ज़िम्मी - खिलाफत के निज़ाम में रहने वाला गैर- मुस्लिम शहरी

खिलाफत में रहने वाले गैर-मुस्लिम की हैसियत के बारे में बहुत सारी गलतफहमियां पाई जाती है और इस मोजूअ को ग़लत तरह से समझा गया है। जो लोग इस्लाम और उसके उसके निज़ाम पर हमला करना चाहते है वोह ज़िम्मी के साथ इस्लाम का बरताव ऐसा बताते है जैसा की जानवर के साथ भी नहीं किया जाता है। कुछ तारीखी वाकियात (घटनायें) जिनमे जिम्मियों ने किसी वक्त अज़ीयतें या तकलीफे उठाई, ऐसे मखसूस वाक़ियात को आम (generalize) किया जाता है और उनके हवाले बे-मौका व महल दिया जाता है, ताकि वोह अपने दावे को साबित कर सके।

जोसेक फाराह (Joseph Farah), WorldNetDaily के बानी, अपनी वेबसाईट पर लिखती है: ‘‘इस्लामी शरिया क़ानून के तहत रहने वाले गैर-मुस्लिम, इसाई और यहूदियों को इस शर्त पर रहने की इजाज़त होती है जब तक की वोह ज़िम्मी टेक्स के ज़रिये इस्लाम का समर्थन करते रहे और तीसरे या चौथे दर्जे के शहरी की हैसियत तस्लीम करे. उन्हे हमेशा नसलकुशी, झूठे ईल्ज़ामात और बद-सुलूकी का सामना करना पढ़ता है। ज़िम्मी हमेशा खौफ में जिन्दगी बसर करते थे”.

मेलेनी फिलिप्स (Melanie Philips) बरतानीया में मुकीम एक अहम सेहूनी लेखक और टिप्पणीकार कहता है:  ‘‘काफिर के लिये इस्लाम में ‘ज़िम्मी’ का दरजा है जिसको मुस्लिम क़ानून के तहत रहने की इजाज़त है मगर दूसरे दर्जे के शहरी की पाबन्दियों के साथ’’.

इस सवाल का जवाब देने के लिये की ज़िम्मी दूसरे दरजे का शहरी होता है और यह की आने वाली खिलाफत में उसे काबिले रहम हालत में जिन्दगी गुजारना पडेगा, हमे पहले इस्लाम में शहरियत के नज़रिये को समझना पढे़गा और हम देखेंगे की यह किस तरह गैर-मुस्लिम पर लागू होता है।

इस्लाम में नागरिकता (शहरियत)

इस्लाम में नागरिकता की बुनियाद यह है कि जो कोई भी इस्लामी रियासत में दायमी (permanent) तौर पर रहता है, चाहे वोह किसी भी नस्ल और अकीदे (आस्था) को मानता हो, वह इस्लामी रियासत का शहरी है। रियासत का शहरी होने के लिये यह जरूरी नहीं है कि वोह मुस्लिम हो और इस्लामी मूल्यों (इकदार) को अपनायें। एक मुसलमान जो इस्लामी रियासत के बाहर रहता है उसे वो हक (अधिकार) हासिल नहीं होते जो हक एक गैर-मुस्लिम को मिलते है जो दारूल इस्लाम का दाईमी शहरी है। इसकी दलील यह हदीस है:-

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया:- “उन्हें इस्लाम की तरफ बुलाओं, अगर वह मान ले तो उनसे कुबूल कर लो और उनसे लड़ने से बाज रहो, फिर उनसे कहो कि अपनी सरजमीन से दारूलमुहाजिरीन की तरफ हिजरत करे और उनसे कहो की अगर उन्होंने ऐसा किया तो उन्हें वहीं हक भी हासिल होंगे जो मुहाजिरीन को हासिल है और उन पर भी वही फर्ज़ लागू होंगे जो मुहाजिरीन पर लागू है”.

इस हदीस से पता चलता है कि अगर वोह दारूल मुहाजिरीन की तरफ हिजरत नहीं करते हैं तो वोह उन हुकुक से फायदा नहीं उठा सकेगें जो मुहाजिरीन को हासिल है। यानी वोह अधिकार जो दारूल इस्लाम में रहने वालों को हासिल है। यह हदीस साफ तौर पर उन लोगों में फर्क करती है जो दारूल मुहाजिरीन (दारूल इस्लाम) की तरफ हिजरत करते हें और जो दारूल मुहाजिरीन की तरफ हिजरत नहीं करते।

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) के जमाने में दारुलमुहाजिरीन दारूल इस्लाम था और बाकी सारी सर जमीने दारूल कुफ्र थी।

इस्लामी रियासत के लिये यह हराम है कि वाहे अपने शहरियों में नस्ल, अकीदे (आस्था) और रंग की बुनियाद पर भेदभाव करें। बुनियादी तौर पर इस्लाम के सारे अहकाम मुस्लिम और गैर-मुस्लिम पर यकसा लागू होते है। इस्लामी विद्ववान खास तौर से इस्लामी क़ानून की बुनियाद रखने वाले इस बात पर मुत्तफिक है की इस्लाम के अहकामे इलाहिय्या हर बाअक्ल (sane) इंसान जो बोली को समझता हो, चाहे मर्द हो या औरत, चाहे मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम को मुखातिब करता है।

हालांकि इसके कुछ इस्तिश्ना (अपवाद) भी है। अगर शरीयत का क़ानून अकीदे पर मबनी है तो नमाज़, ज़कात वगैराह सिर्फ मुसलमानों पर लागू होते है। यह इस्तिश्ना (अपवाद) भेदभाव करने वाले अहकाम नहीं है जैसा की कुछ लोग दावा करते है बल्कि इनके मामले में अकीदे (आस्था) और मूल्यों को मलहूज रखा जाता है ताकि शहरियों पर किसी तरह का जब्र नहीं किया जाए। यह किसी भी तरह से शहरियों के बराबर होने में रूकावट नहीं डालते है।

