मदनी इस्लामी रियासत और यहूदी - 28

मदनी इस्लामी रियासत और यहूदी  - 28

हुजू़र अक़्दस सल्ल0 के मुक़ाबिला में यहूदियों की कोई ख़ास हैसिय्यत नहीं थी जो उनके लिये वोह अज़ख़ुद कोई ख़तरा बनसकें, इस्लामी रियासत को ख़तरा दर अस्ल उ़मूमी तौर पर अ़रबों से और ख़ास तौर पर क़ुरैश से दरपेश था, इसी सबब हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने यहूद से सिर्फ़ एैसे मुआहिदे किये थे जिनकी रू से यहूदी एक तरफ़ तो इस्लामी रियासत के जेरे इताअ़त बने और दूसरी तरफ़ उन्हें उन मुआहिदे की रू से इस्लामी रियासत के किसी भी हरीफ़ से दूर रखा गया ताके यहूदी इस्लामी रियासत के किसी हरीफ़ से मुआहिदा न कर पायें। लेकिन यहूदी इस्लामी रियासत की ताक़त को रोज़ अफ़्जू़ं बढ़ता और उसके इक़्तिदार को वसीअ़ होता देखते थे और मुसलमानों से तकरार और बदकलामी करते थे, जब बदर में मुसलमानों को फ़तह हासिल हुई तो यहूदियों की बदकलामी शदीदतर होगई और वोह अल्लाह के रसूल सल्ल0 के खिलाफ़ साज़िशें करने लगे, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) को जब इसकी इत्तिला हुई और फिर मुसलमानों और यहूद के दरमियान नफ़्रत और ग़ुस्सा की फ़ज़ा बनगई, अब दोनों फ़रीक़ एक दूसरे की ताक में रहने लगे, यहूदियों की जसारतें बढ़ती रहीं, बनी अ़म्र बिन अ़ौफ़ क़बीला का अबू अफ़्क हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) और मुसलमानों के खि़लाफ़ अश्आर लिखता जिसमें यही तअ़न हुआ करते, असमाँ बिन्त मरवान भी इस्लाम की बुराईयां करती, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) को ईज़ा पहुंचाती और मुसलमानों को भड़काती थी, कअ़ब इब्ने अश्रफ़ मुस्लिम औरतों को राह चलते छेड़ता था और मक्का जाकर वहाँ तौहीन आमेज़ अश्आर पढ़ता और अहले मक्का को मुसलमानों के खिलाफ़ भड़काता था। मुसलमान इस सबब को बर्दाशत न कर पाते और उन्होंने एैसे लोगों को इसलिये क़त्ल किया के यहूदियों को सबक़ मिले और वोह एैसी हरकतौं से बाज़ आयें, इससे यहूदी डरे तो, लेकिन अपनी हरकतौं से बाज़ नहीं आये और उनकी हरकतों में इज़ाफ़ा हो गया हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे मुतालिबा किया के वोह मुसलमानों की ईज़ारसानी से बाज़ आ जायें या क़ुरैश जैसे अंजाम के लिये तैयार रहे, यहूदी इस तंबीह से मुतअस्सिर नहीं हुये और जवाब दियाः एै मुहम्मद (सल्ल0) धोका में मत रहना, तुमने उन लोगों से मुक़ाबिला किया था जो फ़न्ने हरब से ना बलद थे, अगर हम तुमसे भिड़ गये तो तुम्हें पता चल जाएगा के हम क्या हैं।
अब मुसलमानों के पास उनसे लड़ने के सिवा और कोई रास्ता न बचा था, चुनाँच मुसलमान बनू क़ैनुक़ाअ़ पहुँचे और उनका मुहासिरा कर लिया जो मुसल्सल पनदराह दिन जारी रहा, इस दौरान न वोह बाहर आसकते थे और न ही कोई ग़िज़ा उन्हें बहम पहुंचा सकता था, येह लोग अब मजबूर होगये और ख़ुद को आप (صلى الله عليه وسلم) के की मर्जी की सुपफ़र्द कर दिया, आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें मदीना छोड़ कर जाने दिया। बनी क़ैनुक़ाअ़ मदीने से निकल कर वादीये क़ुरा पहुंचे जहाँ कुछ अर्से तक रुके और फिर शिमाल के जानिब आगे बढ़ते बढ़ते शाम की सरहद पर वाक़े अज़रआत के मक़ाम पर पहुंच गये, इस वाक़िये से यहूद का वक़ार मजरूह हुआ और वोह वाजे़ह तौर पर मुसलमानों के ताबेदार होगये, अलबत्ता येह मुसलमानों की कु़व्वत और ख़ुद को बरबादी से बचाने के लिये उनका क़दम था।
यही वजह थी के जैसी ही उन्हे मौक़ा मिला फिर हरकत में आगये, जंगे उहद में जब मुसलमानों को शिकस्त का सामना हुआ, तो यहूदियों की नफ़्रत फिर खुलकर दिखने लगी और उन्होंने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) को क़त्ल करने की साज़िश रची, जब आप (صلى الله عليه وسلم) को इस साज़िश का एहसास हुआ तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुनासिब समझा के मुआमिले की तेह तक पहुंचा जाये, चुनाँच आप (صلى الله عليه وسلم) दस जलीलुल क़दर सहाबा रजि0 के हमराह बनू नज़ीर के पास किसी काम से गयेे जिनमें हज़रत अबू बक्र, हज़रत उ़मर, और हज़रत अ़ली, रजि0 शामिल थे। यहूदियों ने बज़ाहिर बड़ी ख़ुश अख़्लाक़ी और तपाक से आप (صلى الله عليه وسلم) का ख़ैर मक़्दम किया लेकिन अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने मेहसूस किया के यहूदी किसी साज़िश में मश्गूल हैं। आप (صلى الله عليه وسلم) ने देखा के एक शख़्स उठकर बाहर निकला और दूसरा उस जानिब से दाखि़ल हुआ जिस दीवार से आप (صلى الله عليه وسلم) टिके हुये थे अब आप (صلى الله عليه وسلم) का शक और बढ़ गया के जो खबरें यहूद की साज़िशों के बारे में आरही थीं वोह सच थीं। हुजू़र सल्ल0 वहाँ से उठकर चलेगये और सहाबा-ए-किराम वहीं रहे और यहूदियों ने सोचा के शायद आप को कोई काम पड़गया हो, लेकिन जल्द ही उन्हें शुबह हुआ के कहीं हुजू़र सल्ल0 ने उन्की निय्यत भांप ली है लिहाज़ा अब वोह सहाबा रज़ि0 से बहुत ख़ुश अख़लाक़ी से उन्हें ख़ुश रखने की ग़र्ज से बातें करने लगे।

