ख़िलाफत का संविधान: भाग - 4: मुआविने तफवीज़



मुआविने तफवीज़

(Delegated Assistant)

दफा नं. 42: ख़लीफा अपने लिये मुआविने तफवीज़ मुकर्रर करेगा, जो हुक्मरानी की ज़िम्मेदारी उठाऐगा। पस खलीफा उसे अपनी राय के मुताबिक़ उमूर की तदबीर करने और अपने इज्तिहाद के मुताबिक़ मुआमलात निपटाने की जिम्मेदारी उन्हें सौंपेगा।

जब खलीफा का इंतक़ाल हो जाता है तो मुआविने तफवीज़ की ज़िम्मेदारी भी खत्म हो जाती है। वोह उबूरी दौर के इख्तिताम तक अपनी ज़िम्मेदारी क़ायम रखते हैं, यहां तक के उबूरी अमीर का दौर अपने इख्तिताम को पहुंच जाये।

दफा नं. 43: मुआविने तफवीज़ के लिये भी वोह ही शराइत होगी जो ख़लीफा के लिये है। यानी एक आजाद, आक़िल, बालिग, मुसलमान और मर्द हो। इसके अलावा उसके लिये यह शर्त भी है कि वोह अपनी जिम्मेदारियों से अहदाबरा होने होने की सलाहियत भी रखता हो।

दफा नं. 44: मुआविने तफवीज़ को इख्तियारात सौंपने की दो शरायत है:

(1) उसे अमूमी (general) इख्तियारात सौंपे जाये।

(2) उसे नियाबत हासिल हो। इसलिये ख़लीफा को लाज़िमन यह कहना चाहिए कि मैंने अपने तमाम इख्तियारात में तुम्हें अपना नायब बनाया, या वोह कोई दूसरे अलफाज़ इस्तेमाल करे जो उमूमी इख्तियार और नियाबत को ज़ाहिर करते हों। यह तक़र्रुर खलीफा को इस बात की इजाज़त देता है के वोह मुआविने तफवीज़ को जगहों की तरफ भेजे या उन्हें एक जगह से दूसरी जगह या दूसरे काम की तरफ भेज दे, इस अन्दाज़ से जो खलीफा को इस काम में मदद दे। और यह अम्र इस बात का मुतक़ाज़ी नहीं के उन के नये सिरे से तक़र्रुरी कि जाये क्योंकि यह सब काम मआविनीन के बुनियादी तक़र्रुर में शामिल है।

दफा नं. 45: मुआविने तफवीज़ पर लाज़िम है की वोह जिन उमूर की तदबीर करे या जिन अहकाम को नाफिज़ करे, उनसे ख़लीफा को बाख़बर रखे ताकि इख्तियारात के इस्तेमाल में ख़लीफा और उसके दरमियान फर्क़ हो। इसका काम ख़लीफा को बाख़बर रखना और ख़लीफा जिन चीजों की तनफीज़ का हुक्म दे, उनको नाफिज़ करना है।

दफा नं. 46: ख़लीफा का फर्ज़ है कि वोह मुआविने तफवीज़ के आमाल और तदाबीर का जायज़ा ले, ताकि उनमें सही को बरक़रार रखे ओर ग़लत का तदारुक करे। क्योंकि उम्मत के मुआमलात की निगरानी ख़लीफा की जिम्मेदारी और उसके इज्तिहाद पर मौकूफ है।

दफा नं. 47: जब मुआविने तफवीज़ किसी मामले की तदबीर करे और ख़लीफा इसकी मंजूरी देे दे तो मुआविन को चाहिए के वह इस को किसी कमी पेशी बग़ैर इस तरह नाफिज़ करे जिस तरह के ख़लीफा ने मंजूरी दी थी। अगर ख़लीफा फिर इस मामले का जायज़ा ले और देखे के मुआविन ने इस अम्र के खिलाफ किया है तो देखा जायेगा के अगर यह हुक्म किसी ऐसे मामले से मुताल्लिक़ हो जिसे को मुआविन ने ख़लीफा के नुक्ताए नज़र के मुताबिक़ नाफिज़ किया हो या यह हुक्म किसी ऐसे माल से मुताल्लिक़ हो जिसे मुआविन ने ख़लीफा के तरफ से कर दिया हो तो इस सूरत में मुआविन की राय नाफिज़ उल अमल समझी जाएगी क्योंकि यह दरअसल ख़लीफा की राय थी और जो अहकामात नाफिज़ किये गये या जो अमवाल (funds) खर्च किये गये ख़लीफा इसकी तलाफी नहीं कर सकता अगर जिस मामले को मुआविन ने निपटाया हो उस का तआल्लुक़ ऐसे उमूर के अलावा किसी और चीज़ के साथ हो मसलन किसी को वाली मुकर्रर करना या फौज तैयार करना तो इस सूरत में ख़लीफा इस मुआमले को तबदील कर सकता है। इस सूरत में ख़लीफा ही की राय नाफिज़ होगी और मुआविन का फैसला कालअदम (null and devoid) समझा जायेगा क्यांेंकि यह ऐसे आमाल हैं की अगर यह खुद ख़लीफा से भी सादिर हुये हांे तो तब भी वह उनका तदारुक कर सकता है। लिहाज़ा ऐसे मुआमलात में खलीफा अपने मुआविन के फैसलों की तलाफी तो बतरीक़े उला कर सकता है।

दफा नं. 48: मुआविने तफवीज़ को किसी खास महकमे (department) के साथ मख़सूस नहीं किया जायेगा क्योंकि इसकी निगरानी आम है। क्योंकि जो लोग इंतेज़ामी मुआमलात को पूरा करते है वोह मुलाज़िम होते है न की हुक्मरान जब के मुआविने तफवीज़ हुक्मरान है। और उसे किसी खास अमल की सर अंजाम देही के साथ मख़सूस करना दुरुस्त नहीं, क्योंकि उसकी तक़र्रुरी आम है।

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