दूसरी हिदायत याफ्ता खिलाफत के उरूज की ओर एक कदम
नोट: यह वक्तव्य इंजिनियर हिशाम अल-बाबा द्वारा एक प्रेस कांफ्रेंस जो त्रिपोली (लेबनान) में 28 रमजान 1433 जिरी (16/08/12 इसवी) को आयोजित हुई, में दिया गया।
‘अरब लहर’ कही जाने वाली क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य शासक और शासन बदलना था। शुरूआत से, उनकी मांग बहुत साफ व स्पष्ट थी। इसकी झलक हमें उनके नारों व गीतों में साफ सुनाई दी: ‘जनता मौजुदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फैंकना चाहती है।’’
ट्यूनेशिया, इजिप्ट, लीबिया और यमन के आंदोलनों का नतीजा यह रहा कि या तो शासक को गद्दी से हटा दिया गया या वह मारा गया। फिर भी, ढाक के तीन पात की तरह शासन व्यवस्था उसी ढ़र्रे पर कायम रही, जिस पर वह साम्राज्यवाद काल से थी: लोकतांत्रिक, लोक राज्य व धर्मनिरपेक्ष, बिल्कुल पश्चिम के नक्शे कदम पर। इसलिए जो खुशी के झौंके उन रहमत वाले आंदोलनों के ज़रिए आये थे, वह काफूर हो गये, जब ये आंदोलन पटरी से उतर गये और उन्होंने पश्चिम के लोकतांत्रित राज्य का नज़रिये, जो उन्हें दिया गये थे (या जो उनके लिए छोड़ा गया), को अपना लिया. अतः शाम में क्रांति के अंकुर फुटे जिसने तथाकथित ‘अरब लहर’ की मुर्दा परतों को झकझोर दिया और इसकी काया मे नये विचारों का समावेश कर इसे जीवनदान दिया।
शाम की क्रंति ने ‘शहद में ज़हर’ के समावेश को सिरे से ही खारिज़ कर दिया। इसने धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक और लोक राज्य के विचारों को पूरी तरह से खारिज़ कर दिया । इसने यह भी जतला दिया कि केवल चेहरे बदलने से उम्मत संतुश्ट नहीं होगी, यह पूछते हुए कि क्या बशर धर्मनिरपेक्ष नहीं? क्या उसका शासन व संविधान लोक राज्य नहीं हैं? क्या हम इस बात के गवाह नहीं कि किस तरह पश्चिम लोकतांत्रिक पूंजीपति व्यवस्था का खुद-ब-खुद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में पतन हो रहा है? क्यों उन नाकाम ‘कोशिशों’ को बार-बार दोहराए, जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का नाज़िल कर्दा संविधान हमारे हाथों में है?
शाम की क्रांति ने अपनी इस्लामिक पहचान को भी पक्का कर दिया जब यहां के लोगों ने यह घोषणा की कि हमारी कुर्बानी केवल अल्लाह की रज़ा के लिए और आख़िरत में उसके इनआम के लिए है। इस आंदोलन में औरतों ने खनसा (रजि.) का अनुसरण किया, जब अल-उकाब के बैनर्स हाथो में लहरा रहे थे, जब चारों और खिलाफत के नारे गूंज रहे थे। यह आंदोलन केवल एक आंदोलन भर नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने इस आंदोलन की विशेषता को बड़ी गौर से देखा। गुस्साया अमेरिका (जो बशर सरकार का प्रयोजक है) सीरिया की सरकार के जुल्मों में शरीक हो गया। ऊपरी तौर पर बशर सरकार को डेड़लाइन देता रहा, सम्मेलन आयोजित करता, कड़े कदमों की घोषणा व अरब और अंतर्राष्ट्रीय परिवेक्षकों को भेज दिखावा करता रहा, बिना यह ध्यान दिये कि सीरिया में खून की नदियाँ बह रही है। अंतर्राष्ट्रीय समाज का सीरिया के लोगों के खिलाफ यह षड़यंत्र उस समय हद पार कर गया जब उन्होंने बशर को त्यागपत्र के बदले सुरक्षित निकासी का आष्वासन दिया, उसके गुनाहों को दरकिनार करते हुए। यह है वोह मेयार जिस के साथ वोह सीरिया की क्रांती के साथ मामला कर रहे है.
हम हिज़्बुत्तहरीर में, इस बात पर पक्का यक़ीन रखते हैं कि सीरिया के लोगों की क्रांती इससे कहीं ज्याता कीमती है कि यह आंदोलन भी धर्मनिरपेक्षता की दलदल और व लोक राज्य (civil state) की बिदअत में फंस जाए और यह भी नही चाहते हैं कि लोग बेहतर के लिए बदत्तर को चुन लें (अल्लाह की किताब व रसूल (صلى الله عليه وسلم) की सुन्नत को छोड़ पश्चिम की नापाक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना लें). हम चाहते है कि आंदोलन अल्लाह की शरीयत को लागू करने के लिए खिलाफत कायम करने की और आगे बढ़ें। ताकि रसूल (صلى الله عليه وسلم) की दो बशारतें पूरी हो: एक जो पूरी उम्मत के लिए है,
‘‘तब नबुव्वत ऐ ऐन तर्ज़ पर ख़िलाफत होगी’’। (मस्नद अहमद)
और दूसरी जो सीरिया के लोगों के लिए खास है,
‘‘शाम इस्लाम का मस्कन (मर्कज) होगा।’’ (अत-तबरानी)
हम इस आंदोलन में ऐसी निशानियों को देखते है जिस से हमारा हौसला बढ़ता है। हम आपके सामने प्रस्तुत करते है ये लैख जिसमें शामिल है हिज़्बुत्तहरीर का घोशणा-पत्र, एक राजनैतिक व्यवस्था के लिए जो वर्तमान शासन को उखाड़ फैंकने के बाद लागू होगी और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक ज़मीनी नक्शा। हम इस बात पर बहुत ध्यान दे रहे हैं कि आंदोलन हर शर से पाक रहे और दूसरे आंदोलनों की तरह साम्राज्यवादी ताकतें इसे बंधक न बना सके। साथ ही यह हिफाज़त में रहे उन अवसरवादियों (opportunists) से भी जो हमेशा पश्चिम के गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। ताकि हर संकट का हल उनके आकाओं के नजरिये से हो।
सीरिया में शासन व्यवस्था के लिए हिज़्बुत्तहरीर का घोशण पत्र निम्न सिद्वांतों पर अधारित है:
(1) केवल इस्लामिक अकीदा ही राज्य व संविधान का आधार होना चाहिये। इसके सारे अनुच्छेदों का आधार कुरआन व सुन्नत, इजमा-ए-साहबाँ और कयास होना चाहिए। ताकि इस्लामिक शरीअत ही लोगों की जीवन व्यवस्था, उनके समाज और राज्य का अधार बन जाए।
