिए तमद्दुन को अख्ज़ (ग्रहण) करते वक्त उनकी अशकाल के फर्क़ और तमद्दुन और तहज़ीब के दरमियान फर्क़ का लिहाज़ रखना जरूरी है। चुनाँंचे वोह मगरीबी तमद्दुन, जो साइंस और टेक्नलोजी की पैदावार है, उसको अपनाने में कोइ अम्र माने (रूकावटें) नहीं। वोह मग़रिबी तमद्दुन, जो उनकी तहज़ीब से पैदा होता है, तो उसको किसी हाल में अपनाना जाइज़ नहीं। मग़रिबी तहज़ीब को इख्तियार करना बिल्कुल जाइज़ नहीं, इसलिये कि यह अपनी बुनियाद, ज़िन्दगी के बारे में तसव्वुर, नेज़ खुशी और सआदत के तसव्वुर के लिहाज़ से इस्लामी तहज़ीब से बिल्कुल मुतासादिम (टकराती) है।

मग़रिब की तहज़ीब दीन के दुनयवी उमूर (मामलात) से अलग होने की बुनियाद पर क़ायम है और वोह इस बात की भी मुनकिर है कि ज़िन्दगी में दीन का कोइ अमल व दखल है। चुनाँचे इसके नतीजे के तौर पर दीन की रियासत (state) से अलहेदगी की फिक्र पैदा हुइ। क्योंकि यह उस शख्स के लिये एक तबइ (स्वाभाविक) बात है जो दीन को ज़िन्दगी से जुदा करता है और ज़िन्दगी में दीन के वुजूद का इन्कार करता है। इस बुनियाद पर ज़िन्दगी और ज़िन्दगी के निज़ाम की इमारत इस्तिवार है। मग़रबी तहज़ीब की रूह से मनफअत (लाभ) का हुसूल ही तमामतर ज़िन्दगी है। लिहाज़ा यही आमाल (actions) का मेयार है। इसीलिये इस निज़ाम की बुनियाद महज़ मनफअत पर है और यही इस तहज़ीब की बुनियाद है। चुनाँचे इस निज़ाम और तहज़ीब में सब से नुमाया (manifest) तसव्वुर मनफअत है क्योंकि इसके नज़दीक ज़िन्दगी का तसव्वुर मनफअत के सिवा कुछ नही। यही वजह है कि इनके नजदीक खुशी और सआदत यह है कि इंसान को ज्यादा से ज्यादा जिस्मानी (शारीरिक) लज्ज़तें (आनंद) और उसके असबाब (संसाधन) मुहय्या किये जाऐ। इसलिये मग़रिबी तहज़ीब एक खास मनफअत परस्ताना तहज़ीब है और इसमे मनफअत के अलावा किसी और चीज का कोइ वज़न नहीं। यह सिर्फ मनफअत का ऐतराफ करती है और इसको आमाल (actions) का मेयार करार देती है। रूहानी पहलू इसमें इनफरादी नोय्यत का है जिसका जमाअत के साथ कोइ तआल्लुक नहीं और यह रूहानी अमूर चर्च और चर्च के लोगो तक ही महदूद है। यही वजह है कि मग़रिबी तहज़ीब में अख़लाक़ी या रूहानी या इंसानी क़द्रो-क़ीमत का कोइ वजूद नहीं। इसमें सिर्फ माद्दी क़दरो-क़ीमत का तसव्वुर पाया जाता है। इसी वजह से इसमें इंसानियत के लिए किये जाने वाले आमाल को उन तंजीमों के ताबे बनाया गया है जो रियासत से जुदा है, जैसे रेड क्रास (Red Cross) और इसाई तबलीगी मिशिनरी और माद्दी क़दरो-क़ीमत यानी फायदे के अलावा जिन्दगी से हर क़ीमत को दूर कर दिया गया है। पस मग़रिबी तहज़ीब ज़िन्दगी के बारे मे इन्ही तसव्वुरात का मजमुआ है।

