इस्लाम में अख़लाक़




इस्लाम में अख़लाक़

इस्लाम की यह तारीफ़ की गई है कि यह वह दीन है जिसको अल्लाह ताला ने सय्यदना मोहम्मद (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) पर इसलिये नाज़िल फ़रमया कि इन्सान अपने ख़ालिक़, अपनी ज़ात और दूसरे इंसानो के साथ ताल्लुक़ात को मुनज्ज़म करे. इंसान का अपने ख़ालिक़ के साथ ताल्लुक़ अक़ीदे व ईबादात पर मुशतमिल है. अपनी ज़ात के साथ ताल्लुक़ मे अखलाक़, मतूमात (खाने पीने की चीज़े) और मलबूसात (पहनने की चीज़े) आती है और दूसरे इंसानो के साथ ताल्लुक़ में मामलात और उक़बात (सज़ाऐ) शामिल है.

इस्लाम दुनिया में इंसानो की तमाम मुश्किलात व मसाइल को हल करता है. यह इन्सान को इस नज़र से देखता है कि वह एक ऐसा कुल है जिस को तक़सीम नहीं किया जा सकता. इसलिये इस्लाम इन्सान की मुश्किलात को एक ही तरीक़े से हल करता है. इस्लाम का पुरा निज़ाम एक अक़ीदे पर मबनी है. अकीदा ही इसकी तहज़ीब और सियासत की बुनियाद है.

इसके बावजूद कि इस्लामी शरीयत ने इबादात, मामलात और उक़बात वगैराह को बड़ी बारीक बीनी और तफ़सील के साथ बयान किया है लेकिन अख़लाक़ के लिये कोई मुफ्फ्सल निज़ाम नहीं बताया. अखलाक़ से मुताल्लिक़ अहकामात को सिर्फ़ इस लिहाज़ से बयान किया है कि यह अलहैदा से कोई चीज़ नहीं है बल्कि यह अल्लाह ताला के वो अमर व नवाही है जो अमल करने के लिये है. इस्लाम में अख़लाक़ पर इस तरह से तवज्जोह नहीं दी गइ कि उनको दिगर अहकामात के मुक़ाबले में कोई खास अहमीयत है या वोह दूसरे अहकामात से मुम्ताज़ है. बल्कि दूसरे अहकामात के मुक़ाबले में इनकी तफ़सील कम ही मिलती है. यही वजह है कि अख़लाक़ के नाम से फुक़हा की कताबों में कोई मख़सूस बाब नहीं रखा गया.

अख़लाक़ किसी भी हालत में माशरे पर असर अन्दाज़ नहीं होते. माशरा तो निज़ामे-हयात पर क़ायम होता है और माशरे पर तो अफ़कार व अहसासात ही असर अन्दाज़ होते है. अख़लाक़ का माशरे की तरक्क़ी और इसके ज़वाल पर कोई असर नहीं पड़ता. माशरे पर असर अन्दाज़ होने वाली चीज़ वह उरफे आम है जो ज़न्द्गी के बारे में तसव्वुरात से पैदा होती है. माशरे को चलाने वाले अख़लाक़ नहीं होते बल्कि माशरे का वोह निज़ाम जो उस माशरे पर नाफिज़ होता है और वह अफ़कार व अहसासात चलाते है, जिनके इस माशरे के लोग हामिल होते है. चुनांचे अख़लाक़ भी अफ़कार व अहसासात से पैदा होते है और यह माशरे में नाफिज़ निज़ाम का नतीजा होते है.

अख़लाक़ अल्लाह ताला के अमरो नवाही की इत्तिबा करने से खुदबखुद पैदा होते है. इसलिये माशरे में सिर्फ़ अख़लाक़ की दावत देना बहुत नुक़सानदेह है. अखलाक़ अकीदा और इस्लाम के जामे अन्दाज़ से निफाज़ के फितरी नतीजे के तौर पर पैदा होते है. अख़लाक़ की तरफ़ दावत देना ज़िन्दगी के बारे में इस्लामी तसव्वुरात को उलटना, लोगों को माशरा बनाने वाले अवामिल की हक़ीक़त समझने से दूर करना और इनफ़रादी फ़जाइल की दावत दे कर उन्हें मदहोश बना कर माशरे की तरक्क़ी के हक़ीक़ी सबब से ग़ाफ़िल करना है. यही वजह है कि इस्लामी दावत को एक अख़लाक़ी दावत बनाना इन्तहाई ख़तरनाक बात है क्योकि इससे यह वहम पैदा होगा कि इस्लामी दावत भी एक तरह की अख़लाक़ी दावत है और इस तरह इस्लाम की फिकरी सूरत बिगड़ जाईऐगी. लोगों के फ़हम के रास्ते में हाइल हो जाईगी और यह चीज़ उन्हे उस वाहिद रास्ते से हटा देगी जो इस्लाम को नाफिज़ करने का रास्ता है यानी इस्लामी रयासत का क़याम.

