दुनिया की तीन विचारधाराऐ: भाग - 2 - समाजवाद

इशतिराकि मब्दा
(Communist Ideology
)


जहाँ तक इश्तिराक़ियत का तआल्लुक़ है, जिस से कम्यूनिज्म भी पैदा हुआ, तो उसका नज़रिया यह है कि कायनात, इंसान और हयात सिर्फ माद्दा (matter) है और वह माद्दा ही तमाम अशिया की बुनियाद है। इसी के इरतिका (evolution) से अशिया वुजूद में आती हंै। माद्दे के अलावा कोई दूसरी चीज़ है ही नहीं। यह ही माद्दा अज़ली (eternal) और कदीम (pre-existent) है, किसी ने इस को वुजूद नहीं बख्शा (indispensible - واجب الوجود)। यानी यह किसी की मख़लूक़ (creation) नहीं। यह ही वजह है कि इश्तिराक़ी अशिया के किसी ख़ालिक़ (creator) के मखलूक होने का इंकार करते हैं। दूसरे लफ्जों में वह अशिया के रूहानी पहलू (spiritual aspect) का इंकार करते हैं। बल्कि वह इस के एतेराफ को ज़िन्दगी के लिए एक खतरा समझते हैं। चुनाँचे वह दीन (धर्म) को अकवाम के लिए अफीम करार देते हंै, जो उन्हेे मदहोश करके अमल से रोकती है। इनके नजदीक माद्दे के सिवा किसी दूसरी चीज़ का कोई वुजूद नहीं। हत्ता के वह फिक्र (thought) को भी दिमाग पर माद्दे का अक्स ही करार देते हैं। इसी बुनियाद पर वह माद्दे को ‘‘असिलुल फिक्र’’ (originator of thought) कहते हैं। उनके नज़दीक माद्दा ही अशिया की असल बुनियाद है जिस के इरतिका से आशिया वुजूदपज़ीर होता हंै। इसी बुनियाद पर वह ख़ालिक़ के वुजूद का इंकार करते है, और माद्दे को अज़ली (eternal) ख्याल करते हैं। चुनाँचे वह माकब्ल अज़-हयात और माबाद अज़-हयात का इंकार करते हंै और सिर्फ दुनियावी ज़िन्दगी पर यकीन रखते हैं। बावुजूद यह कि दोनों मबादी (ideologies) इंसान, कायनात और हयात के बारे में बुनियादी इख्तिलाफ रखती हैं, लेकिन इस बात पर मुत्तफिक़ है कि इंसान के लिए बलंदो-बरतर अक़दार (values) के पैमाने वज़अ करना इंसान का अपना काम है, और खुशी का तस्व्वुर उन के नज़दीक़ यह है “जिस्मानी’’ लज्ज़तो को ज्यादा से ज्यादा पूरा किया जाए। यही खुशी हासिल करने का ज़रिया है बल्कि खुशी बज़ाते खुद इसी चीज़ का नाम है। यह दोनों इस बात पर भी मुत्तफिक़ हैं कि इंसान को शख्सी आज़ादी देनी चाहिए, ताकि इंसान जिस चीज़ में अपनी सआदत समझे, उस में अपनी ख्वाहिश और इरादे के मुताबिक़, जैसे चाहे इस्तेमाल करे। यह ही वजह है कि ज़ाती तरज़े-अमल या शख्सी आज़ादी को इन दोनो आयडियोलोजीज़ में मुकद्दस माना गया है।