रियाते खिलाफत में गैर-मुस्लिम के किस्में

            खिलाफत गैर मुस्लिम की चार किस्में है:-

1.         मुआहिद 2. मुस्तआमिन 3 एम्बेसेडर, सफीर (राजदूत) 4. ज़िम्मी

1.         मुआहिद खारजी रियासत (foreign state) वोह शहरी होता है जिसके साथ खिलाफत का मुआहिदा होता है। इस रियासत के शहरी खिलाफत में (बिना पासपोर्ट और वीज़ा के) दाखिल हो सकते है अगर खिलाफत के शहरियों को भी ऐसा करने दिया जाये।6

मुस्तआमिन उस खारिजी रियासत के शहरी है जिसके साथ खिलाफत का कोई मुआहिदा नहीं है। साम्राज्यवादी रियासतें है, जैसे बरतानिया अमरीका, रूस और फ्रांस इन रियासतों के लोग खिलाफत में दाखिल हो सकते है लेकिन जाईज़ वीज़ा और पासपोर्ट के साथ. एक बार उनको जाइज़ वीज़ा हासिल होने के बाद और रियासत में दाखिल होने के बाद उन्हें मुस्तआमिन कहा जाता है।7

अगर मुआहिद और मुस्तआमिन खिलाफत में एक साल से ज्यादा कयाम (निवास) करते है तो उनका कयाम स्थायी (permanent) माना जायेगा और उन्हें ज़िज़या देना पड़ेगा यानी वोह ज़िम्मी बन जायेगा।8

इस मजमून में ज़िम्मी के हुक़ूक़ और जिम्मेदारियों का जो जिक्र किया जा रहा है वोह ज्यादातर मोआहिद अैर मुस्तआमिन पर भी लागू होती है। इनके अलावा वह शर्ते भी लागू होती है जिनको खिलाफत मुआहिदे और वीज़ा के तहत अपनाती है।

विदेश के ऐम्बेसडर, डिपलोमेट, कॉन्सिल और ऐन्वोय (राजदूतों की अलग-अलग किस्में) को सिफारती इस्तिश्ना (राजदूतों को तलाशी, चुंगी, गिरफ्तारी से छूट) दी जायेगी और इस्लाम के क़वानीन उन पर लागू नहीं होंगे।9

ज़िम्मी

ज़ि

म्मी खिलाफत के वोह शहरी है जो रियासत की विचारधारा (ideology) से अलग आस्था और मूल्यों को मानते है। ज़िम्मी शब्द अरबी भाषा (के शब्द ज़िम्मा) से लिया गया है जिसके मायने है अहद या मुआहिदा (समझौता)।10 रियासत ज़िम्मीयों के साथ समझौता करती है की वोह उनके साथ वैसा ही मामला करेगी जैसा की अमन समझौते में तय पाया जायेगा (अगर समझौता होता है तो) और यह की रियासत उनकी आस्थ, इबादत और वोह आमाल जो इस्लाम में जाईज़ नहीं हैं, के मामले में दखल नहीं देगी। यहां तक की अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने ज़िम्मी को शराब भी पीने की इजाज़त दी। दूसरे सभी मुआमलात में उनके साथ मुसलमानों जैसा सुलूक किया जायेगा सिवाये उन कुछ मामलात (आमाल) को छोड़कर जिनके लिये सिर्फ इस्लामी आस्था को मानना शर्त होता है।

ऐसी कई अहादीस आई है जिनमें ज़िम्मी के साथ अच्छा सुलूक करने का हुक्म है. उन्हें बुरा भला कहने और दूसरे दर्जे का शहरी समझने से सख्ती से मना किया गया है।

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: “जो कोई भी किसी ज़िम्मी को नुक्सान पहुंचाता है या उससे ज्यादा क़ीमत वसूल करता है, मैं उसके खिलाफ कयामत के दिल दलील दूंगा”।11

अल्लाह के पैगम्बर (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया: ‘‘जिस किसी ने ज़िम्मी को तकलीफ पहुंचाई उसने मुझे तकलीफ पहुंचाई और जिसने मुझे तकलीफ पहुंचाई उसने अल्लाह को नाराज किया’’।12

इस्लाक के अकाबिर ओलमा ने मुसलमानों की ज़िम्मी के ताल्लुक से जिम्मेदारियों तफसील से बताई है। मालिकी फिक़ के मशहूर आलिम शाहा-अल-दीन क़रफी बयान करते है: (ज़िम्मीयों) की हिफाज़त के मुआहिदे हमारे उपर कुछ ज़िम्मीयों से मुत्ताल्लिक कुछ फराइज़ लागू करते है. वो हमारे पड़ौसी है, वोह हमारी पनाह और हिफाजत में रहते है। अल्लाह के उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) और इस्लाम की दी हुई गारन्टी के तहत। जो कोई भी उनको दी गई गारन्टी के फराईज़ को तोड़ेगा यानी उन्हें गाली देकर, उन्हें बेईज़्ज़त करके या उन्हें जिस्मानी चोट पहुंचाकर या ऐसा करने से मदद करें तो उसके अल्लाह, रसूल (صلى الله عليه وسلم) और दीने इस्लाम की दी हुई गारन्टी की खिलाफवर्जी  की।13

अदालत

ज़िम्मी के साथ मामले के ताल्लुक से इस्लाम पर यह भी इल्ज़ाम लगाया जाता है के ज़िम्मी को मुसलमान के मुकाबले में गवाही देने का हक नहीं है और इस्लामी अदालत में उसकी गवाही क़ाबिले क़ुबूल नहीं है।

