दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र

इस्लाम जो की सारी इन्सानियत के लिए एक पैग़ाम है, सारी दुनिया को दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र के दो ज़ुमरों में तक़सीम करता है। चुनाँचे ये एक इन्तिहाई अहम मामला है। क्योंकि इसकी बुनियाद से उम्मते मुस्लिमा का दूसरी कौमों के साथ ताल्लुक का ताय्युन होता है। और इस्लाम (इस्लामी रियासत) की शहरीयत और इसकी खारिजा पॉलीसी के बेशुमार अहकाम इस तसव्वुर पर मबनी है। नीज़ इसलिए भी ताकि ये मालूम हो सके कि आज इस्लामी मुमालिक में तब्दीली के लिए फक़त हुक्मरानों को बदलना काफी है या पुरे निज़ाम को। इसलिए मुसलमान के लिए इस अहम तसव्वुर की हकीकत और इसके दलाइल को जान लेना बेहद जरूरी है। इस मज़मून का मकसद इस हकीकत को साबित करना है के दारुल इस्लाम व दारुल कुफ्र का तसव्वुर इन्सानी अक्ल की इख्तरा नहीं। बल्कि इसे इस्लाम ही लेकर आया है। इसके अलावा इस्लाम ने वह कौनसी शराइयत रखी है। जिन पर पूरा उतरने से किसी जगह को दारुल इस्लाम या दारुल कुफ्र से ताबीर किया जा सकता है।

दार कि लुग़वी तारीफ :- मुल्क, जगह य बिलाद। यूँ लुग़वी तौर पर दारुल इस्लाम यानी इस्लाम का बिलाद वह जगह होगी जहाँ पर इस्लाम हो और दारुल कुफ्र यानी कुफ्र का बिलाद वह जगह जहाँ कुफ्र हो। जहाँ तक दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की शरअी तारीफात का ताल्लुक़ है तो यह दिगर तारीफात की तरह है जैसे कि इजारत और ग़नीमत वगैराह का तारीफात. ये सब शरई दलाइल से मुस्तम्बित की गई है और ये अहकामे शरअीया है। दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की शरई तारीफात मुताद्दिद नुसूस से समझी गई है। रसूलल्लाह (सल्ल.) का फरमान है:

‘उनको इस्लाम की तरफ बुलाओं, अगर वह मान जाए तो इनकी तरफ से यह बात कबूल कर लो और इनसे जंग करने रूक जाओ, फिर इन्हें अपने दारुल मुहाजरीन की तरफ नक्ल मकानी की दावत दो और इन्हें बता दो कि अगर इन्होंने ऐसा किया तो इनके लिए वही (हुक़ूक़) होगें जो मुहाजरीन पर है।“

इस हदीस शरीफ से ये साबित है कि दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की इस्तलाहात इन्सानों (फुकहाए इकिराम) की अपनी ईजाद नहीं बल्कि वह्यी से माखूज़ू है। इसमें दर अस्ल ‘‘दारुल मुहाजरीन’’ से मुराद दारुल इस्लाम है और दारेहिम   से मुराद दारुल कुफ्र है। और ये मालूम काइदा है:- (मदलूल का ऐतबार और इस्तला पर कोई ऐतराज नहीं जब तक वह शरअ के खिलाफ न हो) दूसरे लफ्जों में मआनी का ऐतबार किया जाएगा जब तक वह मआनी शरीयत के खिलाफ न हो अगरचे कुरान और सुन्नत में यह इस्तलाहात न भी मौजूद हो, मसलन रियासत (अद्दौलाह) ‘‘आइन’’ (दस्तूर) और ‘‘शहरीयत’’ ‘‘ताबईयाह’’. हदीस शरीफ में दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की दो इस्तलाहात के माबेन तफरीक मज़कूर है यानी इनके मअनी:- इन लोगों के लिए, जो अपने दार से दारुल मुहाजरीन कि तरफ नकल-मकानी कि सूरत इख्तियार करते है, तो इनके हुकुक व फराइज़ भी वही होगा जो वहां पर मुहाजरीन के और इसका मफहूम ये है कि अगर वह ऐसा नहीं करते तो इनके वह हुकुक नहीं होंगे जो दारुल मुहाजरीन (दारुल इस्लाम) में मुहाजरीन के है यानी इस्लामी रियासत के शहरी होने की हैसियत से। शरई नुसूस का गहरा मुताअला करने वाला वाज़ेह तौर पर, उस सर ज़मीन पर जहां पर इस्लाम के मुताबिक हुकुमत की जाती है और मुसलमान इसका तहफ्फुज़ करते है, और उस सरज़मीन पर जहाँ इस्लाम के मुताबिक हुकुमत नहीं की जाती और इसका तहफ्फुज़ इसके गैर मुस्लिम शहरी करते है यानी कुफ्रिया तहफ्फुज़ से, इस्लाम ने जो इनके माबेन तफरीक की है, उसे समझ सकता है।

