भारत के सामने चेलेंज़ेस की भीषण बाढ: भाग - 2
भारत की भ्रमित करने वाली सुबह
भारत अपने आप मे एक अनोखी या नऐ किस्म की आर्थिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व नही करता. फ्रि-मार्केट का सिद्धांत एक जांचापरखा फार्मूला है जो पहले ही अफ्रिका, लेटिन अमरीका और सुदूर-पूर्वी राष्ट्रो को असफल बना चुका है. पश्चिमी दुनिया की ज़ाहिरी कामयाबी की कहानियों को फ्रि-मार्केट को सही साबित करने के लिये इस्तेमाल किया जाता है. यह कामयाबी दरहकीकत उन देशो की हुकूमतों के ज़रिये मदद के वजह से मुमकिन हो पायी है. भारत का दुनिया मे आउटसोर्सिंग का सब से बडा केंद्र बन जाने पर भी इसके फायदे उसकी इनती बडी अर्थव्यवस्था को प्रभावित नही सकते. यह आर्थिक रणनिती बहुत ही संकुचित है जो भारत की अर्थव्यवस्था के विभिन्न विभागों को उभार नही सकती. यही वजह है की भारत का इनफ्रास्ट्रक्चर अस्तव्यस्तता का शिकार है क्योकि सिर्फ वोह विभाग जो आउटसोर्सिंग के लिये सप्लाई लाईन का काम कर रहे है, जैसे की आई. टी (I.T.) वग़ैराह, इससे फायदा उठा रहे है. भारत की पूरी अर्थव्यवस्था उसके बहुत विशाल घरेलू बाज़ार पर निर्भर करती है. विदेशी बाज़ार से इसे सिर्फ अपनी जी.डी.पी (GDP) का 15 % ही मिलता है. इस व्यवस्था मे अंतर्राष्ट्रिय बाज़ार पर निर्भरता का रुझान बडता ही जाता है. आर्थिक संकट का सीधा सम्बन्ध ग्लोबल मार्केट पर निर्भरता है ऐसे मे ग्लोबल मार्केट की निर्भरता पर अपनी अर्थव्यवस्था का निर्माण करना रेत का घर बानाने जैसा है. यह वही रणनीती है जो ऐशियन टाईगर अर्थव्यवस्था ने 1980 और 1990 के दशक मे अपनाई थी जिसके नतीजे मे सन 1997 मे ऐशिन संकट पैदा हुआ था.
ऐसे मुद्दे भारत को हमेशा सूपरपावर बनने से रोकेंगे, जबकि अभी भारत के सामने और भी कई बुनियादी चुनौतिया है जो हमेशा भारत को एक वैश्विक शक्ति बनने से रोकेंगी जब तक की उन्हे हल नही कर दिया जाऐ.
राजनैतिक तौर पर भारत एक बडे पैमाने पर बटा हुआ राज्य है जहाँ कई समुदाय मौजूद है जो अपने फायदे के लिये आपस मे प्रतिस्पर्धा करते रहते है और जो भुगोलिय, धार्मिक, जात-पात के आधार पर और वर्गिय बटवारों की तरफ देश को खेंचते रहते है. जब से भारत आज़ाद हुआ है तब से भारत के सियासतदानों ने इन इख्तिलाफात (विभिन्नताओं) का अपने राजनैतिक स्वार्थो के लिये पूरा-पूरा फायद उठाया है. और उन्होने कभी इस बात की परवाह नही की वोह इस बात से उपर उठ जाएं और इस देश के प्राकृतिक संसाधन को ठीक तरह से इस्तेमाल करें. यह एक हक़ीक़त है की भारत दुनिया की सबसे बडी लोकतांत्रिक व्यवस्था है. मगर यह एक फायदे वाली बात नही है बल्कि एक मुसिबत है. भारत का संविधान भी इन इख्तिलाफत (विभिन्नताओं) को एक संस्था का रूप देता है और इन अलग अलग समुदायों के अपने मफादात की रक्षा करने की इजाज़त देता है. इससे और भी कई ऐसे मामलात पैदा होते है जो कि पार्लियामेंट मे पेचीदा सूरत का रूप ले लेते है. जिस की मिसाल अभी हाल ही मे हमारे सामने आई जब भारत की सरकार अमरीका की सरकार से साथ सिविल न्यूक्लियर डील करना चाहती थी.
