इस्लामी निज़ामे अदल
1. तमाम मुक़दमात का फैसला सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के क़वानीन के तहत किया जाता है. जज का फैसला हतमी होता है. उसे किसी अदालत मे चेलेन्ज नहीं किया जा सकता है. इसकी वजह से हक़दार को एक अदालत से दूसरी अदालत के चक्कर नहीं लगाने नहीं पडते और मुजरिम को फौरी सज़ा मिलती है. फरिक़ैन जज के खिलाफ मुक़दमा कर सकते हैं अगर वोह इस्लामी अहकामात की सरीह खिलाफवरज़ी करे या हक़ायक़ को नज़र अन्दाज़ कर के फैसला सादिर करें.
2. मुल्ज़िम उस वक्त तक बरी समझा जाता है जब तक उसका जुर्म सौ फिसद साबित ना हो जाए. चुनाचे ना तो एक शक्स को महज़ शक की बुनियाद पर गिरफ्तार किया जऐगा और ना ही सज़ाऐं सुनाइ जाऐगी. आज झूटी एफ. आई. आर. (FIR) की मदद से एक गरीब को जेल भिजवा दिया जाता है. जहां वोह ज़मानत की अदम मौजूदगी कि वजह से सालहा-साल सडता रहता है. आज खवातीन हुदूद आरडिनेंस कि वजह से हुदूद का शिकार नहीं बल्कि अंग्रेज़ो के दिये हुए इन procedural laws के चक्की मे पिस रही है.
3. इस्लामी अदालती निज़ाम मे आला और ज़ैली अदालतो का कोई तस्सवुर नहीं. ताहम मुखतलिफ नौईयत के जराइम की बुनियाद पर अदालतो की तीन अक़साम है. क़ाज़ी मुहतसिब, क़ाज़ी आम और क़ाज़ी मज़ालिम. क़ाज़ी मुहतसिब का काम मुआशरे मे होने वाले जराइम और मजमुइ मआशरती हुक़ूक की खिलाफवर्ज़ी से निपटना है मसलन नाप तौल मे कमी, गैर क़ानूनी तिजारत वगैराह. क़ाज़ी आम दो शहरियों के माबैन तनाज़ात सुनता है, नैज़ रियासत के खिलाफ होने वाले जराइम बशुमूल हुदूद और ताज़ीरात के फैसले सादिर करता है. क़ाज़ी मज़ालिम अवाम और रियासत/हुक्मरानो के माबैन तनाज़ात पर फैसला करता है.
4. खलीफा का जुर्म सबित होने कि सूरत मे क़ाज़ी मज़ालिम उसे सज़ा देने या माज़ूल करने का मजाज़ रखता है. दिगर क़ाज़ी हज़रात उसे फैसला करने मै मशवरा और मदद दे सकते है. नेज़ इस्लाम मे जूरी का कोई तसव्वुर नहीं है.
5. झूटी गवाही देने वाले को क़रारे वाक़ई सज़ा दि जाती है. नेज़ लम्बे और गैर ज़रूरी प्रोसिजरल क़वानीन (procedural laws) से इजतनाब किया जाता है. नतीजतन अवाम को फौरी और सस्ता इंसाफ मुहिया होता है.
6. अदल मुहय्या करना रियासत की ज़िम्मेदारी है चुनाचे खिलाफत मे किसी किस्म की कोइ कोर्ट फीस या टेक्स नही होता.
7. अदलिया की ज़िम्मेदारी होती है की वोह तमाम शहरियों को रंग नसल और दीन से बालातर हो कर एक ही नज़र से देखे. सिवाए उन मसाईल के जो गैर-मुस्लिमों के ज़ाती ज़िन्दगी से मुताल्लिक़ हो मसलन शादी बयाह वगैराह जिनमे हर शख्स के मज़हब के मुताबिक़ फैसले किये जाएगें.
2 comments :
इस्लाम को अच्छे अंदाज़ में प्रस्तुत कर रहें हें
लेकिन भाषा को सरल बनायें ताकि
आम हिन्दी भाषी इसे अच्छी तरह समझ सके
जज़कल्लाह, आप की होंसला अफ्ज़ाई के लिये. इंशा अल्लाह हम मुस्तकबिल मे हिन्दी आसान करने की कोशिश करेगे.
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