इस्लाम 21 वी सदी मे
चौदाह सौ साल गुजरने के बाद खिलाफत का निज़ाम क्योंकर क़ाबिले अमल हैं?
गुज़िश्ता सदी में इश्तिराकियत (साम्यवाद) के दाइयों ने ईरतक़ा (Evolution) के फलसफे की बड़ी शद व मद से तश्हीर की यहां तक कि मुस्लिम मुफक्करिन भी इस सोच से मुतास्सिर हुए बगैर न रह सके। इन हज़रात का कहना है कि खिलाफत का निज़ाम और अल्लाह के अहकामात चौदाह सौ साल पहले के जमाने के लिए तो बहुत अच्छे थे। लेकिन चूंके इन्सान और मुआशरे ने इरतक़ा की कई मंजिलें फांद ली है इसलिए हमें भी इस्लामी अहकामात में ‘‘रिफार्म’’ (सुधार) लाना होगा। लिहाज़ा वक्त के बदलने और इन्सानी इरतका का बावेला मचाकर हमें तलकीन की जाती है कि अब खिलाफत का निज़ाम जैसा नाज़िल हुआ बिल्कुल वैसा ही नहीं किया जा सकता। इसलिए इसमें ‘‘तबंदीली’’ या ‘‘बहतरी’’ लाने के लिए इज्तिहाद का सहारा लेना होगा। आज कल जब भी खिलाफत और शरीयत की बात की जाती है तो हमारे तरक्की पसंद या सेक्यूलर हज़रात फौरन ही मुआशरे को सांतवी सदी में ले जाने का ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं। इन हज़रात में ओरों के अलावा परवेज मुशर्रफ और कुफ्फार में से हमारे ‘‘खैर-ख्वाह’’ जॉर्ज बुश, जनरल जान अबी जे़द और हेनरी किसिन्जर भी शामिल है।
इस बहस की तह तक पहुंचने के लिए हमे दो पहलुओं का बगोर जाइज़़ा लेना होगा। अवल्लन ये कि खिलाफत के निज़ाम में लागू अल्लाह के अहकामात का हदफ क्या है? दोयम यह कि वक्त गुज़रने के साथ आखिर क्या चीज़ बदलती है?
वही का हदफ - इन्सानी तालुकात की तंजीम
बेशक कुरान और सुन्नत में कायनात और सांइस के चंद असूलो और क़वानीन का ज़िक्र मौजूद है। लेकिन क़ुरान का मक़सद इन्सान को साइंस पढाना नहीं। अगर यही होता तो मदीना आज से 1400 साल पहले साइंस का इतना अज़ीम मरकज़ होता जितना आज भी दुनिया का कोई मुल्क नहीं। इसलिए के सहाबा (रजि.) से बेहतर इस्लाम की समझ किसी को भी नहीं। और नबी (صلى الله عليه وسلم) और खुलफाए राशिदीन दुनिया के सब से बड़े साइंसदान होते। वही का हदफ इन्सानी ताल्लुकात को दुरूस्त अंदाज में मुनज़्ज़म करना है। ताकि इन्सान ज़ुल्मत से निकल कर नूर में दाखिल हो और इस कि दुनिया और आखिरत दोनो सँवर जाए। इस्लाम के अहकामात इन्सान के तमाम ताल्लुकात को मुनज़्ज़म करते है। ये इन्सानी ताल्लुकात तीन तरह के है। इन्सान का अपने साथ ताल्लुक, इन्सानों का दूसरे इन्सानों के साथ ताल्लुक और इन्सान का अपने खालिक के साथ ताल्लुक।
खाना-पीना, लिबास, तहारत, सफाई सुथराई वगैराह से मुताल्लिक अहकामात इन्सान के अपने साथ ताल्लुक को मुनज़्ज़म करते हैं। इसी तरह मआशी निज़ाम, अदालती निज़ाम, हुकुमती निज़ाम, खारिजा पोलिसी वगैरह से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात इन्सान के ताल्लुकात को दुनिया के दीगर इन्सानों के साथ अहसन तरीके से इस्तवार करते है। जबकि नमाज़ रोज़ा, हज, ज़कात अलगरज़ तमाम इबादात इन्सान का अपने खालिक के साथ रिष्ता व ताल्लुक इस्तवार करती है। आइये अब इस बात का जाइजा ले कि आया ये ताल्लुकात जिन्हें इस्तवार करने के लिए अल्लाह तआला ने हमें अहकामात दिये है तबदील होते हैं या नहीं? इस का दारोमदार इस तहक़ीक़ पर है कि इन्सान और खालिक जो कि इत तीनों ताल्लुकात की इकाईयां है, वक्त गुज़रने के साथ तब्दील होंगे या नहीं।