भारत की जनसंख्या 1.2 बिलियन है जो की 80 प्रतिशत हिन्दूओं पर आधारित है. भारत आज भी बहुत सारे हिस्सों मे बटा हुआ राज्य है जो अपने अल्पसंख्यकों को अपने अन्दर जोडने मे कामयाब नही हुआ है, जिसने कई तरह की अलगाववादी समस्ताऐ पैदा की है. इसमे ऐसे कई संघठन भी शामिल है जो भारत की सरकार के खिलाफ हिंसावादी आन्दोलन चालाते रहते है.
भारत की सबसे बुनियादी समस्या एक राष्ट्र के तौर पर खुद उसकी अपनी पहचान की है. यानी यह की क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र है या एक धर्मनिर्पेष (secular) राज्य है. सेक्यूलरिस्ट आज भी भारत मे अल्पसंख्यक की हैसियत रखते है और उन्होने हमेशा हिन्दू राष्ट्रवादी, जिन्होने अल्पसंख्यकों के खिलाफ बडे-बडे दंगों का नेतृत्व किया, का विरोध करते है.
भारत की सबसे बुनियादी समस्या एक राष्ट्र के तौर पर खुद उसकी अपनी पहचान की है. यानी यह की क्या भारत एक हिन्दू राष्ट्र है या एक धर्मनिर्पेष (secular) राज्य है. सेक्यूलरिस्ट आज भी भारत मे अल्पसंख्यक की हैसियत रखते है और उन्होने हमेशा हिन्दू राष्ट्रवादी, जिन्होने अल्पसंख्यकों के खिलाफ बडे-बडे दंगों का नेतृत्व किया, का विरोध करते है.
जितने लोगों ने भी आज भारत के लिब्रलाइज़ेशन (आर्थिक उदारतावाद) से फायदा उठाया है यह वोह लोग है जो इस बात मे यकीन रखते है की हिन्दू धर्म का हुकूमत मे कोई रोल नही होना चाहिये. अगर भारत को एक हिन्दू राष्ट्र मान लिया जाये जिसकी अपने एक हिन्दू पहचान हो, तो फिर इसे जातिप्रथा को एक संस्था का रूप देना पडेगा और ऐसा भारत नस्लवाद के आधार पर बना राष्ट्र होगा. आज मौजूद हालात मे भारत सेक्यूलरिज़्म (धर्मनिर्पेष्ता) और हिन्दू धर्म का मिश्रण है. इसका मतलब यह है की ऐसा राष्ट्र किसी दिशा मे संघठित रूप मे काम नही कर सकता और इसी वजह से अलगाववादी समस्याऐ पैदा होती रही है और हिन्दू धर्म उस समस्या से निपट नही सकता जो जातिप्रथा से बाहर हो.
एक अंतर्राष्ट्रिय शक्ति (superpower) बनने के लिये एक राष्ट्र के पास अंतर्राष्ट्रिय उद्देश्य और महत्वकांक्षाऐ होना ज़रूरी है. ऐसे राष्ट्र के पास जीवन व्यतीत करने का अपना एक खास तरीका होना ज़रूरी है जिसको वोह दुनिया के दूसरे कोने तक पहुंचा सके. भारत के ऐसे कोई अंतर्राष्ट्रिय उद्देशय नही है. भारत 11 वी सदी से 18 वी सदी तक एक अंतर्राष्ट्रिय शक्ति की हैसियत रखता था. लेकिन वोह इस्लाम था जिनने भारत को अंतर्राष्ट्रिय पैमाने पर सोंचने का अन्दाज़ दिया था. आज भारत की कोइ विश्वव्यापी उद्देश्य और महत्वाकांक्षा नहीं है. आज भारत के सिर्फ कुछ स्ट्रेटेजिक मफादात है, जैसे चीन का अपनी सरहद को भारत की तरफ बढाना और पाकिस्तान की तरफ से कुछ खतरात. लेकिन यह मफादात किसी राष्ट्र को सूपरपावर बनाने मे काफी नही है.