बेट येओर (Bat Ye’or) कहता है, ‘‘मुस्लिम और ज़िम्मी के दर्मिया हर क़ानूनी मुक़दमे को क़ुरआनी कवानीन के जिरये हल किया जाता है। हालांकि इंसाफ का तकाजा ही यही है दोनों पार्टियों को बराबर समझा जाऐं, लेकिन एक ज़िम्मी को मुसलमान के खिलाफ गवाही देने की इजाज़त नहीं है क्योंकि उसकी गवाही इस्लामी अदालत मे काबिले क़ुबूल नहीं है। इस तरह मुस्लिम हरीफ पार्टी (opposition) को आसानी से गलत साबित नहीं किया जा सकता। एक ज़िम्मी को अपने आप को बचाने के लिये बड़ी क़िमत पर मुस्लिम गवाह खरीदने पड़ते है”।14

खिलाफत में क़ानून सब पर लागू होता है और कोई भी इससे मुस्तश्ना (अपवाद) नहीं है। इसलिये इस्लामी रियासत पर यह फर्ज़ है के वोह ज़िम्मी के मुक़दमो में इंसाफ के साथ फैसला करे और उनके साथ किसी किस्म का भेदभाव करने की इजाज़त नहीं दे।

अल्लाह क़ुरआन मजीद में फरमाता है:

“और जब तुम उनके दरमियान फैसला करो तो इंसाफ के साथ करो बेशक, अल्लाह इंसाफ करने वालों को पसन्द करता है”।15

इस इंसाफ की मिसाल हज़रत अली की वोह मशहूर मुकदाम है जिसमें एक यहूदी ने हज़रत अली (रजि.) की ज़िरह बख्तर चुरा ली थी, जब हज़रत अली एक जंग के लिये सफर कर रहे थे। क़ाजी शुरेह ने हज़रत अली के मामले मे भी नरमी नहीं बरती जो उस वक्त के खलीफा थे, एक मुस्लिम थे और जिहाद में शरीक होने के लिये उन्हें उस ज़िरह बख्तर की सख्त जरूरत थी। हज़रत अली की तरफ से मुनासिब गवाह पेश नहीं करने की सूरत मे क़ाज़ी शुरह ने यहूदी के हक में फैसला किया और उसकी गवाही अदालत में कुबूल की।

ज़िम्मी को एक गवाह की हैसियत से इस्लामी अदालत में मुसलमान के खिलाफ गवाही देने का हक़ है और उसकी गवाही क़ाबिले क़ुबूल है। गवाह होने की शर्त मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनो पर बराबर लागू होती है। इस्लाम में गवाही देने की शर्त यह है के वह अक्ल के ऐतबार से सही सालिम हो (sane), बालिग और आदिल (सच्चा) हो। कोई इस बात का दावा कर सकता है के आदिल होने की शर्त सिर्फ मुस्लिम होने पर लागू होती है जो की कबीरा गुनाहों (बडे गुनाहों) से बचता हो, यह बात सहीह नहीं है। इस पसमन्जर में आदिल होने का मतलब उस शख्स से है जो उन बातों से बचता हो, जिन्हें लोग सच्चाई और ईमानदारी के खिलाफ मानते है, चाहे वोह मुस्लिम हो या गैर-मुस्लिम। ऐसा इसलिये है कि लफ्ज़ ‘अदाला’ गवाही में शर्त रखी गई है। चाहे वोह मुस्लिम की हो या गैर-मुस्लिम की और एक ही लफ्ज़ दोनों के लिये इस्तेमाल हुआ है बिना किसी फर्क को बरतते हुऐ।

क़ुरआन करीम में अल्लाह तआला फरमाते है:

‘‘ऐ ईमान लाने वालों! जब तुम में से कोई मौत के करीब आ जाऐ तो विरसे के वक्त, तुम अपने में से दो गवाह कर लो, तुममे से से आदिल या दो गवाह तुम्हारे अलावा’’ 16

इस आयते मुबारका में अल्लाह (سبحانه وتعالى) की तुम्हारे अलावा से मुराद गैर-मुस्लिम है। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है कि ‘दो’ अद्ल गवाह मुसलमानों में से या दो अद्ल गवाह मुसलमानों के अलावा। हम यह तारीफ कैसे कर सकते है कि अदाला कबीरा (बडे) गुनाहों से बचना है जबकी हम एक गैर-मुस्लिम के सगीरा (छोटे) गुनाहों पर अड़ जाते है? हम कैसे एक ऐसे गवाह को तर्क कर सकते है जो अपने माँ-बाप की नाफरमानी करता हो, हालांकी हम जासूस की गवाही कुबूल कर सकते है, क्योंकि जासूसी कबीरा गुनाहों में से नहीं है। इसलिये ‘अद्ल’ के सही मायने उस शख्स के है जो उन आमालों से बचता हो जिन्हें लोग सच्चाई और ईमानदारी के खिलाफ मानते है।17

अपराधिक सजायें

एक और इल्ज़ाम यह लगाया जाता है कि मुसलमानों के ज़िम्मी के खिलाफ जुर्म करने पर कम सजायें दी जाती है। कत्ल के मामले में ऐसा दावा किया जाता है कि एक मुसलमान को एक ज़िम्मी के कत्ल के लिये सजाऐं मौत नहीं दी जाती है। जबकी एक ज़िम्मी को एक मुस्लिम के क़त्ल के लिये सजाऐं मौत दी जाती है।

बेट येओर कहता है ‘‘एक मुजरिम मुस्लिम को अपने जुर्म के लिये जो सजा मिलेगी वो काफी कम कर दी जायेगी अगर मज़लूम ज़िम्मी हो तो।’’

यह फिर से एक ग़लत इल्ज़ाम है। जुर्म की सजा मुस्लिम और गैर-मुस्लिम दोनों के लिये बराबर लागू होती है, बिना कसी भेदभाव के, फर्क सिर्फ यह है कि ज़िम्मी को उन गुनाहों की सज़ा नहीं मिलेगी जिसकी उन्हें इजाज़त होगी जैसे शराब पीना वगैराह, जब के एक मुसलमान को इसकी सज़ा मिलेगी।

