अदलिया
(Judiciary)
दफा नं. 75: अदलिया किसी मआमले में फैसला सादिर करती है ताकी उसे नाफिज़ किया जाऐ। अदलिया के ज़रिये लोगा के बाहमी झगड़ों का फैसला किया जाता है या उन चीजों का सद्देबाव किया जाता है जो जमात (मुआशरे) के हक़ में नुकसान देह है या हुक्मरानो के दरमियान पाये जाने वाले किसी भी तनाज़े को दूर किया जाता है ख्वाह वह हाकीम हो या सरकारी मुलाज़िम हो या कोई और शख्स।
दफा नं. 76: ख़लीफा किसी ऐसे शख्स को क़ाज़ी अल-क़ुज़ा के मुक़र्रर करता है जो मर्द, आक़िल, बालिग़, आजाद, आदिल और मुसलमान हो और वह फक़ीह भी हो। फिर इंतेजामी क़वानीन के अन्दर रहते हुए दूसरे क़ाज़ियो को मुकर्रर करना, उन से बाज़ पुर्स करना और उन्हे माज़ूल करना क़ाज़ी अल-क़ुज़ा का काम है। जहां तक महक़माए कज़ा के दूसरे मुलाज़िमीन का तआल्लुक़ है तो यह एक अलहेदा इंतज़ामी इदारे का काम है जो उनके मुआमलात की निगरानी करता है।
दफा नं. 77: क़ाज़ियो की तीन अक़साम है -
(1) क़ाज़ी: जो लोगों के दरमियान मआमलात और उक़ूबात से मुताल्लिक़ झगड़ों का फैसला करता है।
(2) क़ाज़ी मुहतसिब: इसका काम इन इख्तिलाफात का फैसला करना होता है जो जमआत (मुआशरे) को नुकसान पहंुचाती है।
(3) क़ाज़ी मज़ालिम: इसका काम अवाम और हुकूमत के दरमियान पैदा होने वाले तनाज़ात का फैसला करना है।
दफा नं. 78: जिस शख्स को क़ाज़ी की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए उसके लिये शर्त है कि वह मुसलमान, आज़ाद, बालिग़, आक़िल, आदिल, फक़ीह और उन वाक़िआत से मुताल्लिक़ इस्लामी अहकामात का इदराक़ करने वाला हो। क़ाज़ी मज़ालिम के लिए इन शराइत के अलावा दो और शराइत भी हैं और वह यह कि क़ाज़ी मज़ालिम मर्द और मुजतहिद भी हो।
दफा नं. 79: यह बात जायज़ है कि क़ाज़ी और मुहतसिब को हर इलाक़े में तमाम फैसले करने की ज़िम्मेदारी सौंपी जाए और यह भी जायज़ है कि किसी खास इलाक़े में ख़ास किस्म के फैसले करने की ज़िम्मेदारी इस के हवाले की जाए।
दफा नं. 80: अदालत सिर्फ एक ऐसे क़ाज़ी पर मुश्तमिल होगी जिसे मुक़दमात के फैसले का इख्तियार होगा, इस के साथ दूसरे क़ाज़ी भी हो सकते है, लेकिन उन्हें फैसले का इख्तियार हासिल नहीं होगा, बल्कि वोह सिर्फ मश्वरा और अपनी राय दे सकते हैं, इनकी राय पर चलना भी क़ाज़ी के लाज़मी नहीं।
दफा नं. 81: क़ाज़ी के लिये अदालत के अलावा कहीं और फैसला करना जायज़ नहीं, नेज़ गवाही और क़सम भी वहीं मोतबर होगी जो अदालत में दी गई है।
दफा नं. 82: फैसलों की नोइयत के एतबार से अदालतों के दर्जा बन्दी हो सकती है, चुनाँचे बाज़ क़ाज़ियो को कुछ ख़ास नोइयत के फैसलों के लिये मख़सूस किया जा सकता है। इनके अलावा दिगर उमूर को दूसरी अदालतों के सुपुर्द किया जा सकता है।
