ख़लीफा
दफा नं. 24: ख़लीफा ही इख्तियार और शरीअत के निफाज़ मे उम्मत का नुमाइन्दा होता है।
दफा नं. 25: िखलाफत बाहमी रज़ामंदी व इख्तियार का अक्द है। लिहाज़ा किसी को िखलाफत क़ुबूल करने या ख़लीफा के इंतेखाब पर मजबूर नहीं किया जाऐगा।
दफा नं. 26: हर आक़िल और बालिग़ मुसलमान को, चाहे वोह मर्द हो या औरत, ख़लीफा के इंतखाब में हिस्सा लेने और ख़लीफा की बैत करने का हक़ हासिल है, लेकिन ग़ैर-मुस्लिमों को इन्तखाब या ख़लीफा की बैअत का कोई हक़ हासिल नहीं।
दफा नं. 27: जिन लोगों की बैअत से खिलाफत का इनअक़ाद होता है अगर वोह लोग बतौरे खलीफा किसी एक शख्स की बैअत करेें तो बाकी लोगोें की तरफ से दी जाने वाली बैअते इताअत होगी, न कि बैअते इनअक़ाद। चुनाँचे जिस शख्स के अंदर सरकशी के इमकानात नज़र आये और वोह मुसलमानो की वहदत तोडने की कोशिश करे तो उसे बैअत पर मजबूर किया जाऐगा।
दफा नं. 28: सिर्फ वही शख्स ख़लीफा हो सकता है जिसे मुसलमान मुन्तखिब करें। किसी भी शख्स को ख़लीफा के इख्तियारात उस वक्त हासिल होगे जब दूसरे शरई उक़ूद (contracts) की तरह उसकी बैअत का अक्द (contract) शरई तौर पर मुकम्मल हो जाऐ।
दफा नं. 29: वह मुल्क या खित्ता जो ख़लीफा के हाथ पर बैअते इनअक़ाद करे, के लिये शर्त है कि उस मुल्क का इक़तिदार उस का अपना हो, जिस का इन्हेसार सिर्फ मुस्लमानों पर हो और किसी काफिर रियासत का उस इक़तिदार में कोई अमल दखल ना हो और उस मुल्क की दाखिली और खारिजी अमान और मुसलमानों की अमनो सलामती इस्लाम की वजह से हो, ना कि कुफ्र के बल बूते पर। जो इलाक़े सिर्फ ख़लीफा की इताअत की बैअत करें उनके लिये यह शर्त लाज़मी नहीं।
दफा नं. 30: ख़लीफा के तौर पर जिस शख्स की बैअत की जा रही हो, उसके अंदर इनअक़ादे िखलाफत की तमाम शरायत होनी लाज़मी है। अगरचे उसके अंदर शुरूते अफज़लियत न भी हो, क्योंकि बुनियादी चीज़ शुरूते इनअक़ाद है।
दफा नं. 31: ख़लीफा के लिये 7 शरायत है और वोह यह है :
वोह मर्द हो, मुसलमान हो, आज़ाद हो, बालिग़ हो, आक़िल हो, आदिल हो, और वोह ख़िलाफत की ज़िम्मेदारी से ओहदाबरा होने के क़बिल हो।
दफा नं. 32: अगर ख़लीफा की मौत, उसके माज़ूल होने या माज़ूल किये जाने की वजह से मंसबे िखलाफत खाली हो जाऐ तो जिस तारीख को यह मंसब खाली हो उसके तीन दिन (बशमूल उन की रातों) के अंदर-अंदर दूसरा ख़लीफा मुकर्र करना फर्ज़ है।
दफा नं. 33: (नये ख़लीफा के तकरूर के सिलसिले में) उबूरी अमीर का तक़र्रुर किया जायेगा जो मुसलमानो के उमूर की देखभाल करे और मंसबे खिलाफत के खाली होने के बाद नये खलीफा के तक़र्रुर के अमल का आग़ाज़ करे, जो के यह होगा:
(1) सबिक़ ख़लीफा जब यह महसूस करे उस की मौत का वक्त क़रीब है या वोह इस्तिफा देना चाहता हो, तो उस सूरत में उसे हक़ हासिल है की वोह उबूरी अमीर का तक़र्रुर करे।
(1)