जहाँ तक दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की शराईत का ताल्लुक है तो इसके लिए हमें अपनी तवज्जोह, हिजरत से कब्ल मक्की मुआशरे व और उस वक़्त की बाकी दुनिया और हिजरत के बाद मदनी मुआशरे कि तरफ मबज़ूल करनी होगी। यूँ दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र के माबेन फर्म को समझना आसान हो जाएगा यानी इन शराईत.  यह इसलिए क्योंकि ये बात वाज़ेह है कि हिजरत से कब्ल मक्की और मदीना मुआशरा (बाकी जहान समेत) दारुल कुफ्र हुआ करता था। और यह बात भी साफ है कि जब रसूलल्लाह (सल्ल0) ने हिजरत के बाद मदीना में इस्लामी मुआशरा कायम किया तो ये दारुल इस्लाम बन गया। सवाल ये पैदा होता है कि हिजरत के बाद मदीना में वह कौनसी ऐसी तब्दीली वाकेअ हुई जिसने इसकी हालत को मक्का से मुख्तलिफ बनाया? दुसरे लफ्ज़ों में वह कौन से ओसाफ थे जो उन दो मुआशरो से मुख्तलिफ थे ताकि इनकी शिनाख्त से, इनके माबेन फर्क और दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र की शराईत का ताय्युन हो सके।

मक्की मुअशरा

मक्का वगैराह में तबअी तौर पर , मुल्की सतह पर इस्लाम के अहकाम नाफिज़ नहीं थे। अगरचे वहां बाज़ मुसलमान काबे के पसेपुश्त में इस्लाम के शआइर (निशानियाँ), जैसे कि नमाज़ को कभी कभार ज़ाहिर किया करते थे, क्योंकि ये मुसलमानों की खुद की क़ुव्वत की बदौलत नहीं हो पा रहा था के वह उन शआइर को दाइमी तौर पर अदा कर सके, बल्कि कुफ्फार  में से अहले क़ुव्वत कि इजाज़त से हुआ करता था या उनकी नागवारी के बावजूद उनकी खामोशी से.  तो जब इस्लाम के अहकाम वहां नाफिज़ नहीं थे तो यह बात साफ है कि वहां कुरैश का निज़ाम राइज था। सीरत इब्ने हिश्शाम (रह.) में आया है: “पस जब कस्सी बिन कलाब (एक कुरैशी सरदार) बैतुल्लाह की तोलियत (मुतवल्ली होना) और मक्का की हुकुमत पर मुसल्लत हुआ तो उसने तमाम आसपास से अपनी कौम को बुलाकर मक्का में आबाद किया और अहले मक्का को जिन चीज़ों के वह मालिक थे उनका मालक रखा और जो खिदमते उनके सुपुर्द थी, उन पर इनको फाइज रहने दिया.....यहां तक के जब इस्लाम का ज़हूर हुआ तो अल्लाह तआला ने इन सब अमूर को नीस्त व नाबूद कर दिया। कस्सी बिन कलाब बनी कआब बिन लुई में से पहला शख्स है जिसको हुकुमत नसीब हुई और इसकी तमाम कौम ने इताअत की.....खुलासा ये है कि क़स्सी बिन कलाब के अक़वाल व अफआल इन (कौम) की हयात मे और मौत के बाद इनकी कौम के अंदर मज़हब के कवानीने की तरह जारी थे और निहायत खुशी के साथ इनकी पैरवी की जाती थी। कस्सी बिन कलाब ने एक आलीशान मकान अपना दारुल नदवाह बनाया था और इसका दरवाज़ा खानाऐ काबा की तरफ रखा था। इसी मकान में तमाम कुरैश के अमूर का फैसला होता था”। नीज़ मुसलमानों को अमान (security) भी हासिल न था सिवाय उस मिक़दार के जो कुफ्फार ने उन्हें अता किया हुआ था। ये अमान या तो बराहे रास्त हिमायत के ज़रिये हुआ करता, या फिर मुसलमानों पर ज़ुल्म व तशदुद के वक्त, वह जब चाहते अपनी खामोशी को छोड़कर दखलअन्दज़ी कर लेते। अक्सर मुसलमान हमेशा चोट पहुंचने और खतरे के खौफ की हालत में अपनी जिन्दगीयां गुजारतें।

