फिक्ही इख्तालाफात का ताना सेक्यूलर हज़रात की जैब में मौजूद वह सख्त तरीन कोढ़ा है जिसने इस्लाम पसन्दों की कमर को छलनी किया हुआ है। अभी किसी के मुँह से इस्लाम नाफिज़ करने की बात निकली नहीं कि ये कोढ़ा हरकत में आ जाता है। इस सिलसिले में हर किस्म के दलाइल एक ‘‘बम धमाके’’ के ज़िकर में उड़न छू हो जाते है। पस इस मज़मून में एक मुदल्लल और उसूली जवाब तहरीर किया गया है। ताकि सेक्यूलर हज़रात को फिक्ही इख्तलाफात के सिलसिले में इस्लामी सियासत के तरज़े अमल के बारे में आगह भी किया जाय और साथ-साथ इस्लाम पसन्दों को भी एक नसीहत कि जाये क्योंकि सही मुस्लिम में मौजूद रसूल अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की हदीस के मुताबिक दीन नसीहत है ‘‘अल्लाह, रसूल, और कुरान की खातिर, अवाम और उन लीडरों के लिए’’
जम्हूरियत (Democracy) में इख्तलाफे राए का मस्ला हल करने का तरीक़ा
सबसे पहले हम दुनिया में ग़ालिब सरमायादारान निजाम (Capitalism) में देखते है कि इन्सान के ज़रिये इजाद किया गया सियासी निज़ाम ‘जम्हूरियत’ (Democracy) कैसे इख्तिलाफे राए के मसले को हल करता है। आज मगरिबी मुआशरे में इस्कात हमल (abortion) से लेकर क्लोनिंग (cloning) तक (Stem Cell Research) से लेकर हम-जिन्स परस्ती (homosexuality) तक और इराक जंग से लेकर टेक्स इस्लाहात तक बेषुमार मसाइल में मुख्तलिफ आराए (opinion) पाई जाती है।
लेकिन यह उनके इंतिशार का बाईस नहीं। इस की बुनियादी वजह यह की जम्हूरी निज़ाम में एक मसले पर मौजूद इख्तिलाफ राए में से एक राए नाफिज करने का एक अपना तरीका है जो इस्लाम से मुख्तलिफ है। ये तरीका अवामी नुमाइन्दो की अक्सरीयत राए की बुनियाद पर होता है। पस इस तरीके के मुताबिक वह अपने तमाम इख्तिलाफ को रियासती मुआमलात में हल कर लेते है। इसका मतलब ये नहीं है की तमाम लोग एक ही राय को इख्तियार कर लेते है बल्कि इसका मतलब सिर्फ ये है कि रियासत में एक राए नाफिज कर दी जाती है। और बकिया राए के हामिल लोग अपनी राए के निफाज के लिए सियासी तरीके से अपनी आवाज बुलन्द करते रहते है। ऐसा उस वक्त तक होता है जब तक इस राय के हक़ मे राय आम्मा हमवार हो जाती है। पस वह राए अक्सरियती राए की बुनियाद पर नाफिज़ हो जाती है। इसकी हालिया मिसाल अमरीका और बरतानिया में इन की नज़र में ‘‘दहशत गरदी’’ या दूसरे लफ्ज़ों में इस्लाम के खिलाफ कवानीन का दोबारा से लागू करना है। जिसमें हुकुमत को राऐ आम्मा ;च्नइसपब व्चपदपवदद्ध बनाने में सख्त दुष्वारी का सामना है।
इस्लाम में इख्तिलाफ राए के मसले के हल का तरीकेकार
इस्लाम में इख्तिलाफ राए में से एक राए नाफिज़ करने का तरीकेकार जम्हूरियत से मुख्तलिफ है। इस्लाम का इस सिलसिले में तरीकेकार यह है कि शरीयत से क़वी दलाइल की बुनियाद पर अखज किये जाने वाले कई इज्तिहाद में से खलीफा जिस इज्तिहाद को तबन्नी (Adopt) कर ले उस पर अमल पेरा होना वाजिब होता है। खलीफा इबादात, ज़ाती मुआमलात और अकाइद की फरोई तफ्सीलात में कोई मख्सूस इज्तिहाद नाफिज़ नहीं करेगा और लोगों को इजाज़त होगी की वह इन मुआमलात में से किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करें। वह महज उन मसाइल में से एक इज्तिहाद को नाफिज़ करेगा जिनका ताल्लुक इज्तिमाई मुआमलात और निज़ाम से है। मसलन जिहाद कब और किस के खिलाफ किया जाए, खिराज, इक्तिसादी, निज़ाम, तालीमी पाॅलीसी वगैरा। इस सिलसिले में जो दलाइल कुरान व सुन्नत में आते है। मुलाहिज़ हो।