सहाबा रजि0 थोड़ी देर वहीं रुके फिर हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के पास चले आये जो मस्जिद में दाख़िल होचुके थ। हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें अपने शक के बारेमें बताया और मुहम्मद इब्ने मुस्लिमा को भेजा और येह हुक्म दिया के वोह शहर छोड़कर चले जायें। इस काम के उन्को दस दिन की मुहलत दीगई और उस मुहलत के बाद उन्का मुहासिरा किया और उन्हें निकाला। इन्में कुछ लोग ख़ैबर जाकर वहीं रुक गये और बाज़ आगे बढ़कर शाम में अज़रुआत के मुक़ाम चले गये इस तरह मदीना उनके शर से पाक हुआ, अब यहूद में सिर्फ़ बनू क़ुरैज़ा मदीने में रह गये थे और क्योंके उन्होंने अपने मुआहिदे की ख़िलाफ़ वरज़ी नहीं की थी लिहाज़ा उन्से अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने किसी किस्म का र्तअरुज़ नहीं किया।

बनी कै़नुक़ाअ और बनी नज़ीर का अंजाम देखकर बनी क़ुरैज़ा के यहूद अब मुसलमानों से बड़ी दोस्ती से पेश आने लगे, गो के दर अस्ल यह मुसलमानांे से ख़ौ़फ़ के सबब एक वक़्ती ज़रूरत के तौर पर थी, जैसे ही बनी क़ुरैज़ा ने देखा के तमाम अहज़ाब मुसलमानों से निमटने के लिये आगये हैं और उन्होंने हुयई इब्ने अख़्तब की बात मानली और मुसलमानों को ख़त्म करने की साज़िश में शामिल होकर अपने मुुआहिदे की खि़लाफ़ वरज़ी कर बैठे। अहज़ाब का मदीने पर मुहासिरा ख़त्म हुआ तो हुजू़र सल्ल0 सहाबा-ए-किराम रज़ि0 के हमराह वहाँ पहूंचे और बनी क़ुरैज़ा का मुहासिरा किया जो पच्चीस दिन तक जारी रहा और इस दौरान वोह उस से निकलने की जुरअत न कर सके, जब उन्हें येह यक़ीन हो गया के वोह अपना क़िलआ़ इस तरह मेहफू़ज़ नहीं रख पायेंगे तो उन्होंने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) से दरख़्वास्त की के अबू लुबाबा रज़ि0 को उनके पास भेजा जाये ताके वोह उनसे अपने इस मुअ़मला में मश्वरा कर सकें, अबू लुबाबा रज़ि0 क़बीला-ए-औस से थे और ज़माना ए जाहिलिय्यत में यहूदियों के हलीफ़ रहचुके थे।