वक्त गुज़रने के साथ इन्सानी फितरत तबदील होती है और ना ही खालिक़
वक्त गुज़रने के साथ इन्सान बहैसियत इन्सान तब्दील नहीं होता। आज से चौदाह सौ साल कब्ल के इन्सान की भी बुनियादी ज़रूरीयात वही थी जो आज के इन्सान की है। आज का इन्सान भी खाने, पीने, जागने-साने, सांस लेने जैसी हाजाते अज़वीया को पूरा किये बगैर जिन्दा नहीं रह सकता जैसा कि सदीयों कदीम शख्स इन ज़रूरीयात को पूरा करने के लिए मजबूर था। इसी तरह ज़र, ज़मीन और ज़न की चाहत, जाह व हशमत कि चाहत अम्न व तहफ्फुज़ की चाहत, खैफ व लालच, मुहब्बत, रहम दिली वगैराह ‘इन्सान में मौजूद’ मखसूस जिबील्लतो कि मज़ाहिर है। इन्सानी ज़िबील्लते (मूल प्रवृति) न कभी बदली है ओर न ही मुस्तकबिल में कभी तब्दील हो सकती है। क्योंकि ये तमाम हाजात अज़विया और जिबील्लते इन्सान की ज़ात का जुज़ है। पूरी दुनिया में हर जगह का इन्सान एक ही किस्म की बुनियादी खुसूसियात (यानी हाजाते अज़विया और जिबील्लतो) का हामिल है जो इसे किसी भी दूसरी मखलूक (Species) से मुमताज करती है। चुनांचे मालूम हुआ कि इन्सान के ये ख्वास कभी भी तब्दील नहीं होते और इन्सान बहैसियत इन्सान वही है जो आज से चौदाह सौ साल पहले था। ये हकीकत भी सब जानते है कि वक्त गुज़रने के साथ खालीक में भी किसी किस्म का तग़य्युर या तब्दीली वकु पज़ीर नहीं होती। क्योंकि हर वह चीज़ जो तग़य्युर पज़ीर होती है। वह अज़ली नहीं होती जबकि खालीक अज़ली और हमेशा रहने वाली हस्ती का नाम है।
इन्सानी ताल्लुकात और इन से मुताल्लिक शरई अहकामात वक्त गुज़रने के साथ तब्दील नही होते।
चुनांचे अगर वक्त के गुज़रने के साथ इन्सान बहेसियत इन्सान तब्दील हुआ और न ही खालीक में तब्दीली आई तो फिर इन्सान के अपने साथ ताल्लुक और इन्सान के अपने खालिक के साथ ताल्लुक में तब्दीली कैसे आ सकती है? अगर इन ताल्लुकात की ईकाइयां (यानी इन्सान और खलिक) न बदली तो फिर यह बाहमी ताल्लुकात भी नहीं बदलते मसलन मियां और बीबी, मां और बेटा, बहन और भाई हाकिम और रिआया, वकील और मुवक्किल वगैराह के ताल्लुकात उस वक़्त तक मौजूद रहेंगे जब तक इन्सान एक मुआशरे की शक्ल में ज़िन्दगी गुजारता रहेगा। इसी तरह इस्लामी रियासत का दीगर रियासतो के साथ ताल्लुकात, रियासत और गैर-मुस्लिम शहरीयों का ताल्लुक वगैराह भी वक्त की कैद से आजाद है और इस वक्त मौजूद होंगे जब एक इस्लामी रियासत का वजूद हेगा। पस साबित हुआ कि वक्त गुज़रने के साथ मज़कूरा बाला तीनों तरह के तालुकात में कोई तग़य्युर और तब्दीली नहीं आई। इसी तरह इन ताल्लुकात को मुनज़्ज़म करने के लिए दिये गए इस्लामी अहकामात में भी किसी किस्म कि तब्दीली कि ज़रूरत नहीं। पहले भी मर्द और औरत के ताल्लुकात को मुनजि़्ज़म करने के लिए अहाकाम दरकार थे। और आज भी निकाह, ज़िना वगैराह