(2) अगर उबूरी अमीर के तक़र्रुर से क़ब्ल खलीफा का इंतेक़ाल हो जाऐ या वोह इस्तीफा दे दे या खलीफा के इंतक़ाल या इस्तीफा के अलावा किसी और वजह से मंसबे खिलाफत खाली हो जाऐ तो वोह मआविन (secretary) जो मआविनीन में से सब से उम्र रसीदा होगा, वोह उबूरी अमीर होगा, मासिवाऐ यह की वोह मआविन बज़ाते खुद खिलाफत का उम्मीदवार हो। ऐसी सूरत में वोह मआविन उबूरी अमीर होगा जो उम्र में उस से कम हो, अलल हज़ल क़यास।
(3) अगर तमाम मआविनीन खिलाफत के उम्मीदवार हों तो फिर वुज़राऐ तनफीज़ में से सब से उमर रसीदा मआविन उबूरी अमीर होगा अलल हज़ल क़यास।
(4) अगर तमामतर वुज़राऐ तनफीज़ खिलाफत के उम्मीदवार हो, तो वुज़राऐ तनफीज़ में से सब से कम उम्र वज़ीर उबूरी अमीर होगा।
(5) उबूरी अमीर को अहकामात की तबन्नी का इख्तियार हासिल नहीं होगा।
(6) उबूरी अमीर अपनी पूरी कोशिश सर्फ करेगा की वोह खलीफा के तक़र्रुर के अमल तीन दिन के अन्दर-अन्दर मुकम्म्ल करे।
(7) इस मुद्दत की तोसीअ की इजाज़त नहीं, मासिवाऐ यह की महकमाऐ मज़ालिम किसी शदीद सबब की बिना पर इस मुद्दत में तोसीअ कर दे।
दफा नं. 34: खलीफा के तक़र्रुर का तरीक़ा बैत है। खलीफा की तक़र्रुरी और उसे बैत देने का अमली तरीक़ा यह है:
(1) महकमातुल मज़ालिम (Court of Unjust Acts) मंसबे खिलाफत के खाली होने का ऐलान करेगा।
(2) उबूरी अमीर अपनी ज़िम्मेदारी सम्भालेगा और फौरी तौर पर नाम ज़दगियों के खुलने का ऐलान करेगा।
(3) वोह नाम ज़दगिया क़ुबूल कि जाऐगीं जो इनेक़ादे खिलाफत की शराइत पर पूरी उतरती हो। इस के अलावा पेश की जाने वाली नाम ज़दगियां महकमातुल मज़ालिम के फैसले कि बिना पर मुस्तरद कर दी जाऐगीं।
(4) वोह उम्मीदवार जिन की दरखव्वास्तों को महकमातुल मज़ालिम ने क़ुबूर किया, मजलिसे उम्मत (Ummah Council) के मुसलमान रुकन () इन उम्मीद्वारों की फेहरिस्त को दो मरतबा मुख्तसर करेगें। पहले इख्तिसार में वोह अक्सिरियती वोट कि बुनियाद पर छ: जोगों का इन्तेखाब करेगें। दूसरे इख्तिसार में वोह अक्सिरियती वोट की बुनियाद पर दो उम्मीद्वारों का इंतेखाब करेगें।
(5) उन उम्मीद्बारों के नाम का एलान किया जाऐगा और मुसलमानो को उन दो में से एक का इंतिखाब करना होगा।
(6) इस इंतेखाब के नतीजे का ऐलान किया जाऐगा और लोगों को आगाह किया जायगा कि दोनो में से किसे ज्यादा लोगों के वोट हासिल हुए है।
(7) वोह शख्स जिसे ज्यादा वोट हासिल हुऐ है, मुसलमान उसे क़ुरआन व सुन्नत पर अमल पर वैत देगें।
(8) बैत के मुकम्मल होने के बाद अवामुन्नास के लिये इस बात का ऐलान किया जायेगा की कौन मुसलमानो का खलीफा है यहां तक के यह ख़बर पूरे मुसलमानो तक पहुंच जाऐ और इस खबर में खलीफा के नाम का और उन शरायत का ऐलान किया जायेगा जिन्होने उसे इस बात का अहल बनाया की उस की खिलाफत का इनेक़ाद किया गया।
(9) नऐ खलीफा की तनसीब के अमल के मुकम्मल होने के बाद उबूरी अमीर की अथोरिटी इख्तिताम को पहुंचेगी।