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया ‘‘यहूदी और इसाई की दियत (खून के बदले मुआवजा या blood money) वैसी ही है जैसे की एक मुसलमान की है”।19

एक हदीस में रिवायत हुआ है ‘‘अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने एक मुआहिद (गैर-मुस्लिम) के मामले में एक मुस्लिम को कत्ल की सज़ा दी और फरमाया ‘‘मैं उन सब में बहतरीन हूं जो अपनी ज़िम्मेदारी को पूरा करते है”।20

यह हदीस साफ तौर पर ईशारा करती है की अगर कोई मुस्लिम किसी मुआहिद (गैर-मुस्लिम) को कत्ल कर दे तो उसके लिये भी सज़ाऐं मौत है।21 यह शर्त ज़िम्मी के क़त्ल पर भी उसी तरह लागू होती है, जैसा की पहले ज़िक्र हो चुका है।

इक़्तिसाद (अर्थव्यस्था या Economy)

एक ज़िम्मी वही मआशी (economic) फायदे उठाता है जेसे की एक मुस्लिम. वोह खिलाफत में कर्मचारी हो सकते हैं, अपनी कम्पनी कायम कर सकते है, मुसलमानों के साथ पार्टनर हो सकते है और अपना सामान खरीदो-फरोख्त कर सकते है। उनके माल की हिफाज़त की जाती है और अगर वोह कोई रोज़गार पाने में नकामयाब हो जाते है तो खिलाफत के खज़ाने (बैतुलमाल) से वोह मदद पाने के हक़दार है। तरीख (इतिहास) इस बात का गवाह है कि कई ज़िम्मी रियासतें खिलाफत में मालदार रहे।

सेसिल रोथ (Cecil Roth) इस बात का ज़िक्र करते है कि उस्मानी खिलाफत के यहूदियों के साथ अच्छे सुलूक के सबब मग़रिबी यूरोप से यहूदी खिचे चले आए। दारूल इस्लाम उनके लिये उम्दाह मवाक़े (अवसर) की सरज़मीन साबित हुई। सलंका मकतबे फिक्र के यहूदी तबीबों (physicians) को सुल्तान और वज़ीरों की खिदमत में मुलाज़िम रखा गया। कई इलाकों में शिशा और धातुओं का उत्पादन यहूदियों की इजारादारी (monopoly) थी। गैर मुल्की ज़बान का इल्म रखने के सबब वोह वेनेशिया के ताजिरों के सबसे बड़े कम्पिटीटर (मद्दे मुकाबिल) थे।22

गरीब ज़िम्मी शहरी को रियासत की तरफ से मफादात हासिल होते है अगर वोह ज़रूरत मन्द है। एक बार हज़रत उमर बिन खत्ताब एक गरीब ज़िम्मी के पास से गुजरे जो की दरवाजों पर भीख मांग रहा था। आप ने कहा ‘‘हमने तुम्हारे साथ इंसाफ नहीं किया, अगर हमने तुम्हारी जवानी में तुमसे जिज़या वसूल किया और तुम्हारे बुड़ापे में बेपरवाह छोड़ दिया’’ फिर आपने खज़ाने से उसे मदद देने के लिये हुक्म जारी किया जो भी उसके लिये मुनासिब थी।23

कुछ महसूलात (taxation) के मामले में शरिअत मे अकीदे की शर्त रखी है।  इसका मतलब है कि वोह मुस्लिम और गैर-मुस्लिम के दरमियान मुख्तलिफ है। मिसाल के तौर पर मुसलमानों को हुक्म है कि वोह ज़कात अदा करे। जबकि गैर-मुस्लिम इससे बरी है। जबकि गैर-मुस्लिमों को ज़िजया देने का हुक्म है और मुसलमान इससे बरी है।

ज़िजया

ज़िजया वोह इस्लामी टेक्स है जिसके बारे में सबसे ज्यादा ग़लतफहमी पाई जाती है। कुछ इतिहासकारों ने ऐसी तस्वीर पेश करने की कोशिश की है जैसे की ज़िजया इतना ज्यादा होता है कि एक ज़िम्मी उससे बचने के लिये मुसलमान बनने के लिये मजबूर हो जाता है। कुछ लोग ऐसे भी है ज़िजया की मिक़दार अपन मनमाने ढंग से बताते है जैसे की 50 प्रतिशत वगैराह।25

ज़िजया की फर्जियत की दलील क़ुरआन की इस आयत से ली गई है:

अल्लाह (سبحانه وتعالى) फरमाता है:- ‘‘उनसे लड़ो जो अल्लाह और रोज़े क्यामत पर ईमान नहीं रखते ना ही उसको हराम मानते है जिसे अल्लाह और रसूल ने हराम क़रार दिया है ना ही दीने हक़ को तस्लीम करते हैं, उन लोगों मे से जिन्हे किताब दी गई है, यहां तक के वोह अपनी मर्जी से ज़िजया देने पर आमादा हो जाऐ और अपने आप को सगीरुन (महकूम) न बना लें।’’

यहां महकूम (सिग़र) का जिक्र हुआ है जिसका मतलब इस आयत से यह है कि एक ज़िम्मी को इस्लाम के क़ानून की इताअत करनी होगी जो की जमीन का क़ानून (law of the land) होगा। इसका मतलब उनकी बेईज़्ज़त करना नहीं है।26 ज़िजया टेक्स हर बालिग मर्द ज़िम्मी पर लागू होता है जिसकी टेक्स देने की हैसियत हो। औरत, बच्चे और ग़रीब ज़िम्मी जिनके पास जरियाए मआश नहीं हो, वोह इससे मुस्तश्ना (आजाद) है।