से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात काबिले अमल है। इसी तरह नान व नक़फा या वल्दीयत, फरज़न्दी, विरासत, तहवील, मुहारिम और असबत से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात काबिले अमल है। इसी तरह मिरास, शराकती, कारोबार करन्सी ज़मीन से मुताल्लिक अहकामात, तावानई (Energy) से मुताल्लिक ज़राए की अवामी मिल्कियत से मुताल्लिक अहाकामात, माल ज़खीराह करने के मुमानिअत से लेकर शरअी हदूद, अम्र बिल मारूफ व नहीं अनिल मुन्कर, इल्म के हसूल का फर्ज़ होने वगैराह के अहकामात में किसी तग़य्युर की कोई गुंजाइश नही। चुनांचे शराब नौशी, सूद खौरी, कमार बाज़ी, मासूम शहरी का कत्ल, ज़िना, लवातत, झूठ, गैर मुस्लिमों को ज़बरदस्ती मुलसमान बनाना, काफिरो कि सरकरदगी में जंग लड़ना वगैराह, जैसे हराम अफआल वक्त गुज़रने के साथ कभी-भी हलाल नहीं हो सकते। इसी तरह नमाज़ के अहकामात हो या हज, ज़कात, सोम वगैराह जैसी इबादात जमान व मका की तब्दीली इन्सान के अपने अखलाक के साथ ताल्लुक मुनज़्ज़म करने के तरीके कार में भी तग़य्युर व तब्दीली नहीं ला सकती। ना ही इखलाक व इतवार, खाने-पीने में हलाल व हराम, परदा, तबर्रूज के अहकामात में तबदीली की कोई गुंजाइश है। क्योंकि दर असल इन्सानों के बाहमी ताल्लुकात और इन्सानों का रब से ताल्लुक दोनो काबिले तग़य्युर है। पस तमाम अहकामाते इलाइया में वक्त गुज़रने के साथ किसी किस्म कि ‘‘बहतरी’’ या ‘‘रिर्फाम’’ कि गुंजाइश है ना ही ज़रूरत क्योंकि ये महमूदू इन्सानी अक्ल की पैदावार नहीं है। बल्कि ये खालिकुल अलीम और अलखबीर के अता करदाह है जो आज से चौदाह सौ साल कब्ल भी दुरूस्त थे और आज भी दुरूस्त है।
वक्त गुज़रने के साथ इन्सानी ताल्लुकात में नहीं बल्कि टेक्नोलोजी और आशिया में तब्दीली रोनुमा होती है।
जहां तक कायनात में इन्सान के अलावा दिगर अशिया का ताल्लुक है तो उनमें इन्सान अपने इल्म और टेक्नोलोजी में तरक्की की बदौलत तब्दीली और बहतरी लाता है। नेज़ इंसान इन आशिया को महज इन ताल्लुकात को पूरा करने के लिए बतौर ज़राए इस्तमाल करता है। वक्त गुज़रने के साथ इन्सान अपने महसूसाते और तजुरबात के ज़रिये इल्म में इज़ाफा करते है। फिर इस इल्म को बरोएकार लाते हुए वह अपने। इर्द-गिर्द मौजूद खाम माल (Raw Material) से पहले से बेहतर अशिया बनाता है। चुनांचे यह अशिया ही है जो ज़मा व मका के बदलने से अमूमन बदलती है और यह कयास करके लोग इस गलतफहमी का शिकार हो जाते है कि इन्सान और इस के ताल्लुकात भी बदल गए है। चुनांचे आज से सदियों पहले भी इन्सान खरीद फरोख्त और तिजारत करता था और आज भी वह अपनी ज़रूरीयात को पूरा करने के लिए दीगर इन्सानों से ये ताल्लुक इस्तवार करता है। सदीयों पुराने इन्सान को अगर तिजारत के लिए सफर करने की ज़रूरत महसूस होती तो वह घोड़े इस्तमाल करता। जबकी आज वह जहाज के ज़रीये सालों का सफर घंटों में ते करता है। चुनांचे वक्त गुज़रने के साथ इसकी दूसरे इन्सान के साथ खरीद फरोख़्त या तिजारत की ज़रूरत नहीं बदली। बल्कि इस ज़रूरत और ताल्लुक को पूरा करने के लिए जो ज़राए इस्तमाल किए गए वह बदले गए है। यानी घोड़े की जगह हवाई जहाज ने ली है। यही वजह है कि जो अहकामात खरीद फरोख्त के ताल्लुक से इस्तवार करने के लिए इस्लाम ने आज से चोदह सौ साल पहले दिये थे वह आज भी नाफिज़ुल अमल रहेंगे।