इस्लामी तहज़ीब ऐसी असास (बुनियाद) पर क़ायम है जो मग़रिबी तहज़ीब की असास के मुतज़ाद (contradictory) है और इसके नजदीक ज़िन्दगी का नक्शा मग़रिबी तहज़ीब की ज़िन्दगी के नक्शे से बिल्कुल मुख़तलिफ है। इस्लामी तहज़ीब में खुशी और सआदत का मफहूम (अर्थ) मग़रिबी तहज़ीब में उसके मफहूम से बिल्कुल जुदा है। इस्लामी तहज़ीब अल्लाह पर इमान (आस्था) रखने की बुनियाद पर क़ायम है और इस बात पर कि अल्लाह तआला ने कायनात, इंसान और हयात का एक निज़ाम बनाया है और इस बात पर इमान कि अल्लाह तआला ने सय्यदना मोहम्मद صلى الله عليه وسلم को दीने इस्लाम के साथ मबऊस फरमाया, यानी इस्लामी तहज़ीब इस्लामी अकीदे की बुनियाद पर क़ायम है जो अल्लाह तआला, मलायका (फरिश्ते), आसमानी किताबों, रसूलों, आखिरत के दिन पर, और कजा व कदर के खैर व शर के अल्लाह तआला की तरफ से होने पर इमान लाना हैं। चुनाँचे यह अकीदा ही इस्लामी तहज़ीब की बुनियाद है और यह एक रूहानी बुनियाद पर क़ायम है।

इस्लामी तहज़ीब में ज़िन्दगी का नक्शा इस्लाम के उस फलसफे से वाज़ह होता है जो इस्लामी अकीदे से फूटता है और जिस पर ज़िन्दगी और ज़िन्दगी में इंसान के आमाल क़ायम है। यह फलसफा माद्दा (material) और रूह से मुरक्कब (मिला कर बना) है। यानि आमाल को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही (commands and prohibitions) के मुताबिक सरअन्जाम दिया जाऐ यही ज़िन्दगी के नक्शे की बुनियाद है। चुनाँचे इंसानी अमल माद्दा है और इंसान का अमल को सरअंजाम (execute) देते वक्त इस बात का इदराक (अनुभव) करना कि इस अमल के हलाल या हराम होने की वजह से अल्लाह तआला इसका बदला देगा, रूह है। लिहाजा यह रूह और माद्दे का मुरक्कब है। यूं मुसलमान के आमाल का मुहर्रिक अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही है और अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक अमाल की अंजामदेही का असल मक़सद अल्लाह तआला की रज़ा (प्रसन्नता) है, और यह मनफअत बिल्कुल नहीं। अलबत्ता किसी अमल को सरअंजाम देने के इरादा का इन्हेसार उस अमल की अंजमादेही से हासिल होने वाली क़ीमत (value) पर होता है और यह क़दरो-क़ीमत आमाल के एतेबार से मुख्तलिफ होती है। कभी तो यह क़ीमत माद्दी होती है जैसे नफे के इरादे से तिजारत करना। क्योंकि इंसान का तिजारत करना एक माद्दी अमल है और इसमें अल्लाह तआला की खुशनूदी का हुसूल उसे अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक इस अमल को सर-अंजाम देने पर आमादा करता है। और वोह क़ीमत, जिसे इंसान इस अमल की अंजाम देही से हांसिल करना चाहता है वोह नफे का हुसूल है जो की एक माद्दी क़ीमत है।

कभी अमल की क़ीमत रूहानी होती है जैसे नमाज़, ज़कात, हज, रोज़ा बगैरा और कभी यह क़ीमत अख़लाक़ी होती है जैसे सच्चाई, अमानतदारी और वफादारी। बाज़ दफा क़ीमत इंसानी होती है जैसे डूबने वाले को बचाना या मुसीबत ज़दा की मदद करना। इंसान जब कोइ अमल सर-अंजाम देता है तो इन्ही क़ीमत को पेशे-नज़र रखता है, मगर यह आमाल की असल मुहर्रिक (motivation) नहीं होती और यह वोह आला मैयार नहीं कि जिन को अमाल की अंजाम देही के वक्त हदफ बनाया जाए। बल्कि यह आमाल की अन्जामदेही की क़ीमत होती है जो आमाल की नोइय्यत के ऐतबार से मुख़तलिफ होती है।

जबकि खुशी व सआदत तो अल्लाह तआला की रज़ा का हुसूल है ना कि इंसान की हाजात को पूरा करना। क्योंकि इंसान की तमाम हाजात यानि अज़वियाती हाजात (organic needs) या जिबिल्लतों की हाजात (instinctive needs) को पूरा करना इंसान की ज़ात की हिफाज़त का ज़रिया है, और यह सआदत कि ज़मानत नहीं।