इस्लामी शरीयते ने इन्सान के अपनी ज़ात के साथ ताल्लुक़ के मसले को अख़लाक़ी सिफात से मुताल्लिक़ अहकाम के ज़रिये हल किया। उसने इस हल को इबादात और मामलात की तरह एक निज़ाम (system) नहीं बनाया बल्कि इसमें सिर्फ़ कुछ मुतय्यन क़ीमतों के हुसूल की रिआयत रखी जिनका अल्लाह ताला ने हुक्म दिया है मसलन सच्चाई, अमानत, धोका न देना और हसद न करना वगैरा। यह सिफात एक ही चीज़ से हासिल होती है और वह अख़लाक़ी क़ीमत से मुताल्लिक़ अल्लाह ताला का हुक्म है जैसे मकारम और फ़जाईल। पस अमानत एक ऐसा ख़लक़ है जिसका अल्लाह ताला ने हुक्म दिया है। इस अमानत की अदाईगी के वक़्त इस की अख़लाक़ी क़ीमत का लिहाज़ रखना ज़रूरी है चुनाचे इस तरह उसके ज़रिये अख़लाक़ी क़ीमत हासिल हो जाती है और उसी को अख़लाक़ कहा जाता है। जहां तक अामाल से बतौरे नताइज सिफात के हुसूल की बात है जैसा कि नमाज़ पड़ने से पाकदामनी का पैदा होना या मामलात को निमटाते वक़्त उन अमूर का खयाल करना जिनको मलहूज़ रखना लाज़िम है जैसे तिजारत के अन्दर सचाई का लहाज़ रखना तो इन आमाल से कोई अख़लाक़ी क़ीमत हासिल नहीं होती क्योकि अामाल की अन्जाम देही का मक़सूद यह अखलाक़ी क़िमत नहीं थीं। बल्कि यह सिफात अामाल के नतीजे मे हासिल हो गई के वोह अखलाक़ी सिफात कि रिआयत करे ख्वाह वोह अल्लाह की इबादत कर रहा हो या मामलात को सरअंजाम दे रहा हो। इसलिये जब मोमिन नमाज़ से रूहानी क़ीमत का क़सद करता है और तिजारत से माद्दी क़िमत के हुसूल का क़सद करता है ऐन उसी वक़्त वह अख़लाक़ी सिफात से भी मुतसिर्फ होता है।

शरीयत ने उन सिफात को भी बयान कर दिया है जिनसे मुतसिफ होने को अख़लाक़े हसना कहा जाता है और वोह सिफात भी बयान कर दीं है जो अख़लाके सय्येआत (बुरे अख़लाक़) के ज़ुमरे में आती है। लिहाज़ा, शरीयत ने अख़लाक़े हसना को इख्तियार करने की तरग़ीब दी है और अख़लाक़े सय्येआ से मना फ़रमाया है। शरीयत ने सच्चाई, अमानत, खुन्दापेशानी, हया और वालदैन के साथ नेक सुलूक़ और सिला-रहमी की तरग़ीब दी है। इसी तरह अपने मुसलमान भाई को किसी मुसीबत से निकालने और उसके लिये वही पसन्द करने की तरग़ीब दी है जो खुद अपने लिये पसन्द करता है। शरीयत ने इन बातों मे या इन जैसी दूसरी बातों की तरग़ीब अल्लाह ताला के अवामिर की इताअत होने के नाते दी है। इसी तरह झूठ, ख़यानत, हसद, फ़िजूर (गुनाह के काम) वग़ैराह इसलिये मना है क्योकि अल्लाह ताला ने उनसे बचने का हुक्म दिया है।

