क्या खिलाफत 30 साल ही रही ?

क्या खिलाफत 30 साल ही रही ?
सवाल: खिलाफत की फर्ज़ीयत और ज़रूरत अच्छी तरह से साबित हो गई है और कई मुस्लिम अब इसकी नुसरत और इशाअत में लगे है। फिर भी कुछ लोगों का दावा है कि खिलाफत सिर्फ 30 साल ही रही और उसके बाद खिलाफत का वजूद नहीं रहा। क्या उनकी इस समझ की कोई इस्लामी बुनियाद है? और क्या यह तर्क आज खिलाफत को नही कायम करने के लिए सही है क्योंकि ये सिर्फ 30 साल ही रही?

जवाब: इसमें कोई शक नहीं कि इस्लामी रियासत, जो हज़रत मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) ने मदीना में कायम की तब तक मौजूद रही जब तक 3 मार्च 1924 में उसका खात्मा कमाल अतातुर्क के हाथों से नही हो गया। तारीखी हक़ीक़त और नुसूस से यह साबित है की इस्लाम का निज़ामे हुक्मरानी, यानी खिलाफत, खुलफाये राशिदीन के बाद भी क़ायम रही. जहाँ तक तारीख (इतिहास) का ताल्लुक है तो हमें हुकूमती निज़ाम (ruling system ) का ढांचा (Structure) ज़हन में रखना चाहिये ताकि हम ऐतीहासिक तौर पर इस बात की तस्दीक कर सके कि खिलाफत मौजूद रही या नहीं। इस्लाम में निज़ामे हुकूमत जिस बुनियाद पर मबनी है, वे है - (1) खलीफा, जो रियासत का सरबराह होता है (2) मुआविन-ए-तफवीज़ (delegated assistants) (3) मुआविन-ए-तनफीज़ (executive assistants) (4) अमीरूल जिहाद (5) क़ाज़ी (judges) (6) वूला (governors) (7) रियासत के मुख्तलिफ शोबे और (8) मजलिसे उम्मत (state assembly). अगर हम तारीख का अच्छी तरह से तजज़िया करें, तो हम देखते है कि हुकूमत के उपर दिये सभी अरकान, सिवाए शूरा के, हमेशा सभी खुलफा के दौर में मौजुद रहें, जब तक ही यह 1924 में खत्म नहीं कर दी गई। खुलफाये राशिदीन के बाद शूरा के मौजूद न होने या इसको नजरअंदाज़ करने का यह मतलब नहीं कि हुकूमत का निज़ाम बदल गया था क्योंकि बिना शूरा के भी इस्लामी हुकूमत मुम्किन है हालांकि शूरा उम्मत का हक़ है। शरीअत के अनुसार अमीर कसरते राय या किल्लते राय का मोहताज नहीं होता। वो बिना किसी की राय लिए बगैर भी फैसला लेने का शरअन हक़दार है। जहाँ तक तारीख के इस दौर की बात है जब खलीफा मौजुद नहीं रहे चाहे वो गृहयुद्ध (Civil war) की वजह से हो या बेरूनी फौजों के तसल्लुत की वजह से, खिलाफत हमेशा मौजुद रही क्योंकि हुकूमत का निजामी ढाँचां बरकरार रहा। आज लोगतंत्र में भी जंग के हालात में या एमरजेंसी में संसद भंग हो जाती है या वह लोगतंत्र की ज़रूरी शर्तों पर कायम नहीं रह पाती है, तो क्या वह व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं रह जाती है? रही बात उन दावों कि हुकूमत आनुवांशिक (  मौरूसी या hereditary) हो गयी थी, तो यह सही है कि बैअत (खलीफा के तकर्रुर तरीक़ा है) का ग़लत इस्तेमाल हुआ मगर इससे खिलाफत के जारी रहने पर कोई असर नहीं हुआ। ऐसा इसलिए, हालांकि खलीफा ने अपनी वफात से कब्ल अपने बेटे के लिए लोगों से बैअत ले ली, यह बैअत का तरीका हमेशा दौहराया जाता रहा। यह बैअत आमतौर से लोगों मे अहले क़ुव्वत और अहले हल-वल-अक़्द (जैसे बडे ओलमा और जनता के नुमाइन्दे) से ली जाती थी या शेखुल इस्लाम से जैसा कि बाद के दौर में देखा गया।