चुनांचे मुसलमानों के हवाले से मक्का की हकीकत ये थी:

1. यहां पर इस्लाम का ज़हूर नहीं हुआ था अगरचे कुफ्फार की इजाजत से इसके बाज़ शआइर (संकेत) का इज़हार हुआ करता था।

2. यहां पर मुसलमानों को अमान हासिल नहीं थी, और अगर वह होता भी तो कुफ्फार की हिमायत से। दूसरे लफ्ज़ों में जो अमान मुसलमान को मुहय्या था वह गैर इस्लामी क़ुव्वत के सहारे पर कायम था। यही हाल मक्के के अलावा, जहां मुसलमान मौजूद थे, का था जैसा कि हबशा।

मदनी मुअशरा

जब मुसलमानों ने मदीना हिजरत की तो वहाँ इस हकीकत में तब्दीली पैदा हुई। यहां पर इस्लाम मुल्की सतह पर ज़ाहिर हुवा यानी अहकामे इस्लाम का निफाज़ और मुसलमानों की ज़ाती क़ुव्वत के ज़रिये इक्तदार व ऑथोरिटी क़ायम हुई. अगरचे यहाँ कुफ्र के बाज़ शआइर भी ज़ाहिर हुए, मगर ये मुसलमानों की इज़ाजत से और उनके ज़िम्मे कि बदौलत, तबअी तौर पर शरअ की हुदूद में रहते हुए, मक्का वगैराह की हालत के बिल्कुल उल्टा। इसी तरह जिस अमान से मुसलमान वहां फायदा उठा रहे थे वह, दाखिली (आंतरिक) और खारिजी (विदेशी) तहफ्फुज़, इस्लामी क़ुव्वत पर काइम था। हत्ता के मदीना में कुफ्फार का अमान, ज़िम्मा व अहद के ज़रिये, मुसलमानों की तरफ से अता करदा था। मक्का वगैराह कि हालत बर-अक्स (उल्टा).

दूसरी ऊक्बा की बैअत जिसमें औस और खज़रज के मुसलमानों ने रसूल्लाह (सल्ल.) को बैअत दी, के बारे में हज़रत उबैदा बिन सामित से रिवायत है: ‘‘हमने रसूल्लाह सल्ल. की बैअत की सुनने और इताअत पर, मुश्किल में और आसानी में, खुशी में और गम में, और ये के आपको अपने ऊपर तरजीह देंगे और हुकूमत के अहल से तनाज़ा नहीं करेंगे। दूसरी उकबा की बैअत पर रसूल्लाह (सल्ल.) के अपने अलफाज़: ‘‘ मैं तुमसे इस पर बैअत लेता हूं कि तुम मेरी हिफाज़त वैसे करोगे जैसे तुम अपनी औरतों और बेटों कि हिफाज़ते करते हो’’। ये नसूस इस बात की सरीह दलाइल है कि मदीना में दाखिला तौर पर अमान यानी ऑथारीटी इस्लाम और मुसलमानों को हांसिल थी। और खारिजी तौर पर भी अमान इस्लाम को हासिंल था जिसकी दलील यह मुआहिदा है जो इस्लामी रियासत ने पड़ौस के यहूदी कबाइल ये किया था। यहां इस ‘‘मिसाक़े मदिना’’ के चार अहम नुकात पेश किए जाते है:

(1) और इनमें से कोई बगैर मुहम्मद (सल्ल.) की इजाज़त के बग़ैर बाहर सफर को ना जाएगा।