अख़लाक़ शरीयत ही का एक हिस्सा है, अल्लाह ताला के अमरो व नवाही ही की एक क़िस्म है और एक मुसलमान के अन्दर यह अख़लाक़ी सिफात लाज़मी तौर पर होना चाहिये। ताकि इस्लाम पर मुकम्मल अमल हो सके और अल्लाह ताला के अवामिर की तकमील हो सके। अलबत्ता माशरे के अन्दर इन सिफात को इस्लामी अहसासात और इस्लामी अफ़कार को परवान चड़ा कर पैदा किया जा सकता है। जब माशरे में यह सिफात (अख़लाक़) होगीं तो फर्द के अन्दर लामहाला पाई जायेंगी। लिहाज़ा यह बात वाज़ह है कि अख़लाक़ की तरफ दावत दे कर इन सिफात को पैदा नहीं किया जा सकता है। बल्कि माशरे के अन्दर इन सिफात को पैदा करने के लिऐ इस्लामी अहसासात और् इस्लामी अफ़कार पैदा करने होगें। अलबत्ता यह जानना भी ज़रूरी है कि इस काम का आग़ाज़ करने के लिये एक ऐसे कुतला (जमात) तैयार करने की ज़रूरत होती है जो इस्लाम को मुकम्मल तौर पर नाफिज़ करने के नसबुलऐन पर क़ायम हो, जिसके अफ़राद जमात के अजज़ा की तरह हों ना कि महज़ अफ़राद। ताके वोह इस माशरे में मुकम्मल इस्लाम के दाई और अलमबरदार बन सकें। यों वोह इस्लामी अहसासात और इस्लामी अफ़कार को माशरे में परवान चढायेगे और लोग फौज-दर-फौज इस्लाम में दाखिल होने की वजह से फौज-दर-फौज इन अख़लाक़ी सिफात से मुतसिफ हो सकेंगे। यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिऐ कि अख़लाक़ अल्लाह ताला के अवामिर और इस्लाम को नाफिज़ करने के लिये लाज़िम-व-मलज़ोम की हैसियत रखते है। इस से एक मुसलमान के अख़लाक़े हसना की सिफात से मुतसिर्फ होने की ज़रूरत का भी अन्दाज़ा होता है।

अल्लाह ताला ने क़ुरआने करीम की कई सूरतों मे उन सिफात को बयान फरमाया है जिन से मुतसिफ होना और उनको अपने अन्दर पैदा करने की कोशिश करना इंसान के लिये ज़रूरी है। यह सिफात अक़ाइद, इबादात, अख़लाक़ और मामलात पर मुश्तमिल है। और ज़रूरी है की इंसान मे यह चारों सिफात बैक़ वक्त मजमूई तौर पर पाई जाये। सूरे लुक़मान मे अल्लाह ताला का इरशाद है :

﴿وَإِذْ قَالَ لُقْمَانُ لابْنِهِ وَهُوَ يَعِظُهُ يَا بُنَيَّ لا تُشْرِكْ بِاللَّهِ إِنَّ الشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيمٌ - وَوَصَّيْنَا الإنْسَانَ بِوَالِدَيْهِ حَمَلَتْهُ أُمُّهُ وَهْنًا عَلَى وَهْنٍ وَفِصَالُهُ فِي عَامَيْنِ أَنِ اشْكُرْ لِي وَلِوَالِدَيْكَ إِلَيَّ الْمَصِيرُ - وَإِنْ جَاهَدَاكَ عَلى أَنْ تُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلا تُطِعْهُمَا وَصَاحِبْهُمَا فِي الدُّنْيَا مَعْرُوفًا وَاتَّبِعْ سَبِيلَ مَنْ أَنَابَ إِلَيَّ ثُمَّ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ - يَا بُنَيَّ إِنَّهَا إِنْ تَكُ مِثْقَالَ حَبَّةٍ مِنْ خَرْدَلٍ فَتَكُنْ فِي صَخْرَةٍ أَوْ فِي السَّمَاوَاتِ أَوْ فِي الأرْضِ يَأْتِ بِهَا اللَّهُ إِنَّ اللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٌ - يَا بُنَيَّ أَقِمِ الصَّلاةَ وَأْمُرْ بِالْمَعْرُوفِ وَانْهَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَاصْبِرْ عَلَى مَا أَصَابَكَ إِنَّ ذَلِكَ مِنْ عَزْمِ الأمُورِ - وَلا تُصَعِّرْ خَدَّكَ لِلنَّاسِ وَلا تَمْشِ فِي الأرْضِ مَرَحًا إِنَّ اللَّهَ لا يُحِبُّ كُلَّ مُخْتَالٍ فَخُورٍ - وَاقْصِدْ فِي مَشْيِكَ وَاغْضُضْ مِنْ صَوْتِكَ إِنَّ أَنْكَرَ الأصْوَاتِ لَصَوْتُ الْحَمِيرِ﴾