यह है ज़िन्दगी का नक्शा! और यह है वोह बुनियाद जिस पर यह नक्शा क़ायम है। यह इस्लामी तहज़ीब की बुनयाद है और मग़रिबी तहज़ीब की बुनियाद से बिल्कुल मुतज़ाद (विरोधी) है जैसा कि इस्लामी तहज़ीब से निकलने वाली तमद्दुनी अश्या (चीज़े) मग़रिबी तहज़ीब से निकलने वाली तमद्दुनी अश्या से बिल्कुल मुतज़ाद है। मसलन तसवीर एक तमद्दुनी शक्ल है और मग़रिबी तहज़ीब एक ऐसी उरयाँ (बिना कपड़ों की) निसवानी तसवीर को एक तमद्दुनी शक्ल करार देती है जिसमे निस्वानी आज़ा (औरत के शारीरिक अंग) के हुस्न व जमाल को खूब नुमाया किया गया हो और यह औरत के मुताल्लिक़ उनके ज़िन्दगी के तसव्वुरात से हम-आहंग है। इसलिये एक मग़रिबी इंसान इसे एक फन्नी शयपारा (कलात्मक वस्तु) समझता है और एक तमद्दुनी शय के तौर पर इस पर फख्र करता है अगर इसमें फन्नी कमाल की तमाम शरायत पूरी तरह पाई जाऐं। लेकिन यह तमद्दुनी शय इस्लामी तहज़ीब से मुतज़ाद (विरोधी) है और औरत के बारे में उसके तसव्वुरात के बिल्कुल खिलाफ है, जिनकी रू से औरत एक आबरू है और इसकी हिफाज़त फर्ज़ है। इसलिये इस्लामी तहज़ीब ऐसी तस्वीर कशी को ममनू (गैरक़ानूनी) करार देती है क्योंकि यह जिबिल्लते नो (कामेच्छा) को भड़काने और अख़लाक़ी अनारकी (नैतिक अराजकता) की तरफ ले जाने का सबब बनती है। इसी तरह जब मुसलमान घर बनाने का इरादा करता है जो एक तमद्दुनी शक्ल है, तो वोह इस बात का ख़याल रखता है कि औरत जब घर मे मुखतसिर लिबास पहन कर काम काज कर रही हो तो उस पर बाहर के लोगों की नज़र न पड़े। चुनाँचे वोह घर के गिर्द चार दीवारी बनाता है, इसके बरखिलाफ मग़रिबी शख्स इन चीजों का ख़याल नही रखता और यह मग़रिबी तहज़ीब के मुताबिक है। इसी का इत्तलाक़ उन तमाम तमद्दुनी अशया पर होता है जो मग़रिबी तहज़ीब से नतीजे के तौर पर निकलती है जैसे मुजस्सिमें बगैरा। इसी तरह अगर लिबास कुफ्फार (non-Muslim) के साथ उनके कुफ्फार होने के ऐतबार से खास हों, तो मुसलमान के लिये ऐसा लिबास पहनना जायज़ नही। क्योंकि वोह कपड़े एक खास नुक्ताएं नज़र के हामिल है। अगर कपड़े इस तरह के हों कि जिनसे उनकी मखसूस काफिराना शनाख्त न झलकती हो, बल्कि वोह उसे जरूरत के तौर पर या ज़ीनत के लिये उनको इस्तेमाल कर रहे हो तब यह लिबास आम तमद्दुनी अशया में शुमार होंगा और उनक इस्तेमाल जायज़ होगा।

जहाँ तक उन तमद्दुनी अशया का तआल्लुक है जो सांइस और टेक्नोलोजी की तरक्की की वजह से वजूद मे आई है, जैसे लेबोरेट्रियो के आलात, तिब्बी आलात, फनीचर और कालीन और इसी किस्म की दूसरी चीजे, यह सब आलमी तमद्दुनी अशया है। इनको इिख्तयार करने मे कोइ अम्र माने (रूकावट) नहीं। क्योंकि यह किसी खास तहज़ीब की पैदावार नहीं और ना किसी खास तहज़ीब से मुताल्लिक नहीं है।