‘‘ऐ ईमान वालों! अल्लाह और रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत करो और अपने उलिल अम्र (हुकमरान) की भी’’ ( निसा: 59 )। पस खलीफा इस्लामी दलाइल पर मबनी राए में से जिस राय को इख्तियार करने के बाद लागू करेगा इस पर तमाम मकातिबे फिक्र महज़ इसलिए अमल करेगे क्योंकि इस मुन्तखिब करदा खलीफा की इताअत मुन्दरजा बाला आयात और दीगर अहादीस की वजह से फर्ज़ है। इस दौरान अवाम और दीगर मुज्तहीदीन अपनी-अपनी राय पर कायम रह सकते है और खलीफा को अपनी राए अपनाने के लिए मश्वरा भी दे सकते है। लेकिन इन इज्तिमाई मसाइल में पूरी उम्मत को खलीफा के अपनाए गए इज्तिहाद पर है अमल करना होगा। क्योंकि यह अल्लाह का हुक्म है। इस तरह मुआशरे और रियासत का नज़म व नसक बगैर इन्तिशार के चलाया जा सकता है। मशहूर फ़िकही काइदा है ‘‘अमरूल इमाम यरफऊल खिलाफ’’ ‘‘इमाम (खलीफा) का हुक्म इख्तिलाफ को खत्म करता है’’ और ‘‘अमरूल इमाम नाफीज़ ज़ाहीरन व बातीनन’’ इमाम का हुक्म ज़ाहिरन और बातिनन नाफीज़ किया जाता है।’’ इसी उसूल के तहत अबूबक्र (رضي الله عنه) ने अपनी खिलाफत के दौरान सहाबा (رضي الله عنه) की अक्सरियते राए को मुस्तरद करते हुए अपनी राए नाफीज़ कि और मुरतदीने ज़कात, झूठी नबूवतों के दावेदारों और रूमीयों के खिलाफ एक साथ लष्कर क़षी फरमाई। इसी तरह हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने इराक के मफतुह इलाकों पर खिराज नाफीज़ करने के अपने इज्तिहाद को नाफीज़ फरमाया। अगरचे हज़रत बिलाल (رضي الله عنه) और अकाबिर सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजतिहाद इन से मुख्तलिफ था। नीज़ जब हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) खलीफा थे तो उन्होंने तलाक़ और अमवाल तकसीम में अपने इज्तिहाद का निफाज़ किया। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अपने दौरे खिलाफत में इन्हीं मसाइल पर मुख्तलिफ इज्तिहाद को लागू फरमाया।
हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) और हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इस तरीकेकार पर तमाम सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजमाअ है जो हमारे लिए शरअी दलील है। चुनांचे मालूम हुआ की इज्तिहादी इख्तिलाफ हज़रत उमर (رضي الله عنه) और हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) की खिलाफत के दौरान भी रहा। लेकिन इसने उम्मत में तास्सुब या इन्तिशार पैदा नहीं किया। क्योंकि उम्मत को अपने इजतिहादी इख्तिलाफात हल करने का तरीका आता था।
इज्तिहादी इख्तिलाफ की इजाज़त की सुन्नते नबवी (صلى الله عليه وسلم) से दलील
सहाबा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के वक्त में इज्तिहाद किया करते थे और उनकी राय में इख्तिलाफ भी पाया जाता था। यह इज्तिहादी इख्तिलाफ रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के सामने पेश किया गया और आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस पर किसी की मलामत न फरमाई, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर से मरवी है:
‘‘गज़वऐ अहज़ाब के इख्तिताम वाले दिन रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ‘‘तुम में से कोई भी नमाज़ असर न पढ़ें। सिवाए बनू कुरेज़ा पहुंच कर’’ बाज़ हज़रत की असर की नमाज़ का वक्त रास्ते में ही हो गया। इनमें से कुछ सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) ने कहा हम (रास्ते में) नमाज़ नही पढ़ेंगे जब तक (बनू कुरेज़ा)ं पहुंच न जाए। बाज़ सहाबा (रजि.) ने कहा बल्कि हम (नमाज) पढ़ेगें। क्योंकि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के इस फरमान से मुराद ये ना था। बल्कि इस हुक्म से जल्दी मतलूब थी। फिर जब रसूलल्लाह से ज़िक्र किया गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने दोनों में से किसी गिरोह की सरज़निश नहीं फरमाई । (बुखारी)
इस हदीस से वाज़ेह हुआ कि सहाबा (रजि.) की एक जमाअत ने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के मनतूक (लफज़ी मआनी) पर अमल किया और दूसरे गिरोह ने मफहूम पर और आप (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के दोनों मअनी समझे जा सकते थे। यही वजह है कि ताबअीन और तबअे ताबअीन ने कभी भी इज्तिहादी इख्तिलाफ की बुनियाद पर किसी मुजतहिद की मलामत की और न ही कुफ्र का फतवा लगाया।
हाँ जिन्होंने कतई (definitive) अहकामात में इख्तिलाफ किया उन पर मुरतद होने की वजह से रियासत ने कत्ल की हद जारी की। इसी तरह अमर बिन आस (رضي الله عنه) से रिवायत है कि उन्होंने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना: ‘‘अगर एक क़ाज़ी इज्तिहाद करते हुए दुरूस्त फैसला दे तो उसके लिए दो अज्र है और अगर वह इज्तिहाद करते हुए गलत फैसले पर पहुंच जाए तो इस के लिए एक अज्र है’’ (बुखारी) यानी अगर इजतिहाद की शराईत के बाद अगर वह गलत राए तक भी पहुंच जाये तो वह काबिले कुबुल है।
आज खिलाफत और खलीफा की ग़ैर मौजूदगी की वजह से मुसलमानों के दरमियान फिक्ही इख्तिलाफात में से एक राय नाफिज़ करना मुमकिन नहीं। इस्लाम का अमली तरीकेकार हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) के दौर से शुरू होकर उस्मानी खिलाफत तक जारी रहा। खिलाफत तमाम मुसलमानों की एक रियायत का नाम है। और ये किसी मखसूस मस्लक को नाफिज़ नहीं करेगी। बल्कि क़वी दलाइल (strong evidences) की बुनियाद पर किये जाने वाले इज्तिहाद में से दुरूस्त इज्तिहाद नाफिज़ किया जाएगा। ख्वाह वह किसी असरे हाज़िर की मुजतहीद की राए हो या इस्लाम के मशहूरे ज़माना तारीखी मुज्तहदीन की राए हो जिनका आज का ज़माना मुकल्लिद है। बहरहाल इस उसूली बहस के बाद अगर इस मुआमले को थोड़ी से गहराई से मुताअला किया जाए तो ये हकीकत रोज़े रोशन की तरह अयां हो जाती है कि इस्लाम के कतई अहकामात में किसी भी मस्लक या इजतिहाद में कोई फर्क नहीं चाहे इसका ताल्लुक मुआमलात से हो, इबादात से हो या हुक्मरानी के उमूर से। इसके अलावा वोह मामलात जिन का ताल्लुक़ रियासत से हैए उन मामलात मे उम्मत मे इख्तिलाफे राये तो क्याए कोई दूसरी राय मौजूद ही नहीं है । मसलन तमाम मुसलमानों की एक रिायासत होना, खलीफा की इताअत, खलीफा का उम्मत के अमूर का ज़िम्मेदार होना, रियासत की तरफ से अवाम के तमाम बुनियादी ज़रूरीयत की गारंटी देना, कुफ्फार के साथ फौजी तआवुन ममनूअ होना, मुसलमानों की कुफ्फार के मुकाबले में बेयारो मददगार न छोड़ना, (IMF) और ; (World Bank) वल्ड बैंक जैसे इस्तमारी इदारों से कर्ज़ा लेने की मुमानिअत, अकवाम मुत्तहदा (United Nations) जैसे तागूत की रूकनियत का हराम होना, अवामी मिल्कियत जैसे तेल, कोयला, दरिया, रोड़ वगैराह की निजीकरण (privatization) का हराम होना, ज़मीन से मुताअल्लिक मुसलमानों का मारतेकुल आरा