जिज़या ज़िम्मी के मालदारी (मआशी सूरतेहाल) के हिसाब से लागू होता है। उमर इब्ने खत्ताब (رضي الله عنه) के जमाने में उन्होंने तीन किस्म के जिज़या टेक्स लागू किये थे जो कि ज़िम्मी के मआशी सूरतेहाल पर मबनी होते थे। उमर इब्ने खत्ताब (رضي الله عنه) के जमाने में खिलाफत की मुख्तलिफ विलायात (provinces) मे मुन्दरजाबाला मुख्तलिफ जिज़या की किमते लागू थी।

यमन:-             

दिनार (सौने के सिक्क)                  दिनार का वजन (ग्राम में)                                    सोना (ग्राम)

सभी मुस्तहक                 1                                              4.25                                        4.25 ग्राम

(everyone eligible)

ईराक:-

                        चांदी (ग्राम में)               दिरहम (चांदी के सिक्के)    दिरहम का वनज (ग्राम)             

अमीर                45                                            2.975                                      142.80

मध्यम वर्ग         24                                            2.975                                      71.4

मजदूर               12                                            2.975                                      35.7

मिस्त्र और अश-शाम

                                                सोना (ग्राम में)                दिनार (सोने के सिक्के)                              दिनार का वज़न

अमीर                                        4                                              4.25                                        17.9

मध्यव वर्ग                                 2                                              4.25                                        6.50

मजदूर                                       1                                              4.25                                        4.25

सहीह बुखारी में अबू नजीह से रिवायत आई है कि उन्होंने कहा ‘‘मैंने मुजाहिद से कहा: ‘‘शाम के लोगों के साथ क्या मामला है कि वो 4 दिनार (जिज़या) देते है। जबकि यमन के लोगों को एक दीनार देते है। उसने कहा ऐसा मालदारी की बुनियाद पर तय किया गया है।31

खिलाफत के लिये यह हराम है कि वोह ज़िम्मी पर टेक्स का बोझा डाले। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया ‘‘जो कोई भी किसी मुआहिद को नुक्सान पहुंचायेगा, या उसकी ताकत से ज्यादा क़िमत वसूल करेगा, कयामत के दिन मै उसके खिलाफ गवाही दूंगी।’’32

अम्र इब्ने मेमून ने कहा ‘‘मैने उमर (رضي الله عنه) को उनकी शहादत से चार रात पहले देखा, वो उंट पर बैठे और हुज़ैफा इब्ने अलयमन और उस्मान इब्ने अल हुनेफ से कह रहे थे, “तुम्हारे मातहत जो लोग है उनके मामलात पर नज़र सानी करो। क्या तुम यह समझे हो की तुमने ज़िम्मियों के उपर इतना बोझ डाल दिया जितना की वोह उठा नहीं सकते?’’ उस्मान ने जवाब दिया “मैंने उन पर इतना ही टेक्स लगाया है कि अगर में उसे दुगना भी कर दूं तो भी वोह उसे आसानी से चुका सकेंगे।’’ हुजेफा ने कहा ‘‘मैंने उन पर इतनी रकम लागू की है कि उसे चुकाने के बाद अच्छी खासी रकम बच जाती है।’’ अबू उबैद इसकी तशरीह करते हुए कहते है कि हमारी नज़र में जिज़या और खिराज लागू करने का कानूनी उसूल यह है कि वोह ज़िम्मियो की चुकाने की झमता (इस्तिताअत) के मुताबिक लगाया जाता है और उन पर बिना कोई बोझ डाले और मुसलमाने की फे को मुतास्सिर किेये बिना हालांकि उसकी कोई हदूद तय नहीं की गई है।33

जिज़या किसी ज़िम्मी को बुरा-भला कह कर या मार-पीट करके ईक्ट्ठा नहीं किया जा सकता है, जैसा की कुछ लोग दावा करते हैं। हिश्शाम बिन हकीम से रिवायत है, उसने कहा: “मैं गवाही देता हूं कि मैंने अल्लाह के पैगम्बर (صلى الله عليه وسلم) को कहते सुना: ‘‘अल्लाह उसको सज़ा देगा जो दुनिया में लोगों को सज़ा देता है।’’

उमर बिन खत्ताब (رضي الله عنه) के सामने बहुत सारी दौलत लाई गई। अबू उबेद कहते है, जहां तक मुझे याद है उन्होंने उमर (رضي الله عنه) से कहा ‘यह जिज़या मे से’ और फिर उन्होने (उमर رضي الله عنه ने)  कहा ‘‘मुझे लगता है कि इस दौलत को इक्ट्ठी करके तुमने जरूर लोगों को मुश्किल में डाल दिया है। उन्होंने कहा ‘‘नहीं, कसम अल्लाह की हमने ऐसी कोई चीज़ ईक्ट्ठी नहीं की मगर वोह जो उन्होंने अपने आप और बिना किसी दबाव के हमे दी गई” उन्होंने  कहा ‘‘बिना किसी लाठी और रस्सी का इस्तेमाल किये हुए’ उन्होंने कहा ‘‘हाँ’’ उन्होंने कहा ‘‘ अल्लाह का शुक्र है जिसने यह मेरे हाथो नहीं होने दिया (या मेरी दौरे हुकुमत में)।35

जहां तक खिराज (खेती की जमीन का टेक्स) की बात है तो यह मुस्लिम और ज़िम्मी दोनों पर बिना किसी भेद-भाव के लागू होता है।

सामाजिक सम्बंध

मुस्लिम और ज़िम्मी समाज इस्लामी खिलाफत में साथ-साथ रहते है। मुसलमानों के ज़रिये उन्हें किसी किस्म की नफरत , अज़ीयत और जब्रियत का सामना नहीं रहता है। ज़िम्मी पडौसी के वही हुकूक (अधिकार) हेते है जो के किसी मुस्लिम पड़ौसी के होते है। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने फरमाया, “जिब्राईल पड़ौसी के साथ नरमी का सुलूक करने की ताकीद करते रहे यहां तक की मैं सोचने लगा की इन्हें विरासत में से भी हिस्सा दे दिया जायेगा”।