(2) इस्लाम में शासन व्यवस्था का रूप केवल खिलाफत है जो मूलभूत रूप से आज की समस्त शासन व्यवस्थाओं से अलग है। अंततः न तो यह साम्राज्यवादी है, ने गणतांत्रिक, न संघीय या न यह तानाशाही और राजसी है।
(3) इस्लामिक राज्य न तो धार्मिक राज्य होता है, न ही लोक राज्य (सिविल) और न ही लोकतांत्रिक। बल्कि ये तो इंसानी राज्य है, जहाँ प्रभुसत्ता केवल अल्लाह की है। राज्य का काम केवल इस्लाम के प्रावधानों को लागू करता है और खलीफा उम्मत के प्रति जवाबदेह है।
(4) दारूल इस्लाम की सुरक्षा केवल मुस्लिम लोगों के जिम्मे है. वे ही इसे ताकत व सुरक्षा प्रदान करेंगे ताकि बाहरी दखल रोका जा सके, जो इस आयत से जुड़ी है:
‘‘और अल्लाह कभी ‘काफिरों’ को ईमान वालों के मुकबाले में कोई राह नहीं देगा।’’ (अन-निसा, 4:141)
मुस्लिम ज़मीन में बाहरी दखल ऐसे बड़े गुनाहों में से एक गुनाह हे जिसकी नहूसत की वजह से लोग व राज्य इस्लाम की छत्रछाया से वंचित रह जाते है।
(5) खिलाफत में व्यवस्था मानवीय होती है - जो मानव को अल्लाह के बंदे के रूप में पुनरूत्थान करती हैं और उसके अंदर मानवीय पहलू को बिना किसी नस्ल, धर्म या रंग के आधार पर बढ़ावा देती है। । यह किसी भी परेशानी को एक इंसानी समस्या के रूप में देखती है, न कि किसी आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि समस्या के रूप में और उसका निपटारा बेहतरीन ओर न्यायपूर्ण तरीके से करती है।
(6) राज्य के नागरिकों को जोड़ने वाला रब्त उनकी नागरिकता होती है। अतः जिन लोगों को इस्लामिक राज्य की नागरिकता हासिल होगी, उन्हें संरक्षकता का पूरा अधिकार मिलेा फिर चाहे वो मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम। राज्य के लिये यह जाईज़ नहीं है की वह शहरियों के बीच प्रशासनिक, न्यायिक या लोगों की देख-रेख के मामले मे किसी किस्म का भेद-भाव करे.
(7) इस्लामिक राज्य के संविधान के अनुच्छेद कुरआन व सुन्नत से अख़्ज़ होते है, जिन्हें राज्य लागू करने को बाध्य होगा और सभी नागरिकों को उन्हें मानना होगा। मुस्लिम उन्हें अल्लाह के अवामिर और नवाही मानकर पालन करेंगे और गैर-मुस्लिम राज्य के कानून मानकर जो उनके मुआमलात की निगाहदाशत, उनकी सुरक्षा व अधिकारों के संरक्षण के लिए हैं। सभी नागरिकों को समान अधिकार हासिल होंगे जो शरीयत के इस उसूल पर आधारित है:-
‘‘उनको वही हक़ है जो मुसलमानों को और वे मुसलमानों के तरह जवादेह भी है।’’
(8) गैर मुस्लिमों को आम कानून के अंतर्गत उनके अपने अकीदे, उपासना, खान-पान, वस्त्र के साथ-साथ विवाह और तलाके मसले उनके धर्म के अनुसार पालन करने की पूरी आजादी होगी। वे राज्य के आधीन खुशहाल रहेंगे व पनपेंगे और राज्य के सभी संसाधनों का पूरी तरह उपयोग करेंगे, मुस्लिमों की तरह। इसके प्रमुख उदाहरण निजी स्वामित्व की सुविधाऐं और राज्स की अकूत संपदा का समानता से बंटवारा है।
(9) इस्लामिक राज्य में मुस्लिम और गैस-मुस्लिम के मुआमलात की देखरेख में कोई भेद नहीं होगा, राज्य सारी नस्लों और लोगों के साथ समान रूप से बर्ताव करेगा। अतः इसकी नज़र में कुर्द, अरबी, तुर्को के दरमियान कोई फर्क नहीं होगा। राज्य बल्कि इस आयत से बंधा होता है:- ‘‘तुम में से अल्लाह के नज़दीक सबसे बेहतरीन वे हैं जो सबसे ज्यादा अल्लाह से डरने (तक़वे) वाले है।’’
(अल-हुजरात, 49:13)
अतः दारुस्सलाम ऐसी किसी भी दावत को जो नस्ल, कौमियत या जाति की और दावत देती है, को ज़हालत करार देता है, जो उम्मत और राज्य को बांटती है। साथ ही यह सबसे बड़ी बुराई है। उम्मत को बंटना, कमजोर करना, यह पश्चिम का एजेंडा है, जिसमें वह निरंतर लगा हुआ है। उसकी मंशा यही है कि उम्मत अल्लाह के साये को छोड़ उसके साये में जिन्दगी गुजारे।
(10) इस्लाम अपनी आर्थिक नीतियों से यह पक्का करता है कि उसके साये में रहने वाले की सभी मूलभूत जरूरतें जैसी रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हो और साथ ही, फर्द को इस लायक बनाता है कि कवह अपनी कोशिशों से विलासता (luxuries) की वस्तुएँ हांसिल कर सके। इस्लामिक राज्य यह भी पक्का करता है कि पूरी उम्मत के लिए सुरक्षा, शिक्षा, इलाज और कई अधारभूत जरूरतें पूरी की जाए। इस्लामिक अहकाम स्वामित्व के प्रकार (types of ownership) व निवेश के साधनों की और खर्च/व्यय के तरीकों की अच्छी तरह से व्याख्या करते है । जैसे यह अहकाम व्याख्या करते हैं मिल्कियत (property) तीन तरह की होती है यानी नीजी मिल्कियत, राज्य की मिल्कियत और जनता की मिल्कियत. खनिज व तेल जैसे संसाधन निजी नहीं बल्कि पूरी उम्मत की मिल्कियत है जिस से पूरी उम्मत फायदा उठाती है। साथ ही ज़मीन संबंधी नियमों व कानूनों की व्याख्या करते है जिससे इंच ज़मीन भी खेती से महरूम नहीं रहती। इस्लाम में मुद्रा (currency) के आधार व मानक (standard) सोना व चांदी हैं ताकि स्थिर विनिमय (exchange rate) दर बरकरार रहें और इसके कारण वस्तुओं की क़िमतों में भी यह स्थिरता झलके। इस्लामिक आदेश मुद्रा विनिमय दर के नियम तय करते हैं जो इस्लामिक राज्य को उस तरह के आर्थिक संकट या मंदी का सामना करने से बचाते है जिसका शिकार हाल ही में पूंजीवादी वित्तीय व्यवस्था बनी। ये अहकाम नागरिको के बीच घरेलू व्यापार की शर्तें तय करते है, जिसके लिए राज्य की तरफ से लोगों को आमादा करने की जरूरत नहीं पडती. इन अहकाम मे विदेशी व्यापार के लिये भी रहनुमाई है जो राज्य की देखरेख में होता है। यह अहकाम इलाही विधान के मुताबिक़ कम्पनियॉ स्थापित करने की इजाज़त देते हैं और उन्हे किसी भी तरह की इजारादारी (monopoly) करने से रोकते है. ये अहकाम ब्याज खोरी, कर्ज़े, उधार की बिकवाली, उन चीजों की बिक्री जिन पर अधिकार न हो और जालसाजी वज्रित करते हैं । कुल मिलाकर इन नीतियों का लक्ष्य है एक ऐसे समाज का नमूना जो हलाल व हराम के दायरे में शांति और खुशहाली के माहौल मे रहें। यह अहकाम एक-एक नागरिक के दर्मियान व्यक्तिगत तौर सम्पत्ति व साधानों का बंटवाराँ करते हैं ताकि संपत्ति इंसान के ताबे हो न कि इंसान संपत्ति के ताबे।