आलीमों ने भी इस बात को माना है कि खुलफाये राशिदीन के बाद भी खिलाफत जारी रही. हालांकि सल्फ में से कुछ ने बाद के हुक्कामों के लिए खलीफा का लक़ब लगाना पंसद नही किया, इसकी बुनियाद तिर्मिज़ी की वोह हदीस है जो हज़रत साफिना से रिवायत है जिन्होने कहा कि अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: ‘‘मैरे बाद मेरी उम्मत में खिलाफत तीस साल के लिए रहेगी, उसके बाद मुल्कन अदुदून (hereditary rule) होगा।’’ इसी तरह की रिवायते सुनन अबू दाउद (2/264) और मसनद अहमद (1/169) में भी मिलती है. आलीमों का मानना है कि इस हदीस का बिल्कुल यह मतलब नहीं कि 30 साल बाद खिलाफत खत्म हो गई क्योंकि अगर ऐसा होता तो यह हदीस दूसरी सहीह आहदीस से टकराती।

जाबिर बिन समुरा (रजि.) से रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, “दीने इस्लाम तब तक रहेगा जब तक क़यामत कायम नहीं हो जाती या तुम पर बारह खुलफा हुकूमत नहीं कर लेते, वे सभी कुरेश से होंगे’’ (सहीह मुस्लिम)
यह हदीस साफ इशारा करती है कि उम्मत के चार या पांच नहीं बल्कि बाह खलीफा होंगे। यह अहीस दलालत करती है कि खिलाफत सिर्फ 30 सालों तक नहीं हो सकती। इस हदीस के ताल्लुक से काज़ी अयाज़ कहते है, ‘‘बाद की एक हदीस मे ज़िक्र है, ‘मेरे बाद खिलाफत 30 साल के लिए होगी, उसके बाद मुल्क-ए-अदूदुन (hereditary rule) होगा’ यह बारह खलीफा वाली इस हदीस से टकराती है क्योंकि तीस साल मे सिर्फ खुलफाये राशिदीन और कुछ महीने जिन मे इमाम हसन बिन अली को बैअत दी गई, शामिल है. इसका जवाब यह है की: ‘खिलाफत तीस साल के लिए होगी’’ से मुरा नबूव्वत वाली खिलाफत है.................. [अन-नवावी, शरह सहीह मुस्लिम, 1821]

जहाँ तक बात है बारह खुलफा के हवाले की बात है तो इसका यह मतलब नही कि इससे खुलफा की तादाद इस संख्या तक महदूद हो जाती है जैसा कि काजी इयाज़ खुलासा करते है: ‘गालिबन इन अहादीस में बाराह खलीफा से मुराद वे खलीफा थे जो खिलाफत के उस बहतरीन और इस्लाम के उरूज के दौर में हुए जब मामलात अच्छी तरह से मुनज़्ज़म थे और लोग खिलाफत की कुर्सी पर बैठने वाले हुक्मरानो पर मुत्तहिद थे।’ (तारीख अल खुलाफा, अस-सुयूती, पेज – 14).
इब्ने हजर सहीह बुखारी की शरह में कहते है: ‘‘काजी इयाज़ ने जो कहा वो इस हदीस के ताल्लुक मे कही गई बातों मे सबसे बहतरीन है। मैं सोचता हूँ कि यह सबसे कवी बात है क्योंकि इसके पक्ष में नबी (صلى الله عليه وسلم) की मुस्तनद रिवायतों वाली हादीस है: ‘और लोग उनके इर्द-गिर्द जमा होंगे..’ (फतहुल बारी) और फिर इब्ने हजर तारिखी हवाला देते है कि किस तरह खुलफा राशिदीन के बाद भी कुछ खुलाफा के तहत लोग इकठ्ठा हुए और मुत्तहिद रहे, वे उमर बिन अब्दुल अजीज का ज़िक्र करते है और ‘अब्बासीयो’ में से ‘खुलाफा बनी अब्बास’ का भी ज़िक्र करते हैं।