हिन्दू धर्म भारत को अपने लिये एक होमलैंड (जन्म स्थली) के तौर पर देखता है और उसको जातिप्रथा पर आधारित एक समाज देता है जिसमे हुकूमत चलाने का पूरा तरीका मौजूद नही है. ना तो इस आधार पर इसकी कोई विस्तृत अर्थव्यवस्था है ना ही इसमे कोई विदेशी रणनीती या न्यायतंत्र की व्यावस्था मौजूद है. यही वजह है की भारत के मफादात की जब भी कभी बात आयेगी तो यह उसके अन्दर से ही आयेगी. यानि उसके कभी ना खत्म होने वाले घरेलू मफादात और उसके विभिंन किस्म के प्रजातिय संघठनो और शक्तियों की तरफ से. हिन्दू धर्म एक विचारधारा की खूबियाँ अपने अन्दर नहीं रखता है. वोह सिर्फ एक दार्शनिक रूप से अध्यात्मिक समाधान (spiritual solution). इसके नतीजे मे भारत अपनी समस्याओं का स्थिरता के साथ हल नही कर सकता.
भारत के लिब्रलाइज़ेशन (उदारतावाद) ने आज कई तरह की समस्याऐ पैदा कर दी है जैसे संसाधनों का ठीक तरह से बटवारा नहीं होना, खाने की कमी या औध्यौगिक प्रधानता वग़ैरा. जब कभी भी भारत किसी मसले का हल निकालने की कोशिश करता है तो उससे भी बडी कई चुनौतियाँ सामने खडी हो जाती है. किसी भी राष्ट्र को अपनी समस्याओं के मुकम्मल हल के लिये ज़रूरी है की वोह किसी विचारधारा (ideology) को अपनाऐ जिसके आधार पर वोह अपनी समस्याओं को हल करे. चाहे वोह आर्थिक मामलात हो, सामाजिक हो या राजनैतिक. आज भारत अपने समस्याओं सिर्फ एक व्यवहारवादी (pragmatic) पॉलिसी के तहत हल करता है इससे उसकी समस्याऐ और चुनौतियाँ बडती जाती है. अगर भारत पूंजीवाद को एक विचारधारा (ideology) और सेक्यूलरिज़्म को उसकी आधार की हैसियत से अपनाता है तो हालांकि वोह कुछ हद तक विकास कर सकता है मगर उसका भाग्य उसे वही ले जायेगा जहाँ सेक्यूलरिज़म को अपनाने वाले दूसरे देश पहुंचे है और इस विचारधार को अपनाने की वजह से उन्होने जो नुक्सानात भुगते है वोह भारत को भी भुगतने होंगे. इसके संकेत भारत मे अभी से ज़ाहिर भी होने लगे है.
इंडिया मे बूढा होना कभी भी एक समस्या नही थी और बूढों का धर या वृद्ध आश्रम (Old House) जैसा तसव्वुर एक अजनबी तसव्वुर समझा जाता था. बूढे लोगों के साथ बुरा सुलूक करना एक पश्चिमी समस्या समझी जाती थी. लेकिन आज भारत मे ऐसी सूरते हाल नही है. अब जैसे जैसे लोगों की उम्र बढती जा रही है वैसे वैसे वृद्ध आश्रमों का तादाद भी बढती जा रही है. आज भारत मे बुजुर्गों का खयाल नहीं रखने की समस्या एक महामारी का रूप ले चुकी है और पश्चिम की तरह भारतीय सरकार भी इस बात के लिये मजबूर हो गई है की वोह इस मसले का हल करे. इस समस्या के हल के लिये माँ-बाप की देख रेख और उनकी भलाई से सम्बन्धित एक बिल ‘सीनियर सिटीज़न’ के नाम से सन 2006 मे पास किया गया. उसमे इस बात को आवश्यक करार दिया गया की बालिग़ बच्चे अपने माँ-बाप का खयाल रखे. इस देश की संसकृती आज भी यह है की माँ-बाप घर की इज़्ज़त है और उनके साथ बदसुलूकी करना बेइज़्ज़ती की बात है. भारत मे 1998 मे 728 वृद्ध आश्रम हुआ करते थे जिन की तादद इस वक्त हज़ार के करीब हो चुके है.
