अल-कज़ा वल क़दर





अल-कज़ा वल क़दर

सूरे आले इमरान मे अल्लाह ताला का हुक्म है:

وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ أَنْ تَمُوتَ إِلا بِإِذْنِ اللَّهِ كِتَابًا مُؤَجَّلا

कोई जानदार अल्लाह के हुक्म के बग़ैर नही मरता और इसकी मौत का वक्त तयशुदा होता है।(तर्जुमा मआनी-ए-क़ुरआन, सूरा आले इमरान: आयत-145)

सूरे अल आराफ मे इरशाद है :

وَلِكُلِّ أُمَّةٍ أَجَلٌ فَإِذَا جَاءَ أَجَلُهُمْ لا يَسْتَأْخِرُونَ سَاعَةً وَلا يَسْتَقْدِمُونَ

“हर उम्मत के लिये एक अजल (मुकर्रर वक्त) है बस जब उनकी अजल आ जाती है तो वह उस से एक पल भी आगे पीछे नही हो सकते।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल आराफ: आयत-34)

सूरे अल हदीद मे इरशाद है :

مَا أَصَابَ مِنْ مُصِيبَةٍ فِي الأرْضِ وَلا فِي أَنْفُسِكُمْ إِلا فِي كِتَابٍ مِنْ قَبْلِ أَنْ نَبْرَأَهَا إِنَّ ذَلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرٌ

“जो भी आफत पड़ती है जमीन में या तुम्हारी जानो में हमने इसको पैदा करने से पहले ही लिख दिया है, यकीनन यह अल्लाह के लिये आसान है।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरा अल हदीद: आयत-22)

सूरे अत तौबा मे इरशाद है :

قُلْ لَنْ يُصِيبَنَا إِلا مَا كَتَبَ اللَّهُ لَنَا هُوَ مَوْلانَا وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ

“कह दीजिये हम पर कोई मुसीबत नही आती मगर वह जो अल्लाह ताला ने हमारे लिये लिख दी हो बेशक वह अल्लाह हमारा निगेहबान है और मोमिनो को उसी पर भरोसा करना चहिये। (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अत तौबा: आयत-51)

सूरे सबा में इरशादे बारी ताला है :

وَقَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لا تَأْتِينَا السَّاعَةُ قُلْ بَلَى وَرَبِّي لَتَأْتِيَنَّكُمْ عَالِمِ الْغَيْبِ لا يَعْزُبُ عَنْهُ مِثْقَالُ ذَرَّةٍ فِي السَّمَاوَاتِ وَلا فِي الأرْضِ وَلا أَصْغَرُ مِنْ ذَلِكَ وَلا أَكْبَرُ إِلا فِي كِتَابٍ مُبِينٍ

“अल्लाह से कोई जर्रा बराबर चीज़ भी छुपी नहींंं है चाहे वह आसमानो मे होे या जमीन में और न उस जर्रे से भी कोई छोटी या बड़ी चीज़ है, जो किताबे मुबीन मे न हो।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे सबा: आयत-3)

सूरे अनआम मे है :

وَهُوَ الَّذِي يَتَوَفَّاكُمْ بِاللَّيْلِ وَيَعْلَمُ مَا جَرَحْتُمْ بِالنَّهَارِ ثُمَّ يَبْعَثُكُمْ فِيهِ لِيُقْضَى أَجَلٌ مُسَمًّى ثُمَّ إِلَيْهِ مَرْجِعُكُمْ ثُمَّ يُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُونَ

“अल्लाह तो वह है जो रात को तुम्हे मौत देता है, और जानता है जो कुछ तुम दिन मे कर चुके हो, और फिर तुम्हे जगा देता है ताकि मियादे मुअय्यन पूरी कर दी जाये, फिर उसी की तरफ तुम लौटाए जाओगे, फिर वह तुम्हे उस चीज़ की खबर देगा जो कुछ तुम करते रहे हो।” (तर्जुमा मआनी-ए-क़ुरआन, सूरे अनआम: आयत-60)

और सूरे निसा मे है:

وَإِنْ تُصِبْهُمْ حَسَنَةٌ يَقُولُوا هَذِهِ مِنْ عِنْدِ اللَّهِ وَإِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَقُولُوا هَذِهِ مِنْ عِنْدِكَ قُلْ كُلٌّ مِنْ عِنْدِ اللَّهِ فَمَالِ هَؤُلاءِ الْقَوْمِ لا يَكَادُونَ يَفْقَهُونَ حَدِيثًا