दोनों मबादी फर्द और मुआशरा के बारे में इख्तिलाफ रखती हैं। चुनाँचे सरमायादारियत (capitalism) इनफिरादियत (individualism) का नज़रिया पेश करती है। इसका खयाल है कि मुआशरा अफराद से मिलकर बनता है। यह मुआशरे को सानवी दरज़ा और असल एहमियत फर्द को देती है। यही वजह है कि यह फर्द की आज़ादियों की हिफाजत को लाज़िम करार देती है। इस के नतीजे के तौर पर इस मब्दा में, जिस तरह अक़ीदे की आजादी मुक़द्दस है, उसी तरह इक़तिसादी आजादी भी मुक़द्दस है। इस फलसफे की रूह से फर्द पर किसी किस्म की पाबांदी नहीं होना चाहिए। अगरचे आज़ादीयों की ज़मानत मुहय्या करने के लिए रियासत की जानिब से फर्द पर बाज़ पाबन्दियाँ आइद की जाती है और इन पाबंदियों को रियासत सिपाही की क़ुव्वत और क़ानून के ज़ोर पर नाफिज़ करती हैं, लेकिन इसके नजदीक रियासत की हैसियत एक ज़रीये की सी है, ना कि ग़ायत और मक़सूद (objective) की। क्योंकि इक़तिदारे आला बिलआखिर अफराद के पास होता है और रियासत इसकी मालिक नहीं होती। लिहाज़ा समायादारियत जिस फिक्री क़ियादत (intellectual leadership) की अलमबरदार है, वह दीन (धर्म) का दुनियावी ज़िन्दगी से अलग किया जाना है। इस फिकरी क़यादत को बुनियाद बनाते हुए सरमायादारियत अपने निज़ामो को नाफिज़ करती है, उसी की तरफ वह दावत देती और उसी को वह हर जगह नाफिज़ करना चाहती है।इश्तिराकियत, जिस में कम्यूनिज्म भी शामिल है, की राय यह है कि मुआशरा एक ऐसा उमूमी मजमुआ है, जो इंसानो और उन के फितरत के साथ तआल्लुक़ात मुश्तमिल है। यह तआल्लुक़ात हतमी और मुतय्यन होते हैं, और इन के सामने इंसानो को हतमी और मेकानिकी (mechanic) अंदाज में झुकना पड़ता है। यह सबका सब मजमुआ (फितरत, इंसान और तआल्लुक़ात) एक ही इकाइ से है और यह एक मजमुआ है कि जिसके अजज़ा एक दूसरे से अलग अलग नहीं है। फितरत इन्सान की शख्सियत का एक हिस्सा है जिसे इंसान अपनी ज़ात में उठाए हुए है। इस लिहाज़ इंसान जब भी तरक्की करता है तो वह अपनी शख्सियत के इस पहलू यानी फितरत से चिमटा हुआ होता है। क्यांेकि फितरत के साथ इंसान का तआल्लुक़ जैसे किसी शैय का अपने साथ ताल्लुक़। चुनाचे वह पूरे मुआशरे को एक ‘‘मजमुआए वाहिद’’ (one unit) गरदाना जाता है, जिसके तमाम पहलू एक साथ मिलकर तरक्की करते हैं। फर्द मुआशरे का ताबे होकर इस तरह गरदिश करता है जिस तरह पहिये के तार साथ पहिये के साथ गरदिश करते है। इसलिए उन के नज़दीक फर्द के लिए अक़ीदे की आज़ादी (freedom of religion) या इक़तिसादी आजादि (economic freedom) का कोई वजूद नहीं। क्योकी अक़ीदा भी रियासत के मर्ज़ी के साथ मुक़य्यद है और इक़तिसाद भी। इसलिए इस मब्दा मंे रियासत को मुक़द्दस समझा जाता है। इसी माद्दी फलसफे से निज़ामे हयात (system of life) फूटते और इकतिसादी निज़ाम (economic system) को तमाम निज़ामो की असास (basis) करार दिया जाता है और तमाम निज़ामहाए हयात के लिए इसको ‘‘मुज़हिरे आम’’ समझा जाता है। लिहाज़ा वह इश्तिराक़ी मब्दा, जिस में कम्यूनिज्म भी है, जिस फिक्री क़ियादत का हामिल है वह माद्दियत (materialism) और माद्दी तरक्की और इरतिका (materialistic evolution) ही है। इस माद्दियत की असास पर वह अपने निज़ामे हयात के मुताबिक़ हुकूमत करता है, इसी की तरफ वह दावत देता है और इसी को हर जगह नाफिज़ करने के लिए कोशाँ है।

(....................मज़मून आगे जारी)
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1 comments :

दिनेशराय द्विवेदी said...

बहुत ही सुंदर विवेचना की है। भारतीय दर्शनों में एक सांख्य की आदि मान्यता भी यही थी।
अचेतनम् प्रधानम् स्वतंत्रम् जगतः कारणम्!
अचेतन (प्रधान) आदि पदार्थ ही स्वतंत्र रूप से जगत का कारण है।

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