सैफु अल-आमिदी, जो एक बड़े शाफई आलीम और उसूली आलिम है, अपनी किताब अल-इमामा मिन अकबर अल-अफकार फी उसूल अद-दीन (पृ.-306) में कहते है: ‘और आप (صلى الله عليه وسلم) का कहना ‘मेरे बाद खिलाफत तीस साल होगी और उसके बाद मुल्कन अदुदा (विरासती बादशाहत) होगी’ - इस हदीस का इशारा ये नहीं कि खिलाफत खुलाफाये राशिदीन (हजरत अबूबक्र, उमर, उस्मान और अली) (रजि.) तक सीमित रहेगी चूंकि उनकी खिलाफत 30 सालो तक रही जैसा कि रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने बताया और इस हदीस से मुराद यह नही है कि खुलफाये राशिदीन के बाद कोई खलिफा नही होंगे। बल्कि इस से मुराद यह है: खिलाफत मेरे बाद इमामत की जिम्मेदारी और मेरी सुन्नत को बिना काट-छांट और ज्यों और त्यो रखने के ताल्लुक से 30 साल के लिए होगी, इस दौर के बाद ज़्यादातर हुक्मरानी बादशाहों की होगी। इसके बावजूद खिलाफत के जारी रहने का इशारा दो बातों से होता है जो ज़ेल है:-

(1)    हर दौर में उम्मत का इजमा उस वक्त के इमाम की इताअत की फर्ज़ियत पर और इस हक़ीक़त पर रहा है कि इमाम या खलीफा की इताअत फर्ज़ है।
(2)     आप (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: ‘‘फिर उसके बाद मुल्कन (तासीर) होगा’. यहाँ तासीरु मिल्कन मे ज़मीर (व्यक्तिवाचक सर्वनाम/personal pronoun) से मुराद खिलाफत है. चूंकि ज़िक्र किया गया फेल (क्रिया या verb) खिलाफत के अलावा कोई और मआने नहीं हो सकता. जैसा की कहा जा रहा है की, ‘फिर खिलाफत एक मुल्क बन जाएगी ’  यह फैसला करती है कि खिलाफत मुल्क बन जायेगी, यानी इस नतीजे के लिये ज़रूरी है की ‘वोह चीज खुद मौजूद हो’। पहले नुक्ते से मुताल्लिक़ इमाम आमिदी बयान करते है कि उम्मत इस बात पर मुत्तफिक है, और ऐसा बेशक नस मे दलाईल होने के सबब है, की वक्त के इमाम की इताअत की जाये और इसलिये कोई यह दलीद नही दे सकता की हदीस बाद की किसी खिलाफत पर क़ैद (रुकावट) लगा रही है. और उनकी दूसरी दलील लिसानी (भाषा विज्ञान) से जुडी है. हदीस यह खबर दे रही है की खिलाफत एक पहलू से बदल जायेगा न की खुद खिलाफत का वजूद खत्म हो जायेगा. यह ऐसे है की कहा जाये की, “और फिर तारीक गुस्सा हो गया”. तारीक का ग़ुस्से की हालत मे बदलने का मतलब यह नहीं है तारीक उमर या अली बन जायेगा. वोह अब भी तारीक है लेकिन उसकी हालत का एक पहलू बदल गया है जो यह है की वोह गुस्सा हो गया है. उसी तरह जब हदीस कहती है ‘सुम्मा तासीरुल मुल्कन’ (और फिर वोह मोरिसी हुकूमत हो जायेगा) का मतलब यह नही है की वोह खिलाफत नही रहेगा. इस ताल्लुक से एक और हदीस वारिद हुई है जिस मे आया है की, “नबुव्वत वाली खिलाफत तीस साल रहेगी और उसके बाद बादशाहत होगी”. दूसरे अल्फाज़ो मे नबुव्वत वाली खिलाफत बाक़ी नहीं रहेगी याना कामिल खिलाफत न कि खुद खिलाफत.