इसलाहात, करन्सी का सोने, चांदी या किमती धातु पर मुन्हसिर होना, हुदुद का निफाज़, अकामुस्सलात, ज़कात की वसूली, परदा, खिराज़ व उशर, इस्लामी मकबूजा इलाकों का कुफ्फार के चंगुल से छुड़ाना, साइंस व टेक्नालोजी और इस्लामी सक़ाफत की ताखीज वगैराह-वगैराह। जहां तक इबादात और बाज़ मसाइल की फरूआत और तफसीलात में इख्तिलाफ का ताल्लुक है तो इस इख्तिलाफ का उम्मत की वहदत (unity) के अमूर से केाई ताल्लुक नहीं, न हीं रियासत के अमूर पर इसका कोई असर पड़ता है पस इस इख्तिलाफ के बाकी रहने में कोई क़बाहत नहीं, अगरचे मुस्बत अन्दाज में इन मुआमलात पर बहस मुबाहिसे का कलचर परवान चढ़ा कर खिलाफत एक ऐसे मुआशरे को परवान चढ़ाएगी जैसा कि सहाबा (रजि.), तआबीन और तबअे ताबअीन के वक्त मौजूद था।
इज्तिहाद से मुताल्लिक बुनियादी समझ ही तास्सुब और दीगर मकातीबे इस्लाम से बुग्ज़ को दूर करती है। क्योंकि दीगर मकातीब भी दलाइज की बुनियाद पर एक शरअी मसले पर कारबन्द होते है। यही वजह है कि कुरूने ऊला के मुसलमानों में बाज़ औकात सियासी इख्तिलाफात के बाइस कड़वापन तो जरूर हुआ लेकिन उन्होंने कभी भी फिक्ही इख्तिलाफात को बुनियाद बना कर जंग व जदल नहीं की। इसी तरह हमे तारीख से मुख्तलिफ मकातीब फिक्र के दरमियान बेषुमार मुबसत फिकरी और फिक़ही बहसें मिलती है। जिनके नतीजे में कई मौको पर मुजतहिदीन ने अपने इज्तिहादात से रजूअ करके क़वी दलील पर मबनी इज्तिहाद को इख्तियार किया। नीज़ हज़ीरीने मजलिस को भी अपने फिक्ही इल्म में इज़ाफा करने के साथ दीगर मकातीबे फिक्र के दलाइल समझने का मौका मिला मिलता। चुनाँचे मुख्तलिफ मकातिब में एक दुसरे के लिए अहतराम पैदा होता और मुआशरे में हमआहन्गी की फिज़ा जन्म देती थी।
मौजूद सूरतेहाल
मैं इस बात के इज़हार में कोई मुज़ाहिक़ा महसूस नहीं करता की आज उम्मत के बाज़ मखसूस तबको में जो रहा सहा मसलकी तास्सुब था वह भी दम तोड़ चुका है। अवामुन्नास ने तो इसे खैर कभी कबूल ही नहीं किया। अगर अवाम के दरमियान फिरका वारीयत होती तो अब तक इनमें कई फसादात हो चुके होते। लेकिन ये हकीकत हमारे सामने है कि जब भी बम धमाकों का कोई अफसोस नाक वाकिआ होता है (जिसके सबूत कभी मुन्ज़रे आम पर नहीं लाए जाते) तो उम्मत दूसरो मसालीक के बजाए हुकूमत और विदेशी अनासीर पर ही शक करती है। क्योंकि उम्मत इस खेल को समझ चुकी है के आखिर इसके पीछे किन लोगों का हाथ है और वह कौन लोग हैं जो बाज़ मखसूस अनासिर को इस्तमाल करते है। इसके अलावा इराक़ के अन्दर इन्तिहाई मुकद्दस मुकामात में धमाकों के बारे में इन्तिहाई वाज़ह दलीले मिडिया में आ चुके है। जिन से ज़ाहिर होता है कि अमरीका इस आग को भड़काने में किस कदर घिनौना किरदार अदा कर रहा है। लेकिन अहसान अल्लाह का अज़ीम है कि इसे मुँह कि खानी पड रही हैं।
आखिर में उलमा की भी तवज्जोह चाहुँगा कि वह उम्मत में ‘‘सिर्फ हमारा मसलक दुरूस्त है’’ कि ज़हनीयत न डाले। बल्कि इनके सामने हकीकत को वाज़ेह करें कि कतई अहकामात में इख्तिलाफा राए नहीं हो सकता। जबकी ज़न्नी दलाइल में मुख्तलिफ मुज्तहदीन कुरान व सुन्नत से इज्तिहाद करते है। और हर मुज्तहिद भरपूर कोषिश होती है कि वह अल्लाह के हुक्म तक पहुंच सके। पस इस सिलसिले में अगर इज्तिहाद का मुकम्मत तरीकेकार इख्तियार किया गया है तो बाकी मसालिक भी इसी तरह इस्लाम पर चलते हुए अल्लाह सुब्हानहु व ताला के हुक्म ही का इत्तबाअ कर रहे होते है जैसे कि इनक अपने मसलक के लोग अल्लाह तआला कुरआन में फरमाते है: ‘‘और अल्लाह ने तुम्हारा नाम मुसलमान रखा है’’।