(11) राज्य के दूसरे देशों के साथ सम्बंध इस्लाम के प्रावधानों के आधार पर, यानी उनको इस्लाम की दावत देना और अल्लाह की रज़ा के लिए जिहाद करने, पर स्थापित होते है । इस्लामिक राज्य शांति समझौते, युद्ध विराम, सम्मेलनों के आयोजन, विश्व में कूटनीतिक या राजनैतिक प्रतिनिधित्य में शरीयत के प्रावधान व उसूलों के पालन मे बाध्य होता है।
रही बात उस ज़मीनी नक्शे की जिसके जरिये वर्तमान शासन को हटा कर खिलाफत कायम होने की उम्मीद है, यह वोह तरीका जिसके जरिए जनबा रसूल अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने 1433 साल पहले इंकलाब (क्रांति) बरपा कि और मदीना में पहला इस्लामिक राज्य वजूद में आया:
(1) सीरिया में हमारे मुस्लिम भाई इस बात को आम करे कि वे इस ‘पलीत’ शासन व्यवस्था को उखाड़ फैंक खिलाफत कायम कर अल्लाह के कानून के साये में रहना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें उसी तरह राय आम्मा हमवार करनी होगी जिस तरह रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने मदीना में इस्लामिक राज्य की स्थापना से ठीक पहले की थी। यह महत्वपूर्ण पहलू अब ‘अरब लहर’ और खास तौर से सीरिया में और भी नुमायाँ हो रहा है जब हमारे भाई-बहन दिन-रात इस्लामिक राज्य और खिलाफत की सदाएँ लगा रहे हैं। पश्चिम अब अपने डर और आशंका को नहीं छिपाता है कि इस्लाम सीरिया में धर्मनिरपेक्ष गुनाहगारों की जगह ले लेगा और वही आने वाले समय का उत्तराधिकारी है। फिर भी, यह फर्ज़ है उन ईमान वालों पर जो साफ़ इस्लामी सोच रखते है और राय आम्मा हमवार करने में लगे हैं कि वे अपनी गतिविधियाँ तेज कर अपने और लोगों में इस्लाम व इस्लामिक व्यवस्था का सही व साफ नज़रिया कायम करे ताकि अब आगे से कोई भी उन भेड़ियों की धोखेबाजी का शिकार न बने जो हाथो में तो इस्लाम का परचम लिए होते हैं लेकिन अपना लेते हैं धर्मनिरपेक्ष लोकराज्य का सिद्वांत जैसा मिस्त्र, यमन आदि में हुआ।
(2) अहले क़ुव्वत ईमान वाले, जिनमें शामिल है नियमित सेना के अफ़सर या इनके अलावा वे क़ुव्वत वाले लोग जो अपने ईमान में पुख्ता हो, उनको खिलाफत को कायम करने के लिए कमर कसनी होगी, क्योंकि अल्लाह उनसे उस क़ुव्व्त और ज़िम्मेदारी के बारे मे पूछेगा जो अल्लाह ने उन्हें अता की। उन सबको पश्चिम, उसके दलालों, उनके साधनों को स्थानीय धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं के साथ मिलकर प्रशासनिक हैसियत हासिल करने से रोकना होगा। उन्हें उन्हीं लोगों को आगे लाना होगा जो इस्लामिक नज़रिये से लायक हो, जिनके पास इस्लामिक राजनैतिक व्यवस्था का पूर्ण ज्ञान हो और जिनसे उम्मीद हो कि वे बिना किसी शर्त या दबाव के इस्लाम का पूर्ण निफास करेंगे।
(3) हमें इन अहले कुवत लोगों से बड़ी उम्मीदें है और हम अल्लाह के शुक्रगुजार है कि उम्मत में उन लोगों की कमी नहीं जो प्रशासन के हर विभाग की जिम्मेदारी को उठाने मे बहतरीन तरह की क़ाबलियत रखते है। अतः अब उन्हें इस्लाम के पूर्ण निफास की पूरी तैय्यारी करनी है ताकि खिलाफत के जरिए अच्छा समाज का निर्माण हो और इस्लाम की दावत से पूरी दुनिया मुन्नवर हो जाए और यह दावत मब्दा (ideology) के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाफिस हो न कि साम्राज्यवाद/पूंजीवाद के आधार पर।
(4) हम हिज़्बुत्तहरीर में, इस सम्मेलन के द्वारा इस बात की घोशणा करते हैं कि हम इस क्रांति के मुख्लिस लोगों के साथ काम कर रहें है और इस मंसूबे, जिसको को अमल मे लाना और कामयाबी हांसिल करना बिल्कुल मुम्किन है, के हर मंज़िल को हांसिल करने के लिये अपनी पूरी क्षमता और सामर्थ लगा देना चाहते है. और इसलिये की ताकि एक सच्चा बदलाव आ सके और हमारा अल्लाह (سبحانه وتعالى) हमसे राज़ी हो जाए। चौराहो पर क्रांतिकारियों की बाढ उमड आई है जिनके हाथों में उकाब और इस्लामी झण्डे है. यह लोग ज़ोर-ज़ोर से अल्लाहु अकबर की सदाऐं लगा रहे है और जिनके नारों ‘‘हम सीरिया में इस्लामिक खिलाफत चाहते है’’ व ‘‘लोगों को खिलाफत दोबारा चाहिये’’ से पूरा समा गूंज रहा है। हमारे अराकीन (members) आपके साथ शुरू से बडी गहराई से इस आंदोलन में शामिल है। पार्टी आम तौर से और हमारी सीरिया की शाख खास तौर से इस क्रांति पर शुरूआत से एक-एक पल निगाह रखे हुए है. इस लिये यह एक-एक वाकिये के साथ लगातार बयान और बुलेटिन जारी करती रही ताकि विद्रोहियों को ताकत मिले, उनका मनोबल बढ़े और लोगों में जागृति (आगाही) बनी रहे ताकि वे अपने खिलाफ हो रही साजिशों से बाखबर रहें और उन्हे इस ज़रूरत की याद्दिहानी करवाती रही की क्रांतिकारी अपने इंक़लाब (क्रांति) के अमल को उस अज़ीम मक़सद से जोडे रखे ताकि अवसरवादी इसे अपने रंग में न रंग दें.