“और अगर इन्हे कोई भलाई पहुंचे तो यह कहते हैंंंंं कि यह अल्लाह की तरफ से है और अगर कोई बुराई पहुंचे तो कहते हैंंंंं कि यह तेरी तरफ से है, कह दीजिए कि सब कुछ अल्लाह की तरफ से है सो इन लोगों का क्या हाल है कि बात को समझने वाले भी नही लगते।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे निसा: आयत-78)

यह और इन जैसी दूसरी आयात से बहुत से लोग कज़ा व क़दर के बारे मे ऐसे इस्तिदलाल (बहस) करते हैंंंंं जिनसे गुमान होता है कि इंसान अपने कामो को अंजाम देने मे मजबूर है, और उसके तमाम कामो की अंजाम देही लाजमन अल्लाह ताला के इरादे और मरजी से होता है, और अल्लाह ही इंसान और उसके आमाल (कामो) का ख़ालिक़ है, अपने इस कौल के सबूत मे वह अल्लाह ताला के इस इरशाद को पेश करते हैंंंं।

وَاللَّهُ خَلَقَكُمْ وَمَا تَعْمَلُونَ

“अल्लाह तआला ने तुम्हे पैदा किया और तुम्हारे आमालांे को भी।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे: अस्साफात, आयत-96)

इसी तरह वोह कुछ अहादीसों से भी इस्तदलाल करते है जैसा कि रसूलुल्लाह (स्वललल्लाहो अलैहि वसल्लम) का यह कौल है, “रूहुलकुदुस ने यह बात मेरे दिल मे डाल दी के कोई ज़ीरूह उस वक्त तक नही मर सकता, जब तक कि वह अपने रिज्क़, अपनी अजल और इसी तरह जो कुछ उसके लिये मुकर्रर कर दिया गया है उसे पूरा ना कर ले।”

कज़ा

कज़ा व क़दर का मसला इस्लामी मकातिबे फिक्र में एक मारेकतुल आरा (कई राय) मसला रहा है। इस मसले के बारे में अहले सुन्नत की राय का खुलासा यह है कि इंसान को अपने अफआल में कसबे इख्तियारी हासिल है और इसी कसबे इिख्तयारी की बुनियाद पर उसका मुहासिबा होगा। मोअतजिला की राय का लुब्बे-लुबाब यह है कि इंसान ही अपने अफआल (actions) का ख़ालिक़ है और इंसान का मुहासबा इस वजह से होगा कि वोह अपने अफआल का खुद मोजिद है। इस मसले में जबरिया की राय का निचोड़ यह है कि अल्लाह ताला ही बन्दे और उसके अफआल का ख़ालिक़ है। इसलिए बन्दे को अपने अफआल पर कोई इख्तियारी नहीं, बल्कि वोह मजबूरे महज है। बन्दे की मिसाल उस (परिन्दे के) पर की सी है जो फिजा में हो और जिसको हवाऐं जिधर चाहें उड़ा रही हों।

कज़ा व क़दर के मसले के बारे में एक बारीक बीन इस बात को जान जाऐगा की इस मसले के मुताल्लिक़ फहम हासिल करने के लिये इस मसले की बुनियाद को समझा समझना ज़रूरी है। बन्दे के अफाआल इस मसले की बुनियाद नही की खुद बन्दा अपने फेल (action) का ख़ालिक़ है, या अल्लाह ताला उसके फेल का ख़ालिक़ है। ना यह बुनियाद अल्लाह ताला का इल्म है की अल्लाह पहले से यह जानता था की यह बन्दा क्या अमल करेगा, यानी अल्लाह ताला के इल्म ने बन्दे का एहाता किया हुआ है, ना यह बुनियाद अल्लाह ताला का इरादा है, जो बन्दे के फेल से मुताल्लिक़ हो, इस तरह कि जब अल्लाह का इरादा हो तो वोह फेल लाज़िमन वक़ुपज़ीर होगा, ना वोह बुनियाद यह है कि बन्दे का यह फेल लोहे-महफूज में लिखा हुआ है, तो बन्दा लाजमन इस फेल को सर अंजाम देगा।

जी हाँ! यह चीजें इस बहस की बुनियाद हरगिज नहीं, क्योंकि सवाब व अज़ाब के हवाले से इन अमूर का इस मोज़ू से कोई ताल्लुक नहींंंंं, बल्कि इन अशिया का ताल्लुक अमल की अंजाम देही, हर शय (चीज़) का एहाता करने वाले इल्म, तमाम मुमकिनात से मुताल्लिका अल्लाह के इरादे और लोहे महफूज के तमाम अशिया पर मुश्तमिल होने से है। यह ताल्लुक एक अलग मोज़ू है, और यह अमल के नतीजे में अज़ाब या सवाब से बिल्कुल जुदा मोज़ू है, यानि यहाँ मोज़ूए बहस है कि क्या इंसान अपने अमल अंजाम देही मे मजबूर है या मुखतार, ख्वाह इस का यह अमल खैर हो या शर ? और क्या उसे अमल की अंजाम देही या अमल को तर्क करने का इखतियार हासिल है या नहीं ?