नतीज़ा
पस यह हकीकत सूरज की तरह रौशन हो चुकी है कि इज्तिहादी इख्तिलाफात मुसलमानों की एक इस्लामी रियासत के रास्ते में हरगीज़ कोई रूकावट नहीं। बल्कि असल रूकावट वह हुक्मरान तबका है जो इस मुद्दे (issue) को भड़का कर इस्लाम के रास्ते में रूकावटें डालते है ताकि इक़्तिदार पर इनकी गिरफ्त ढिली न हो जाए और इन्हें अपने करतूतों का हिसाब न देना पड़े।
जम्हूरियत (Democracy) में इख्तलाफे राए का मस्ला हल करने का तरीक़ा
सबसे पहले हम दुनिया में ग़ालिब सरमायादारान निजाम (Capitalism) में देखते है कि इन्सान के ज़रिये इजाद किया गया सियासी निज़ाम ‘जम्हूरियत’ (Democracy) कैसे इख्तिलाफे राए के मसले को हल करता है। आज मगरिबी मुआशरे में इस्कात हमल (abortion) से लेकर क्लोनिंग (cloning) तक (Stem Cell Research) से लेकर हम-जिन्स परस्ती (homosexuality) तक और इराक जंग से लेकर टेक्स इस्लाहात तक बेषुमार मसाइल में मुख्तलिफ आराए (opinion) पाई जाती है।
लेकिन यह उनके इंतिशार का बाईस नहीं। इस की बुनियादी वजह यह की जम्हूरी निज़ाम में एक मसले पर मौजूद इख्तिलाफ राए में से एक राए नाफिज करने का एक अपना तरीका है जो इस्लाम से मुख्तलिफ है। ये तरीका अवामी नुमाइन्दो की अक्सरीयत राए की बुनियाद पर होता है। पस इस तरीके के मुताबिक वह अपने तमाम इख्तिलाफ को रियासती मुआमलात में हल कर लेते है। इसका मतलब ये नहीं है की तमाम लोग एक ही राय को इख्तियार कर लेते है बल्कि इसका मतलब सिर्फ ये है कि रियासत में एक राए नाफिज कर दी जाती है। और बकिया राए के हामिल लोग अपनी राए के निफाज के लिए सियासी तरीके से अपनी आवाज बुलन्द करते रहते है। ऐसा उस वक्त तक होता है जब तक इस राय के हक़ मे राय आम्मा हमवार हो जाती है। पस वह राए अक्सरियती राए की बुनियाद पर नाफिज़ हो जाती है। इसकी हालिया मिसाल अमरीका और बरतानिया में इन की नज़र में ‘‘दहशत गरदी’’ या दूसरे लफ्ज़ों में इस्लाम के खिलाफ कवानीन का दोबारा से लागू करना है। जिसमें हुकुमत को राऐ आम्मा ;च्नइसपब व्चपदपवदद्ध बनाने में सख्त दुष्वारी का सामना है।
इस्लाम में इख्तिलाफ राए के मसले के हल का तरीकेकार
इस्लाम में इख्तिलाफ राए में से एक राए नाफिज़ करने का तरीकेकार जम्हूरियत से मुख्तलिफ है। इस्लाम का इस सिलसिले में तरीकेकार यह है कि शरीयत से क़वी दलाइल की बुनियाद पर अखज किये जाने वाले कई इज्तिहाद में से खलीफा जिस इज्तिहाद को तबन्नी (Adopt) कर ले उस पर अमल पेरा होना वाजिब होता है। खलीफा इबादात, ज़ाती मुआमलात और अकाइद की फरोई तफ्सीलात में कोई मख्सूस इज्तिहाद नाफिज़ नहीं करेगा और लोगों को इजाज़त होगी की वह इन मुआमलात में से किसी भी मुजतहिद की तक़लीद करें। वह महज उन मसाइल में से एक इज्तिहाद को नाफिज़ करेगा जिनका ताल्लुक इज्तिमाई मुआमलात और निज़ाम से है। मसलन जिहाद कब और किस के खिलाफ किया जाए, खिराज, इक्तिसादी, निज़ाम, तालीमी पाॅलीसी वगैरा। इस सिलसिले में जो दलाइल कुरान व सुन्नत में आते है। मुलाहिज़ हो।