नताईज
बहत सारे विशेषज्ञो का यह रुझान है की वोह जब किसी देश को अंतर्राष्ट्रिय शक्ति (superpower) बनने का आंकलन करते है तो उसकी आर्थिक तरक्की और उसकी जनसंख्या की तरफ देखते है. ऐसे संकेत चाहे अपने आप मे अच्छे भविष्य के सम्भावनाऐ ज़ाहिर करते हों लेकिन यह पहलू किसी भी देश के सूपरपावर बनने से बहुत ही कम समबन्ध रखते है. 1970 और 1980 के दशक मे जापान को एक ऐसे राष्ट्र के रूप मे देखा जाता था जो अमरीका, मौजूद दुनिया की सूपरपावर, की जगह ले सकता था. ऐसा इसलिये सोंचा जाता था की क्योंकि उसके यहाँ आर्थिक विकास मे तेजी से वृद्धी और जनसंख्या बहुत तेज़ी से बढ रही थी. इसका विचार का अचानक अंत उस वक्त हुआ जब उसकी दौलत का बुलबुला 1990 मे फूट गया.
जो चीज भावी तरक्की की तरफ निशानदेही करती है वोह किसी राष्ट्र के साधन नही है और ना ही उसकी जनसंख्या का आकार है. ना तो वोह टेक्नोलोजी है जो वोह देश अपने पास रखता है या और ना ही उसका भुगोलिय आकार है, हालांकि यह सब उसके लिये फायदेमन्द साबित हो सकते है. एक भावी सूपरपावर के पास कुछ अंतर्राष्ट्रिय उद्देश्य होना ज़रूरी है. और यह उद्देश्य किसी राष्ट्र के उस सम्पूर्ण ज़िन्दगी गुज़ारने के तरीके से निकलते है जिस को वहाँ के लोगों ने अपनाया है. जर्मनी की तरह जापान मे भी 1930 के दशक मे अंतर्राष्ट्रिय महत्वकांशाऐ पाई जाती थी जो की इस आस्था से निकलती थी की वोह दुनिया मे बहतरीन लोग है. इस खयाल ने उन्हे इस बात की तरफ प्रेरणा दी की हर जापानी दुनिया मे विश्वव्यापी ग़लबे (प्रधानता) के लिये सहयोग दे और उनके इस इरादे को रोकने के लिये दूसरी आलमी जंग (द्वितीय विश्व युद्ध) लडने की नौबत तक आ गई. 1970 और 1980 के दशक मे जापान की तरक़्क़ी आर्थिक थी ना की राजनैतिक. इसीलिये यह तरक्की सिर्फ जापान की सरहदों तक महदूद हो कर रह गई. जापान और जर्मनी मे विकास के लिये हमेशा प्राकृतिक साधनो की कमी रही लेकिन उनकी विश्वव्यापी मह्त्वकांशाओं (उलिलअज़्म) ने उन्हें प्रेरणा दी की वोह ऐसी रणनीती तैयार करें की वोह ऐसी चुनौतियों से अच्छी तरह से निपटने सके.
इसी तरह से जब ब्रिटेन और अमरीका ने जब अपनी तरक़्क़ी की शुरूआत की तो उस वक्त उनके पास छोटी सी जनसंख्या थी और अपने प्रतिद्वन्दीयों से मुकाबला करने के लिये टेक्नोलोजी की भी कमी थी. ब्रिटेन के विश्वव्यापी (global) उद्देश्य और महत्वकांशाऐ, की वोह दुनिया को अपनी कॉलोनी बनाऐ और उनके खनिज पदार्थों से फायदा उठाये, ने उसे इस बात की तरफ प्रेरित किया की वोह बहतरीन किस्म की जलसेना अपने लिये तैयार करे. यही वजह थी की वोह अठारहवी सदी मे एक बहुत बडी ताक़त के रूप मे उभर कर आया. अमरीका की तरक्की अमरीका की क्रांति के बाद आई जब उन्होने ब्रिटेन को अपने देश से बाहर निकाल दिया और अमरीका के लोगों ने कभी न छीनी जाने वाली आज़ादी के अधिकार को अपनाया. अमरीकियों की “manifest destiny” (प्रत्यक्ष नियति यानी 19वी सदी मे अमरीकियों की यह अस्था की सन्युक्त राज्य अमरीका का पूरे उत्तरी अमरीकी महाद्वीप पर फैल जाना चाहिए) मे आस्था ने एक खुदाई आस्था का रूप ले लिया जिस से उन्हे लगने लगा की उनके लिये यह बिल्कुल उचित है की सन्युक्त अमरीका पूरे उत्तरी अमरीकी महाद्वीप पर विजय पा ले और अमरीकियों को उस बात की तरफ प्रेरित किया की वोह पश्चिम की तरफ अपना क्षेत्रिय विस्तार करे. इसके बाद अमरीका ने अपनी हिफाज़त के लिये यूरोपिय साम्राज्यवादियों से लेटिन अमरीका छीनने पर मजबूर हो गया. अमरीका के लिये औद्योगिक प्रगती ज़रूरी थी क्योकि उसकी मामूली जनसंख्या ज़रूरी काम करने के लिये असमर्थ थी और इसीलिये कई कामों का मशीनीकरण कर दिया गया. अमरीका और ब्रिटन के मामले मे सारी चुनौतियाँ उनके विश्वव्यापी (global) उद्देश्यों के रास्ते मे सिर्फ रुकावटे थी जिनको हटाना (हल करना) ज़रूरी था. पूंजीवादी विचारधारा को अपनाने की वजह से उसका समाज एकजुट हो गया और उन्हें अपने विश्वव्यापी उद्देश्य की पूर्ती करने के लिये और अपने राष्ट्र की तरक्की के लिये काम करने की प्रेरणा मिली. याद रहे यह विचारों की क्रांति किसी विस्तृत विचारधारा के अपनाने से आती है ना की विस्तृत विचारधारा रखने वाले देशो की नकल करने से जैसा की आज के भारत का तरीका है.