अफआल को बारीक बीनी से देखने वाला मुशाहिदा कर सकता है कि इंसान दो दायरों में ज़िन्दगी गुजारता है। एक दायरे पर इंसान खुद हावी है, यह वोह दायरा है जो इंसान के तसर्रूफात के तहत आता है। और इस दायरे में रहते हुऐ इंसान जो अफआल सरअंजाम देता है उन पर इंसान को इिख्तयार हासिल होता है। दूसरा दायरा वोह है जो इंसान पर हावी है, यानि इस दायरे के अंदर जितने भी अफआल आते हैं उन पर इंसान को कोई इिख्तयार हासिल नहीं, ख्वाह यह अफआल इंसान की जानिब से वुकू हो या यह खुद इंसान पर वाके हों।

पस वोह अफआल जो उस दायरे मे आते हैं, जो इंसान पर हावी है और जिनमें इंसान का कोई अमल दखल नहीं, या उन के रोनुमा होने से इंसान को कोई सरोकार नहीं, इन अफआल की दो अक्साम है, एक वोह किस्म है जिसका निज़ामे कायनात तक़ाज़ा करता है। दूसरी किस्म उन अफआल की है, जो इंसान की कुदरत में नहीं, और इंसान उन को टाल भी नहीं सकता लेकिन निजामें कायनात उन का तक़ाज़ा नही करता। जहाँ तक उन अफआल का ताल्लुक है, जिन का निज़ामे कायनात तक़ाज़ा करता है तो इंसान इनके सामने सर निगूँ होता है और मजबूरन उन के मुताबिक़ चलता है। क्योंकि इंसान को तो कायनात और हयात के साथ एक मख़सूस निज़ाम के मुताबिक़ ही चलना है जो तब्दील नही होता। इंसान उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता। इसलिए इस दायरे के अफआल इंसान के इरादे से बाहर है। इंसान को हर हाल में उस के मुताबिक़ चलना है, और इस दायरे मे उसे कोई इिख्तयार हासिल नहींंंंं। जैसा कि इंसान दुनिया में अपने इरादे के बग़ैर आया और यहाँ से अपनी मरज़ी के बग़ैर चला जाएगा। इंसान अपने जिस्म के बल बूते पर हवा में उड़ नही सकता है और न ही तबाइ तौर पर पानी पर चल सकता है। इसी तरह अपनी आखों का रंग खुद नहीं बना सकता। ना अपने सर को जैसा चाहे वैसा बना सकता है, और ना ही अपनी जसामत को अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ जैसे चाहे बना सकता है। इन तमाम कामों को करने वाला सिर्फ अल्लाह तआला है। इन कामों में मख़लूक़ (बन्दे) का कोई अमल दखल नहीं होता। क्योंकि अल्लाह ताला ही ने निजामें कायनात को बनाया है, और अल्लाह ताला ही ने इसको मुनजजम किया है। चुनाँचे इंसान इसके मुताबिक़ चलता है और इसकी खिलाफवर्ज़ी करने की ताकत नहीं रखता ?

