दुनिया के तीन मबादी (आयडियोलोजीज़)
इस वक्त जब हम पूरी दुनिया पर नज़र डालते हैं तो हमें सिर्फ तीन मबादी (ideologies) नज़र आते है। सरमायादारियत (Capitalism-पूंजीवादी व्यवस्था), इश्तिराकियत (Communism-समाजवाद), और तीसरा मब्दा इस्लाम है। पहले दोनोंे मबादी की हामिल कोई एक या एक से ज्यादा ममलिकतें दुनियाँ में मौजूद हंै। लेकिन तीसरे मब्दा की हामिल कोई ममलिकत इस वक्त कुर्र-ए-अर्ज़ पर मौजूद नहीं। अलबत्ता मुख्तलिफ अकवाम के अंदर इस के हामिल और अलमबरदार अफराद मौजूद हैं। चुनाँचे इस अन्दाज में यह मब्दा पूरे कुर्र-ए-अर्ज़ पर मौजूद है।
मबादी के होन की बुनियादी वजह
जहाँ तक सरमायदारियत का तआल्लुक़ है तो यह दीन के ज़िन्दगी से जुदा होने पर क़ायम की बुनियाद पर क़ायम है। यही फिक्र इसका अक़ीदा है और यही इस की फिक्री क़ियादत (intellecuatual leadership-قياده فكريه) और फिक्री क़ायदा (intellectual basis - قاعده افكريه) है इस फिकरी क़ायदे के मुताबिक़ ज़िन्दगी के लिए निज़ाम वज़अ करने का काम सिर्फ इंसान का है और इसकी रू से इंसान के लिए लाज़िम है की वोह हुर्रियतों (आजादियों-freedoms) की हिफाज़त करे। और वह हुर्रियत यह है:
(1) आज़ादिऐ अक़ीदा,
(2) आज़ादिऐ राय,
(3) आज़ादिऐ मिल्कियत, और
(4) आज़ादिऐ शख्सियत
चुनाँचे आज़ादिऐ मिल्कियत ही से सरमायादाराना निज़ाम वुजूद में आया। इस मब्दा (ideology) की नुमायातरीन चीज़ सिर्फ और सिर्फ सरमायादारियत है और यही वह वाज़ेह तरीन चीज़ है जो इस मब्दा के अक़ीदे से पैदा होती है। चुनाँचे इस उसूल के तहत कि ‘‘किसी चीज़ का नाम उसकी नुमायातरीन जड़ या हिस्से से रखा जाता है’’। इस मब्दा का नाम सरमायादारियत रखा गया।
जहाँ तक जम्हूरियत की बात है, जिसे इस मब्दा ने इख्तियार कर रखा है तो यह आयडियेलोजी के उस पहलू से पैदा होती है की इंसान को खुद अपने लिए निज़ाम वज़अ करने का हक़ है, इस लिए अवाम ही ताक़त का सरचश्मा हैं। वोही अपनी हुकूमत चलाने के लिए तनखादार हाकिम हाकिम मुकर्र करते हंै और जब चाहते हंै उन से हुकूमत छीन लेेते हैं। अवाम अपने लिए जिस तरह का क़ानून चाहते है उन से नाफिज़ करवा लेते हंै। क्योंकि हुक्मरानी करना अवाम और हाकिम के माबेन एक तरह का ‘अक़दे मुलाज़मत’ (contract of employment) होता है। इसलिए हाकिम सिर्फ उस निज़ाम के मुताबिक़ हुकूमत करता है जिसे अवाम उस के लिए वज़अ करते हैं।
जम्हूरियत अगरचे इस मब्दा (ideology) से है लेकिन वह इस मब्दा में इक़तिसादी निज़ाम से ज्यादा नुमायाँ नहीं। इसकी दलील यह है कि मग़रिब में सरमायादाराना निज़ाम ही हुक्मरानी पर असरअंदाज है। इस हद तक की उन मुमालिक में, जहॉ सरमायादाराना आयडियोलोजी को इख्तियार किया गया है, वहॉ हक़ीक़ी हाकिम सरमायादार ही होते हैं। इस के अलावा जम्हूरियत इस मब्दा के साथ खास भी नहीं क्योंकि इश्तिराकी भी जम्हूरियत के दावेदार हैं और वह भी यह कहक़र धोखा देते हंै कि हुक्मरानी अवाम की है। चुनाँचे इस मब्दा को सरमायादाराना मब्दा कहना ही दुरुस्त है।
