मुतफर्रिक़ उसूल व क़वानीन
1. फक़त किताबुल्लाह, सुन्नते रसूलु (सललल्लाहो अलैहि वसल्लम)
2. इस्लाम मे शरई मसदर से अहकाम अखज़ करने के अमल को इजतिहाद कहते हैं. किसी भी दौर मे पूरी उम्मत मे कम-अज़कम एक मुजतहिद का होना फर्ज़े किफाया है जो उम्मत को नऐ मसाईल के बारे मे हुक्मे शरई मसादिर से इस्तिमबात करके दे सके. हर मुसलमान को इजतिहाद का हक़ हासिल है बशर्ते के उसके अन्दर इजतिहाद कि शराईत पाई जाती हो. नेज़ यह भी समझना ज़रूरी है के इजतिहाद किसी मुजतहिद कि अपनी पसन्द या नापसन्द पर मबनी नही होता बल्कि यह सिर्फ क़ुरआन और सुन्नत मे वारिद शुदा अल्लाह के अहकामात को समझने और तलाश करने का नाम है. इसलिए हर मुजतहिद मुसतम्बित शुदा हुक्म के लिये शरई मसादिर से दलील पेश करने का पाबन्द होता है ताकि दिगर ओलमा और मुक़ल्लिदीन इस हुक्म की सेहत की जांच पडताल कर सके. यह ग़लत सोंच है की इजतिहाद उस मसअले के बारे मे किया जाता है जो शरई मसदर मे बयान ना किया गया हो क्योकि हक़ीक़त यह है की शरीयत किसी भी मसअले पर खामोश नही है. इजतिहाद हर उस मसअले मे दरकार है जिसमें शरई नुसूस मे एक से ज़यादा माने का अहतमाल हो यानी जिसके बारे मे क़तई दलील कि बजाऐ ज़न्नी दलील हो. चुनाचे मुजतहिद ग़ालिब ज़न की बुनियाद पर इन मसाईल मे लोगों की रहनुमाई करता है. यही वजह है की नमाज़ और रोज़े जैसे मसाईल पर मुजतहिदीन ने इजतिहाद के ज़रिऐ तफसीली अहकामात इस्तिमबात किये है गो के यह कोई नऐ मसाईल नहीं और मुसलमान यह मनासिक रसूलुल्लाह r के दौर से अदा करते चले आ रहे है. इसके बरअक्स खत्मे नबुवत, सूद की हुरमत, चोर के हाथ काटने, ज़ानी को सौ दुर्रे लगाने, वगैराह जैसे क़तई अहकाम और अक़ाईद पर किसी का इजतिहाद नहीं हो सकता क्योकि इन तमाम अहकाम पर शरई नुसूस वाज़ेह है और रिवायत के लिहाज़ से क़तई है. और इनमे मफहुम के लिहाज़ से किसी क़िस्म का कोई इबहाम या ज़न मौजूद नहीं.
3. रियासत मे फक़ही इख्तिलाफ की मुकम्मल इजाज़त होगी सिवाऐ क़तई अहकाम और अक़ाईद मे क्योकि इनमे इख्तिलाफ से एक शक्स इस्लाम से खारिज हो जाता है जैसा कि क़ादयानियों का मामला है. किसी इख्तिलाफी मसले मे रियासत किसी मखसूस राऐ को सिर्फ उसी वक्त इख्तियार (तबन्नी) करती है अगर उस मसअले का ताल्लुक़ मआशरे के इजतिमाई पहलू से हो. या उसका ताल्लुक़ निज़ाम से हो. अमूमन इंफरादि पहलू और इबादात से मुताल्लिक़ अहकाम पर रियासत कोई खास फिक़ही राऐ इख्तियार या नाफिस नहीं करती. चुनाचे मुसलमानो को उनके ज़ाति मसाईल और अहकामत मे किसी भी दुरुस्त इजतिहाद पर अमल करने कि इजाज़त होगी ख्वाह वोह सलाहियत रखने की सूरत मे खुद इजतिहाद करे या किसी मुजतहिद की पैरवी करे. निज़ाम से मुताल्लिक़ अहकामात रियासत क़ुव्वते दलील की बुनियाद पर इख्तियार (तबन्नी) करती है जो रियासत के तमाम शहरियो पर यकसा तौर पर नाफिज़ किया जाता है. मज़ीद बरां अवाम के पास रियासत के नाफिज़ करदा अहकामात की शरई हैसियत को चेलेंज करने का इख्तियार होता है जिस पर क़ाज़ी मज़ालिम का फैसला हतमी होता है.
4. रियासत ज़राऐ-बलाग को इस्लाम की तशहीर व तालीम व उम्मत की सियासी बेदारी और यकजहती के लिये इस्तेमाल करेगी. नेज़ प्राईवेट और रियासती ज़राऐ-बलाग़ को हुक्मरानो के मुहासबे की खुली इजाज़त होगी.
5. एक ज़िम्मी (ग़ैर-मुस्लिम) शहरी की जान, माल इज्ज़त को तहफ्फुज़ फराहम करना रियासत की ज़िम्मेदारी होती है. इन्हे जैसा चाहे एतक़ाद रखने, और जिस तरह चाहे इबादत करने का हक़ हासिल होगा.
0 comments :
Post a Comment