वह अफआल जो इंसान की ताकत से बाहर हैं और वह उनको टाल भी नहीं सकता और वो निज़ामे कायनात मे से भी नही है यह वो अफआल हैं जिनका इंसान मजबूरन इरतेकाब करता है या यह इंसान पर जबरन वाकेअ होते है किए जाते हैं और इंसान इनसे बच भी नहीं सकता मसलन एक शख्स दीवार पर से दूसरे शख्स पर गिरे जिस के नतीजे मे दूसरा शख्स मर जाऐ या कोई शख्स किसी परिन्दे पर गोली चलाए लेकिन यह गोली परिन्दे के बजाए किसी ऐसे शख्स को जा लगे जिस को गोली चलाने वाला शख्स जानता भी ना हो और वह मर जाए, इसी तरह रेल गाड़ी या मोटरकार का हादसा हो जाए या जहाज किसी ऐसी फन्नी खराबी की वजह से गिर कर तबह हो जाए जिस का इजाला मुमकिन नहीं था चुनांचे इस हादसे या गिरने की वजह से उसमें सवार अफराद हलाक हो जाएं, यह या इसी किस्म का कोई और वाक्या पेश आ जाए तो यह अफआल ख्वाह इंसान की जानिब से हए हो या इंसान के ऊपर वाके हुए हों, और अगरचे निज़ामे कायनात इनका तक़ाज़ा नहीं करता लेकिन चूंकी यह इन्सान की जानिब से या उसके ऊपर उसके इरादे के बग़ैर वाके हुए हैं लिहाजा यह इंसानी कुदरत व ताकत से बाहर हैं। पस यह अफआल उस दायरे में दाखिल हैं जो इंसान पर हावी हैं। जो अफआल उस दायरे में दाखिल हैं जो इंसान पर मुसल्लत (हावी) हैं तो उनको कज़ा कह जाता है। क्योकि उन तमाम अफआल के वक़ूअ पज़ीर होने का फैसला सिर्फ अल्लाह ताला ही करता है। लिहाज़ा उन अफआल पर इंसान का मुहासबा नहीं होगा ख्वाह इन्सान के लिये इन मे कितना ही फायदा या नुकसान और पसन्द या नापसन्दगी की बात क्यों न हो यानी इंसान की तफसीर के मुताबिक़ उनमें कितना ही खैर व शर क्यों न हो क्योकि उन अफआल में पाए जाने वाले खैर व शर को सिर्फ अल्लाह ही जानता है, इंसान उन अफआल पर असरअन्दाज़ नही हो सकता। इंसान को तो उन अफआल का इल्म होता है और न ही उनके वुजूद में आने का चुनांचे इंसान उनको रोकने या उन से बचने कि ताकत भी नहीं रखता, इंसान पर लाज़िम है कि वह उस बात पर इमान रखे के यह कज़ा है और अल्लाह (सुबहानहू-व-ताला) की जानिब से है।



क़दर


अब रही बात क़दर की! तो यह बात ज़ाहिर है के तमाम अफआल, चाहे वह उस दायरे से ताल्लुक़ रखते हों जो इन्सान पर हावी हैं या उस दायरे के मातहत हों वे जिस पर इंसान हावी है कायनात इनसान और हयात के जरिए वाक़ेअ होते हैं या कायनात इन्सान और हयात पर वाक़ेअ होते हैं। अल्लाह तआला वे उन तमाम अशिया के लिए कुछ खासियते मुतय्यन की है। मसलन अल्लाह तआला ने आग में जलाने की खासियत रख दी, लकड़ी में जलने की सिफ्फत रख दी और छुरी में काटने की तासीर रख दी, फिर अल्लाह तआला ने इन खासियतों को उन अश्या के लिये लाज़िम क़रार दे दिया और यह अशिया कभी भी इन खासियतो की खिलाफवरजी नहीं करते। जब कभी यह अशिया अपनी फितरत की खिलाफवरजी करती है तो उस वक्त अल्लाह तआला ने इनकी यह खासियत सल्ब की होती है और उस वक्त यह एक खिलाफे मामूल (supernatural) अम्र होता है। यह अम्बिया से बतौरे मौजज़ा सादिर होता है, जिस तरह अल्लाह तआला ने अशिया के अन्दर खासियतें पैदा फरमाई हैं, इसी तरह इन्सानों के अन्दर जिबिल्लतें और जिस्मानी हाजात रख दी हैं। फिर उन जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात के अन्दर भी अशिया के खासियतों के मानिन्द कुछ मुतय्यन खासियात पैदा कर दी हैं। चुनांचे अल्लाह तआला ने जिबिल्लतें नो में जिनसी मैलान (sexual inclination) तखलीक कर दिया, जिस्मानी हाजात में बाज़ खासियात रख दीं, मसलन भूख, प्यास वगैरा। फिर निजामें कायनात के मुताबिक़ इनको लाज़िम बना दिया। पस अशिया और इंसान की जिबिल्लत व जिस्मानी हाजात के अंदर यह मुतय्यन खासियात, जिन्हे अल्लाह तआला ने ही पैदा फरमाया है क़दरकहलाती है, क्योंकि अल्लाह ही ने अशिया, जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात की तखलीक की और उनके अंदर उनकी खुसूसियात के अंदाजे (यानी क़दर) मुकर्रर कर दिये। यह खुसूसियात खुद इन अशिया की पैदा करदा नहीं और ना ही बंदे को इनसे कोई सरोकार है और ना बंदे का इसमें कोई अमल-दखल है। इंसान को इस बात पर इमान रखना चाहिए कि सिर्फ अल्लाह ही ने इन अशिया के अंदर खासियात वदियत फरमा दी है, इन खसियातों के अंदर यह क़ाबलियत है कि इंसान इनके वास्ते से अल्लाह तआला के अहकामात के मुवाफिक़ भी अमल कर सकता है, जो के ख़ैर है अल्लाह के अहकामात के मुखालिफ भी अमल कर सकता है, जो के शर है। ख्वाह अल्लाह तआला का यह हुक्म इन अशिया को उनकी खुुसूसियात के मुताबिक़ इस्तेमाल करने के हवाले से हो या या जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात को पूरा करने के लिहाज़ से हो। अगर यह अफआल अल्लाह के अवामिर व नावाही के मुताबिक़ होंगे, तो ख़ैर कहलाऐंगे, और अगर अल्लाह के अवामिर व नावाही के खिलाफ होंगे तो शर के ज़ुमरे में आयेंगे।


