इस्लामी निज़ाम

इस्लाम ही वोह दीन है जो अल्लाह तआला ने सय्यदना मुहम्मद صلى الله عليه وسلم पर इसलिये नाज़िल फरमाया कि इसके ज़रिये उन तआल्लुक़ात को मुनज्ज़म किया जाए, जो इंसान के अपने ख़ालिक़, अपने नफ़्स और दूसरे इंसानो के साथ है। इंसानो का अपने ख़ालिक़ के साथ तआल्लुक़ अकाइद और इबादात पर मुश्तमिल है। और अपने नफ्स के साथ तआल्लुक़ अखलाक, खाने पीने और लिबास से मुताल्लिक़ है। दूसरे इंसानो के साथ उसके ताल्लुक़ मुआमलात (transactions) और उक़बात (punishments) पर मुश्तमिल है। इंसान का अपने ख़ालिक़ के साथ तआल्लुक़ अकाइद और इबादत पर मुश्तमिल है और अपने नफ्स के साथ तआल्लुक़ मुआमलात और उकूबात पर मुश्तमिल है। पस इस्लाम वोह मब्दा (दीन या ideology) है जो ज़िन्दगी के तमाम मसाइल और मुआमलात से मुताल्लिक़ है। यह कोई ख़ानक़ाही दीन नहीं और न इसका पापाइयत से कोई तआल्लुक़ है, बल्कि यह तो मजहबी अशराफियत (धार्मिक तानाशाही) को जड़ से उखाड़ फेंकता है। इसलिये इस्लाम में मजहबी लोग और दुनियावी लोग के नाम की गिरोह बन्दी नहीं होती, बल्कि वोह तमाम अफराद जो इस्लाम को इख्तियार करते है, मुसलमान कहलाते है और दीन की नज़र में यह सब बराबर होते है। इसलिये इस्लाम में दीनदार और दुनियादार अलग-अलग अफराद नहीं होते। रूहानी पहलू से मुराद यह है कि तमाम अशिया अल्लाह तआला की मख़लूक़ है और वाह पूरी कायनात के तमाम उमूर की तदबीर करता है। क्योंकि इंसान जब कायनात, हयात, और खुद इंसान पर और अपने माहौल व मुताल्लिक़ात पर गहरी नज़र डाले तो वोह लाज़मी तौर पर इस नतीजे पर पहुंचेगा की तमाम अशिया नाक़िस, आजिज़ और मोहताज है। जो इस अम्र की क़तई दलील है कि यह अशिया किसी ख़ालिक़ की मख़लूक़ है और वोह ही इन सब के उमूर की तदबीर करता है। इंसान को ज़िन्दगी के मैदान में चलने के लिये एक निज़ाम (व्यवस्था) की ज़रूरत है, जिससे वोह अपनी जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात को मुनज्ज़म कर सके। इंसान आजिज़ और महदूद होने की वजह से यह निज़ाम इंसान खुद नहीं बना सकता। क्योंकि इस निज़ाम को बनाने के लिये इंसान का फ़हम तवाफुत, इख्तिलाफात और तज़ाद (परस्पर विरोध) से दो चार होता रहता है। लिहाज़ा वोह एक ऐसा मुतनाकिज़ (contradictory) निज़ाम होगा जो इंसान की बदबख़्ती पर मुंतज होगा इसलिये निज़ाम (व्यवस्था) लाज़मी तौर पर अल्लाह की तरफ से होना चाहिए। इंसान पर लाज़िम है कि वोह अपने तमाम आमाल को अल्लाह तआला के निज़ाम के मुताबिक़ सरअंजाम दे। अगर इस निज़ाम पर चलना मुनफअत (लाभ) की बुनियाद पर हो, और इस पर चलने की बुनियाद यह ना हो की यह निज़ाम अल्लाह की तरफ से है, तो इसमें रूहानी पहलू नापेद होगा। इसलिये इंसान के लिये ज़रूरी है कि वोह अल्लाह तआला के साथ अपने ताल्लुक़ के इदराक़ की बुनियाद पर ज़िन्दगी मे अपने आमाल को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ मुनज्ज़म कर ले ताकि उसके आमाल में रूह मौजूद हो। क्योंकि रूह के माने इंसान का अल्लाह के साथ ताल्लुक़ और इदराक़ है और रूह के मद्दे (matter) के साथ इम्तिज़ाज के मानी आमाल की अंजामदेही के वक्त अल्लाह के साथ ताल्लुक़ का इदराक़ करना है। इसीलिए इंसान अल्लाह तआला के साथ इसका तआल्लुक़ के इदराक़ की वजह से अपने आमाल को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ सरअंजाम देता है पस अमल माद्दा (matter) है और उस अमल की अंजाम देही के वक्त अल्लाह तआला के साथ ताल्लुक़ का इदराक़ रूह है। चुनाँचे अमल को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ अंजाम देना अल्लाह तआला के साथ ताल्लुक़ के इदराक़ की वजह से होता है। यह ही माद्दा और रूह का आपस मे मिलना है।