इमाम तफ्तनज़ानी (रह.) इस हक़ीक़त की तरफ की ‘हज़रत अली के बाद के हुक्मरानों को बादशाह समझा जाये’ तवज्जोह दिलाते हुये कहते है, “यह एक मुश्किल मसला है क्योंकि अहले क़ुव्वत और मुसलमानों के अहले हल वल अक़्द (नुमाइन्दे) बनु अब्बास और बनु मरवान मे से कुछ जैसे उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की खिलाफत पर मुत्तफिक़ है. बल्कि यहाँ (उपर गुज़री हदीस जिस मे खिलाफत तीस साल रहने की बात की गई है) मतलब कामिल खिलाफत से है. जिसके बारे मे कोई इख्तिलाफे राय नहीं है   या खिलाफते राशिदा की इत्तबा के बारे मे जो तीस साल के लिये रहेगी, और उसके बाद खिलाफत रहेगी या नही रहेगी.................. अगर यह ऐतराज़ किया की चूंकि खिलाफत का अर्सा तीस साल था तो इसका मतलब यह है की खिलाफते राशिदा के बाद इमाम मौजूद नहीं था और इसलिये पूरी उम्मत इमाम की इत्तिबा नहीं कर रही थी और जब मुसलमान मर रहे थे तो उनकी मौत जहालत की हालत मे हो रही थी. हमारा जबाव वही है जिसे हमले पहले बयान कर चुके है की इस से मुराद कामिल खिलाफत है.”
इस हदीस से सभी अगाह है की ‘खलीफा के बिना मरना जहालत की मौत मरना है’ तो खिलाफते राशिदा के तीस साल के बाद मुसलमानों का क्या मामला रहा? तफतनज़ानी फरमाते है की बाद के मुसलमान गुनहगार नहीं थे क्योंकि खिलाफत मौजूद रही और यह हदीस सिर्फ ‘कामिल खिलाफत’ की तरफ इशारा करती है.
इमाम जलाल अल-दीन अल-सूयुति ( पैदाईश 911 हिजरी) अपनी खिताब ‘तारीख अल-खुलाफा’ (खलीफाओं का इतिहास) में खुलफा की तारीख का पूरा बयौरा देते है, शुरू से अपने वक्त के खलीफा मुतावक्किल अबुल ‘इज सन 903 हिजरी तक और उसके लड़के अल-मुस्तमसिक बिल्लाह का खिलाफत के मनसब पर फाईज़ होने तक का। तारीख के अपने मुकदमे में वह कहते है,: ‘यह एक मुख्तसर तारीख है, जिसमें मै पेश करता हूँ खलीफाओं की जीवनी, मुस्लिम के अमीरो (अमीरूल मोमिनीन) की जिन्होंने उम्मत के मुआमलात की देखरेख की, अबू बक्र (रज़ि.) के दौर से हमारे इस दौर तक . . . . . .’ और यह बात थी हिजरत के 900 साल बाद की।
हर दौर के जाने माने आलीम खुलफा से वाबस्ता रहे, चाहे उन्होंने उनका मुहासबा किया जैसे कि अबू हनीफा (रह.) खलीफा अल मंसूर (रह.) के ज़माने मे या उनके लिए काम किया जैसे कि काज़ी अबू यूसुफ जो खलीफा हारून अल-रशिद के ज़ेरेतहत काजी अल-कुज़ा (chief judge) थे। या उन्होंने खलीफा की बैअत में हिस्सा लिया जैसे कि इज़्ज़ बिन अबद्दुसलाम जिन्होंने मुसतनसिर बिल्लाह को बैअत दी ततारियों की हार के बाद।