यहीं से मालूम हुआ कि वोह अफआल, जो उस दायरे में से हैं, जो इंसान पर हावी हैं, वोह अल्लाह की तरफ से हैं, ख्वाह वोह ख़ैर हो या शर। वोह खासियतें, जो अशिया, जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात में पायी जाती हैं, वोह भी अल्लाह की तरफ से हैं, ख्वाह उनका नतीजा ख़ैर हो या शर। यही वजह है के मुसलमान को कज़ा पर इमान रखना चाहिए कता नजर इस बात के के वह ख़ैर हो या शर। यानी वोह यह एतेक़ाद रखे कि वोह अफआल, जो इंसान के दायरे इख्तियार से बाहर हैं, वोह अल्लाह कि तरफ से हैं, और इसी तरह क़दर के ख़ैर व शर के भी मिनजानिब अल्लाह होने पर इमान रखे। बअलफाज़े दीगर यह एतेक़ाद रखें कि अशिया के अंदर मौजूद खवास तबाई लिहाज़ से अल्लाह की तरफ से हैं, ख्वाह उनका नतीजा ख़ैर हो या शर, और इंसान उन पर असर अन्दाज़ नहीं हो सकता। पस इंसान की अजल (मौत का मुकर्रर वक्त) इसका रिज़्क और इसकी रूह सब अल्लाह की क़ुदरत मे है । जिस तरह जिबिल्लतें नो के अंदर पाया जाने वाला जिंसी मैलान, जिबिल्लते बका के अंदर मौजूद मिल्कियत की ख्वाहिश और इसी तरह जिस्मानी हाजात जैसे के भूख और प्यास, सब के सब मिनजानिब अल्लाह है।


यह तमाम अशिया की खासियतों के बारे मे और उन अफआल के बारे मे था जो उस दायरे मे है जो इंसान पर हावी है । जहाँ तक दूसरे दायरे का ताल्लुक़ है, जिस पर इंसान खुद हावी है, तो यह वोह दायरा है कि जिसके अंदर इंसान अपने इख्तियार करदा निज़ाम के मुताबिक़ इिख्तयारी तौर पर चलता है, ख्वाह यह निज़ाम अल्लाह तआला की मुकर्रर करदा शरियत हो या कोई और निज़ाम। यही अफआल का वोह दायरा है, जिसमें अफआल इंसान से सादिर होते हैं, या उस पर वाक़े होते हैं, और उसके अपने इरादे से होते हैं। पस जब वोह चाहता है, चलता है, खाता है, पीता है और सफर करता है। और अगर ना चाहे तो उन अफआल से रुक जाता है। जब वोह जब चाहता है आग के ज़रिये आग लगाता है, छुरी से काटता है, और जिस तरह चाहता है, नो की हाजत, मिल्कियत की हाजत को पूरा करता है और मैंदे की भूख को बुझाता है। यानि वोह जो अमल चाहे करता है और जिस अमल से चाहे, इजतिनाब करता है। लिहाज़ा इस दायरे के अफआल के बारे में वोह जवाबदेह होगा।


अगरचे इन अशिया की खासियते, जिबिल्लतें और जिस्मानी हाजात के खासियतें अल्लाह तआला ही ने मुकरर (मुक़द्दर) कि हैं, और इन खासियतों को उन अशिया के लिए लाज़िम कर दिया है, और उन खासियतों का अफआल के नताइज पर बड़ा असर है, लेकिन यह खसियातें बज़ाते खुद अमल को जनम नहीं देती। बल्कि इंसान इन्हें इस्तेमाल करते हुए उनके ज़रिये आमाल सर अंजाम देता है। पस जिबिल्लते नो के अंदर मौजूद जिंसी रुजहान में ख़ैर व शर दोनों तरह की क़ाबलियत मौजूद है। इसी तरह जिस्मानी हाजत के अंदर मौजूद भूख में ख़ैर व शर दोनों किस्म की क़ाबलियत पाइ जाती है। लेकिन ख़ैर व शर का काम करने वाला इंसान है, ना के जिबिल्लत या जिस्मानी हाजत। फिर अल्लाह तआला ने इंसान को तमीज़ करने वाली अक्ल से नवाज़ा है, और अक्ल से तबाइ तौर पर तमीज़ करने और इदराक करने की सलाहियत रखी है । और अल्लाह तआला ने इंसान को ख़ैर व शर दोनों तरह के रास्ते बता दिये हैं।