इसीलिये अगर एक गैर-मुस्लिम अपने आमाल को क़ुरआन और सुन्नत से अख्ज़शुदा अहकामे शरिया के मुताबिक़ सरअंजाम देता है तो उसमें कोइ रूह मौजूद नहीं और न हम इस को रूह और माद्दे का इम्तिज़ाज कहेंगे। चूंकि वोह इस्लाम को मानता ही नहीं, इसलिये उसे अल्लाह के साथ तआल्लुक़ का इदराक़ ही नहीं। बल्कि उसने अहकामे शरिया को बतौरे निज़ाम इसलिए इख्तियार किया के वह उसे पसन्द आया, और उसने अपने आमाल को उसके ज़रिये मुनज्ज़म किया। इसके बरख़िलाफ़ एक मुसलमान का अपने आमाल को अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ सरअंजाम देना अल्लाह तआला के साथ अपने तआल्लुक़ के इदराक़ की वजह से है और अल्लाह तआला के अवामिर व नवाही के मुताबिक़ अपने आमाल को सरअंजाम देने से उसका मक़सद अल्लाह तआला की रज़ा का हुसूल है, सिर्फ निज़ाम से फायदा उठाना नहीं। इसलिये अशिया में रूहानी पहलू का वुजूद ज़रूरी है और आमाल का अंजामदेही के वक्त रूह का मौजूद होना लाज़मी है। अशिया के रूहानी पहलू से मुराद अशिया का एक ख़ालिक़ की मख़लूक़ होना है; यानी मख़लूक़ का ख़ालिक़ के साथ तआल्लुक़ और रूह इस तआल्लुक़ के इदराक़ (ज्ञान or perception) को कहते है, यानी इंसान का अपने ख़ालिक़ के साथ तआल्लुक़ का इदराक़। रूहानी पहलू, रूह और रूहानियत का सिर्फ यही मफहूम है। इसके अलावा तमाम तसव्वुरात बिल्कुल ग़लत है। कायनात, हयात और इंसान पर गहरी और रोशन नज़र ही सही नताईज तक पहुँचाती है, और इसी के नतीजे मे यह सही मफहूम हासिल हुआ।

बाअज़ मज़ाहिब का नज़रिया यह है कि कायनात के दो अजज़ा है। जिसमे एक मरई (invisible) है और दूसरा ग़ैर-मरई (visible) इसी तरह इंसान मे रूहानी ज़ुहद भी है और माद्दी ख्वाहिशात भी और ज़िन्दगी मे एक रूहानी पहलू है और एक माद्दी। वोह यह गुमान करते है की कायनात का मरई जुज़, ग़ैर-मरई जुज़ की ज़िद (विरोधी) है, रूहानी ज़ुहद जिस्मानी ख्वाहिशात से मेल नहीं खाता और इसी तरह माद्दा रूह से अलग है। उनके खयाल में यह दोनों पहलू एक दूसरे से जुदा-जुदा है। क्योंकि इन के दरमियान बुनियादी तौर पर तआरुज़ (परस्पर विरोध) है। लिहाज़ा इन दोनों का इकट्ठा होना मुमकिन नहीं। इन मे से एक की ज्यादती दूसरे की कमी का बाइस है।