‘‘ऐ ईमान वालों! अल्लाह और रसूल (صلى الله عليه وسلم) की इताअत करो और अपने उलिल अम्र (हुकमरान) की भी’’ ( निसा: 59 )। पस खलीफा इस्लामी दलाइल पर मबनी राए में से जिस राय को इख्तियार करने के बाद लागू करेगा इस पर तमाम मकातिबे फिक्र महज़ इसलिए अमल करेगे क्योंकि इस मुन्तखिब करदा खलीफा की इताअत मुन्दरजा बाला आयात और दीगर अहादीस की वजह से फर्ज़ है। इस दौरान अवाम और दीगर मुज्तहीदीन अपनी-अपनी राय पर कायम रह सकते है और खलीफा को अपनी राए अपनाने के लिए मश्वरा भी दे सकते है। लेकिन इन इज्तिमाई मसाइल में पूरी उम्मत को खलीफा के अपनाए गए इज्तिहाद पर है अमल करना होगा। क्योंकि यह अल्लाह का हुक्म है। इस तरह मुआशरे और रियासत का नज़म व नसक बगैर इन्तिशार के चलाया जा सकता है। मशहूर फ़िकही काइदा है ‘‘अमरूल इमाम यरफऊल खिलाफ’’ ‘‘इमाम (खलीफा) का हुक्म इख्तिलाफ को खत्म करता है’’ और ‘‘अमरूल इमाम नाफीज़ ज़ाहीरन व बातीनन’’ इमाम का हुक्म ज़ाहिरन और बातिनन नाफीज़ किया जाता है।’’ इसी उसूल के तहत अबूबक्र (رضي الله عنه) ने अपनी खिलाफत के दौरान सहाबा (رضي الله عنه) की अक्सरियते राए को मुस्तरद करते हुए अपनी राए नाफीज़ कि और मुरतदीने ज़कात, झूठी नबूवतों के दावेदारों और रूमीयों के खिलाफ एक साथ लष्कर क़षी फरमाई। इसी तरह हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने इराक के मफतुह इलाकों पर खिराज नाफीज़ करने के अपने इज्तिहाद को नाफीज़ फरमाया। अगरचे हज़रत बिलाल (رضي الله عنه) और अकाबिर सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजतिहाद इन से मुख्तलिफ था। नीज़ जब हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) खलीफा थे तो उन्होंने तलाक़ और अमवाल तकसीम में अपने इज्तिहाद का निफाज़ किया। हज़रत उमर (رضي الله عنه) ने अपने दौरे खिलाफत में इन्हीं मसाइल पर मुख्तलिफ इज्तिहाद को लागू फरमाया।
हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) और हज़रत उमर (رضي الله عنه) के इस तरीकेकार पर तमाम सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) का इजमाअ है जो हमारे लिए शरअी दलील है। चुनांचे मालूम हुआ की इज्तिहादी इख्तिलाफ हज़रत उमर (رضي الله عنه) और हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) की खिलाफत के दौरान भी रहा। लेकिन इसने उम्मत में तास्सुब या इन्तिशार पैदा नहीं किया। क्योंकि उम्मत को अपने इजतिहादी इख्तिलाफात हल करने का तरीका आता था।
इज्तिहादी इख्तिलाफ की इजाज़त की सुन्नते नबवी (صلى الله عليه وسلم) से दलील
सहाबा रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के वक्त में इज्तिहाद किया करते थे और उनकी राय में इख्तिलाफ भी पाया जाता था। यह इज्तिहादी इख्तिलाफ रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के सामने पेश किया गया और आप (صلى الله عليه وسلم) ने इस पर किसी की मलामत न फरमाई, हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर से मरवी है:
‘‘गज़वऐ अहज़ाब के इख्तिताम वाले दिन रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया कि ‘‘तुम में से कोई भी नमाज़ असर न पढ़ें। सिवाए बनू कुरेज़ा पहुंच कर’’ बाज़ हज़रत की असर की नमाज़ का वक्त रास्ते में ही हो गया। इनमें से कुछ सहाबा (रज़िअल्लाहु तआला अनहुमा) ने कहा हम (रास्ते में) नमाज़ नही पढ़ेंगे जब तक (बनू कुरेज़ा)ं पहुंच न जाए। बाज़ सहाबा (रजि.) ने कहा बल्कि हम (नमाज) पढ़ेगें। क्योंकि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के इस फरमान से मुराद ये ना था। बल्कि इस हुक्म से जल्दी मतलूब थी। फिर जब रसूलल्लाह से ज़िक्र किया गया तो आप (صلى الله عليه وسلم) ने दोनों में से किसी गिरोह की सरज़निश नहीं फरमाई । (बुखारी)