लिहाजा वक्त गुजरने के साथ जो चीज़ तब्दील होती वह इल्म और टोकनोलॉजी है जिस कि वजह से (Finished Goods) आशिया कि हेय्यत में तब्दीली वाकेअ होती है। इन्सान इन नई अशिया की मदद से अपने दाइमी ताल्लुक को इन्ही अबदी क़वानीन के तहत इस्तवार करता है जो अल्लाह ने इसे अता किये है। पस मालूम हुआ कि तग़य्युर व तब्दीली न तो इन्सान में आती है और न ही खालिक़ में बल्कि तगय्युर व तरक्की आशिया की हेय्यत (technology) में आती है। ये भी वाज़ेह रहे कि इस तब्दीली को इरतका (Evolution) भी नहीं कहा जा सकता क्यों इरतका का अमल तरक्की के अमल से मुख्तलिफ होता है। इसके अलावा ये अशिया वह ज़राए ही है जिन्हें इस्तमाल करके इन्सान अपने ताल्लुकात को इस्तवार और ज़रूरियात (खरीद व फरोख्त या तिजारत) को पूरा करता है लेकिन इन अशिया कि हेय्यत में तब्दीली इन्सानी ताल्लुकात को नहीं बदलती, बल्कि इन ताल्लुकात को पूरा करने कि कैफियत या अंदाजा (Style) बदल जाते है।
ये भी अर्ज़ करना ज़रूरी है कि इस्लाम ने अशिया, साइंस और टेक्नोलोजी को अमूमी तौर पर मुबाह (permitted) है। सिवाय इनके जिन के बारे कुरान व सुन्नत ने तखसीस करते हुए इन्हें हराम करार दिया हो। पस टेंक, जहाज, कम्प्यूटर, टी.वी., डिश वगैराह सब ‘हलाल’ है क्योंकि इनको हराम करार देने के लिए कुरान सुन्नत में कोई ‘नहीं’ या मनाही वारिद नहीं हुई। इसी तरह न्यूटन, आइंसटाइन और दिगर साइंस दानों के दिये गए कवानीन और अपनाना जाइज़ है सिवाय उन साइंसी उसूलो के जो इस्लाम के अता करदाह उसूलों से मुतसादिम (टकराते) हो मसलन डारविन के इन्सानी इरतक़ा की थ्योरी (theory of evolution), इन्सानी क्लोनिंग वगैराह जिनके खिलाफ कुरान में आयात मौजूद है। यूं इस्लाम नई अशिया के बारे में ऐसे अमूमी अहकामात देता है। जिनकी वजह से इस्लाम जमान व मंका की क़ैद से मावरा हो जाता है।
पस चुंकी निज़ामे खिलाफत में नाफ़िज किये जाने वाले इस्लामी अहकामात का हदफ़ इंसानी ताल्लुकात की तनज़ीम है और यह इन्सानी ताल्लुकात रहती दुनिया तक मौजूद रहेगी। लिहाजा खिलाफत का निज़ाम, जैसे हुकुमती निजाम इक्तसादी निज़ाम, मुआशरती निज़ाम, अदालती निज़ाम, तालिमी और खारिजा पॉलीसी, नाफ़िज़ की जाती है। आज भी इन इन्सानी ताल्लुकात को बदरजे अतम मुनज़्ज़म करेगा। नीज़ इसमें किसी किस्म की तब्दीली की कोई ज़रूरत नहीं अलबत्ता इन कवानीन के निफाज़ के लिए ज़राए (means या साधन) में तब्दीली या तरक्की इन्तज़ामी क़वायद व ज़वाबित के तहत मुमकिन है जैसे हजरत उमर (رضي الله عنه) ने फारस से दिवान का निज़ाम (दफ्तरी निज़ाम) अपनाया था। चुनांचे खिलाफत आज भी पहले कि तरह काबिले अमल है और इन्सानियत को बिल्कुल उसी तरह इन्साफ मुहय्या करेगी जिस तरह आज से चौदाह सौ साल पहले से इसने इन्सानियत को ज़ुल्मत से निजात दिलाई थी।