उस्मानी खिलाफत के आखिरी दौर में, जब बड़ी क़ुव्वतें इसके खिलाफ साजिशें अंजाम दे रही थी, शेखुल हिन्द मौलाना महमदुल हसन (जो इस वक्त दारूल उलूम देवबन्द के सरबराह थे और मौलाना कासिम नानोतवी, जो दारूल उलूम को क़ायम करने वाले थे, और मौलाना महमदुल हसन के उस्ताद थे)  ने 1920 में अपने उस्ताद के फतवे का ज़िक्र करते है जो उन्होने उस्मानी खिलाफत को इस्लाम के दुश्मनों से बचाने के ताल्लुक से जारी किया था। मौलाना ने फरमाया: ‘‘इस्लाम के दुश्मनो ने इस्लाम की इज़्ज़त और वकार को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इराक, फिलीस्तीन और सीरिया जिन्हें अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के साहबा (रज़ि.) ने इतनी कुर्बानियों के बाद फतह किया था, एक बार फिर दुश्मनाने इस्लाम के लालच के निशाने पर है। खलीफा की इज़्ज़त तार-तार होने के खतरे मे है। खलीफा तुल-मुस्लिमीन, जो इस जमींन पर पूरी उम्मत को मुत्तहिद करता था, जो इस दुनिया में अल्लाह का नायब है, जो इस्लाम के आलमी क़वानीन को नाफिज़ करता है, जो उम्मत के अधिकारों और मफादों की हिफाज़त करता है और जो इस कायनात के बनाने वाले के कलाम की शान बनाये रखने और उसकी हिफाज़त और उसके निफाज़ को यक़ीनी बनाये रखता है, आज दुश्मनों से घिर गया है और उसे बरतरफ कर दिया गया है [ शेखुल हिन्द मौलाना महमूदुल हसन के फतवों से माखूज़, 16 सफर, 1339 हि. बमुताबिक अक्टूबर 29, 1920 ई., अंग्रेज़ी अनुवाद- The Prinsoners of Malta मौलाना सय्यद मुहम्मद मियाँ के द्वारा, जीमयत उलमा-ए-हिन्द द्वारा प्रकाशित)