मुस्लिम और ज़िम्मी एक दूसरे से मिलेगे-जुलेगे और शुक्रगुजार होंगे। अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) गरीब ज़िम्मी नागरिकों से मिलने जाया करते थे। एक रिवायत में आता है कि एक यहूदिन, जो अल्लाह के पैगम्बर (صلى الله عليه وسلم) कि खिदमत में मामूर थी, एक बार बिमार पड़ गई तो अल्लाह के पैग़म्बर उससे मिलने गये।37

थोमस आर्नोल्ड ने स्पेन की इस्लामी रियासत मे रहने वाले ज़िम्मी और मुस्लिम समाज के सम्बंधों के बारे में बयान करते हुए लिखा है: “स्पेन की इस्लामी हुकूमत का अपनी इसाई रिआया के मामने में रवादारी (toleration) और दो धर्मो के मानने वालों के बीच आज़दाना आपसी मेलजोल होने से जो मुअशरों के बीच ऐसा जुड़ाव हो गया था की दोनों समाजो के दर्मियान शादियों होना आम बात हो गई थी। बेजा के इसीदोर (Isidore of Beja) जिसने मुस्लिम फातेहीन के खिलाफ सख्त अल्फाजों में लिखा है, मूसा के बेटे अब्दुल अजीज की बादशाह रोडरिक की बेवा के साथ शादी के बारे में लिखा है जिसकी बिल्कुल भी मुखालिफत नहीं की गई। कई ईसाईयों ने अरब नाम इख्तियार कर रखे थे और उपरी पहनावे और रहन सहन में मुसलमान पड़ौसीयों की तकलीद करते थे। जैसे की वोह खत्ना करवाते, खाने-पीने के मामलात में बिना बपतिस्मा के बुत परस्त (unbaptized pagans या मुसलमानों) के तरीकों पर चलते थे।38

आज के दौर के इसाई अरब जो मुस्लिम आबादी के बीच रहते है, इस्लामी रवादारी (toleration) की जीती जागती निशानी है। लेयार्ड (Layard) इसाई अरब के फौजी पडाव को पार करके अल-करक पहुंचा था, डेड सागर के मश्रिक की तरफ वोह अपने लिबास और आदाब में अरब मुसलमानों से अलग नहीं था।

हुकुमत

एक इल्ज़ाम यह है कि ज़िम्मी खिलाफत में अफसर शाही (civil service) का या सरकारी संस्था का नुमाइंदा नहीं बन सकता। यह सच है कि ज़िम्मी कोई भी हुक्मारानी (ruling position) के ओहदे पर फाईज नहीं हो सकता. ऐसा इसलिये है कि शरियत ने इन ओहदों को सिर्फ उन लोगों के लिये महदूद कर दिया है जो रियासत के मब्दा (ideology) यानी इस्लाम में यकीन रखते है। और यह बात मौजूदा फिक्री बुनियाद पर बनने वाली रियासतों (ideological state) से अलग नहीं है।

मुहम्मद असद कहते है ‘‘कोई इस बात में नज़र अंदाज नहीं कर सकता की कोई भी गैर-मुस्लिम चाहे वोह कितना ही ईमानदार और इस्लामी रियासत के लिये वफादार हो, कभी भी उससे यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वोह इस्लाम के नज़रियाती मक़ासिद (ideological objectives) के लिये अपने खुलूसे दिल से काम करें। दूसरी तरफ कोई भी नज़रयाती इदारा या तन्ज़ीम (चाहे वोह धार्मिक हो या दूसरी तरह की) अपने मामलात ऐसे आदमी को सौंप सकती है जो कि उसके मब्द (ideology) को नहीं मानता हो,  क्या ऐसा मुमकिन है, मिसाल के तौर पर की गै़र-साम्यवादी (non-Communist) को सोवियत रशिया की सियासत में कोई अहम सियासी (राजनैतिक) ओहदा दिया जा सकता है? जबकि यहां आला ओहदे (पद) की बात नहीं की जा रही है।

यह बात बिल्कुल साफ है कि ऐसा नहीं होता और मंतखी (logically) तौर पर ऐसा होना भी नहीं चाहिए क्योंकि जब तक किसी रियासत की फिक्री बुनियाद साम्यवाद (communism) है जब तक वोह लोग जो बिना किसी झिझक के इस रियासत के मक़ासिद से अपनी फिक्र या पहचान को देखते हो ( या पूरा इत्तेफाक करते हों), उन्ही पर भरोसा किया जा सकता है की वोह उन मकासिद को इंतज़ामिया (administrative) पॉलिसी में तब्दील करें।40

इस बात को समझते हुए हम यह कह सकते है कि ज़िम्मी प्रशासनिक सेवाओं और हुकूमत के इंतज़ामी डिपार्टमेन्ट के डायरेक्टर की हैसियत से काम कर सकता है। प्रशासनिक सेवाओं में ज़िम्मी के खिलाफ भेदभाव नाजायज़ है। इसकी दलील किराये पर रखने से मुताल्लिक (ईजरा) के इस्लामी क़ानून से ली गई है। जिसके मुताबिक किसी भी शख्स, मुस्लिम या गैर मुस्लिम, को मुआवजा के बदले में (नौकरी पर) रखा जा सकता है। ऐसी इसलिये भी है कि ईजरा का हुक्म आम हैसियत से आया है।

अल्लाह फरमाता है: ‘‘और अगर वो (तुम्हारे बच्चे को) दूध पिलाती है तो उसके बदले उन्हें मुआवज़ा दो’’। 41

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) फरमाते है ‘‘अल्लाह कहता है कयामत के दिन मैं तीन तरह के लोगों को चेलेन्ज दूंगा............. और वोह इंसान जिस ने किसी मजदूर को मुलाज़िम रखा, उससे काम लिया लेकिन उसको मुआवज़ा नहीं दिया”

अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने खुद कबीला बनू अद-दील के एक शख्स मुलाज़िम रखा जो कि गैर-मुस्लिम था। इससे यह पता चलता है कि गैर-मुस्लिम को भी ठीक उसी तरह से नौकरी पर रखना जायज है जैसा की मुस्लिम को रखना है। उपर दी गई सारी दलीलें का हुक्म आम है (यानी यह हुक्म किसी कोई खास मसले तक महदूद नहीं है). इसलिये एक गैर मुस्लिम को सरकारी इदारे का डायरेक्टर या मुलाजिम (कर्मचारी) बनाना जायज़ है क्येांकि यह सब नौकरी करने वाला स्टाफ होता है और किराये पर रखने की दलील आम है।43

हालांकि ज़िम्मी सरकार मे हुक्मरानी (ruling positions) के औहदे पर फाईज़ नहीं हो सकता लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वो खिलाफत की सियासत में हिस्सा नहीं ले सकता। इस्लामी निज़ामे हुकूमत का एक अहम रुक्न शूरा (consultation) है। इस अम्र को मजलिसे नुमाइन्दगान में क़ायम किया जाता है जिसे मजलिसे उम्मत (Council of the Ummah) भी कहा जाता है जो खिलाफत की सरकार का हिस्सा होता है. मजलिसे उम्मत मजलिसे नुमाइन्दगान (elected council) होती है जिसके मेम्बर मुस्लिम और गैर-मुस्लिम मर्द और औरत दोनो हो सकते है। यह सदस्य रियासत में अपनी-अपनी चुनाव क्षेत्र (constituencies) के मफाद और मसाईल की नुमाईन्दगी करते है।

मजलिस के पास क़ानून साजी जैसे कोई ताक़त नहीं होती, जैसी की लोकतंत्र में होता है, लेकिन इसके पास ऐसी कई क़ुव्वते होती है जो खलीफा की इंतज़ामी ताक़तों को तवाजुन (counterbalance) में कर सके। मजलिस के मेम्बरों को अपनी सियासी विचारों (राऐं) को बिना किसी खौफ और गिरफ्तारी के कहने का हक हासिल है। इस तरह से मजलिसे उम्मत एक बहुत ताकतवर ईदारा बन जाता है जो खलीफा और उसकी हुकूमत में पूरी तरह हिस्सा ले सकते है।44

धर्म (मज़हब/दीन)

इस्लाम के खिलाफ एक बहुत बड़ा इल्ज़ाम यह लगाया जाता है कि इस्लाम तलवार के जरिये फैला है जो ग़ैर-मुस्लिमों को मुस्लिम बनने के लिये जबदरस्ती करता है या उन्हें मार देता है। इस दावे को खास तौर पर इस्लाम के खिलाफ खौफ फैलाने के लिये और मग़रिबी मुमालिक में खिलाफत की वापसी की मुखालिफत के प्रोपगन्डे के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इस्लाम साफ तौर से इस्लाम कुबूल करने के लिये जब्र (force) के इस्तेमाल को हराम करार देता है।

अल्लाह फरमाता है :

‘‘दीन के मामले में कोई जबदस्ती नहीं है”।45

थोमस आर्नोल्ड कहता है पहली सदी हिजरी के मुस्लिम फातेहीन ने अरब इसाई रिआया के साथ जो रवादारी रखी और वो आगे आने वाली नस्लों तक कायम रही, इससे हम यकीन के साथ कह सकते है कि उन इसाई कबीलों ने इस्लाम खुद अपनी मर्जी और आजादाना राऐ से इख्तियार किया।46

इस्लाम इस बात की भी इजाज़त नहीं देता कि किसी गैर मुस्लिम को उसके अकीदे और इबादत से वरगलाया जाऐं। अल्लाह के पैगम्बर ने (صلى الله عليه وسلم) यमन के वाली को लिखकर भेजा ‘‘जो कोई भी इसाई और यहूदी मज़हब पर कायम रहना चाहता है उन्हें इसके लिये किसी किस्म की अज़ीयत (चोट) न दी जाऐ अैर उन पर ज़िजया लागू किया जाये”

इस कौल में अज़ीयत न दीये जाऐ का मतलब है कि उन्हें अपने अक़ीदे और इबादत के मामले में आजाद छोड़ दिया जायेगा। इसलिये ज़िम्मियों को अपने अक़ीदे को मानने, अपने धार्मिक अहकाम पर चलने और उन अमाल को जैसे शराब पीना, सुअर का मांस खाना, शादी और तलाक के मामलात मे अपने धर्म के मुताबिक करने की इजाज़त है हालांकि इनमे से कई आमाल इस्लाम ने हराम क़रार दिये है लेकिन अल्लाह के रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने ज़िम्मीयों ऐसा करने की इजाज़त दी।49

ज़िम्मयों की ईबादतगाहों की हिफाज़त खिलाफत के ज़रिये की जाती है। मुस्लिम दुनिया में आज भी मौजूद लातादाद पुराने गिरजाघर, सिनागोग (यहूदी ईबादतखाने) और मंदिरो का पाया जाना इस हकीकत की बिल्कुल साफ दलील है। चूंकी यही वोह मोज़ूअ (areas) है जिसके बारे में ईसाईयत, यहूदियत या हिन्दूईज़्म मे तफसीली अहकाम (नियम) पाये जाते है (यानी इबादत या पूजापाठ के) और इस्लाम इन पर चलने की इजाज़त देता है। इसलिये ज़िम्मी उनके मज़हब और खिलाफत में जिन्दगी बसर करने में कोई टकराव नहीं पायेंगे।