अबू लुबाबा यहूद के पास पहुंचे तो वोह लोग उनसे मिलने के लिये आगे आये और उनकी औरतें और बच्चे रोते हुये आये, उन्होंने अबू लुबाबा रज़ि0 से पूछा के क्या उन्हें ख़ुदको मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के फै़सलों के हवाले करदेना चाहिये? अबू लुबाबा ने जवाब दिया के हाँ और साथ ही गरदन की तरफ़ इशारा किया जिसका मतलब वाजे़ह था के गर्दनें क़लम करदी जायंेगी। इसके बाद अबू लुबाबा वापस आगये, कअ़ब इब्ने असद ने कुछ मश्वरे दिये जिन्हंे यहूदियों ने ना मंज़ूर कर दिया, कअ़ब ने उनसे कहा के अब तुम्हारे पास ख़ुद को मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) के हवाले करने के और कोई चारा नहीं रह गया है। यहूदियों ने हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के पास पैग़ाम भेजा के उन्हें अज़्रआ़त जाने दिया जाये और वोह अपना माल ओ मताअ़ यहीं छौड़ कर चले जायेंगे, उसको आप (صلى الله عليه وسلم) ने रद कर दिया, अब यहूदियों के पास सिर्फ़़ एक ही रास्ता रह गया था के वोह अपने आप को हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के फ़ैसले के हवाले करदें। उसके बाद यहूदियों ने अपने साबिक़ा हलीफ़ यानी क़बीला-ए-औस की मदद चाही के वोह हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) के सामने यहूदियो की सिफ़ारिश करें, जब औस ने हुजू़र सल्ल0 से रुजूअ़ किया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

الا ترضون يا معشر الأوس أن يحكم فيهم رجلٌ منكم؟

एै क़ौमे औस‘ क्या तुम येह नहीं चाहते के तुम्हारा एक शख़्स उनका फै़सला करे?

क़बीला-ए-औस इस बात से राज़ी थे, चुनाँचे आप (صلى الله عليه وسلم) हज़रत सअ़द इब्ने मुआज़ रज़ि0 को नामज़द किया के वोह औस की तरफ़ से यहूदियों का फ़ैसला करें, हज़रत सअ़द इब्ने मुआज़ रज़ि0 ने पहले दोनों फ़रीक़ौं से येह वादा लिया के वोह उनका फैसला मान लेंगे और उनपर राज़ी होंगे। दोनो ने जब उसपर अपनी रज़ा ज़ाहिर करदी के पहले यहूदी अपने हथियार डालकर बाहर आजायें, जब यहूदियों ने उसपर अमल करलिया तो हज़रत सअ़द ने अपना फै़सला सुनाया के यहूदियों के आदमी क़त्ल कर दिये जायें, उनका माल तक़्सीम करदिया जाये और उन्की औरतें और बच्चे क़ैद कर लिये जायें आप (صلى الله عليه وسلم) ने जब येह फ़ैसला सुना तो फ़रमायाः

لقد حكمت فيهم بحكم الله من فوق سبعة أرقعة

तुमने वोह फ़ैसला किया जो सात आसमानों पर से अल्लाह का फैसला था।

इसके बाद मदीने के बाज़ार के पास ख़ंदक़ें खोदने हुक्म दिया और यहूदियों को क़त्ल करके उसमें दफ़न कर दिया गया, औरतों और बच्चों को मुसलमानों में मुन्क़सिम कर दियागया। उस रोके हुए हिस्से को हज़रत सअ़द इब्ने जै़द अल अंसारी रज़ि0 को दिया गया ताके वोह नज्द जाकर वहाँ से घोड़े और हथियार ख़रीदें जिस से मुसलमानंांे की ताक़त में इज़ाफा़ हो।