(2) और मदीना शहर का मैदान इस अहद के शरीक लोगों के वास्ते हराम है (यानी इसमें वह किसी किस्म का कत्ल व फसाद बरपा न करेगें।

(3) इस अहद के शरीकों में जो इख्तिलाफ पैदा होगा जिसमें फसाद का खौफ हो, इसे अल्लाह और मुहम्मद रसूल्लाह (सल्ल.) के हुज़ूर में पेश किया जाएगा।

(4) और कुरैश और इनके मददगारों को पनाह न दी जाए. (सिरतुन्नबी इब्ने हिश्शाम)

 ये नुकात इस बात की वाज़हे दलील है कि इस्लामी रियासत के खारिजी ताल्लुक़ात की बुनियाद भी इस्लामी थी यानी मुसलमानों की क़ुव्वत के बदौलत इस्लामी ऑथोरिटी. हिजरत से कब्ल मक्का वगैराह की हक़ीक़त और हिजरत के बाद मदीना की हक़ीक़त के माबेअन इस फर्क से मालूम के दो ही ऐसे अमूर थे जिनसे मदीना दारुल इस्लाम बना:

(1) इस्लाम का ज़हूर (ग़लबा, शौकत और इक्तदार व हुकूमत) यानी वहां हाकिम का नाफीज़ करदा निज़ाम इस्लामी निज़ाम हुआ करता था।

(2) जिस अमान से मुसलमान मुस्तफीद हो रहे थे, दाखिली और खारिजी, वह उनकी जाती क़ुव्वत के सहारे पर था।

यह अम्र इस बात की काफी दलील है के कोई भी मुल्क तब तक दारुल इस्लाम नहीं बन सकता और न ही इसे दारुल इस्लाम से मोसूफ किया जा सकता है, जब तक इसमें वह ओसाफ मौजूद न हो जिन से मदीना दारुल इस्लाम बना था।

(1) इस्लाम के मुताबिक हुकुमत

(2) मुसलमानों की ज़ाति कुव्वत की बदौलत अमान। चुनांचे जो मुल्क इन दोनों शर्तों को पूरा न करता हो, वह दारुल इस्लाम नहीं हो सकता और जो मुल्क इन दो शर्तों को पूरा करता हो तो वह दारुल इस्लाम में तब्दील हो जाएगा। इसी तरह अगर दारुल इस्लाम में इन दो शराईत में से एक भी मफक़ूद (ग़ैर-मौजूद) हो जाए, तो वह मुल्क दारुल कुफ्र बन जाएगा। इसीलिए इमाम कासानी रह. कहते है: ‘‘साहिबीन (अबू युसूफ व शैबानी रह.) का कहना है कि कुफ्र के अहकाम ज़ाहिर होने पर वह (दारुल इस्लाम) दारुल कुफ्र बन जाएगा। साहिबीन के कौल की तोजीह यह है की हमारा दारुल इस्लाम और दारुल कुफ्र कहना, दार की इस्लाम और कुफ्र के साथ इज़ाफत कायम करना है, और दार की इज़ाफत इस्लाम या कुफ्र के साथ इसलिए क़ायम की जाती है कि वहां इस्लाम या कुफ्र के अहकाम ज़ाहिर हुए है, जैसे जन्नत को दारूस्सलाम (सलामती की जगह) और दोज़ख को दारुल बवार ( हलाकत की जगह) का नाम दिया जाता है। क्योंकि जन्नत में सलामती पाई जाती है और दोज़ख में हलाकत. और इस्लाम या कुफ्र का ज़हूर इस्लाम या कुफ्र के अहकाम के ज़ाहिर होने से होता है। लिहाजा जब किसी दार में कुफ्र के अहकाम ज़ाहिर हो जाए तो वह दारुल कुफ्र बन जाता है, इसलिए दार की कुफ्र के साथ इज़ाफत सही है’’।  इमाम अबू हनीफा (रह.) का कहना के अगर दारुल इस्लाम का दारुल कुफ्र से इल्हाक (मिलन) हो जाए और मुसलमानो के अमान ज़ाईल हो जाए तो दारुल इस्लाम कुफ्र में तब्दील हो जाएगा। (बदाअस्सनाइ)