यह मग़रिबी तहज़ीब, जो आज पूरी दुनियाँ पर हुकूमत कर रही है, इस पर एक सरसरी निगाह डालने से नज़र आता है कि यह तहज़ीब इंसानियत को इत्मिनान की ज़मानत देने से बिल्कुल क़ासिर है। बल्कि इसके बरअक्स यह तहज़ीब ही इंसानियत के लिये उस बदबख्ती और तबाही का सबब है जिससे आज पूरी इंसानियत दो-चार है, जिसकी सुलगाइ हुइ आग में पूरी इंसानियत जल रही है। यह तहज़ीब जो दुनयवी उमूर की दीन से जुदाइ को अपनी बुनियाद करार देती है, इंसानी फितरत के बिल्कुल खिलाफ है। ऐसी तहज़ीब जो ज़िन्दगी में रूहानियत को कोइ वज़न नहीं देती और जिसके नजदीक ज़िन्दगी का तसव्वुर सिर्फ मनफअत है, जो सिर्फ मनफअत ही को एक इंसान का दूसरे इंसान से तआल्लुक गरदांती है, इसका नतीजा सिर्फ बदबख्ती और दाइमी परेशानी ही हो सकता है। पस जब तक मनफअत इसकी बुनियाद है, तनाज़ात का उठना, इंसानो के माबैन तआल्लुकात के क़याम के लिये क़ुव्वत पर भरोसा करना इस तहज़ीब की रू से एक तबइ (स्वभाविक) अम्र है। इसी वजह से इस तहज़ीब के हामिल अफराद के नजदीक इस्तेमार (imperialism) भी एक तबइ अम्र है। चुनाँचे इस तहज़ीब के यहाँ अखलाक भी हमेशा डांवाडोल रहेंगे क्येाकि इसके नज़दीक़ सिर्फ मनफअत ही ज़िन्दगी की बुनियाद है। लिहाजा यह तबइ बात है कि ज़िन्दगी से अखलाक़े-करीमा और रूहानी कीमतों को निकाल दिया गया और यूं ज़िन्दगी मुकाबले, झगड़े, दुश्मनी और इस्तेमार की बुनियाद पर इस्तेवार हो गइ। पस आज दुनियाँ में इंसानों के अंदर पाया जाने वाला रूहानी बोहरान (crisis), दायमी बेचैनी और फैला हुआ शर इस मग़रिबी तहज़ीब से पैदा होने वाले नताइज की बहतरीन मिसाले है। क्योंकि आज पूरी दुनियाँ पर यही तहज़ीब छाई हुई है और इसी ने इन खतरनाक नताइज को पैदा किया है और यह तहज़ीब आज पूरी दुनियाँ के लिये खतरा साबित हो रही है।

अगर हम इस्लामी तहज़ीब पर नज़र डाले, जो छठी सदी ईसवी से लेकर अठ्ठारवीं सदी ईसवी तक दुनियाँ पर हुकूमत करती रही, तो हम यह देख सकते है की यह तहज़ीब इस्तेमार तहज़ीब नहीं थी बल्कि इस्तेमारियत इसकी तबियत में भी शामिल नहीं है। क्योंकि उसने मुसलामनांे और गैर-मुस्लिमो में कभी फर्क़ नहीं किया। पस अपने तमाम मुद्दते हुक्मरानी में इन तमाम अक़वाम को अदल (न्याय) की ज़मानत हासिल थी, जो उसके ज़ेरे साया थे। क्योंकि यह एक ऐसी तहज़ीब है जो उस रूहानी बुनियाद पर क़ायम है जो तमाम क़िमतों को पूरा करती है यानी माद्दी, रूहानी, अख़लाक़ी और इंसानी कीमतों को। अकीदे को इस तहज़ीब में बुनियादी वज़न हासिल है। इस तहज़ीब के नज़दीक ज़िन्दगी का तसव्वुर अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक चलना है और खुशी व सआदत के मायनी अल्लाह तआला की खुशनूदी का हुसूल है। पस यह इस्लामी तहज़ीब पहले की तरह जब दुनियाँ पर हुक्मरानी करेगी तो दुनियाँ के तमाम बोहरानों के हल के लिये काफी होगी और पूरी इंसानियत की खुशहाली की ज़मानत होगी।

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