मौलाना अली जौहर, खिलाफत आंदोलन के बानी ने खिलाफत के बारे में कहा: “तुर्की का  हुक्मरान मुसलमानों का खलीफा या नबी (صلى الله عليه وسلم) का नायब और अमीरुल मोमिनीन या मोमिनों का सरबराह था और खिलाफत बुनियादी तौर पर हमारे दीन से उसी तरह जुडी हुई है जैसे की क़ुरआन और रसूल (صلى الله عليه وسلم) की सुन्नत. [मोहम्मद अली जौहर, माई लाइफ अ फ्रेगमेंट, पृ. 41]
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी अपनी किताब ‘मसलये खिलाफत’, जो 1920 मे शाया हुई, मे लिखा, “बिना खिलाफत के इस्लाम का वजूद ही सम्भव नहीं, हिन्दुस्तान के मुस्लमानो को अपनी पूरी ताक़त और क़ुव्वत से इसके लिये काम करना चाहिये.” इस किताब मे उन्होने अबू बक्र सिद्दीक़ (रज़ि.) से 1920 तक के सारे खुलफा का ज़िक्र किया है. इस लिये हम समझ सकते है की उलमा-ए-इकरान खिलाफत के खात्मे के आखिरी वक़्त तक इसके वजूद के लिये कितने फिक्रमन्द थे.
खुलफाए राशिदीन के बाद खिलाफत के वजूद की फर्ज़ियत का बाक़ी रहना अहले सुन्नत के यहाँ एक सतून की हैसियत रखता है. इसलिये इमाम तफ्तज़ानी (जो की शाफई आलिम थे) ने अपनी शरह मे इमाम नसफी (जो हनफी हैं) का अक़ीदे (मौक़फ) के बारे मे बयान किया और कहा, “इस बात पर सब मुत्तफिक़ है की इमाम (खलीफा) का तक़र्रुर फर्ज़ है. इख्तिलाफ या ज़न तो इस सवाल पर है की यह तक़र्रुर अल्लाह की ओर से होना चाहिये या उसके बन्दो की ओर से, और इसकी बुनियाद (तक़र्रुर की दलील) नस है या अक़्ल. इस बारे मे सही मौक़फ यह है की मखलूक़ को खलीफा का तक़र्रुर करना चाहिये क्योंकि नबीऐ अक़रम (صلى الله عليه وسلم) का फरमान है: जो कोई भी इस हाल मे मरा कि उसकी गर्दन पर बैअत का तौक़ न हो, तो वोह जहालत की मौत मरा.” अत-तफतज़ानी यह भी कहते है, “मुसलमानों पर एक इमाम का होना ज़रूरी है जो उनके फैसलों का इंतेज़ाम करे, उन पर हदों को नाफिज़ करे, उनकी सरहदों की हिफाज़त करे, उनकी फौजों को हथियारों से लैस करे, सदक़ा-ज़क़ात इक़ट्ठा करे, लुटेरों और क़ानून तोडने वालों पर पाबन्दी लगाए, त्योहारो और जुम्मे की नमाज़ क़ायम करे, मखलूक़ के दर्मियान होंने वाले झगडों को निपटाये, क़ानूनी अधिकारों की बुनियाद पर गवाही क़ुबूल करे, जवान मर्द और औरते जिनका कोई मुहाफिज़ न हो, उनका निकाह करवाये, माले ग़निमत तक़्सीम करे और वोह सारे काम करे जिस की फर्ज़ियत किसी फर्दे-वाहिद पर नहीं डाली गई है.” [शरह अक़ीदत अनसफिय्या, पृ. 147]
इमाम तफतज़ानी ने जो कुछ कहा है उसे हर्फे आखिर समझा जाता है जिस पर अहले सुन्नत का इजमा है और पहले गुज़रे हवाले से खलीफा के तक़र्रुर की फर्ज़ियत साफ तौर पर साबित हो जाती है चाहे उसकी तारीखी तश्रीह कुछ भी की जाती हो.
Share on Google Plus

About Khilafat.Hindi

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.
    Blogger Comment
    Facebook Comment

0 comments :

इस्लामी सियासत

इस्लामी सियासत
इस्लामी एक मब्दा (ideology) है जिस से एक निज़ाम फूटता है. सियासत इस्लाम का नागुज़ीर हिस्सा है.

मदनी रियासत और सीरते पाक

मदनी रियासत और सीरते पाक
अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) की मदीने की जानिब हिजरत का मक़सद पहली इस्लामी रियासत का क़याम था जिसके तहत इस्लाम का जामे और हमागीर निफाज़ मुमकिन हो सका.

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास

इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी का इतिहास
इस्लाम एक मुकम्म जीवन व्यवस्था है जो ज़िंदगी के सम्पूर्ण क्षेत्र को अपने अंदर समाये हुए है. इस्लामी रियासत का 1350 साल का इतिहास इस बात का साक्षी है. इस्लामी रियासत की गैर-मौजूदगी मे भी मुसलमान अपना सब कुछ क़ुर्बान करके भी इस्लामी तहज़ीब के मामले मे समझौता नही करना चाहते. यह इस्लामी जीवन व्यवस्था की कामयाबी की खुली हुई निशानी है.