इरशादे बारी तआला है:

وَهَدَيْنَاهُ النَّجْدَيْنِ

“हमने उसे दोनों नुमाया रास्ते बता दिये हैं।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-बलद, आयत:10)

और अल्लाह तआला ने इंसान मे गुनाहों और तकवा के कामों का इदराक करने की सलाहियत रखी है :

सूरे शम्स में इरशाद है :

فَأَلْهَمَهَا فُجُورَهَا وَتَقْوَاهَا

“उसने इससे फुजूर व तकवा का इल्हाम कर दिया।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे अल-शम्स, आयत:08)

पस जब इंसान अपनी जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ पूरा करता है तो यह फेल ख़ैर होता है, और इंसान तकवा की राह पर गामज़न होता है। लेकिन जब इंसान अपनी जिबिल्लतो और जिस्मानी हाजात को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही से मुँह मोडकर पूरा करता है तो यह फेल शर बन जाता है और यूँ इंसान गुनाहों के रास्ते पर चलता है। बहरहाल इन तमाम अफआल मे इंसान ही से इस खैर और शर का ज़ुहूर होता है। इंसान जब अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुआफिक अपनी जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात को पूरा करता है तो उस का यह फेल खैर होता है। जब इंसान अपनी जिबिल्लतो और जिस्मानी हाजात को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के बर खिलाफ पूरा करता है तो उस का यह फेल शर बन जाता है। इस बुनियाद पर इंसान का उन अफआल के बारे में मुहासिबा होगा, जो उस दायरे में हैं, जिस पर यह इंसान हावी है। इसके नतीजे में उसे अज़ाब या सवाब मिलेगा, क्योंकि उसने बग़ैर किसी जब्र व इक्राह के, इिख्तयारी तौर पर यह अफआल सर अंजाम दिये। जिबिल्लतें और जिस्मानी हाजात की खासयातें अगरचे अल्लाह की जानिब से हैं, उनकी ख़ैर व शर की क़ाबलियत भी अल्लाह ही की तरफ से है, लेकिन अल्लाह तआला ने इस खासियतों को इस तरह नहीं बनाया कि अमल की अदायगी के वक्त यह खासियत इंसान को अल्लाह की रज़ा या नाराज़गी के मुताबिक़ अपने इस्तेमाल पर मज़बूर करे, ख्वाह इस का ताल्लुक़ खैर हो या शर। जैसा के जलाने की सिफत है। यह सिफत इस तरह नहीं के इंसान को किसी चीज़ को जलाने पर मजबूर करती हो, चाहे वोह अमल अल्लाह की खुशनूदी का हो या उसकी नाराजी का, यानी वोह अमल ख़ैर हों या शर। यह खासियतें तो इस तरह है कि इंसान अमल की अंजाम देही के वक्त जिस तरह चाहे उनको काम में ला सकता है। जब अल्लाह तआला ने इंसान को पैदा फरमाया और उसके अंदर यह जिबिल्लते और हाजात पैदा फरमा दी, फिर उसे तमीज़ करने वाली अक्ल अता कर दी, और उसे इख्तियार दे दिया कि वोह जिस अमल को चाहे करें और जिस से चाहे इजतिनाब करें और किसी काम के करने या छोड़ने पर उसे मजबूर नहीं किया, और अशिया और जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात की खासियात को ऐसा नहीं बनाया कि फेल को सर अंजाम देते वक्त या इससे किनाराकशी इख्तियार करते हुए यह खासियत इंसान को मजबूर करे। यूँ इंसान किसी फेल को बजा लाने या उससे दस्तकश होने में बाइख्तियार है, क्योंकि अल्लाह तआला ने उसे फर्क़ करने वाली अक्ल से नवाज़ा है, और उसे शराई तौर पर मुकल्लफ कर दिया है। इसलिए अच्छा अमल करने की सूरत में उसके लिए सवाब है, क्योंकि उसकी अक्ल ने अल्लाह के अवामिर को इख्तियार किया और उसके नवाही से इजतिनाब किया। इसी तरह बुरा अमल करने की सूरत में वोह सज़ा का मुस्तहिक़ है, क्योंकि उसकी अक्ल ने अल्लाह के अवामिर की मुख़ालिफत करने को इख्तियार किया और जिबिल्लतों और उज़ूयाती हाजात को अल्लाह के बताऐ हुऐ रास्ते से हट कर पूरा किया। इसलिए इस अमल पर उसे सज़ा देना ऐन अदल व इंसाफ है, क्योंकि वोह अमल करने में बाइख्तियार था, किसी लिहाज़ से भी मजबूर ना था। कज़ा व क़दर का इससे कोई ताल्लुक़ नहीं, बल्कि मसला यह है कि बंदे ने खुद अपने इख्तियार से कोई अमल किया और वोह अपने अमल के बारे में मसऊल होगा:

كُلُّ نَفْسٍ بِمَا كَسَبَتْ رَهِينَةٌ

“हर इंसान अपने कसब अमल के हाथों गिरवी है।” (तर्जुमा मआनीऐ क़ुरआने करीम, सूरे मुदस्सिर, आयत: 38)


अब रही बात अल्लाह तआला के इल्म की! तो अल्लाह का इल्म कभी भी बंदे को किसी अमल के करने पर मजबूर नहीं करता, क्योंकि अल्लाह को यह मालूम था कि यह बंदा अपने इख्तियार ही से यह अमल करेगा, इंसान का अमल अल्लाह के इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि अल्लाह को अजल से यह इल्म होता है कि यह इंसान यह अमल करेगा, और जहाँ तक लोहे महफूज का ताल्लुक़ है तो इस से मुराद भी यही है की अल्लाह तआला का इल्म हर चीज़ पर इहाता किये हुऐ है।

जहाँ तक अल्लाह के इरादे का ताल्लुक़ है तो यह भी बंदे को किसी अमल पर मजबूर नहीं करता, बल्कि अल्लाह के इरादे का यह मतलब है कि कायनात में अल्लाह तआला के इरादे के बग़ैर कोई चीज़ वुजूद में नहीं आ सकती, यानि कोई चीज़ अल्लाह के इरादे के बग़ैर जबरदस्ती आलामे वुजूद में नहीं आ सकती। यानी कोई चीज़ कायनात मे अल्लाह के इरादे के बग़ैर ज़बरदस्ती वक़ूपज़ीर नही हो सकती। पस जब बंदा कोई अमल करता है, तो अल्लाह तआला बन्दे को ना तो उस से रोकता है ना उसे उसके करने पर मजबूर करता है, बल्कि उसे बाइख्तियार छोड़ देता है। यह अम्र (बन्दे को बाइख्तियार छोड़ना) अल्लाह के इरादे से है, ना कि अल्लाह ने इंसान को मजबूर कर दिया, बंदे का फेल खुद उसके अपने इख्तियार से है, और अल्लाह के इरादा कभी भी उसे अमल पर मजबूर नहीं करता।


यह है कज़ा व क़दर का मसला! यह इंसान को अच्छे कामों को सर अंजाम देने और बुरे कामों से रोकने पर अमादा करता है, क्योंकि इंसान को मालूम होता है कि अल्लाह देख रहा है और वोह मुहास्बा करेगा, अल्लाह ने उसने अमल के करने और छोड़ने का इख्तियार दिया है। पस इंसान अफआल की अंजाम देही हासिल इस इख्तियार को अच्छे तरीके से इस्तेमाल नहीं करेगा तो उसके लिए हलाकत और शदीद तरीन अज़ाब होगा। यही वजह है कि एक सच्चा और कज़ा व क़दर की हक़ीक़त को समझने वाला, अल्लाह की दी हुइ अक्ल और इख्तियार की नेमत की हक़ीक़त को पहचानने वाला मोमिन इंतिहाइ मोहतात और अल्लाह से सख्त डरने वाला होता है। वोह अल्लाह के अवामिर को बजा लाने वाला और अल्लाह के अज़ाब से डरते हुए और जन्नत की उम्मीद रखते हुए, अल्लाह के मना किये हुए कामों से रुकता है। इससे बढ़कर अल्लाह की ख्ुशनूदी के हुसूल के लिए, जो अस्ल मक़सद है, हमेशा नेक आमाला की लगन मे रहता है।

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2 comments :

अनुनाद सिंह said...