चुनांचे फुक्हाए किराम (रह.) ने दार होने का दोरोमदार अहकाम का ज़ाहिर होना और अमान को करार दिया है, और दारुल इस्लाम के दारुल कुफ्र में तब्दील होने के लिए, अहकामे इस्लाम के ज़हूर या मुसलमानों के अमान में से किसी एक शर्त की ग़ैर-मौजूदगी को माना है । जहां तक इल्हाक की शर्त का ताल्लुक है तो यह ग़लत है क्योंकि दारुल इस्लाम की सरहदों का हमेशा दारुल कुफ्र से इल्हाक होगा। मगर इस अम्र (कारण) से वह जगह दारुल कुफ्र नहीं बन जाएगी। बल्कि दारुल इस्लाम ही रहेगी और इसकी दलील इजमाए सहाबा है।

जहाँ तक इन अक़वाल (कथन) का ताल्लुक है:-

(1) जिसमें मुल्क में फक़त इस्लाम के मुताबिक हुकूमत हो अगरचे ज़ाति अमान की शर्त पूरी न भी हो रही हो, तब भी वह मुल्क दारुल इस्लाम होगा।

(2) फक़त इस्लाम के बाज़ शआइर ज़ाहिर हो, ख्वाह मुकम्मल तौर पर इस्लाम के मुताबिक हुकुमत न भी हो, जब तक ज़ाति अमान हासिल है तो मुल्क दारुल इस्लाम होगा.

(3) मुल्क में ग़ालिक क़ुव्वत मुसलमानों के काबू मे हो, अगरचे वह वहाँ इस्लाम के मुताबिक न भी हुकुमत करे तो वह दारुल इस्लाम होगा

तो यह तमाम अकवाल मदीना की मज़कूरा हक़ीक़त के मुतारिज़ (टकराते) है जो इन दोनों उमूर के बग़ैर दारुल इस्लाम नहीं बना था:

(1) मुकम्मत तौर पर इस्लाम के मुताबिक हुकुमत.

(2) ज़ाति इस्लामी आमान यानी मुसलमानों की ऑथोरीटी से।

पहले और दूसरे कौल की ग़लती की वजह ये हदीस है जिसमें कहां गया के नबी करीम (सल्ल.) जब तक कोई दस्ता भेजते तो फरमते:

 ‘‘जब तुमहें कोई मस्जिद नज़र आए या आज़ान देने वाले को सुनतो तो किसी को कत्ल मन करना’’। हदीस में इस बात की दलील है के अज़ान व मस्जिद जो दोनों इस्लाम के शआईर में से है, और मुसलमान बाशिन्दों का किसी मुल्क में वजूद, इस जगह पर हमला करने की राह में रूकावट नहीं बन सकता। इनको दारुल हरब यानी दारुल कुफ्र में शुमार किया क्योंकि वहाँ की अमान रसूलुल्लाह (सल्ल.) की ओथोरिटी मे नहीं थी. चुंचे यहाँ से यह साबित है की फक़त शआइरे इस्लाम के वजूद से कोई जगह दारुल इस्लाम नहीं बन जाती और यह की मुसलामानों की ज़ाती अमान दारुल इस्लाम कि एक शर्त है. (दूसरे और) तीसरे कौल की गलती इस हदीस से साबित है : “और यह हम हुक्काम से झगड़ा न करे, (आप सल्ल. ने फरमाया) मगर इस वक्त जबकी तुम खुल्लम खुल्ला कुफ्र देखो जिसमें अल्लाह की तरफ से तुम्हारे पास वाज़ेह दलील हो”।

यह इस बात की दलील है कि अगर ग़ैर-इस्लामी क़वानीन के ज़रीये (इस्लामी) निज़ामे हुकुमत कायम हो तो हाकिम के सामने तलवार उठाना फर्ज़ है और ये इस बात की भी दलील है कि शरीयत का निफ़ाज़ दारुल इस्लाम की शरायत में से एक शर्त है और अगर यह शर्त मौजूद न हो तो जंग करना फर्ज़ हो जाता है, जो इस जगह के दारुल हरब यानी दारुल कुफ्र बन जाने की अलामत है। चुनांचे इस मौज़ूअ में इस्लाम की यही राए है क्योंकि यह बात माअरूफ है के ओलमा के अक़वाल सिर्फ उस सूरत में अहमियत रखते है जब वह किसी दलील पर मबनी हो। यह इसलिए क्योंकि अल्लाह तआला ने हमें किसी आलिम के हुक्म के इत्तेबाअ का हुक्म नहीं दिया, बल्कि हुक्मे शरई को इख्तियार करने पर मामूर किया है। अल्लाह तआला का फरमान है :