“और जब लुक़मान ने अपने बेटे को नसीहत करते हुऐ कहा के ‘ऐ बेटा! (किसी को) अल्लाह का शरीक ना ठहराना, इसमे कोई शक नही की शिर्क बढे ही ज़ुल्म की बात है।’ और हमने इंसान को उसके मां-बाप के हक़ मे ताकीद की (की वोह अपने मां-बाप के साथ हुस्ने सुलूक करे)। इसकी मां ने इसे थक़-थक़ कर इसे पैट मे उठाये रखा, और दो बरस तक उसे दूध पिलाती रही। (इसलिये) हमारा शुक्रगुज़ार रह, और अपने वालिदैन का भी। आखिरकार हमारी हि तरफ तुम सब को लौट कर आना है। अगर तेरे मां-बाप तुझे इस बात पर मजबूर करे की तू हमारे साथ किसी को शरीक ठहराये, जिसकी तेरे पास कोई दलील नही, तो (इस मामले मे) उनका कहा न मानना। (मगर हां) दुनिया मे उनके साथ सआदत मन्दी के साथ रह, और उन लोगों के तरीक़े पर चल, जो हर बात मे हमारी तरफ रुजुअ करते है और हमारा हुक्म बजा लाते है। फिर आखिरकार तुम सब को हमारी तरफ ही लौटना है। फिर मै तुम्हे तुम्हारे आमाल के मुताल्लिक़ बताउंगा। ‘बेटा! अगर कोई चीज़ राई के दाने के बराबर हो फिर वोह किसी पत्थर या आसमानो मे या ज़मीनो मे हो, तो उसको भी अल्लाह ताला ला हाज़िर करेगा। बेशक अल्लाह ताला बडा बारीक बीन और बाखबर है। बेटा! नमाज़ क़ायम करो और (लोगों को) अच्छे कामों (के करने) की नसिहत किया करो और बुरे कामो से मना कर, और तुझ पर जैसी पढे, इस पर सब्र कर, बेशक यह (बढी) हिम्मत का काम है। और लोगों से बेरुखी न कर और ज़मीन पर इतरा कर ना चल, (क्योकि) अल्लाह किसी इतराने वाले शेख़ी-खोर को पसन्द नही करता। और अपनी रफ्तार मे मयानारवी (इख्तियार) कर और अपनी आवाज़ को नीचा कर, क्योकि आवाज़ो मे सब से बुरी आवाज़ गधे की है।” (तर्जुमा मआनी क़ुरआने करीम, सूरे लुक़मान, आयत - 13-19).

और सूरे फुरक़ान मे अल्लाह ताला का इरशाद है:

﴿وَعِبَادُ الرَّحْمَنِ الَّذِينَ يَمْشُونَ عَلَى الأرْضِ هَوْنًا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ الْجَاهِلُونَ قَالُوا سَلامًا - وَالَّذِينَ يَبِيتُونَ لِرَبِّهِمْ سُجَّدًا وَقِيَامًا - وَالَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا اصْرِفْ عَنَّا عَذَابَ جَهَنَّمَ إِنَّ عَذَابَهَا كَانَ غَرَامًا - إِنَّهَا سَاءَتْ مُسْتَقَرًّا وَمُقَامًا - وَالَّذِينَ إِذَا أَنْفَقُوا لَمْ يُسْرِفُوا وَلَمْ يَقْتُرُوا وَكَانَ بَيْنَ ذَلِكَ قَوَامًا - وَالَّذِينَ لا يَدْعُونَ مَعَ اللَّهِ إِلَهًا آخَرَ وَلا يَقْتُلُونَ النَّفْسَ الَّتِي حَرَّمَ اللَّهُ إِلا بِالْحَقِّ وَلا يَزْنُونَ وَمَنْ يَفْعَلْ ذَلِكَ يَلْقَ أَثَامًا - يُضَاعَفْ لَهُ الْعَذَابُ يَوْمَ الْقِيَامَةِ وَيَخْلُدْ فِيهِ مُهَانًا - إِلا مَنْ تَابَ وَآمَنَ وَعَمِلَ عَمَلا صَالِحًا فَأُولَئِكَ يُبَدِّلُ اللَّهُ سَيِّئَاتِهِمْ حَسَنَاتٍ وَكَانَ اللَّهُ غَفُورًا رَحِيمًا - وَمَنْ تَابَ وَعَمِلَ صَالِحًا فَإِنَّهُ يَتُوبُ إِلَى اللَّهِ مَتَابًا - وَالَّذِينَ لا يَشْهَدُونَ الزُّورَ وَإِذَا مَرُّوا بِاللَّغْوِ مَرُّوا كِرَامًا - وَالَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُوا بِآيَاتِ رَبِّهِمْ لَمْ يَخِرُّوا عَلَيْهَا صُمًّا وَعُمْيَانًا - وَالَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا هَبْ لَنَا مِنْ أَزْوَاجِنَا وَذُرِّيَّاتِنَا قُرَّةَ أَعْيُنٍ وَاجْعَلْنَا لِلْمُتَّقِينَ إِمَامًا - أُولَئِكَ يُجْزَوْنَ الْغُرْفَةَ بِمَا صَبَرُوا وَيُلَقَّوْنَ فِيهَا تَحِيَّةً وَسَلامًا - خَالِدِينَ فِيهَا حَسُنَتْ مُسْتَقَرًّا وَمُقَامًا﴾