और हम मीडिया के लोगों व पत्रकारों के हाथों में एक डोज़ियर (दस्तावेज़) देते है जिसका बहुत बडा हिस्सा इस वक़्त तैयार है,
- हिज़्बुत्तहरीर कई सैनिक बलों से सम्पर्क साधने काम करती है का ताकि उन्हें एक बेनर के तले व्यवस्थिति कर इस शासन को जड़ से उखाड़ सके और इस्लामिक राज्य स्थापित हो सके, इस उम्मीद के साथ कि ऐसा जल्द ही होगा।
- हिज़्बुत्तहरीर ने इस बड़े लक्ष्य के लिए अपने आप को तैयार किया है, और यह हिज़्बुत्तहरीर का पिछली आधी सदी लक्ष्य रहा है, न केवल सीरिया में, बल्कि विभिन्न मुस्लिम देशों में। इस संघर्श में जिसमें हिज़्बुत्तहरीर आधी सदी से लगी है, एक सफल नेतृत्व हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। जिसकी वजह से हिज़्बुत्तहरीर उम्मत के दिलों तक पहुंचने में कामयाब रही है। ताकि अल्लाह का शासन और उसकी मंशा दुनिया में गालिब हो। अतः इसके सदस्यों का प्रयास रहता है कि पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ मुस्लिम सही मबदा (ideology) के साथ संघर्श कर रहे, वहाँ न केवल साथ दे अपितु उनके संघर्ष में बराबर शामिल रहें। ये सभी सदस्य आज सीरिया के लोगों के संघर्ष में उनके साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष कर रहे हैं और उन मुस्लिम सैनिकों जो अपने बैरेक्स में हैं, को आगे आने और अल्लाह के नाम पर सीरिया के लोगों का साथ देने की दावत देते है। क्रांतिकारी खुश हो उठे थे जब हमारे सदस्यों ने उन्हें मस्जिद अल-अक्सा मे दावत दी, जहाँ से यह जाबांज़ाना मौक़फ (stance) अलक़ुद्स से पूरे फिलीस्तीन में फैल गया, क़ैदियो मे और फिर पूरी अरब दुनिया मे, खास तौर से लेबनान मे और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह फौजियों और मुजाहिदों मे फैल गया और शाम मे मौजूद त्रिपोली मे, जहाँ यह कांफ्रेंस का आयोजन किया जा रहा है. हम हमारे उरदुन (Jordan) के सदस्यों के मौकफ को भी नहीं भूल सकते जिसका इज़हार उन्होने पाबन्दियों और रुकावटो के बावजूद किया.
यह भी बहुत ध्यान देने की बात है कि हिज़्बुत्तहरीर की स्थापना अल्लाह के इस आदेश की पालना के तहत हुई थी-
‘‘और तुममें से एक जमाअत ऐसी होनी चाहिये, जो भलाई की ओर बुलायें, अच्छाई का हुक्म दे और बुराई से रोके, और ऐसे लोग ही कामयाब होंगे’’ (आले-इमरान, 3:104)
और इस्लाम की तर्जे जिन्दगी को खिलाफत की स्थापना के जरिए दोबारा जिंदा के लिए, शरीअत के इस पवित्र सिद्वांत को ध्यान में रख, ‘‘जिस चीज़ के बिना कोई फर्ज़ पूरा नहीं होता, वह चीज अपने आप फज़ हो जाती है’’
पार्टी अपने सदस्यों को एक वक्ता के रूप में तैयार करती है। यह अपने लिये हुकूमत करने वाली पार्टी का तसव्वुर नहीं रखती। अपितु, एक बार शरई तरीके से खिलाफत स्थापित होने के बाद, खलिफा पार्टी का नहीं बल्कि मुस्लिमों का खलीफा होगा, जहाँ वह इंसाफ के साथ हर तरह से लोगों के मुआमलात की देखरेग करेगा. एक बार खलीफा का पद रिक्त हो जाने पर उम्मत उन उम्मीदवारों में से एक को खलीफा चुनेगी जो “इस पद की कानूनी शर्तों को पूरी करता है”। उम्मत उसे खलीफा के रूप में सुनने और मानने (इताअत) की बैत देगी न किसी पार्टी का नेता होने के कारण। हिज़्बुत्तहरीर, खलीफा बनने पर, चाहे खलीफा उसकी पार्टी का उम्मीदवार हो या कोई दूसरी पार्टी का, लगातार उम्मत के साथ रियासत की तरक़्क़ी और तर्ज़े हुकूमत पर निगाह रखेगी. वह अल्लाह के आदेश को ध्यान में रख खलीफा को सलाह देगी, आलोचना करेगी, और जवाब मांगेगी । यह सब वह उम्मत के प्रतिनीधि के रूप में करेगी न कि एक पार्टी के रूप में, जैसा आज होता है। पार्टी का उम्मीदवार खलीफा बनने के बाद पार्टी का नहीं रहेगा बल्कि उम्मत का नेता होगा।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह अपनी रहमत से इन कोशिशों को जल्द ही कामयाब करें, खिलाफत का कयाम हो, उम्मत की जीत हो, और यह अल्लाह के लिए बेहद आसान है, अल्लाह तआला फरमाता है:
‘‘और हम यह इरादा रखते हैं कि उन लोगों पर एहसान करे जो दुनिया में कमजोर कर के रखे गये थे और उन्हें धरती का खलीफा बनाये और उन्हें वारिस बनाए।’’ (अल-कसस, 28:5)
तमाम तारीफे अल्लाह के लिए जो सारे जहानों का रब है।
इंजिनियर: हिशाम अल बाबा
हेड ऑफ मीडिया ऑफिस, विलायते सीरिया
26 रमजान 1433 हिजरी
नोट: यह वक्तव्य इंजिनियर हिशाम अल-बाबा द्वारा एक प्रेस कांफ्रेंस जो त्रिपोली (लेबनान) में 28 रमजान 1433 जिरी (16/08/12 इसवी) को आयोजित हुई, में दिया गया।
‘अरब लहर’ कही जाने वाली क्रांतियों का मुख्य उद्देश्य शासक और शासन बदलना था। शुरूआत से, उनकी मांग बहुत साफ व स्पष्ट थी। इसकी झलक हमें उनके नारों व गीतों में साफ सुनाई दी: ‘जनता मौजुदा शासन व्यवस्था को उखाड़ फैंकना चाहती है।’’