गुज़िश्ता सदी में इश्तिराकियत (साम्यवाद) के दाइयों ने ईरतक़ा (Evolution) के फलसफे की बड़ी शद व मद से तश्हीर की यहां तक कि मुस्लिम मुफक्करिन भी इस सोच से मुतास्सिर हुए बगैर न रह सके। इन हज़रात का कहना है कि खिलाफत का निज़ाम और अल्लाह के अहकामात चौदाह सौ साल पहले के जमाने के लिए तो बहुत अच्छे थे। लेकिन चूंके इन्सान और मुआशरे ने इरतक़ा की कई मंजिलें फांद ली है इसलिए हमें भी इस्लामी अहकामात में ‘‘रिफार्म’’ (सुधार) लाना होगा। लिहाज़ा वक्त के बदलने और इन्सानी इरतका का बावेला मचाकर हमें तलकीन की जाती है कि अब खिलाफत का निज़ाम जैसा नाज़िल हुआ बिल्कुल वैसा ही नहीं किया जा सकता। इसलिए इसमें ‘‘तबंदीली’’ या ‘‘बहतरी’’ लाने के लिए इज्तिहाद का सहारा लेना होगा। आज कल जब भी खिलाफत और शरीयत की बात की जाती है तो हमारे तरक्की पसंद या सेक्यूलर हज़रात फौरन ही मुआशरे को सांतवी सदी में ले जाने का ढिंढोरा पीटना शुरू कर देते हैं। इन हज़रात में ओरों के अलावा परवेज मुशर्रफ और कुफ्फार में से हमारे ‘‘खैर-ख्वाह’’ जॉर्ज बुश, जनरल जान अबी जे़द और हेनरी किसिन्जर भी शामिल है।
इस बहस की तह तक पहुंचने के लिए हमे दो पहलुओं का बगोर जाइज़़ा लेना होगा। अवल्लन ये कि खिलाफत के निज़ाम में लागू अल्लाह के अहकामात का हदफ क्या है? दोयम यह कि वक्त गुज़रने के साथ आखिर क्या चीज़ बदलती है?
वही का हदफ - इन्सानी तालुकात की तंजीम
बेशक कुरान और सुन्नत में कायनात और सांइस के चंद असूलो और क़वानीन का ज़िक्र मौजूद है। लेकिन क़ुरान का मक़सद इन्सान को साइंस पढाना नहीं। अगर यही होता तो मदीना आज से 1400 साल पहले साइंस का इतना अज़ीम मरकज़ होता जितना आज भी दुनिया का कोई मुल्क नहीं। इसलिए के सहाबा (रजि.) से बेहतर इस्लाम की समझ किसी को भी नहीं। और नबी (صلى الله عليه وسلم) और खुलफाए राशिदीन दुनिया के सब से बड़े साइंसदान होते। वही का हदफ इन्सानी ताल्लुकात को दुरूस्त अंदाज में मुनज़्ज़म करना है। ताकि इन्सान ज़ुल्मत से निकल कर नूर में दाखिल हो और इस कि दुनिया और आखिरत दोनो सँवर जाए। इस्लाम के अहकामात इन्सान के तमाम ताल्लुकात को मुनज़्ज़म करते है। ये इन्सानी ताल्लुकात तीन तरह के है। इन्सान का अपने साथ ताल्लुक, इन्सानों का दूसरे इन्सानों के साथ ताल्लुक और इन्सान का अपने खालिक के साथ ताल्लुक।
खाना-पीना, लिबास, तहारत, सफाई सुथराई वगैराह से मुताल्लिक अहकामात इन्सान के अपने साथ ताल्लुक को मुनज़्ज़म करते हैं। इसी तरह मआशी निज़ाम, अदालती निज़ाम, हुकुमती निज़ाम, खारिजा पोलिसी वगैरह से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात इन्सान के ताल्लुकात को दुनिया के दीगर इन्सानों के साथ अहसन तरीके से इस्तवार करते है। जबकि नमाज़ रोज़ा, हज, ज़कात अलगरज़ तमाम इबादात इन्सान का अपने खालिक के साथ रिष्ता व ताल्लुक इस्तवार करती है। आइये अब इस बात का जाइजा ले कि आया ये ताल्लुकात जिन्हें इस्तवार करने के लिए अल्लाह तआला ने हमें अहकामात दिये है तबदील होते हैं या नहीं? इस का दारोमदार इस तहक़ीक़ पर है कि इन्सान और खालिक जो कि इत तीनों ताल्लुकात की इकाईयां है, वक्त गुज़रने के साथ तब्दील होंगे या नहीं।