चुनाँचे आख़िरत के तलबगार को रूहानी पहलू पर तरजीह देना चाहिए। इसी बुनियाद पर इसाईयत में दो अथोरिटीयो के तसव्वुर ने जन्म लिया। रूहानी अथोरिटी, और ज़मानी (दुनियावी) अथोरिटी। यानी क़ैसर का क़ैसर को दो और अल्लाह का अल्लाह को दो। रूहानी अथोरिटी के हामिल अफराद रिजाले दीन (मज़हबी तबक़ा) थे। यह लोग दुनियावी अथोरिटी के हुसूल की भरपूर कोशिश करते थे, ताकि ज़िन्दगी में लोगों पर रूहानी अथोरिटी भी मुसल्लत कर सके। यहाँ से दुनियावी अथोरिटी और रूहानी अथोरिटी के माबेन जंग शुरू हुई और जिसने बिलआख़िर रिजालेदीन को रूहानी अथोरिटी तक महदूद कर दिया। चुनाँचे इसके बाद उन्होंने दुनियावी अथोरिटी में किसी किस्म के अमल दखल बन्द कर दिया और यूं दीन को दुनियावी उमूर से अलग कर दिया। क्योंकि ऐसा करना पापाइयत (papacy) है, दीन और दुनिया की यह जुदाई ही सरमायादाराना मब्दा (ideology) का अक़ीदा है। यही मग़रिबी तहज़ीब की असास (आधार) है, ओर यही वो फिक्री क़ियादत है, जिसका इस्तेमारी (साम्राज्यवादी) मग़रिब अलमबरदार है और पूरी दुनिया को इसी की दावत देता है। मग़रिब (पश्चिम) इसे अपनी सक़ाफत (संस्कृति) का बुनियादी सुतून बनाया है और अपने इस अक़ीदे के ज़रिये वोह मुसलमानों के अक़ीदे को मुतज़लज़ल करने की कोशिश करता है। वोह इस्लाम को इसाईयत पर क़यास करता है। चुनाँचे जो शख्स भी दुनियावी उमूर से दीन की जुदाई, या दीन की रियासत या सियासत से जुदाई की दावत का अलमबरदार है, वोह दरअसल इसी अजनबी फिक्री क़ियादत का ताबे और पैरोकार है। वोह इस्तेमार (साम्राज्यवाद) का एजेन्ट है, ख्वाह वोह अच्छी नियत से हो या बदनीयती से। वोह या तो इस्लाम से बिल्कुल नावाक़िफ है या इस्लाम का दुश्मन है।

इस्लाम का यह नज़रिया है कि वोह तमाम अशिया, जिन का हवास इदराक़ करते है, माद्दा है। उनके रूहानी पहलू से मुराद यह है कि वोह सब की सब एक ख़ालिक़ की मख़लूक़ है। रूह से मुराद इंसान का अल्लाह तआला के साथ अपने तआल्लुक़ का इदराक़ है। इसलिये रूहानी पहलू माद्दी पहलू से अलग चीज़ नहीं, और न इंसान के अंदर रूहानी ज़ुहद और माद्दी मैलानात पाए जाते है। बल्कि इंसान के अंदर जिस्मानी हाजात और जिबिल्लतें है। इन जिस्मानी हाजात को पूरा करना लाज़मी है। जिबिल्लतों में से एक जिबिल्लते तदय्युन भी है, यानी एक ख़ालिक़े मुदब्बिर का मोहताज होना। यह इंसान के अन्दर पाई जाने वाली फितरती इजज़ (विनम्रता) से पैदा होती है। इन जिबिल्लतों के पूरा करने को रूहानी पहलू कहा जाता है, ना माद्दी क्योंकि यह तो बस ज़रूरियात को पूरा करना है। अलबत्ता इन जिस्मानी हाजात और जिबिल्लतों को अल्लाह के निज़ाम के मुताबिक़ और अल्लाह तआला के साथ तआल्लुक़ का इदराक़ करते हुए पूरा किया जाए, तो यह रूह है। अगर इन्हें किसी निज़ाम के बग़ैर, या अल्लाह के निज़ाम के अलावा किसी और निज़ाम के मुताबिक़ पूरा किया जाए, तो यह जिबिल्लतों और जिस्मानी हाजात को सिर्फ माद्दी तौर से पूरा करना होगा, जो इंसान की बदबख़्ती पर मुंतज होगा। चुनाँचे जिबिल्लते नो को बग़ैर किसी निज़ाम के, या अल्लाह के निज़ाम के अलावा किसी और निज़ाम के मुताबिक़ पूरा किया जाए तो यह इंसान की बदबख़्ती का सबब होगा। अगर इस जिबिल्लत को निकाह करके इस्लामी निज़ाम के ज़रिये पूरा किया जाए, तो यह इंसान के लिये तस्कीन और इत्मिनान का बाइस बनता है।