दफा नं. 35: ख़लीफा के तक़र्रुर का इख्तियार उम्मत को हासिल है। लेकिन जब शरई तरीक़े से ख़लीफा का इन्तिखाब हो जाऐ तो फिर उम्मत उसे माज़ूल नहीं कर सकती।
दफा नं. 36: ख़लीफा के पास दर्ज़ ज़ेल इिख्तयारात होते है:
(1) ख़लीफा ही उन अहकामात की तबन्नी (यानी अहकामात को इख्तियार) करता है, जो लोगों के उमूर की देखभाल के लिऐ ज़रूरी हो, और यह तबन्नी किताबो सुन्नत से सही इजतिहाद के ज़रिये मुसतन्बित करदा अहकामात की होती है तकी यह आहकामात क़वानीन बन जाये। इन क़वानीन पर अमल फर्ज़ होता है। इनकी मुख़ालिफत जायज़ नहीं।
(2) ख़लीफा ही रियासत की खारजी (external) और दािखली (internal) पालिसी के बारे में जवाबदेह होता है। वोह ही फौज का सरबराह होता है। वो ही ऐलाने जंग, सुलाह या जंग बंदी का ऐलान कर सकता है और तमाम मुआहिदात का इख्तियार उसी को हासिल होता है।
(3) ख़लीफा ही बैरूनी सफीरों को क़ुबूल या मुसतरद कर सकता है। इसी तरह वोह मुसलमान सुफारा को मुकर्रर या माज़ूल कर सकता है।
(4) ख़लीफा ही मुआविनीन और वालियों का तक़रुर या उन्हे सुबकदोश (dismiss) कर सकता है, जिस तरह वोह मजलिसे उम्मत (शूरा) के सामने जवाबदेह होते है, उसी तरह ख़लीफा के सामने भी जवाबदेह होते है।
(5) ख़लीफा ही क़ाज़ीउलकज़ात (Chief Judge), और दिगर क़ाज़ियों को मुकर्रर या माज़ूल कर सकता है ताहम एक सूरत में खलीफा क़ाज़ी मज़ालिम (Judge of Court of Unjust Acts) को माज़ूल नहीं कर सकता जब वोह खलीफा या मआविन या क़ाज़ीउलक़ज़ात के खिलाफ केस का जाइज़ा ले रहा हो। इसी तरह खलीफा ही मुख्तलिफ शोबों के डारेक्टरों, फौज के कमांडरों और सूबों के वालियों को मुक़र्रर या माज़ूल कर सकता है। यह सब ख़लीफा के सामने जवाबदेह होते है। यह मजलिसे उम्मत (शूरा) के सामने जवाबदेह नहीं होते।
(6) ख़लीफा ही रियासत के बजट के मुताल्लिक़ आहकामे शरीअत की तबन्नी का इख्तियार रखता है और वो ही बजट की मद्दात और आमद व खर्च से मुताल्लिक़ा रक़मों का तअय्युन भी करता है।
दफा नं. 37: ख़लीफा क़वानीन की तबन्नी में अहकामे शरीअत का पाबंद होता है, चुनाँचे किसी ऐसे हुक्म की तबन्नी करना उसके लिये हराम है जिसका उसने अदिल्लाऐ शरीआ से सहीह तौर पर इस्तिंबात न किया हो। वो अपने तबन्नी किये हुए आहकामात और तरीकाऐ इस्तिंबात का भी पाबंद है। चुनाँचे उसके लिये जायज़ नहीं कि वोह किसी ऐसे हुक्म की तबन्नी करे जिसका इस्तिंबात का तरीका उस तरीक़े से मुतनाक़िज़ हो जिसे खलीफा तबन्नी कर चुका है, और ही उस के लिये जायज़ है की वोह कोई ऐसा हुक्म दे जो उसके तबन्नी करदा अहकामता से मुतनाकिज़ हो।