“रहमान के (फरमाबरदार) बन्दे तो वोह है जो ज़मीन पर नरमी के साथ चलें और जब जाहिल उनसे मुखातिब हो तो (उन्हे) सलाम करें (और अलग हो ज़ाऐं)। और जो रातो को अपने परवर दिगार के आगे सजदे और क़याम करें। और जो दुआऐ मांगे के ऐ हमारे परवरदिगार! अज़ाबे दोज़ख़ को हमसे दूर हि रखिऐ, क्योकि दोज़ख का अज़ाब (बहुत भारी) मुसिबत है। वोह (थोडी देर) ठहरने और (हमेशा) रहने की बुरी जगह है। और जो खर्च करने लगे तो फिज़ूल खर्ची न करें और न बहुत तंगी करे, बल्कि उनका खर्च अफरात व तफरीत के दर्मियान एक सिधी गुज़रान हो। और जो अल्लाह के साथ (किसी) दूसरे माबूद को ना पुकारें और नाहक़ किसी को ज़ान से मारें के इस बात को अल्लाह ताला ने हराम किया है, और ना ही वोह ज़िना का मुर्तकिब हो। और जो ऐसे अमल करेगा, वोह (अपने) गुनाह का खमियाज़ा भुगतेगा। क़यामत के दिन उसे दोहरा अज़ाब दिया जाऐगा। और वोह ज़लील व रुसवा हो कर हमेशा उसी हाल मे रहेगा। मगर जिसने तौबा की और इमान लाया और नेक अमल किये, तो अल्लाह ऐसे लोगों के गुनाहो को नेकी मे बदल देगा। और अल्लाह बडा बख्शने वाला और मेहरबान है। और जो शख्स तौबा करें और उसके बाद नेक अमल (भी) करे तो हक़ीक़त मे वोह अल्लाह की तरफ रुजूअ करता है। और (अल्लाह के फरमाबरदार बन्दों मे से) वोह (भी) है जो झूठी गवाही ना दें और जो बेहुदा मशग़लो के पास से गुज़रे तो वज़अदारी के साथ गुज़रें। और वोह लोग के जब उन्हें उनके परवरदिगार की आयात सुना सुना कर नसिहत की जाऐ तो वोह अन्धे और बहरे हो कर उन पर न गिर पडे। और जो दुआऐं मांगते है कि ऐ हमारे परवरदिगार! हमें हमारी बिवियों की (तरफ से) आंखो की ठंडक इनायत फरमा और हमें परहेज़गारो का पेशवा बना। यही लोग है जिनको उनके सब्र के बदले (जन्नत मे रहने के लिये) बाला खाने मिलेगे, और वहां दुआ और सलाम के साथ उनका इस्तक़बाल किया जाऐगा। और यह लोग जन्नत मे हमेशा हमेशा रहेगें। और यह क्या हि अच्छी जगह है, ठहरने के लिये और हमेशा रहने के लिये। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-फुरक़ान, आयत:63-76)

और सूरे अल-इसरा मे इरशाद फरमाया:

﴿وَقَضَى رَبُّكَ أَلا تَعْبُدُوا إِلا إِيَّاهُ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا إِمَّا يَبْلُغَنَّ عِنْدَكَ الْكِبَرَ أَحَدُهُمَا أَوْ كِلاهُمَا فَلا تَقُلْ لَهُمَا أُفٍّ وَلا تَنْهَرْهُمَا وَقُلْ لَهُمَا قَوْلا كَرِيمًا - وَاخْفِضْ لَهُمَا جَنَاحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّحْمَةِ وَقُلْ رَبِّ ارْحَمْهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرًا - رَبُّكُمْ أَعْلَمُ بِمَا فِي نُفُوسِكُمْ إِنْ تَكُونُوا صَالِحِينَ فَإِنَّهُ كَانَ لِلأوَّابِينَ غَفُورًا - وَآتِ ذَا الْقُرْبَى حَقَّهُ وَالْمِسْكِينَ وَابْنَ السَّبِيلِ وَلا تُبَذِّرْ تَبْذِيرًا - إِنَّ الْمُبَذِّرِينَ كَانُوا إِخْوَانَ الشَّيَاطِينِ وَكَانَ الشَّيْطَانُ لِرَبِّهِ كَفُورًا - وَإِمَّا تُعْرِضَنَّ عَنْهُمُ ابْتِغَاءَ رَحْمَةٍ مِنْ رَبِّكَ تَرْجُوهَا فَقُلْ لَهُمْ قَوْلا مَيْسُورًا - وَلا تَجْعَلْ يَدَكَ مَغْلُولَةً إِلَى عُنُقِكَ وَلا تَبْسُطْهَا كُلَّ الْبَسْطِ فَتَقْعُدَ مَلُومًا مَحْسُورًا - إِنَّ رَبَّكَ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَشَاءُ وَيَقْدِرُ إِنَّهُ كَانَ بِعِبَادِهِ خَبِيرًا بَصِيرًا - وَلا تَقْتُلُوا أَوْلادَكُمْ خَشْيَةَ إِمْلاقٍ نَحْنُ نَرْزُقُهُمْ وَإِيَّاكُمْ إِنَّ قَتْلَهُمْ كَانَ خِطْئًا كَبِيرًا - وَلا تَقْرَبُوا الزِّنَا إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَسَاءَ سَبِيلا - وَلا تَقْتُلُوا النَّفْسَ الَّتِي حَرَّمَ اللَّهُ إِلا بِالْحَقِّ وَمَنْ قُتِلَ مَظْلُومًا فَقَدْ جَعَلْنَا لِوَلِيِّهِ سُلْطَانًا فَلا يُسْرِفْ فِي الْقَتْلِ إِنَّهُ كَانَ مَنْصُورًا - وَلا تَقْرَبُوا مَالَ الْيَتِيمِ إِلا بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ حَتَّى يَبْلُغَ أَشُدَّهُ وَأَوْفُوا بِالْعَهْدِ إِنَّ الْعَهْدَ كَانَ مَسْئُولا - وَأَوْفُوا الْكَيْلَ إِذَا كِلْتُمْ وَزِنُوا بِالْقِسْطَاسِ الْمُسْتَقِيمِ ذَلِكَ خَيْرٌ وَأَحْسَنُ تَأْوِيلا - وَلا تَقْفُ مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ إِنَّ السَّمْعَ وَالْبَصَرَ وَالْفُؤَادَ كُلُّ أُولَئِكَ كَانَ عَنْهُ مَسْئُولا - وَلا تَمْشِ فِي الأرْضِ مَرَحًا إِنَّكَ لَنْ تَخْرِقَ الأرْضَ وَلَنْ تَبْلُغَ الْجِبَالَ طُولا - كُلُّ ذَلِكَ كَانَ سَيِّئُهُ عِنْدَ رَبِّكَ مَكْرُوهًا﴾