ट्यूनेशिया, इजिप्ट, लीबिया और यमन के आंदोलनों का नतीजा यह रहा कि या तो शासक को गद्दी से हटा दिया गया या वह मारा गया। फिर भी, ढाक के तीन पात की तरह शासन व्यवस्था उसी ढ़र्रे पर कायम रही, जिस पर वह साम्राज्यवाद काल से थी: लोकतांत्रिक, लोक राज्य व धर्मनिरपेक्ष, बिल्कुल पश्चिम के नक्शे कदम पर। इसलिए जो खुशी के झौंके उन रहमत वाले आंदोलनों के ज़रिए आये थे, वह काफूर हो गये, जब ये आंदोलन पटरी से उतर गये और उन्होंने पश्चिम के लोकतांत्रित राज्य का नज़रिये, जो उन्हें दिया गये थे (या जो उनके लिए छोड़ा गया), को अपना लिया. अतः शाम में क्रांति के अंकुर फुटे जिसने तथाकथित ‘अरब लहर’ की मुर्दा परतों को झकझोर दिया और इसकी काया मे नये विचारों का समावेश कर इसे जीवनदान दिया।
शाम की क्रंति ने ‘शहद में ज़हर’ के समावेश को सिरे से ही खारिज़ कर दिया। इसने धर्मनिरपेक्षता, लोकतांत्रिक और लोक राज्य के विचारों को पूरी तरह से खारिज़ कर दिया । इसने यह भी जतला दिया कि केवल चेहरे बदलने से उम्मत संतुश्ट नहीं होगी, यह पूछते हुए कि क्या बशर धर्मनिरपेक्ष नहीं? क्या उसका शासन व संविधान लोक राज्य नहीं हैं? क्या हम इस बात के गवाह नहीं कि किस तरह पश्चिम लोकतांत्रिक पूंजीपति व्यवस्था का खुद-ब-खुद एक वैश्विक व्यवस्था के रूप में पतन हो रहा है? क्यों उन नाकाम ‘कोशिशों’ को बार-बार दोहराए, जबकि अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त का नाज़िल कर्दा संविधान हमारे हाथों में है?
शाम की क्रांति ने अपनी इस्लामिक पहचान को भी पक्का कर दिया जब यहां के लोगों ने यह घोषणा की कि हमारी कुर्बानी केवल अल्लाह की रज़ा के लिए और आख़िरत में उसके इनआम के लिए है। इस आंदोलन में औरतों ने खनसा (रजि.) का अनुसरण किया, जब अल-उकाब के बैनर्स हाथो में लहरा रहे थे, जब चारों और खिलाफत के नारे गूंज रहे थे। यह आंदोलन केवल एक आंदोलन भर नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों ने इस आंदोलन की विशेषता को बड़ी गौर से देखा। गुस्साया अमेरिका (जो बशर सरकार का प्रयोजक है) सीरिया की सरकार के जुल्मों में शरीक हो गया। ऊपरी तौर पर बशर सरकार को डेड़लाइन देता रहा, सम्मेलन आयोजित करता, कड़े कदमों की घोषणा व अरब और अंतर्राष्ट्रीय परिवेक्षकों को भेज दिखावा करता रहा, बिना यह ध्यान दिये कि सीरिया में खून की नदियाँ बह रही है। अंतर्राष्ट्रीय समाज का सीरिया के लोगों के खिलाफ यह षड़यंत्र उस समय हद पार कर गया जब उन्होंने बशर को त्यागपत्र के बदले सुरक्षित निकासी का आष्वासन दिया, उसके गुनाहों को दरकिनार करते हुए। यह है वोह मेयार जिस के साथ वोह सीरिया की क्रांती के साथ मामला कर रहे है.
हम हिज़्बुत्तहरीर में, इस बात पर पक्का यक़ीन रखते हैं कि सीरिया के लोगों की क्रांती इससे कहीं ज्याता कीमती है कि यह आंदोलन भी धर्मनिरपेक्षता की दलदल और व लोक राज्य (civil state) की बिदअत में फंस जाए और यह भी नही चाहते हैं कि लोग बेहतर के लिए बदत्तर को चुन लें (अल्लाह की किताब व रसूल (صلى الله عليه وسلم) की सुन्नत को छोड़ पश्चिम की नापाक लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपना लें). हम चाहते है कि आंदोलन अल्लाह की शरीयत को लागू करने के लिए खिलाफत कायम करने की और आगे बढ़ें। ताकि रसूल (صلى الله عليه وسلم) की दो बशारतें पूरी हो: एक जो पूरी उम्मत के लिए है,
‘‘तब नबुव्वत ऐ ऐन तर्ज़ पर ख़िलाफत होगी’’। (मस्नद अहमद)
और दूसरी जो सीरिया के लोगों के लिए खास है,
‘‘शाम इस्लाम का मस्कन (मर्कज) होगा।’’ (अत-तबरानी)
हम इस आंदोलन में ऐसी निशानियों को देखते है जिस से हमारा हौसला बढ़ता है। हम आपके सामने प्रस्तुत करते है ये लैख जिसमें शामिल है हिज़्बुत्तहरीर का घोशणा-पत्र, एक राजनैतिक व्यवस्था के लिए जो वर्तमान शासन को उखाड़ फैंकने के बाद लागू होगी और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक ज़मीनी नक्शा। हम इस बात पर बहुत ध्यान दे रहे हैं कि आंदोलन हर शर से पाक रहे और दूसरे आंदोलनों की तरह साम्राज्यवादी ताकतें इसे बंधक न बना सके। साथ ही यह हिफाज़त में रहे उन अवसरवादियों (opportunists) से भी जो हमेशा पश्चिम के गिर्द चक्कर लगाते रहते हैं। ताकि हर संकट का हल उनके आकाओं के नजरिये से हो।
सीरिया में शासन व्यवस्था के लिए हिज़्बुत्तहरीर का घोशण पत्र निम्न सिद्वांतों पर अधारित है:
(1) केवल इस्लामिक अकीदा ही राज्य व संविधान का आधार होना चाहिये। इसके सारे अनुच्छेदों का आधार कुरआन व सुन्नत, इजमा-ए-साहबाँ और कयास होना चाहिए। ताकि इस्लामिक शरीअत ही लोगों की जीवन व्यवस्था, उनके समाज और राज्य का अधार बन जाए।
(2) इस्लाम में शासन व्यवस्था का रूप केवल खिलाफत है जो मूलभूत रूप से आज की समस्त शासन व्यवस्थाओं से अलग है। अंततः न तो यह साम्राज्यवादी है, ने गणतांत्रिक, न संघीय या न यह तानाशाही और राजसी है।
(3) इस्लामिक राज्य न तो धार्मिक राज्य होता है, न ही लोक राज्य (सिविल) और न ही लोकतांत्रिक। बल्कि ये तो इंसानी राज्य है, जहाँ प्रभुसत्ता केवल अल्लाह की है। राज्य का काम केवल इस्लाम के प्रावधानों को लागू करता है और खलीफा उम्मत के प्रति जवाबदेह है।
(4) दारूल इस्लाम की सुरक्षा केवल मुस्लिम लोगों के जिम्मे है. वे ही इसे ताकत व सुरक्षा प्रदान करेंगे ताकि बाहरी दखल रोका जा सके, जो इस आयत से जुड़ी है:
‘‘और अल्लाह कभी ‘काफिरों’ को ईमान वालों के मुकबाले में कोई राह नहीं देगा।’’ (अन-निसा, 4:141)
मुस्लिम ज़मीन में बाहरी दखल ऐसे बड़े गुनाहों में से एक गुनाह हे जिसकी नहूसत की वजह से लोग व राज्य इस्लाम की छत्रछाया से वंचित रह जाते है।
(5) खिलाफत में व्यवस्था मानवीय होती है - जो मानव को अल्लाह के बंदे के रूप में पुनरूत्थान करती हैं और उसके अंदर मानवीय पहलू को बिना किसी नस्ल, धर्म या रंग के आधार पर बढ़ावा देती है। । यह किसी भी परेशानी को एक इंसानी समस्या के रूप में देखती है, न कि किसी आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि समस्या के रूप में और उसका निपटारा बेहतरीन ओर न्यायपूर्ण तरीके से करती है।
(6) राज्य के नागरिकों को जोड़ने वाला रब्त उनकी नागरिकता होती है। अतः जिन लोगों को इस्लामिक राज्य की नागरिकता हासिल होगी, उन्हें संरक्षकता का पूरा अधिकार मिलेा फिर चाहे वो मुस्लिम हो या गैर मुस्लिम। राज्य के लिये यह जाईज़ नहीं है की वह शहरियों के बीच प्रशासनिक, न्यायिक या लोगों की देख-रेख के मामले मे किसी किस्म का भेद-भाव करे.
(7) इस्लामिक राज्य के संविधान के अनुच्छेद कुरआन व सुन्नत से अख़्ज़ होते है, जिन्हें राज्य लागू करने को बाध्य होगा और सभी नागरिकों को उन्हें मानना होगा। मुस्लिम उन्हें अल्लाह के अवामिर और नवाही मानकर पालन करेंगे और गैर-मुस्लिम राज्य के कानून मानकर जो उनके मुआमलात की निगाहदाशत, उनकी सुरक्षा व अधिकारों के संरक्षण के लिए हैं। सभी नागरिकों को समान अधिकार हासिल होंगे जो शरीयत के इस उसूल पर आधारित है:-
‘‘उनको वही हक़ है जो मुसलमानों को और वे मुसलमानों के तरह जवादेह भी है।’’
(8) गैर मुस्लिमों को आम कानून के अंतर्गत उनके अपने अकीदे, उपासना, खान-पान, वस्त्र के साथ-साथ विवाह और तलाके मसले उनके धर्म के अनुसार पालन करने की पूरी आजादी होगी। वे राज्य के आधीन खुशहाल रहेंगे व पनपेंगे और राज्य के सभी संसाधनों का पूरी तरह उपयोग करेंगे, मुस्लिमों की तरह। इसके प्रमुख उदाहरण निजी स्वामित्व की सुविधाऐं और राज्स की अकूत संपदा का समानता से बंटवारा है।
(9) इस्लामिक राज्य में मुस्लिम और गैस-मुस्लिम के मुआमलात की देखरेख में कोई भेद नहीं होगा, राज्य सारी नस्लों और लोगों के साथ समान रूप से बर्ताव करेगा। अतः इसकी नज़र में कुर्द, अरबी, तुर्को के दरमियान कोई फर्क नहीं होगा। राज्य बल्कि इस आयत से बंधा होता है:- ‘‘तुम में से अल्लाह के नज़दीक सबसे बेहतरीन वे हैं जो सबसे ज्यादा अल्लाह से डरने (तक़वे) वाले है।’’
(अल-हुजरात, 49:13)
अतः दारुस्सलाम ऐसी किसी भी दावत को जो नस्ल, कौमियत या जाति की और दावत देती है, को ज़हालत करार देता है, जो उम्मत और राज्य को बांटती है। साथ ही यह सबसे बड़ी बुराई है। उम्मत को बंटना, कमजोर करना, यह पश्चिम का एजेंडा है, जिसमें वह निरंतर लगा हुआ है। उसकी मंशा यही है कि उम्मत अल्लाह के साये को छोड़ उसके साये में जिन्दगी गुजारे।
(10) इस्लाम अपनी आर्थिक नीतियों से यह पक्का करता है कि उसके साये में रहने वाले की सभी मूलभूत जरूरतें जैसी रोटी, कपड़ा और मकान पूरी हो और साथ ही, फर्द को इस लायक बनाता है कि कवह अपनी कोशिशों से विलासता (luxuries) की वस्तुएँ हांसिल कर सके। इस्लामिक राज्य यह भी पक्का करता है कि पूरी उम्मत के लिए सुरक्षा, शिक्षा, इलाज और कई अधारभूत जरूरतें पूरी की जाए। इस्लामिक अहकाम स्वामित्व के प्रकार (types of ownership) व निवेश के साधनों की और खर्च/व्यय के तरीकों की अच्छी तरह से व्याख्या करते है । जैसे यह अहकाम व्याख्या करते हैं मिल्कियत (property) तीन तरह की होती है यानी नीजी मिल्कियत, राज्य की मिल्कियत और जनता की मिल्कियत. खनिज व तेल जैसे संसाधन निजी नहीं बल्कि पूरी उम्मत की मिल्कियत है जिस से पूरी उम्मत फायदा उठाती है। साथ ही ज़मीन संबंधी नियमों व कानूनों की व्याख्या करते है जिससे इंच ज़मीन भी खेती से महरूम नहीं रहती। इस्लाम में मुद्रा (currency) के आधार व मानक (standard) सोना व चांदी हैं ताकि स्थिर विनिमय (exchange rate) दर बरकरार रहें और इसके कारण वस्तुओं की क़िमतों में भी यह स्थिरता झलके। इस्लामिक आदेश मुद्रा विनिमय दर के नियम तय करते हैं जो इस्लामिक राज्य को उस तरह के आर्थिक संकट या मंदी का सामना करने से बचाते है जिसका शिकार हाल ही में पूंजीवादी वित्तीय व्यवस्था बनी। ये अहकाम नागरिको के बीच घरेलू व्यापार की शर्तें तय करते है, जिसके लिए राज्य की तरफ से लोगों को आमादा करने की जरूरत नहीं पडती. इन अहकाम मे विदेशी व्यापार के लिये भी रहनुमाई है जो राज्य की देखरेख में होता है। यह अहकाम इलाही विधान के मुताबिक़ कम्पनियॉ स्थापित करने की इजाज़त देते हैं और उन्हे किसी भी तरह की इजारादारी (monopoly) करने से रोकते है. ये अहकाम ब्याज खोरी, कर्ज़े, उधार की बिकवाली, उन चीजों की बिक्री जिन पर अधिकार न हो और जालसाजी वज्रित करते हैं । कुल मिलाकर इन नीतियों का लक्ष्य है एक ऐसे समाज का नमूना जो हलाल व हराम के दायरे में शांति और खुशहाली के माहौल मे रहें। यह अहकाम एक-एक नागरिक के दर्मियान व्यक्तिगत तौर सम्पत्ति व साधानों का बंटवाराँ करते हैं ताकि संपत्ति इंसान के ताबे हो न कि इंसान संपत्ति के ताबे।