वक्त गुज़रने के साथ इन्सानी फितरत तबदील होती है और ना ही खालिक़
वक्त गुज़रने के साथ इन्सान बहैसियत इन्सान तब्दील नहीं होता। आज से चौदाह सौ साल कब्ल के इन्सान की भी बुनियादी ज़रूरीयात वही थी जो आज के इन्सान की है। आज का इन्सान भी खाने, पीने, जागने-साने, सांस लेने जैसी हाजाते अज़वीया को पूरा किये बगैर जिन्दा नहीं रह सकता जैसा कि सदीयों कदीम शख्स इन ज़रूरीयात को पूरा करने के लिए मजबूर था। इसी तरह ज़र, ज़मीन और ज़न की चाहत, जाह व हशमत कि चाहत अम्न व तहफ्फुज़ की चाहत, खैफ व लालच, मुहब्बत, रहम दिली वगैराह ‘इन्सान में मौजूद’ मखसूस जिबील्लतो कि मज़ाहिर है। इन्सानी ज़िबील्लते (मूल प्रवृति) न कभी बदली है ओर न ही मुस्तकबिल में कभी तब्दील हो सकती है। क्योंकि ये तमाम हाजात अज़विया और जिबील्लते इन्सान की ज़ात का जुज़ है। पूरी दुनिया में हर जगह का इन्सान एक ही किस्म की बुनियादी खुसूसियात (यानी हाजाते अज़विया और जिबील्लतो) का हामिल है जो इसे किसी भी दूसरी मखलूक (Species) से मुमताज करती है। चुनांचे मालूम हुआ कि इन्सान के ये ख्वास कभी भी तब्दील नहीं होते और इन्सान बहैसियत इन्सान वही है जो आज से चौदाह सौ साल पहले था। ये हकीकत भी सब जानते है कि वक्त गुज़रने के साथ खालीक में भी किसी किस्म का तग़य्युर या तब्दीली वकु पज़ीर नहीं होती। क्योंकि हर वह चीज़ जो तग़य्युर पज़ीर होती है। वह अज़ली नहीं होती जबकि खालीक अज़ली और हमेशा रहने वाली हस्ती का नाम है।
इन्सानी ताल्लुकात और इन से मुताल्लिक शरई अहकामात वक्त गुज़रने के साथ तब्दील नही होते।
चुनांचे अगर वक्त के गुज़रने के साथ इन्सान बहेसियत इन्सान तब्दील हुआ और न ही खालीक में तब्दीली आई तो फिर इन्सान के अपने साथ ताल्लुक और इन्सान के अपने खालिक के साथ ताल्लुक में तब्दीली कैसे आ सकती है? अगर इन ताल्लुकात की ईकाइयां (यानी इन्सान और खलिक) न बदली तो फिर यह बाहमी ताल्लुकात भी नहीं बदलते मसलन मियां और बीबी, मां और बेटा, बहन और भाई हाकिम और रिआया, वकील और मुवक्किल वगैराह के ताल्लुकात उस वक़्त तक मौजूद रहेंगे जब तक इन्सान एक मुआशरे की शक्ल में ज़िन्दगी गुजारता रहेगा। इसी तरह इस्लामी रियासत का दीगर रियासतो के साथ ताल्लुकात, रियासत और गैर-मुस्लिम शहरीयों का ताल्लुक वगैराह भी वक्त की कैद से आजाद है और इस वक्त मौजूद होंगे जब एक इस्लामी रियासत का वजूद हेगा। पस साबित हुआ कि वक्त गुज़रने के साथ मज़कूरा बाला तीनों तरह के तालुकात में कोई तग़य्युर और तब्दीली नहीं आई। इसी तरह इन ताल्लुकात को मुनज़्ज़म करने के लिए दिये गए इस्लामी अहकामात में भी किसी किस्म कि तब्दीली कि ज़रूरत नहीं। पहले भी मर्द और औरत के ताल्लुकात को मुनजि़्ज़म करने के लिए अहाकाम दरकार थे। और आज भी निकाह, ज़िना वगैराह से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात काबिले