“और जिस चीज का रसूल (सल्ल.) तुमको हुक्म दे इसे ले लो और जिस चीज़ से मना करे उससे रूक जाओं”

चुनांचे सिर्फ अल्लाह तआला के अहकाम की इत्तबाअ शरअन सहीह है न के अश्खास कि इत्तबाअ। इसीलिए मसलन इमाम शोकानी (रह.) ने अपनी किताब ‘‘इरशादुल फहुल” में मुजतहिद की बला दलील राय कि मज़म्मत की है और इसके अपने इस अमल की वजह से, इसे शारेह की जगह लेने का कसूरवार ठहराया है. और अगर बिल फर्ज़ ये मान भी लिया जाएग के कि मज़कूरा तीन अकवाल दलील पर मबनी हैं तो अमल के वास्ते, पीछे गुज़रे हुए तमाम अकवाल में से, इजामऐं सहाबा की दलील के मुताबिक, किसी एक को तरजीह देना होगी. चूंकि मकसद हुक्मे शरई को जानना है ताकि इस पर अमल हो सके, इसलिए ये तरजीह शरई दलील की क़ुव्वत की बुनियाद पर होगी। क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है:

‘‘और अगर तुम लोग आपस में किसी चीज़ में इख्तिलाफ करो तो उसे अल्लाह और रसूल्लाह सल्ल. की तरफ लोटाओं”

चुनांचे मुसलमानों के किसी मुआमले में इख्तिलाफ की सूरत में इसे अल्लाह का कलाम (कुरान) की तरफ लोटाया जाएगा या इसके रसूल्लाह (सल्ल.) की सुन्नत की तरफ, यानी शरई दलील की जानिब.  इसलिए हर शख्स के लिए जब उसके सामने शरई दलील की क़ुव्वत जाहिर हो जाए, ये वाजिब होगा के वह इस पर मबनी राजेअ कौल को इख्तियार और इस पर अमल करें।

खुलासा यह है जब किसी मुल्क में इस्लामी निज़ाम (अहकाम का मजमूआ) नाफिज़ हो और वहां कि अमान मुसलमानों की क़ुव्वत से हो तो वह मुल्क दारुल इस्लाम बन जाएगा और जहां ये दोनां शर्ते या इनमें से एक मफकूद हो तो वह मुल्क दारुल कुफ्र कहलाएगा, अगरचे वहां की अक्सरीयत मुसलमानों की हो। मज़कूरा शरई दलाइल की रोशनी में इस मौज़ूअ में यही इस्लाम का मौकूफ है। बिला शुबा आज इस्लामी मुमालिक में कुफ्र के अहकाम का ज़हूर हो रहा है यानी मग़रिबी कुफ्रिया निज़ामों का निफाज़, ख्वाह इनका ताल्लुक हुकूमती निज़ाम से हो या मइशत से, तालीमी पॉलिसी से हो या अदालती निज़ाम से या फिर खारिजी पॉलिसी वग़ैराह से । इसलिए इन मुमालिक पर ‘‘दारुल कुफ्र’’ का इतलाक़ होगा अगरचे वहां कि अकसरियत मुसलमानों की है क्योंकि इसका ‘‘दार’’ के मसले से कोई ताल्लुक नहीं बल्कि इस्लाम ने ‘‘निज़ाम’’ और ‘‘अमान’’ को इसका मियार बनाया है। चुनांचे इसी बुनियाद पर वहां तब्दीली लाने का काम होना चाहिए। यानी दारुल कुफ्र को दारुल इस्लाम से तब्दील करने का वह तरीका जो हमें इस्लाम ने बताया है। यह तरीक़ा रसूल्लाह (सल्ल.) का तरीक़ा है।
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