(11) राज्य के दूसरे देशों के साथ सम्बंध इस्लाम के प्रावधानों के आधार पर, यानी उनको इस्लाम की दावत देना और अल्लाह की रज़ा के लिए जिहाद करने, पर स्थापित होते है । इस्लामिक राज्य शांति समझौते, युद्ध विराम, सम्मेलनों के आयोजन, विश्व में कूटनीतिक या राजनैतिक प्रतिनिधित्य में शरीयत के प्रावधान व उसूलों के पालन मे बाध्य होता है।
रही बात उस ज़मीनी नक्शे की जिसके जरिये वर्तमान शासन को हटा कर खिलाफत कायम होने की उम्मीद है, यह वोह तरीका जिसके जरिए जनबा रसूल अल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने 1433 साल पहले इंकलाब (क्रांति) बरपा कि और मदीना में पहला इस्लामिक राज्य वजूद में आया:
(1) सीरिया में हमारे मुस्लिम भाई इस बात को आम करे कि वे इस ‘पलीत’ शासन व्यवस्था को उखाड़ फैंक खिलाफत कायम कर अल्लाह के कानून के साये में रहना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें उसी तरह राय आम्मा हमवार करनी होगी जिस तरह रसूल (صلى الله عليه وسلم) ने मदीना में इस्लामिक राज्य की स्थापना से ठीक पहले की थी। यह महत्वपूर्ण पहलू अब ‘अरब लहर’ और खास तौर से सीरिया में और भी नुमायाँ हो रहा है जब हमारे भाई-बहन दिन-रात इस्लामिक राज्य और खिलाफत की सदाएँ लगा रहे हैं। पश्चिम अब अपने डर और आशंका को नहीं छिपाता है कि इस्लाम सीरिया में धर्मनिरपेक्ष गुनाहगारों की जगह ले लेगा और वही आने वाले समय का उत्तराधिकारी है। फिर भी, यह फर्ज़ है उन ईमान वालों पर जो साफ़ इस्लामी सोच रखते है और राय आम्मा हमवार करने में लगे हैं कि वे अपनी गतिविधियाँ तेज कर अपने और लोगों में इस्लाम व इस्लामिक व्यवस्था का सही व साफ नज़रिया कायम करे ताकि अब आगे से कोई भी उन भेड़ियों की धोखेबाजी का शिकार न बने जो हाथो में तो इस्लाम का परचम लिए होते हैं लेकिन अपना लेते हैं धर्मनिरपेक्ष लोकराज्य का सिद्वांत जैसा मिस्त्र, यमन आदि में हुआ।
(2) अहले क़ुव्वत ईमान वाले, जिनमें शामिल है नियमित सेना के अफ़सर या इनके अलावा वे क़ुव्वत वाले लोग जो अपने ईमान में पुख्ता हो, उनको खिलाफत को कायम करने के लिए कमर कसनी होगी, क्योंकि अल्लाह उनसे उस क़ुव्व्त और ज़िम्मेदारी के बारे मे पूछेगा जो अल्लाह ने उन्हें अता की। उन सबको पश्चिम, उसके दलालों, उनके साधनों को स्थानीय धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं के साथ मिलकर प्रशासनिक हैसियत हासिल करने से रोकना होगा। उन्हें उन्हीं लोगों को आगे लाना होगा जो इस्लामिक नज़रिये से लायक हो, जिनके पास इस्लामिक राजनैतिक व्यवस्था का पूर्ण ज्ञान हो और जिनसे उम्मीद हो कि वे बिना किसी शर्त या दबाव के इस्लाम का पूर्ण निफास करेंगे।
(3) हमें इन अहले कुवत लोगों से बड़ी उम्मीदें है और हम अल्लाह के शुक्रगुजार है कि उम्मत में उन लोगों की कमी नहीं जो प्रशासन के हर विभाग की जिम्मेदारी को उठाने मे बहतरीन तरह की क़ाबलियत रखते है। अतः अब उन्हें इस्लाम के पूर्ण निफास की पूरी तैय्यारी करनी है ताकि खिलाफत के जरिए अच्छा समाज का निर्माण हो और इस्लाम की दावत से पूरी दुनिया मुन्नवर हो जाए और यह दावत मब्दा (ideology) के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाफिस हो न कि साम्राज्यवाद/पूंजीवाद के आधार पर।
(4) हम हिज़्बुत्तहरीर में, इस सम्मेलन के द्वारा इस बात की घोशणा करते हैं कि हम इस क्रांति के मुख्लिस लोगों के साथ काम कर रहें है और इस मंसूबे, जिसको को अमल मे लाना और कामयाबी हांसिल करना बिल्कुल मुम्किन है, के हर मंज़िल को हांसिल करने के लिये अपनी पूरी क्षमता और सामर्थ लगा देना चाहते है. और इसलिये की ताकि एक सच्चा बदलाव आ सके और हमारा अल्लाह (سبحانه وتعالى) हमसे राज़ी हो जाए। चौराहो पर क्रांतिकारियों की बाढ उमड आई है जिनके हाथों में उकाब और इस्लामी झण्डे है. यह लोग ज़ोर-ज़ोर से अल्लाहु अकबर की सदाऐं लगा रहे है और जिनके नारों ‘‘हम सीरिया में इस्लामिक खिलाफत चाहते है’’ व ‘‘लोगों को खिलाफत दोबारा चाहिये’’ से पूरा समा गूंज रहा है। हमारे अराकीन (members) आपके साथ शुरू से बडी गहराई से इस आंदोलन में शामिल है। पार्टी आम तौर से और हमारी सीरिया की शाख खास तौर से इस क्रांति पर शुरूआत से एक-एक पल निगाह रखे हुए है. इस लिये यह एक-एक वाकिये के साथ लगातार बयान और बुलेटिन जारी करती रही ताकि विद्रोहियों को ताकत मिले, उनका मनोबल बढ़े और लोगों में जागृति (आगाही) बनी रहे ताकि वे अपने खिलाफ हो रही साजिशों से बाखबर रहें और उन्हे इस ज़रूरत की याद्दिहानी करवाती रही की क्रांतिकारी अपने इंक़लाब (क्रांति) के अमल को उस अज़ीम मक़सद से जोडे रखे ताकि अवसरवादी इसे अपने रंग में न रंग दें.