अमल है। इसी तरह नान व नक़फा या वल्दीयत, फरज़न्दी, विरासत, तहवील, मुहारिम और असबत से मुताल्लिक इस्लामी अहकामात काबिले अमल है। इसी तरह मिरास, शराकती, कारोबार करन्सी ज़मीन से मुताल्लिक अहकामात, तावानई (Energy) से मुताल्लिक ज़राए की अवामी मिल्कियत से मुताल्लिक अहाकामात, माल ज़खीराह करने के मुमानिअत से लेकर शरअी हदूद, अम्र बिल मारूफ व नहीं अनिल मुन्कर, इल्म के हसूल का फर्ज़ होने वगैराह के अहकामात में किसी तग़य्युर की कोई गुंजाइश नही। चुनांचे शराब नौशी, सूद खौरी, कमार बाज़ी, मासूम शहरी का कत्ल, ज़िना, लवातत, झूठ, गैर मुस्लिमों को ज़बरदस्ती मुलसमान बनाना, काफिरो कि सरकरदगी में जंग लड़ना वगैराह, जैसे हराम अफआल वक्त गुज़रने के साथ कभी-भी हलाल नहीं हो सकते। इसी तरह नमाज़ के अहकामात हो या हज, ज़कात, सोम वगैराह जैसी इबादात जमान व मका की तब्दीली इन्सान के अपने अखलाक के साथ ताल्लुक मुनज़्ज़म करने के तरीके कार में भी तग़य्युर व तब्दीली नहीं ला सकती। ना ही इखलाक व इतवार, खाने-पीने में हलाल व हराम, परदा, तबर्रूज के अहकामात में तबदीली की कोई गुंजाइश है। क्योंकि दर असल इन्सानों के बाहमी ताल्लुकात और इन्सानों का रब से ताल्लुक दोनो काबिले तग़य्युर है। पस तमाम अहकामाते इलाइया में वक्त गुज़रने के साथ किसी किस्म कि ‘‘बहतरी’’ या ‘‘रिर्फाम’’ कि गुंजाइश है ना ही ज़रूरत क्योंकि ये महमूदू इन्सानी अक्ल की पैदावार नहीं है। बल्कि ये खालिकुल अलीम और अलखबीर के अता करदाह है जो आज से चौदाह सौ साल कब्ल भी दुरूस्त थे और आज भी दुरूस्त है।
वक्त गुज़रने के साथ इन्सानी ताल्लुकात में नहीं बल्कि टेक्नोलोजी और आशिया में तब्दीली रोनुमा होती है।
जहां तक कायनात में इन्सान के अलावा दिगर अशिया का ताल्लुक है तो उनमें इन्सान अपने इल्म और टेक्नोलोजी में तरक्की की बदौलत तब्दीली और बहतरी लाता है। नेज़ इंसान इन आशिया को महज इन ताल्लुकात को पूरा करने के लिए बतौर ज़राए इस्तमाल करता है। वक्त गुज़रने के साथ इन्सान अपने महसूसाते और तजुरबात के ज़रिये इल्म में इज़ाफा करते है। फिर इस इल्म को बरोएकार लाते हुए वह अपने। इर्द-गिर्द मौजूद खाम माल (Raw Material) से पहले से बेहतर अशिया बनाता है। चुनांचे यह अशिया ही है जो ज़मा व मका के बदलने से अमूमन बदलती है और यह कयास करके लोग इस गलतफहमी का शिकार हो जाते है कि इन्सान और इस के ताल्लुकात भी बदल गए है। चुनांचे आज से सदियों पहले भी इन्सान खरीद फरोख्त और तिजारत करता था और आज भी वह अपनी ज़रूरीयात को पूरा करने के लिए दीगर इन्सानों से ये ताल्लुक इस्तवार करता है। सदीयों पुराने इन्सान को अगर तिजारत के लिए सफर करने की ज़रूरत महसूस होती तो वह घोड़े इस्तमाल करता। जबकी आज वह जहाज के ज़रीये सालों का सफर घंटों में ते करता है। चुनांचे वक्त गुज़रने के साथ इसकी दूसरे इन्सान के साथ खरीद फरोख़्त या तिजारत की ज़रूरत नहीं बदली। बल्कि इस ज़रूरत और ताल्लुक को पूरा करने के लिए जो ज़राए इस्तमाल किए गए वह बदले गए है। यानी घोड़े की जगह हवाई जहाज ने ली है। यही वजह है कि जो अहकामात खरीद फरोख्त के ताल्लुक से इस्तवार करने के लिए इस्लाम ने आज से चोदह सौ साल पहले दिये थे वह आज भी नाफिज़ुल अमल रहेंगे।