यह मब्दा (आयडियोलोजी) का आगाज़ वहाँ से शुरू हुआ जब यूरोप और रूस के बादशाह और फरमारवा अवाम के इस्तेहसाल (शोषण), उन पर जुल्म ढाने और उन का खून चूसने के लिए दीन को ज़रिए के तौर पर इस्तेमाल करते थे। इस काम के लिए वह मज़हबी लोगों को आलाकार के तौर पर इस्तेमाल किया करते थे जिसके नतीजे मे एक खौफनाक किस्म कशमकश और तसादुम बरपा हो गया। इस दौरान ऐसे फिलासफर और मुफक्किर (thinkers) पैदा हुए जिन्होंने सिरे से दीन (धर्म) का ही इंकार कर दिया। इन में से कुछ लोग अगरचे दीन के एतराफ करते थे, लेकिन वह दीन को दुनयवी उमूर (सन्सारिक़ क्रिया-कलापों) से अलग करने के क़ायल थे। यहाँ तक कि अकसर फिलासफर और मुफक्केरीन इस राय पर मुत्तफिक हो गए कि दीन को ज़िन्दगी से अलग कर दिया जाना चाहिए। इस का तबइ नतीजा यह निकला की दीन को रियासत से भी अलग कर दिये जाने का नुक़ता-ए-नज़र पैदा हो गया। उन के नज़दीक यह राय पुख्ता हो गई कि मज़हब के एतेराफ या उस के इन्कार की बहस में पड़ना ही नहीं चाहिए और बात सिर्फ इस नुक्ते तक महदूद हो गई कि दीन को ज़िन्दगी से जुदा कर देना बहरहाल ज़रूरी है। फिर यह फिक्र उन मज़हबी लोगो के, जो हर चीज़ को दीन के नाम पर अपने मातहत रखना चाहते थे, और उन फिलासफर और अरबाबे फिक्र के, जो दीन और मज़हबी लोगो के ग़लबे और हुकूमत के मुनकिर थे, माबेन एक दरमियानी हल “हले वस्त या समझौता” करार पाई। इस तरह इसके बाद में आने वाले गिरोहों ने मज़हब के इन्कार पर इसरार करना छोड़ दिया। लेकिन तय करा दिया कि ज़िन्दगी में इसका कोई अमल दखल नहीं होगा। चुनाँचे इस तरह अखिरकार मज़हब को ज़िन्दगी से जुदा कर दिया गया। पस वह अक़ीदा जिस को पूरे मग़रिब ने क़ुबूल कर रखा है, वह यही दीन का दुनियाँ से जुदा होने का अक़ीदा (सिध्दांत) है। यही अक़ीदा वह फिक्री बुनियाद है, जिस पर उस के तमाम अफकार क़ायम हैं। यही अक़ीदा उस बुनियाद का ताय्युन करता है जिस पर इंसान की फिकरी सिम्त (दिशा) इस्तेवार होती है और मआशरे और ज़िन्दगी के बारे में इन्सान के नुक़्ता-ऐ-नज़र का तआय्युन होता है और इसी की बुनियाद पर ज़िन्दगी की तमाम मुशकिलात हल की जाती हैं। यह ही वह फिक्री क़ियादत है, जिसका मग़रिब अलमबरदार है और इसी की तरफ पूरी दुनिया को दावत दे रहा है।
ज़िन्दगी के मैदान से दीन के अलग होने के अक़ीदे में जिम्नी (आंशिक) तौर पर यह एतेराफ (सहमती) पाया जाता है कि दीन नामी कोई चीज़ मौजूद है। यानी कायनात, हयात, इंसान और कियामत के दिन का वुजूद है। क्योंकि दीन दरअसल इसी चीज़ का नाम है। यह एतेराफ ही इस कायनात, इंसान, हयात के दुनियावी ज़िन्दगी से कब्ल और बाद से तआल्लुक़ को एक फिक्र की शक्ल देता है। सरमायादाराना फिक्री क़ियादत दीन (धर्म) के वुजूद का इन्कार नहींे करती, जब वोह दीन को दुनियावी ज़िन्दगी से अलग करने की बात करती है तो यह दीन (धर्म) का ज़िम्नी (आन्शिक रुप से) इसका एतेराफ करती है, गोया की जब दीन के वुजूद का एतेराफ करती है तो उसके साथ यह फिक्र भी देेती है कि दुनियावी ज़िन्दगी का अपने कब्ल (पूर्व) और बाद से कोई तआल्लुक़ नहीं। दीन पर मुश्तमिल ज़िन्दगी का भी दुनियाँ से कोई ताअल्लुक़ नहीं, बल्कि दीन सिर्फ फर्द और उसके ख़ालिक़ के दरमियान तआल्लुक़ है। चुनाँचे यह “दुनयवी उमूर से दीन की जुदाइ” का अक़ीदा अपने जामे मफहूम के साथ कायनात, हयात और इंसान के बारे में एक हमागीर कुल्ली फिक्र बन गया है। इस से मालूम होता है कि सरमायादाराना आयडियोलोजी, जिस तौर पर कि हमने इसे बयान किया, दूसरे आयडियोलोजीज़ की तरह एक मुस्तक़िल आयडियोलोजी है।
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