और हम मीडिया के लोगों व पत्रकारों के हाथों में एक डोज़ियर (दस्तावेज़) देते है जिसका बहुत बडा हिस्सा इस वक़्त तैयार है,
- हिज़्बुत्तहरीर कई सैनिक बलों से सम्पर्क साधने काम करती है का ताकि उन्हें एक बेनर के तले व्यवस्थिति कर इस शासन को जड़ से उखाड़ सके और इस्लामिक राज्य स्थापित हो सके, इस उम्मीद के साथ कि ऐसा जल्द ही होगा।
- हिज़्बुत्तहरीर ने इस बड़े लक्ष्य के लिए अपने आप को तैयार किया है, और यह हिज़्बुत्तहरीर का पिछली आधी सदी लक्ष्य रहा है, न केवल सीरिया में, बल्कि विभिन्न मुस्लिम देशों में। इस संघर्श में जिसमें हिज़्बुत्तहरीर आधी सदी से लगी है, एक सफल नेतृत्व हासिल करने में सफलता प्राप्त की है। जिसकी वजह से हिज़्बुत्तहरीर उम्मत के दिलों तक पहुंचने में कामयाब रही है। ताकि अल्लाह का शासन और उसकी मंशा दुनिया में गालिब हो। अतः इसके सदस्यों का प्रयास रहता है कि पूरी दुनिया में जहाँ-जहाँ मुस्लिम सही मबदा (ideology) के साथ संघर्श कर रहे, वहाँ न केवल साथ दे अपितु उनके संघर्ष में बराबर शामिल रहें। ये सभी सदस्य आज सीरिया के लोगों के संघर्ष में उनके साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष कर रहे हैं और उन मुस्लिम सैनिकों जो अपने बैरेक्स में हैं, को आगे आने और अल्लाह के नाम पर सीरिया के लोगों का साथ देने की दावत देते है। क्रांतिकारी खुश हो उठे थे जब हमारे सदस्यों ने उन्हें मस्जिद अल-अक्सा मे दावत दी, जहाँ से यह जाबांज़ाना मौक़फ (stance) अलक़ुद्स से पूरे फिलीस्तीन में फैल गया, क़ैदियो मे और फिर पूरी अरब दुनिया मे, खास तौर से लेबनान मे और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी यह फौजियों और मुजाहिदों मे फैल गया और शाम मे मौजूद त्रिपोली मे, जहाँ यह कांफ्रेंस का आयोजन किया जा रहा है. हम हमारे उरदुन (Jordan) के सदस्यों के मौकफ को भी नहीं भूल सकते जिसका इज़हार उन्होने पाबन्दियों और रुकावटो के बावजूद किया.
यह भी बहुत ध्यान देने की बात है कि हिज़्बुत्तहरीर की स्थापना अल्लाह के इस आदेश की पालना के तहत हुई थी-
‘‘और तुममें से एक जमाअत ऐसी होनी चाहिये, जो भलाई की ओर बुलायें, अच्छाई का हुक्म दे और बुराई से रोके, और ऐसे लोग ही कामयाब होंगे’’ (आले-इमरान, 3:104)
और इस्लाम की तर्जे जिन्दगी को खिलाफत की स्थापना के जरिए दोबारा जिंदा के लिए, शरीअत के इस पवित्र सिद्वांत को ध्यान में रख, ‘‘जिस चीज़ के बिना कोई फर्ज़ पूरा नहीं होता, वह चीज अपने आप फज़ हो जाती है’’
पार्टी अपने सदस्यों को एक वक्ता के रूप में तैयार करती है। यह अपने लिये हुकूमत करने वाली पार्टी का तसव्वुर नहीं रखती। अपितु, एक बार शरई तरीके से खिलाफत स्थापित होने के बाद, खलिफा पार्टी का नहीं बल्कि मुस्लिमों का खलीफा होगा, जहाँ वह इंसाफ के साथ हर तरह से लोगों के मुआमलात की देखरेग करेगा. एक बार खलीफा का पद रिक्त हो जाने पर उम्मत उन उम्मीदवारों में से एक को खलीफा चुनेगी जो “इस पद की कानूनी शर्तों को पूरी करता है”। उम्मत उसे खलीफा के रूप में सुनने और मानने (इताअत) की बैत देगी न किसी पार्टी का नेता होने के कारण। हिज़्बुत्तहरीर, खलीफा बनने पर, चाहे खलीफा उसकी पार्टी का उम्मीदवार हो या कोई दूसरी पार्टी का, लगातार उम्मत के साथ रियासत की तरक़्क़ी और तर्ज़े हुकूमत पर निगाह रखेगी. वह अल्लाह के आदेश को ध्यान में रख खलीफा को सलाह देगी, आलोचना करेगी, और जवाब मांगेगी । यह सब वह उम्मत के प्रतिनीधि के रूप में करेगी न कि एक पार्टी के रूप में, जैसा आज होता है। पार्टी का उम्मीदवार खलीफा बनने के बाद पार्टी का नहीं रहेगा बल्कि उम्मत का नेता होगा।
हम अल्लाह से दुआ करते हैं कि वह अपनी रहमत से इन कोशिशों को जल्द ही कामयाब करें, खिलाफत का कयाम हो, उम्मत की जीत हो, और यह अल्लाह के लिए बेहद आसान है, अल्लाह तआला फरमाता है:
‘‘और हम यह इरादा रखते हैं कि उन लोगों पर एहसान करे जो दुनिया में कमजोर कर के रखे गये थे और उन्हें धरती का खलीफा बनाये और उन्हें वारिस बनाए।’’ (अल-कसस, 28:5)
तमाम तारीफे अल्लाह के लिए जो सारे जहानों का रब है।
इंजिनियर: हिशाम अल बाबा
हेड ऑफ मीडिया ऑफिस, विलायते सीरिया
26 रमजान 1433 हिजरी
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