लिहाजा वक्त गुजरने के साथ जो चीज़ तब्दील होती वह इल्म और टोकनोलॉजी है जिस कि वजह से (Finished Goods) आशिया कि हेय्यत में तब्दीली वाकेअ होती है। इन्सान इन नई अशिया की मदद से अपने दाइमी ताल्लुक को इन्ही अबदी क़वानीन के तहत इस्तवार करता है जो अल्लाह ने इसे अता किये है। पस मालूम हुआ कि तग़य्युर व तब्दीली न तो इन्सान में आती है और न ही खालिक़ में बल्कि तगय्युर व तरक्की आशिया की हेय्यत (technology) में आती है। ये भी वाज़ेह रहे कि इस तब्दीली को इरतका (Evolution) भी नहीं कहा जा सकता क्यों इरतका का अमल तरक्की के अमल से मुख्तलिफ होता है। इसके अलावा ये अशिया वह ज़राए ही है जिन्हें इस्तमाल करके इन्सान अपने ताल्लुकात को इस्तवार और ज़रूरियात (खरीद व फरोख्त या तिजारत) को पूरा करता है लेकिन इन अशिया कि हेय्यत में तब्दीली इन्सानी ताल्लुकात को नहीं बदलती, बल्कि इन ताल्लुकात को पूरा करने कि कैफियत या अंदाजा (Style) बदल जाते है।
ये भी अर्ज़ करना ज़रूरी है कि इस्लाम ने अशिया, साइंस और टेक्नोलोजी को अमूमी तौर पर मुबाह (permitted) है। सिवाय इनके जिन के बारे कुरान व सुन्नत ने तखसीस करते हुए इन्हें हराम करार दिया हो। पस टेंक, जहाज, कम्प्यूटर, टी.वी., डिश वगैराह सब ‘हलाल’ है क्योंकि इनको हराम करार देने के लिए कुरान सुन्नत में कोई ‘नहीं’ या मनाही वारिद नहीं हुई। इसी तरह न्यूटन, आइंसटाइन और दिगर साइंस दानों के दिये गए कवानीन और अपनाना जाइज़ है सिवाय उन साइंसी उसूलो के जो इस्लाम के अता करदाह उसूलों से मुतसादिम (टकराते) हो मसलन डारविन के इन्सानी इरतक़ा की थ्योरी (theory of evolution), इन्सानी क्लोनिंग वगैराह जिनके खिलाफ कुरान में आयात मौजूद है। यूं इस्लाम नई अशिया के बारे में ऐसे अमूमी अहकामात देता है। जिनकी वजह से इस्लाम जमान व मंका की क़ैद से मावरा हो जाता है।
पस चुंकी निज़ामे खिलाफत में नाफ़िज किये जाने वाले इस्लामी अहकामात का हदफ़ इंसानी ताल्लुकात की तनज़ीम है और यह इन्सानी ताल्लुकात रहती दुनिया तक मौजूद रहेगी। लिहाजा खिलाफत का निज़ाम, जैसे हुकुमती निजाम इक्तसादी निज़ाम, मुआशरती निज़ाम, अदालती निज़ाम, तालिमी और खारिजा पॉलीसी, नाफ़िज़ की जाती है। आज भी इन इन्सानी ताल्लुकात को बदरजे अतम मुनज़्ज़म करेगा। नीज़ इसमें किसी किस्म की तब्दीली की कोई ज़रूरत नहीं अलबत्ता इन कवानीन के निफाज़ के लिए ज़राए (means या साधन) में तब्दीली या तरक्की इन्तज़ामी क़वायद व ज़वाबित के तहत मुमकिन है जैसे हजरत उमर (رضي الله عنه) ने फारस से दिवान का निज़ाम (दफ्तरी निज़ाम) अपनाया था। चुनांचे खिलाफत आज भी पहले कि तरह काबिले अमल है और इन्सानियत को बिल्कुल उसी तरह इन्साफ मुहय्या करेगी जिस तरह आज से चौदाह सौ साल पहले से इसने इन्सानियत को ज़ुल्मत से निजात दिलाई थी।
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