इस हदीस से वाज़ेह हुआ कि सहाबा (रजि.) की एक जमाअत ने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के मनतूक (लफज़ी मआनी) पर अमल किया और दूसरे गिरोह ने मफहूम पर और आप (صلى الله عليه وسلم) के फरमान के दोनों मअनी समझे जा सकते थे। यही वजह है कि ताबअीन और तबअे ताबअीन ने कभी भी इज्तिहादी इख्तिलाफ की बुनियाद पर किसी मुजतहिद की मलामत की और न ही कुफ्र का फतवा लगाया।
हाँ जिन्होंने कतई (definitive) अहकामात में इख्तिलाफ किया उन पर मुरतद होने की वजह से रियासत ने कत्ल की हद जारी की। इसी तरह अमर बिन आस (رضي الله عنه) से रिवायत है कि उन्होंने रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना: ‘‘अगर एक क़ाज़ी इज्तिहाद करते हुए दुरूस्त फैसला दे तो उसके लिए दो अज्र है और अगर वह इज्तिहाद करते हुए गलत फैसले पर पहुंच जाए तो इस के लिए एक अज्र है’’ (बुखारी) यानी अगर इजतिहाद की शराईत के बाद अगर वह गलत राए तक भी पहुंच जाये तो वह काबिले कुबुल है।
आज खिलाफत और खलीफा की ग़ैर मौजूदगी की वजह से मुसलमानों के दरमियान फिक्ही इख्तिलाफात में से एक राय नाफिज़ करना मुमकिन नहीं। इस्लाम का अमली तरीकेकार हज़रत अबूबक्र (رضي الله عنه) के दौर से शुरू होकर उस्मानी खिलाफत तक जारी रहा। खिलाफत तमाम मुसलमानों की एक रियायत का नाम है। और ये किसी मखसूस मस्लक को नाफिज़ नहीं करेगी। बल्कि क़वी दलाइल (strong evidences) की बुनियाद पर किये जाने वाले इज्तिहाद में से दुरूस्त इज्तिहाद नाफिज़ किया जाएगा। ख्वाह वह किसी असरे हाज़िर की मुजतहीद की राए हो या इस्लाम के मशहूरे ज़माना तारीखी मुज्तहदीन की राए हो जिनका आज का ज़माना मुकल्लिद है। बहरहाल इस उसूली बहस के बाद अगर इस मुआमले को थोड़ी से गहराई से मुताअला किया जाए तो ये हकीकत रोज़े रोशन की तरह अयां हो जाती है कि इस्लाम के कतई अहकामात में किसी भी मस्लक या इजतिहाद में कोई फर्क नहीं चाहे इसका ताल्लुक मुआमलात से हो, इबादात से हो या हुक्मरानी के उमूर से। इसके अलावा वोह मामलात जिन का ताल्लुक़ रियासत से हैए उन मामलात मे उम्मत मे इख्तिलाफे राये तो क्याए कोई दूसरी राय मौजूद ही नहीं है । मसलन तमाम मुसलमानों की एक रिायासत होना, खलीफा की इताअत, खलीफा का उम्मत के अमूर का ज़िम्मेदार होना, रियासत की तरफ से अवाम के तमाम बुनियादी ज़रूरीयत की गारंटी देना, कुफ्फार के साथ फौजी तआवुन ममनूअ होना, मुसलमानों की कुफ्फार के मुकाबले में बेयारो मददगार न छोड़ना, (IMF) और ; (World Bank) वल्ड बैंक जैसे इस्तमारी इदारों से कर्ज़ा लेने की मुमानिअत, अकवाम मुत्तहदा (United Nations) जैसे तागूत की रूकनियत का हराम होना, अवामी मिल्कियत जैसे तेल, कोयला, दरिया, रोड़ वगैराह की निजीकरण (privatization) का हराम होना, ज़मीन से मुताअल्लिक मुसलमानों का मारतेकुल आरा इसलाहात, करन्सी का सोने, चांदी या किमती धातु पर मुन्हसिर होना, हुदुद का निफाज़, अकामुस्सलात, ज़कात की वसूली, परदा, खिराज़ व उशर, इस्लामी मकबूजा इलाकों का कुफ्फार के चंगुल से छुड़ाना, साइंस व टेक्नालोजी और इस्लामी सक़ाफत की ताखीज वगैराह-वगैराह। जहां तक इबादात और बाज़ मसाइल की फरूआत और तफसीलात में इख्तिलाफ का ताल्लुक है तो इस इख्तिलाफ का उम्मत की वहदत (unity) के अमूर से केाई ताल्लुक नहीं, न हीं रियासत के अमूर पर इसका कोई असर पड़ता है पस इस इख्तिलाफ के बाकी रहने में कोई क़बाहत नहीं, अगरचे मुस्बत अन्दाज में इन मुआमलात पर बहस मुबाहिसे का कलचर परवान चढ़ा कर खिलाफत एक ऐसे मुआशरे को परवान चढ़ाएगी जैसा कि सहाबा (रजि.), तआबीन और तबअे ताबअीन के वक्त मौजूद था।