दफा नं. 38: ख़लीफा को अपनी सवाबदीद और अपने इज्तिहाद के मुताबिक़ लोगों के उमूर की देखभाल करने का मुकम्मल हक़ हासिल है और उसे उन मुबाहात की तबन्नी करने का हक़ भी हासिल है जो रियासत के मुआमलात को चलाने और लोगों के उमूर की देखभाल को आसान बनाने के लिये दरकार हों। ताहम उसके लिये यह जायज़ नहीं कि वोह मसलेहत को दलील बना कर किसी हुक्मेशराई की मुख़ालिफत करे। मसलन उस के लिये जायज़ नहीं की वोह ग़िज़ाई क़िल्लत को दलील बना कर लोगों के कसरे औलाद से मना करे या वोह इस्तिेहसाल को रोकने के नाम पर यानी उस को को दलील बना कर लोगों के लिये अशियाऐं सर्फ की कीमतें मुक़र्रर करे, या वोह लोगों के उमूर की देखभाल या मसलिहत को दलील बना कर किसी काफिर या औरत को वाली मुक़र्रर करे। इसके अलावा उसे किसी भी हालात में आहकामे शरीआ की मुखलिफत करने की इजाज़त नहीं है। किसी हलाल को हराम या किसी हराम को हलाल करार देना उसके लये जायज़ नहीं।
दफा नं. 39: ख़लीफा के लिये कोई महदूद मुद्दत मुक़र्रर नहीं है। जब तक वोह शरह की हिफाज़त, शरई अहकामात की तनफीज और रियासत के मुआमलात को चलाने पर क़ादिर है, वोह ख़लीफा है, जब तक की उसकी हालत में कोई ऐसी तबदीली रोनुमा हो जाऐ जो उसे मनसबे खिलाफत से खारिज कर दे। पस जब उस की हालत में कोई ऐसी तब्दीली वाके हो जाये तो फौरन उसे माज़ूल करना फर्ज़ हो जाता है।
दफा नं. 40: वोह उमूर, जिनकी वजह से ख़लीफा की हालत बदल जाती है और वोह मंसबे ख़िलाफत का ऐहल नहीं रहता, वोह यह तीन उमूर है :
(1) जब इनअक़ादे िखलाफत की शरायत में से कोई शर्त मफक़ूद हो जाऐ। जैसे मुर्तद होना, खलीफा से फिस्क़ का ज़हूर होना, मजनून होना या इसी किस्म की कोई दूसरी सूरत पेश आऐ। क्योंकि यह तमाम शरायत खलीफा के इनअक़ाद की शरायत भी है और खिलाफत के दवाम की शरायत भी है।
(2) खलीफा किसी भी सबब से ख़िलाफत के फराइज़ की अंजाम देही से आजिज़ हो जाऐ।
(3) वोह इस क़दर मग़लूब हो जाऐ कि अपनी राय से शरीअत के मुआफिक मुसलमानों के मफादात की हिफाज़त न कर सके। पस जब उस पर कोई इस हद तक ग़ालिब आ जाये कि वोह आहकामे शरा की रौशनी में बजाते खुद अपने इख्तियार और इरादे से अपनी राय के मुताबिक़ रिआया के मफादात की निगरानी करने से आजिज़ हो जाऐ तो उसे हुक्मन फराइज़े िखलाफत की आदाइगी से आजिज़ समझा जाऐगा। ऐसी सूरत में वोह इस मंसब का अहल नहीं रहता। इसकी दो सूरते हो सकती है:
पहली सूरत : इसके हािशया बरदारों में से कोई एक फर्द या एक से ज़ायद अफराद उस पर इस तरह मुसल्लत हो जाऐ कि उस पर अपनी राय ठूस दें। इस सूरत में अगर इन लोगोंे से छुटकारा पाने की उम्मीद हो तो उसे एक मुअय्यना मुद्दत तक मोहलत दी जाऐगी। फिर अगर वोह इन से जान छुड़ाने में कामयाब न हो सके तो उसे माज़ूल किया जाऐगा। अगर शुरू ही से छुटकारा पाने की उम्मीद न हो तो उसी वक्त माज़ूल किया जाऐगा।
दूसरी सूरत : वोह किसी ज़बरदस्त दुश्मन के हाथों गिरफ्तार हो जाये। यह गिरफ्तारी चाहे बिल फेल हो या वोह दुशमन खलीफा पर तसल्लुत हासिल करले। इस सूरत में अगर बच निकलने की उम्मीद हो तो उसे मोहल्लत दी जाऐगी वरना उसके माज़ूल किया जाऐगा। अगर शुरू ही से खल्लासी की कोई उम्मीद न हो तो खलीफा को फौरन माज़ूल किया जाएगा।
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