इसी तरह इंसान अगर जिबिल्लते तदय्युन को बग़ैर किसी निज़ाम के, या अल्लाह के निज़ाम के अलावा किसी और निज़ाम के मुताबिक़, बुतों या इंसानो की इबादत के ज़रिये पूरा करें, तो यह शिर्क और कुफ्र होगा। अगर इसको इस्लामी अहकामात के मुताबिक़ पूरा करे तो यह इबादत होगी। इसलिये अशिया में रूहानी पहलू का लिहाज़ रखना ज़रूरी है। तमाम आमाल को अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही के मुताबिक़, उसके साथ तआल्लुक़ का इदराक़ करते हुए, यानी रूह के साथ सरअंजाम देने चाहिए। चुनाँचे एक अमल मे दो चीज़े नहीं हैं बल्कि एक ही चीज़ यानी अमल है। अमल का सिर्फ माद्दी होना या रूह के साथ होना, अमल का एक वस्फ है। यह सिर्फ अमल को बजा लाने से पैदा नहीं होता, बल्कि उस अमल को इस्लामी अहकामात के मुताबिक़ सरअंजाम देने से पैदा होता है। चुनाँचे मुसलमान अगर जंग में अपने दुशमन को क़त्ल करे तो इसको जिहाद कहा जाता है और उसे इसका सवाब मिलता है। क्योंकि यह अमल इस्लामी अहकामात के ऐन मुताबिक़ है। और अगर मुसलमान किसी बेगुनाह मुस्लिम या गैर-मुस्लिम को नाहक़ क़त्ल करे तो यह बहुत बड़ा जुर्म है जिसकी उसे सज़ा मिलेगी। क्योंकि उसका यह अमल अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही के खिलाफ है। अमल तो दोनों जगह एक ही है, यानी क़त्ल और करने वाला भी एक ही इंसान है। लेकिन क़त्ल उस वक्त इबादत बन जाता है, जब इसमें रूह हो, और क़त्ल उस वक्त जुर्म बन जाता है, जब बग़ैर रूह के हो। लिहाज़ा मुसलमान पर लाज़िम है कि वोह अपने आमाल को रूह का लिहाज़ करते हुए सरअंजाम दंे। माद्दा और रूह को मिलाना कोई इमकानी अमर नहीं, बल्कि यह एक फर्ज़ है। माद्दे का रूह से जुदा होना जायज़ नहीं। यानी कोई भी अमल अल्लाह तआला के अवामिर ओ नवाही और उसके साथ तआल्लुक़ के इदराक़ के बग़ैर नहीं होना चाहिए। लिहाज़ा हर उस चीज़ को खत्म करना लाज़मी है, जिससे रूहानी पहलू की माद्दी पहलू से जुदाई नज़र आती हो। यही वजह है कि इस्लाम में कोई मज़हबी तबक़ा (रिजाले दीन) नहीं होता, और ना उसमें मुल्लाइयत (theocracy) के नम पर कोई दीनी इक़तिदार है, और न दीन से अलग दुनियावी इक़तिदार का कोई तसव्वुर मौजूद है। बल्कि इस्लाम वोह दीन है जिसे अंदर से रियासत जन्म लेती हैं।