इस तरह बनी क़ुरैज़ा का काम तमाम हुआ, लेकिन अभी भी खै़बर के यहूदी बाक़ी थे जो काफ़ी मज़बूत भी थे और मुसलमानों से उन्होंने कोई मुआहिदा या सुलह भी नहीं की थी। उन्हीं ने सुलेह हुदैबिया से क़ब्ल क़ुरैश के साथ मिलकर साज़िशें रची थीं, और उनका वुजूद रियासते इस्लामी के लिये मुज़िर था, चुनाँचे हुदैबिया का मुअ़हिदा होते ही हुजू़र अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने फ़ौज तैयार करके ख़ैबर पर चड़ाई का फैसला किया था ताके वहाँ के यहूद से निमटा जाये, एक हज़ार छेह सो जाँबाज़ों पर मुश्तमिल फा़ैज तैयार की गई जिनके साथ सो घुड़ सवार भी थे। येह फा़ैज खै़बर पहुंचकर उनके क़िलओं के बाहर हर तरह से तैयार और अल्लाह की मदद पर मुकम्मल यक़ीन से लैस खै़माज़न हुई।
यहूदियों ने आपस में मश्वरे किये, सलाम इब्ने मश्कम का मश्वरा था के यहूदी अपने माल और अ़याल को सलालम और वतीह के क़िल्अ़ों में मेहफ़ूज़ करें और नाइम के क़िल्अ़ेे में अस्लेहा रखें फिर सलाम बिन मशकम अपने सिपाहियों को जंग के लिये तरग़ीब दिलाता हुआ नतात के क़िल्अे गया, उसी क़िल्अ़े के बाहर मुसलमानों और यहूदियों के माबैन शदीद खूंरेज़ जंग हुई जिस में एक ही दिन में पचास मुसलमान ज़ख़्मी हो गये, उधर सलाम मारा गया और फ़ौज की कमान अल हारिस बिन अबी ज़ैनब ने संभाली, अल हारिस ने बहुत शिददत से मुसलमानों पर हमला किया लेकिन मुसलमानों के अहले ख़ज़रज ने निहायत दिलेरी से मुज़ाहिमत की और यहूद को पिछे हटकर क़िल्ओं में पनाह लेना पड़ी। मुसलमान हमले करते रहे लेकिन यहूदी क़िल्आ़ बन्द रहकर मुज़ाहिमत करते रहे और यों दिन ब दिन गुज़रते गये। हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत अबू बक्र रज़ि0 को भेजा के वोह क़िल्आ को फ़तह कर सकें, लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं हुई, फिर हज़रत उमर रज़ि0 को भेजा और उनके साथ भी वही मुआमिला रहा- इसके बाद हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

لأعطين الرأية غداً رجلاً يحب الله و رسوله يفتح الله على يده ليس بفرار

कल परचम उस शख़्स को दिया जायेगा जो अल्लाह और उसके रसूल से मोहब्बत रखता है और अल्लाह उसके जरिये फ़तह देगा।

फिर हुजू़र सल्ल0 ने हज़रत अ़ली रज़ि0 को बुलाया और फ़रमायाः

خذ هذه الراية فأمض بها يفتح الله عليك

येह परचम लो और उस वक़्त तक साबित क़दम रहो जब तक अल्लाह फ़तह देदे।

हज़रत अ़ली रज़ि0 जब क़िल्अ़े पर पहुंचे तो कुछ यहूद ने बाहर आकर उन्का मुक़ाबिला किया और एक यहूदी की तलवार एैसी लगी के हज़रत अ़ली रज़ि0 के हाथ से उनकी ढाल गिरगई उन्होंने हाथ बढ़ाकर क़िल्अे़ का एक दरवाजा़ उठालिया जो वहीं पड़ा था और उसी को ढाल के तौर पर इस्तिमाल किया और आगे बढ़ते रहे, जब वोह क़िल्अ़े में पहुंच गये तो उसी दरवाज़े को इस तरह ज़मीन पर बिछा दिया के मुसलमान उसपर से पुल की तरह गुज़र कर क़िल्अे़ में दाख़िल हो गये। इस तरह क़िल्अ-ए-नाइम फ़तह हुआ और फिर एक एक करके बाक़ी क़िल्अ़े भी फ़तह होते गये यहाँ तक के अखी़र में वतीह और सलालम के क़िल्अे़ भी हाथ आगये। यहूद के दिलों में मायूसी छाअ़ी और उन्होंने सुलह की पेशकश की के उनकी जान बख़्श दीजाये, हुजू़र सल्ल0 ने इसे क़ुबूल कर लिया के वोह ख़ैबर में रह सकते हैं और अब वोह ज़मीन फ़तह के बाद मुसलमानों की हो गई थी, उसपर वोह काश्त करें और अपनी मेहनत के अ़वज़ वोह आधी पैदावार के हक़दार होंगे इस तरह जब खै़बर इस्लामी हुकूमत के ताबे हो गया तो फ़िदक के यहूदी भी ख़ौफ़ज़दा हुये और सुलह की पेश्कश की, यूं फ़िदक भी रियासते इस्लामी के ताबे होगया और वहाँ के आधी पैदावार भी मुसलमानों की हो गई। हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) वादियूल क़ुरा के रासते से होते हुये मदीना शरीफ़ लौट रहे थे, रासते में वादीये तैमा के यहूद ने भी बग़ैर किसी लड़ाई के इस्लामी हुकूमत की ताबेदारी कुबूल की, अब यहूद के सारे कबाइल से निमट लिया जाचुका था और हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) को रियासत की दाख़िली अम्न की जानिब से मुकम्मल इत्मिनान हो गया था।
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