मुझे लगता है कि कुरान लिखे जाते समय तक आपके 'खुदा' को बहुत सारी चीजें पता नहीं थीं, इसी लिये वे बार-बार दोहरा रहे थे कि 'खुदा को सब कुछ पता है'। खुदा को टेलीफोन, रेडियो, टीवी के बारे में पता होता तो कुछ तो कहा होता। क्या उसने धरती, चन्द्रमा, सूर्य के अलावा किसी आकाशीय पिण्ड का जिक्र किया? उसको तो यह भी पता नहीं था कि धरती गोल है।

Khilafat.Hindi said...

क़ुरआन वह किताब है जो इंसानो के पालनहार ईश्वर की तरफ से सारी इंसानियत के मार्गदर्शन के लिये भेजी गई है. इसमे उन तमाम मूलभूत सवालों का जवाब है जो हर इंसान जानना चाहता है यानी यह की यह मनुष्य, सृष्टि, और जीवन क्या है?, जीवन से पहले क्या था और जीवन के बाद क्या है? इंसान की अपनी हैसियत इस सृष्टी मे क्या है?
जीवन की हर समस्या इंसान के सामने एक प्रश्न चिन्ह लगाती है और हर इंसान इस बात को अच्छी तरह समझता है की वोह अपनी समझ और शक्ति के एतबार से बहुत सीमित है इसलिये दूसरे के बारे मे तो क्या वोह अपने बारे मे भी कोई बात यक़ीन के साथ नही कह सकता है की उसके लिये क्या अच्छा है और क्या बुरा है? तो इससे बढी बेवक़ूफी क्या हो सकती है की वोह दूसरो का मर्ग दर्शन करने लगे?
इससे पता चलता है की इंसान किसी खुदाई (दिव्य) मार्गदर्शन का मोहताज है. खुदा ने यह दिव्य मार्गदर्शन अपने पैग़म्बरो के द्वारा हर समय मे भेजा है. और अब आखरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के द्वारा क़ुरआन भेजा जो क़ुरआन है. यह सारे इंसानो के लिये कयामत (प्रलय) के दिन तक के आखिरी मार्ग दर्शन है.
बेशक अल्लाह से कुछ भी छुपा हुआ नहीं है, वह भी नही जिसे आज का तुच्छ मनुष्य जान कर इतरा रहा है और वह भी नही जो उसने अभी भी नही जाना और वह भी नही जो वोह कभी भी नही जान सकेगा, मगर चूंकी उसने इंसान को पैदा किया इसलिए वोह इस इंसान की सिमित बुद्धी और क्षमता को ध्यान मे रखते हुऐ अपनी किताब क़ुरआन मजीद और पैगम्बर की सुन्नत के ज़रिये इतनी ही जानकारी पहुँचाई जितनी इंसान के लिए ज़रूरी है और जिसे वोह आसानी से ग्रहण कर सके जो उसकी मूलभूत जरूरतों से जुडी हुई है.
रही विज्ञान और इंसान के फायदे के दूसरे विषय जिस से इंसान फायदे हासिल करता है तो उसके लिये सारे जीवो से बहतर बुद्धी प्रदान की है. अगर खुदा सारी बातें बताने लगता तो यह कभी ना खत्म होने वाली किताब बन जाती.
कुरआन का विषय है की इंसान का खुदा के साथ क्या सम्बन्ध है, खुद इंसान का अपने आप से क्या सम्बन्ध है और दूसरे के साथ उसका क्या समबन्ध है. यही वोह सवाल है जिसकी खोज मे हर इंसान है और जो इंसान अपने दिमाग से हल नही कर सकता है. अगर करेगा तो सारे स्रष्टी में त्राही-त्राही फैल जाऐगी जैसा की हम आज देख रहे है.
रहा इस बात का सवाल की खुदा बार-बार क्यो दोहराता है की 'वह सब जानता है' तो चूंकी अल्लाह ने इंसान की रचना की तो वोह बेहतर समझ सकता है की इंसान को अपनी बात समझाने के लिये कौन सा अन्दाज़ बेहतर हो सकता है. असल मे विचारविमर्श करने का मुद्दा यह नही है जो आप ने उठाया है. असल मुद्दा यह है की क़ुरआन अल्लाह (सारे मनुष्यों का इश्वर) की तरफ से भेजी हुई किताब है की नही? क्योकी अगर कोई यह समझ में आ जाऐ कि कुरआन इंसानो के इश्वर के तरफ से भेजी हुई किताब है तो आगे इस तरह के फिज़ूल सवालो की गुंजाइश नहीं रहती है. इसके लिऐ आप इस ब्लाग पर दिया गया मज़मून पडें और फिर चर्चा करे !!!

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