रियासत से मुतआल्लिक़ अहकामे शरिया की भी वही हैसियत है, जो नमाज़ के अहकाम की है। रियासत का कयाम ही इस्लामी अहकामात को नाफिज़ करने और इस्लामी दावत को दुनिया के सामने पेश करने का तरीका है। चुनाँचे हर उस चीज़ को खत्म करना वाजिब होता है, जिससे दीन के रूहानियत में महदूद होने, या सियासत और हुकूमत के दीन के जुदा होने का एहसास होता है। लिहाज़ा उन इदारों को खत्म करना चाहिए, जो सिर्फ रूहानी पहलुओं की निगरानी करते है। इसलिये शोबाऐ मसाजिद को खत्म करना चाहिए और मसाजिद शोबाऐ तालीम के ताबे होना चाहिए। इसी तरह शरई अदालतों और निज़ामी (civil) अदालतों की तक़्सीम को खत्म करना चाहिए। सिर्फ एक ही अदालत होनी चाहिए, जो सिर्फ इस्लामी अहकामात के मुताबिक़ फैसला करें। क्योंकि इस्लाम में इक़तिदार एक ही है।

इस्लाम अक़ीदा भी है और निज़ाम भी। अक़ीदा अल्लाह तआला, फ़रिश्तों, किताबों, रसूलों, आख़िरत के दिन पर इमान और कज़ा व क़दर के ख़ैर व शर के मिनजानिब अल्लाह होने पर ईमान को कहते है। यह उन बातों पर ईमान है जिनका अक्ल इदराक़ कर सकती है। जैसे अल्लाह पर इमान, मुहम्मद صلى الله عليه وسلم की नबुव्वत पर इमान, क़ुरआन मजीद पर इमान, और यह ऐसी चीज़ो पर ईमान भी है जिन का अक़ल इदराक़ नहीं कर सकती। मसलन क़यामत का दिन, मलायका, जन्नत व जहन्नम वग़ैरा। इन मुग़िबात पर ईमान रखने की बुनियादी यह है कि इनके माख़ुज़, यानी क़ुरआन और मुतवातिर अहादीस, अक्ल से साबित है। इस्लाम ने अक्ल ही को तकलीफ की बुनियाद बनाया।

निज़ाम वोह शरई अहकामात है, जो इंसान के मुआमलात को मुनज्ज़म करते है। इस्लाम का निज़ाम तमाम मुआमलात का इहाता करता है। इस्लाम ने इन तमाम मुआमलात का इहाता आम मआनी और आम शक्ल के साथ किया है और तफसीलात को इन आम मआनी से मुस्तन्बित (deduce) करने के लिये छोड़ दिया है के नाफिज़ करते वक्त इन तफसीलात को अख़ज़ कर लिया जाए। चुनाँचे क़ुरआने करीम और हदीस शरीफ, इंसान के मुआमलात को बहैसियते इंसान के हल करने के लिये आम मआनी पर मुश्तमिल है। इन आम मआनी से तफ्सीली अहकामात को अख़ज़ करने का काम इस्लाम ने मुजतहेदीन पर छोड़ा है और वोह इन मआनी की रोशनी में इन मुश्किलात का हल निकालते हैं, जो जमाने के गुजरने और जगहों की तबदीली से पैदा होती है। मुश्किलात को हल करने के लिये इस्लाम का एक ही तरीका है। वोह मुजतहिद को दावत देता है कि वोह पहले नई पैदा शुदा मुश्किल की अच्छी तरह तहक़ीक़ करें ताकि उसको समझ सके। फिर इस मुश्किल से मुतआल्लिक़ शरई नुसूस का मुताला करे और फिर इन नुसूस से इस मुश्किल का हल निकाले। यानी इस मसले के लिये शरई दलाइल में से शरई हुक्म मुस्तनबित करे और इसके अलावा किसी और रास्ते को बिल्कुल इख्तियार न करे। वोह जब किसी मसले का जायज़ा ले तो सिर्फ यह समझ कर जायज़ा ले कि यह एक इंसानी मसला है। न कि यह कोई इक़तिसादी या इजतिमाई या हुकूमती मसला है, बल्कि यह एक ऐसा मसला है जिसके बारे में हुक्मे शरई की ज़रूरत है ताकि इसके बारे में अल्लाह का हुक्म मालूम हो सके।
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