इज्तिहाद से मुताल्लिक बुनियादी समझ ही तास्सुब और दीगर मकातीबे इस्लाम से बुग्ज़ को दूर करती है। क्योंकि दीगर मकातीब भी दलाइज की बुनियाद पर एक शरअी मसले पर कारबन्द होते है। यही वजह है कि कुरूने ऊला के मुसलमानों में बाज़ औकात सियासी इख्तिलाफात के बाइस कड़वापन तो जरूर हुआ लेकिन उन्होंने कभी भी फिक्ही इख्तिलाफात को बुनियाद बना कर जंग व जदल नहीं की। इसी तरह हमे तारीख से मुख्तलिफ मकातीब फिक्र के दरमियान बेषुमार मुबसत फिकरी और फिक़ही बहसें मिलती है। जिनके नतीजे में कई मौको पर मुजतहिदीन ने अपने इज्तिहादात से रजूअ करके क़वी दलील पर मबनी इज्तिहाद को इख्तियार किया। नीज़ हज़ीरीने मजलिस को भी अपने फिक्ही इल्म में इज़ाफा करने के साथ दीगर मकातीबे फिक्र के दलाइल समझने का मौका मिला मिलता। चुनाँचे मुख्तलिफ मकातिब में एक दुसरे के लिए अहतराम पैदा होता और मुआशरे में हमआहन्गी की फिज़ा जन्म देती थी।
मौजूद सूरतेहाल
मैं इस बात के इज़हार में कोई मुज़ाहिक़ा महसूस नहीं करता की आज उम्मत के बाज़ मखसूस तबको में जो रहा सहा मसलकी तास्सुब था वह भी दम तोड़ चुका है। अवामुन्नास ने तो इसे खैर कभी कबूल ही नहीं किया। अगर अवाम के दरमियान फिरका वारीयत होती तो अब तक इनमें कई फसादात हो चुके होते। लेकिन ये हकीकत हमारे सामने है कि जब भी बम धमाकों का कोई अफसोस नाक वाकिआ होता है (जिसके सबूत कभी मुन्ज़रे आम पर नहीं लाए जाते) तो उम्मत दूसरो मसालीक के बजाए हुकूमत और विदेशी अनासीर पर ही शक करती है। क्योंकि उम्मत इस खेल को समझ चुकी है के आखिर इसके पीछे किन लोगों का हाथ है और वह कौन लोग हैं जो बाज़ मखसूस अनासिर को इस्तमाल करते है। इसके अलावा इराक़ के अन्दर इन्तिहाई मुकद्दस मुकामात में धमाकों के बारे में इन्तिहाई वाज़ह दलीले मिडिया में आ चुके है। जिन से ज़ाहिर होता है कि अमरीका इस आग को भड़काने में किस कदर घिनौना किरदार अदा कर रहा है। लेकिन अहसान अल्लाह का अज़ीम है कि इसे मुँह कि खानी पड रही हैं।
आखिर में उलमा की भी तवज्जोह चाहुँगा कि वह उम्मत में ‘‘सिर्फ हमारा मसलक दुरूस्त है’’ कि ज़हनीयत न डाले। बल्कि इनके सामने हकीकत को वाज़ेह करें कि कतई अहकामात में इख्तिलाफा राए नहीं हो सकता। जबकी ज़न्नी दलाइल में मुख्तलिफ मुज्तहदीन कुरान व सुन्नत से इज्तिहाद करते है। और हर मुज्तहिद भरपूर कोषिश होती है कि वह अल्लाह के हुक्म तक पहुंच सके। पस इस सिलसिले में अगर इज्तिहाद का मुकम्मत तरीकेकार इख्तियार किया गया है तो बाकी मसालिक भी इसी तरह इस्लाम पर चलते हुए अल्लाह सुब्हानहु व ताला के हुक्म ही का इत्तबाअ कर रहे होते है जैसे कि इनक अपने मसलक के लोग अल्लाह तआला कुरआन में फरमाते है: ‘‘और अल्लाह ने तुम्हारा नाम मुसलमान रखा है’’।
नतीज़ा
पस यह हकीकत सूरज की तरह रौशन हो चुकी है कि इज्तिहादी इख्तिलाफात मुसलमानों की एक इस्लामी रियासत के रास्ते में हरगीज़ कोई रूकावट नहीं। बल्कि असल रूकावट वह हुक्मरान तबका है जो इस मुद्दे (issue) को भड़का कर इस्लाम के रास्ते में रूकावटें डालते है ताकि इक़्तिदार पर इनकी गिरफ्त ढिली न हो जाए और इन्हें अपने करतूतों का हिसाब न देना पड़े।
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