और तुम्हारे परवरदिगार ने हुक्म दे दिया है की इसके सिवा किसी की इबादत न करो और वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक़ के साथ पेश आओ। और अगर वालिदैन मे से एक या दो तुम्हारे सामने बुढापे को पहुंचे तो उन के सामने उफ भी ना करना और ना उन्हें झिडकना और उनसे कुछ कहना हो तो अदब के साथ कहना और मुहब्बत से ख़ाक़सारी का पहलू उनके आगे झुकाऐ रखना और उनके हक़ मे दुआ करते रहना की ‘ऐ मेरे परवरदिगार! जिस तरह उन्होने मुझ छोटे से को पाला और मेरे हाल पर रहम करते रहे है, तू भी उनके हाल पर रहम फरमा’, तुम्हारे दिल की बात को अल्लाह खूब जानता है। अगर तुम हक़ीक़त मे सआदत मन्द हो तो वोह तुम्हे माफ कर देगा क्योकी वोह तौबा करने वालो की खताओ को बख्शने वाला है। और रिश्तेदार, ग़रीब और मुसाफिर (हर एक) को उस का हक़ पहुंचाते रहो और दौलत को नाहक़ ना उडाओ क्योंकि दौलत को बेजा उडाने वाले शैतान के भाई है और शैतान अपने परवरदिगार का बडा ही ना शुकरा है। और अगर तुम्हे अपने परवरदिगार के फज़ल के इंतज़ार मे, जिसकी तुम्हे तवक्को हो , इन (ग़ुरबा) से मुंह फेरना पडे तो नरमी से उन्हें समझा दो। और अपना हाथ ना तो इतना सुकेडो के (गोया) गरदन मे बन्धा है और ना उसको बिल्कुल फैला दो। (ऐसा करोगे तो) तुम ऐसे बैठे रह जाओगे की लोग भी तुम्हे मलामत करेंगे और तुम तहे दस्त भी होगें। तुम्हारा परवर दिगार जिस की चाहता है रोज़ी फराग़ कर देता है और जिस की चाहता है, नपि-तुली कर देता है। और वोह अपने बन्दो (के हाल) से बाखबर और (उनकी ज़रूरतों को) देखने वाला है। और इफ्लास के डर से अपनी औलाद को क़त्ल ना करो, उन्हे भी हम ही रोज़ी देते है तुम्हे भी। और औलाद को जान से मारना बडा भारी गुनाह है। और ज़िना के पास भी ना भटकना, क्योकि यह बेहयाई और (बहुत ही) बुरा चलन है। और किसी को नाहक़ क़त्ल करना अल्लाह ने हराम कर दिया है। और जो शख्स ज़ुल्म से मारा जाऐ तो हम ने उसके वाली (वारिस) को क़त्ल का क़िसास लेने का इख्तियार दिया है, तो उसे चाहिऐ की खून (का बदला लेने) मे ज्यादती ना करे, क्योकि उसकी मदद कर दी गई है। और यतीम के माल के पास भी ना ज़ाना, मगर जिस तरह के (यतीम के हक़ मे) बेहतर हो, जब तक के वोह अपनी जवानी को पहुंच जाऐ। और अहद को पूरा किया करो, क्योकि (क़यामत के दिन) अहद की बाज़-पुर्स होगी। और जब माप करो तो पैमाने को पूरा भर कर दिया करो और डंडी सिधी रख कर तोला करो। मामले का यह बेहतर (तरीक़ा) है और (इसका) अंज़ाम भी अच्छा है। और जिस बात का तुझ को इल्म नही उसके पीछे ना हो लिया कर, क्योकी कान, आंख और दिल सब से (क़यामत के दिन) पूछ-गछ होनी है। और ज़मीन मे अकड कर न चला कर क्योकि इस से तू ज़मीन को नही फाड सकेगा और ना (तन कर चलने से) पहाडो की बुलन्दी को पहुंच सकेगा। इन सब बातो मे जो बुरी है, सब ही तुम्हारे परवरदिगार के नज़दीक़ नापसन्द हैं। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे बनी-इसराईल, आयत:23-38)

पस इन तीनों सूरतों की यह आयात मुख्तलिफ सिफात का एक मुकम्मल माजमुआ हैं। इनसे एक मुसलमान की सूरत उभर कर सामने आती है और यह आयात इस्लामी शख्सियत को बयान करती है जो दूसरोंे से मुमताज होती है, और इस दौरान इस बात का लिहाज रहे कि यह (सिफात) अल्लाह ताला के अवामिर और नवाही हैं। ख्वाह इनमें मौजूद अहकामात का ताअल्लुक अक़ीदे से हो या इबादात से, मामलात से हो या अखलाक़ से। चुनांचे इस बात का भी लिहाज रहे कि यह सिफात सिर्फ अखलाक़ी सिफात तक महदूद नहीं, बल्कि जिस तरह यह अख्लाक़ियात पर मुश्तमिल हंै, बिल्कुल इसी तरह यह अक़ीदा, इबादात और मामलात पर भी मुश्तमिल हैं। यह सिफात हि इस्लामी शख्सियत की तामीर करती हैं। सिर्फ अखलाक़ किसी शख्स केा कामिल और उसकी शख्सियत को इस्लामी नही बनाते। फिर यह भी लाज़िम है की इनका मक़सद भी रुहानी असास, यानि इस्लामी अक़ीदे पर मबनी हो। इन सिफात से मुतसिफ होना भी इस्लामी अक़ीदे की बुनीयाद पर होना चाहिये। इसलिए एक मुसलमान सिद्क़ (सच्चाइ) की सिफत से सिर्फ सिद्क (सच्चाइ) की वजह से मुतसिफ नहीं होता। बल्कि इसलिये इस सिफत को अपने अन्दर पैदा करता है कि यह अल्लाह का हुक्म है, अगरचे वह सच बोलते हुए इसकी अख्लाक़ी क़ीमत भी हासिल करता है। पस अख्लाक़ी सिफात से मुतसिफ होना सिर्फ इन सिफात की वजह से नहीं, बल्कि उनके अवामिरे अल्लाह होने की वजह से है।

इसलिये लाज़मी तौर पर मुसलमानों को इन सिफात से मुतसिफ होना चाहिए। और यह की इन सिफात का इलतज़ाम इताअत और फरमाबरदारी के जज्बे से हो, क्योकि इनका ताउल्लुक तक़वा से है। यह सिफात इबादात से बतोरे नताइज पैदा होती हैं जैसे सूरे अनकबूत में अल्लाह का इरशाद है :