नतीजा

ज़िम्मी खिलाफत के शहरी होते है जो शहरीयत के सारे हुकूक (अधिकार) जैसे हिफाज़त, इज्जत और सुकून की ज़िन्दगी और मसावात (बराबरी का सुलूक) का लुत्फ उठाते हैं. उनके साथ रहम, नर्मी और इंसाफ का सुलूक किया जाता है। वोह इस्लामी फौज में शामिल हो सकते है और मुसलमानों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर लडाई मे हिस्सा ले सकते है, अगर वोह चाहे तो, हालांकि उनके लिये फौज में शामिल होना फर्ज (अनिवार्य) नहीं है जैसे की मुसलमानों पर है. उन पर मुआमलात (transactions या लेन-देन) और हुदूद (penal code) लागू करने के मामले में हाकिमो और क़ाजी के ज़रिये उनके साथ मुसलमानों के जैसा मामला किया जाऐगा और किसी किस्म का भेदभाव नहीं किया जाऐगा।

इसलिये ज़िम्मियों को ठीक वैसे ही सारे हुक़ूक़ हासिल है जो मुसलमानों को हासिल है। सिवाये उन हुकूक के जिन का ताल्लुक सिर्फ अकीदे से है और वोह मुसलमानों के लिये महदूद होते है। इसलिये गैर-मुस्लिमों को किसी भी तरह से दूसरे दर्जे का शहरी नहीं कहा जा सकता।50

हवालाजात:-

1. Joseph Farah, October 26, 2006, Between the Lines Commentary, http://www.worldnetdaily.com/news/article.asp?ARTICLE_ID=52609

2. Melanie Phillips, ‘Dhimmi Britain,’ January 14, 2004, http://www.melaniephillips.com/diary/archives/000265.html

3.         सहीह मुस्लिम, हज़रत सुलेमान बिर बुरेदा से रिवायत है (हदीस नं. 4294)

4. Hizb ut-Tahrir, ‘The Methodology of Hizb ut-Tahrir for Change,’ Al-Khilafah Publications, p. 6

5. निजामुल हुक्म फील इस्लाम, खिलाफा पब्लिकेशन्स पांचवा एडीशलन सफा 247

6. तकीउद्दीन नबहनी (The draft constitution of the Khilafah State. The Introduction and the incumbent reasons) तर्जुमा: मुक़द्दया तुद-दस्तूर अल असबाबुल मजीबतुला, दफा 184

7. हावालऐ साबिक़ा (उपर वाला हवाला)

8. तकीउद्दीन नबहानी, Taqiuddin an-Nabhani, ‘The Islamic Personality,’ Volume 2, translation of Shakhsiya Islamiyya, Dar ul-Ummah, Beirut, Fourth Edition, Chapter Al-Must’amin.

9. Taqiuddin an-Nabhani, ‘The draft constitution of the Khilafah State,’ Op.cit., Article 7f

10.       Taqiuddin an-Nabhani, ‘The Islamic Personality,’ Op.cit., Chapter Ahkam adh-dhimmi

11.       यहया बिन आदम से मरवी है, किताब: अल खराज

12.       अल-तबरानी ने हसन सनद के साथ अपने अल ओसत में रिवायत किया है।

13. शाहाअलदीन अल करफी, अल फुरूक

14. Bat Ye’or, ‘The Dhimmi, Jews and Christians under Islam,’ 1985 Associated University Presses, p. 56

15. क़ुरआने करीम सूरह 6 अलमाईदा

16. क़ुरआने करीम, सूरह 5 आयत 106

18. Bat Ye’or, Op.cit., p. 57

19. अम्र बिन शोएुब ने अपने बाप से और उन्होंने अपने बाप से रिवायत किया

20. अल बहकी: अदुर्रहमान अल बेलिमानी की हदीस से अखज़ किया गया है।

21. अब्दुर्रहमान अल मालिकी निजामुल उक़बार से तर्जुम किया गया। दारूल उम्मा

22. Cecil Roth, ‘The House of Nasi: Dona Gracia’       

23. अबू उबैद अल क़ासमी इब्ने सल्लमा , किताबुल अमवाल से मुतर्जिम

24.http://www.jews-for-allah.org/jewish-mythson-islam/dhimmi-tax-fiftypercent.htm

25. Holy Qur’an, Chapter 9, Surah at-Taubah, Verse 29

26 Taqiuddin an-Nabhani, ‘The draft constitution of the Khilafah State,’ Op.cit., Article 7a

27 Abdul-Qadeem Zalloom, ‘Funds in the Khilafah State,’ translation of Al-Amwal fi Dowlat Al-Khilafah, Al-Khilafah Publications, 1988, p. 58

28 Abu ‘Ubayd, Op.cit., p. 25

29 Ibid, p. 37

30 Abdul-Qadeem Zalloom, Op.cit., p. 61

31 Sahih Bukhari

32 Narrated by Yahya b. Adam in the book of Al-Kharaaj

33 Abu ‘Ubayd, Op.cit., p. 37

34 Taqiuddin an-Nabhani, ‘The Ruling System in Islam,’ Op.cit., 271

35 Abu ‘Ubayd, Op.cit., p. 40

36 Sahih Bukhari

37 Ibid, on the authority of Anas

38 Thomas W. Arnold, ‘The Preaching of Islam,’ Second Edition, Kitab Bhavan Publishers, New Delhi, p. 128

39 Ibid, p. 47

40 Muhammad Asad, ‘The Principles of State and Government in Islam,’ Dar al-Andalus Ltd, Gibraltar, 1985, p. 41

41 Holy Qur’an, Chapter 65, Surah at-Talaq, Verse 6

42 Sahih Bukhari, narrated from Abu Hurairah

43 Taqiuddin an-Nabhani, ‘The Ruling System in Islam,’ Op.cit., 235

44 Ibid, p. 247

45 Holy Qur’an, Chapter 2, Surah al-Baqarah, Verse 256

46 Thomas W. Arnold, Op.cit., p. 47

47 Abu ‘Ubayd, Op.cit., p. 25

48 Taqiuddin an-Nabhani, ‘The Islamic Personality,’ Op.cit., Chapter Ahkam adh-dhimmi

49 Taqiuddin an-Nabhani, ‘The draft constitution of the Khilafah State,’ Op.cit., Articles 5&6

50 Ibid
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