1991 के बाद “इंडिया शाईनिंग” की छवी जो दुनिया के सामने पेश की गई वोह दरहक़ीक़त भारत की सही तस्वीरकशी नही थी जहाँ अब भी एक लाख से ज़्यादा गाँव ऐसे हैं जिन्होने कभी फोन की घंटी नही सुनी. 1990 के आर्थिक सुधारों ने हालांकि काफी लिब्रलाईज़ेशन (उदारतावाद) किया है जिस से विकास मे वृद्धी भी हुई है लेकिन इससे सीधे तौर पर फायदा उठाने वाले लोग सिर्फ शहर मे बसने वाले धनवान वर्ग से ही ताल्लुक रखते है. भारत के सामने अभी कई चुनौतिया है जिन मे एक-तरफा (lop-sided) प्रगती भी है, ऐसे मे उसकी 1.2 बिलियन जनसंख्या जिसमे दुनिया के कुल गरीबों की एक-तिहाई जनसंख्या शामिल है, और जहाँ 70% भारतीय नागरिक देहातों मे महरूमी की हालत मे रहते है. इन सब हालात पर भारत को उसी तरह काबू पाना होगा जैसे की दूसरे औद्योगिक देशो ने पाया है. हालांकि ऐसे मसाईल का हल विकास की देन होता है और विकास के पीछे एक सीधी-साधी धारणा यानी विश्वव्यापी महत्वकांशा (global ambition) का होना ज़रूरी है जो भारत के पास नही है. भारत मे जीवन गुज़ारने का तरीका यानी हिन्दू धर्म अंतर्राष्ट्रिय नज़रिया की रूप-रेखा पेश नहीं करता है.
जब्कि भारत बहतरीन कारों का निर्माण करता है, लोगों के आकाश की खोज की ओर भेजेता है, नई टेक्नॉलोजी का अविष्कार करता है, और कई क्षेत्रो मे आत्मनिर्भरता भी हासिल करता है, हालांकि यह सब वोह चीज़े है जो हर स्वतंत्र राष्ट्र हासिल करने की कोशिश करता है. लेकिन यह सब अपने आप भारत के सूपर-पावर बनने के लिये ना काफी है.
भारत के विकास से यह सबक सीखा जा सकता है की मुस्लिम उम्मत के पास ऐसा ज़िन्दगी गुज़ारने का तरीका मौजूद है जो उसे विश्वव्यापी उद्देश्य और महत्वकांशाऐ प्रदान करता है. यही वजह है की आज भी मुसलमानों की बहुत बडी तादाद इस्लाम की असल जन्म स्थली से दूर बसती है. इस्लाम को दुनिया तक पहुंचाने की विश्वव्यापी महत्वकांशा की वजह से ही आज मुस्लिम उम्मत का बहुत बडा हिस्सा ग़ैर-अरब लोगों पर आधारित है. भारत के विकास से अगर कोई सबक लिया जा सकता है तो वोह यह है की उम्मते मुस्लिमा एक सोया हुआ महाकाय दैत्य, जो एक बार जागने के बाद, अल्लाह के हुक्म से, अपनी सही जगह यानी दुनिया की सूपर-पावर की जगह ले लेगा.
1 comments :
Salam. jazakallah brother for your efforts. salam
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