إِنَّ الصَّلاةَ تَنْهَى عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنْكَرِ

“बेशक नमाज बेहयाइ और बुरी बातों से रोकती है।”

इस तरह मुआमलात मे भी इनकी रिआयत रखना जरुरी है। “दीन मुआमलात का नाम है।”

यही अल्लाह ताला के मुकर्र किये हुए अवामिर और नवाही है, और यह अमर (यानी इन का अल्लाह के अवामिर व नवाही होना) हि इन सिफात को एक मुसलमान के अन्दर रासिख कर देता है और इनको एक मुसलमान की आदते सानिया बना देती है। इसलिये अखलाक़ बाकी निजामें हाय हयात का हिस्सा है, अगर यह मुसतक़िल सिफात है। यह सिफात एक मुसलमान को सुआलेह बनाने की ज़मानत देती हंै। क्योकि अख्लाक़ी सिफात से मुतसिफ होने का मतलब है कि अल्लाह ताला के अवामिर को पूरा करना और नवाही से बचना। इनसे मुतसिफ होने का हरगिज यह मखसद नहीं कि इन से फायदा या नुकसान हासिल होता हैं। और यही वोह चीज़ है, जो किसी शख्स को दाइमी तौर पर अखलाक़े हस्ना से मुतसिफ कर सकती है और यहीं चीज़ एक मुसलमान को इस्लाम के निफाज कि राह में साबित कदम कर सकती है और इस वजह ही से मुसलमान मनफअत के साथ गर्दिश नही करता रहेगा। क्योकि मुसलमान इन आमाल की अन्जाम देही से मनफअत का कस्द नही करता, बल्कि इस से तो बचना चाहिऐ। क्योकि इन आमाल की अनजाम देही का मक़सद अख्लाक़ी क़ीमत है, ना कि माद्दी या इंसानी या रुहानी क़ीमत। बल्कि इन कीमतों का इस दायरे में अमल दखल नही होना चाहिए, ताकि इस तरह इस फरीज़े की अदाइगी और इन सिफात को अपनाने में कोई खलल पैदा ना हो सके। और जिस चीज़ की तरफ तम्बीह निहायत जरूरी है वह यह है कि इंसान माद्दी क़ीमत को अखलाक़ से दूर रखे और यह की इन की अदाइगी किसी नफा और फायदे के लिये बिल्कुल न हो, क्योकि यह इन्तेहाइ खतरनाक बात है।

खुलासाए कलाम

खुुलासाए कलाम यह है कि अखलाक़ मुआशरे को बनाने वाली चीज़ नही, बल्कि यह फर्द की तामीर करने वाली चीज़ है। इसलिये मुआशरे की इस्लाह कभी भी अखलाक़ के ज़रिये नही होगी। बल्कि मुआशरे की इस्लाह सिर्फ इस्लामी अफकार और एहसासात और इस्लामी निज़ाम हाए हयात के निफाज़ से होगी। फर्द को भी सिर्फ अखलाक़ नही बनाते, बल्कि अखलाक़ के साथ अकायद, इबादात और मुआमलात भी लाज़मी हंै। इसलिए वह शख्स मुसलमान नही जिसके अखलाक़ तो बड़े अच्छे हैं लेकिन अकाइद गैर इस्लामी हैं। बल्कि वह काफिर है और कुफ्र से बड़ा गुनाह क्या हो सकता है? इसी तरह वह शख्स जिसके अखलाक़ तो बड़े अच्छे हंै, लेकिन इबादात और मुआमलात में वह एहकामे शरीया का लिहाज नही रखता, उसे भी अखलाके हसना का हामिल नही कह सकते, मालूम हुआ के एक फर्द को बनाने के लिए अक़ीदे, इबादात, मुआमलात और अखलाक़ सब लाज़मी हैं। यह शरअन जायज़ नही कि अखलाक़ की तरफ ख्ूब तवज्जोह दी जाए और बाकी सिफात को छोड़ दिया जाए, बल्कि किसी चीज़ को नजरअंदाज करना जायज़ नही। सबसे क़ब्ल जिस चीज़ के बारे में इतमीनान कर लेना चाहिये, वह अक़ीदा हैंं। अखलाक़ के अन्दर भी बुनियादी चीज़ यह है कि यह इस्लामी अक़ीदे पर मंबनी हों, और मोमिन उन्हे अल्लाह ताला के अवामिर व नवाही समझ कर अपनाए।



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