दफा नं. 83: अपील कोर्ट, सेशन कोर्ट का कोई वुजूद नहीं होता, किसी मुकदमे का फैसला एक ही मर्तबा और अटल होता है जब क़ाज़ी किसी फैसले का ऐलान करे तो वह उसी वक्त नाफिज़ुल-अमल हो जाता है, किसी भी दूसरे क़ाज़ी का फैसला इस फैसले को खत्म नहीं कर सकता। मासिवाये जब वह क़ाज़ी इस्लाम के अलावा किसी और बुनियाद पर फैसला दे या किताबो सुन्नत या इज़माऐ सहाबा की क़तई नस के खिलाफ फैसला दे, या इस का फैसला वाक़ये की हक़ीक़त के ख़िलाफ हो।
दफा नं. 84: क़ाज़ी मुहतसिब वह क़ाज़ी होता है जो ऐसे तमाम मुकदमात पर नज़र रखता है जिन का ताल्लुक़ हुक़ूक़े आम्मा से हो और जिन में मुद्दइ न हो, बशर्ते के वह हुदूद और जनायात में दािखल न हो।
दफा नं. 85: मुहतसिब को जैसे ही किसी वाक़ये का इल्म हो तो वह फौरन उसके बारे में हुक्म सादिर कर सकता है ख्वाह किसी भी जगह हो। उसे फैसला सादिर करने के मजलिसे अदालत की ज़रूरत नहीं, उसके अहकामात को नाफिज़ करने के लिये उसके मातेहत पुलिस के अफराद होगें और उसका हुक्म फौरी तौर पर नाफिज़ुल-अमल होगा।
दफा नं. 86: मुहतसिब अपने लिये ऐसे नायब मुन्तखिब कर सकता है जो मुहतसिब होने की शराइत पर पूरे उतरते हो, वह उन्हें मुख्तलिफ इलाकों में फैला देगा, इन नाइबीन को अपने-अपने इलाक़ो या महल्लों में जिन उमूर के फैसले उनके सुपुर्द किये जायेगें उनके मुताल्लिक़ मुहतसिब का फरीज़ा सरअनजाम देने का मुकम्मिल इख्तियार हासिल होता है।
दफा नं. 87: क़ाज़ी मज़ालिम वह क़ाज़ी होता है जिसका तकर्रुर रियासत के जेरे साया जिंदगी गुज़ारने वाले हर शख्स पर होने वाले रियासती ज़ुल्म का तदारुक करने के लिए होता है ख्वाह वह शख्स रियासत की रियाया में से हो या ना हों। यह ज़ुल्म ख्वाह रियासत के सरबराह की तरफ से हो या उसके अलावा किसी और हाकिम या सरकारी मुलाज़िम की जानिब से।
दफा नं. 88: ख़लीफा या क़ाज़ी उलकज़ा क़ाज़ी मज़ालिम का तकुर्रर करेगा। जहां तक क़ाज़ी मज़ालिम के मुहासबे, उसकी बाज़पुर्स या उसे हटाने का ताउल्लुक है तो यह ख़लीफा या क़ाज़ी अलक़ुज़ा करता है, बशर्ते कि ख़लीफा क़ाज़ी अलक़ुज़ा को यह इख्तियार दिया हो, लेकिन जब वह ख़लीफा मुआविने तफवीज़ या मज़कूरा क़ाज़ी उलकज़ा के ज़ुल्म पर गौर कर रहा हो तो उस वक्त उसे सुबुकदोश करना दुरूस्त नहीं।
दफा नं. 89: क़ाज़ी मज़ालिम कोई एक शख्स या चंद अफराद नहीं बनते बल्कि रियासत का सरवराह मज़ालिम को खत्म करने के लिये हस्बे ज़रूरत जितनी तादाद मुकर्रर करना चाहे, कर सकता है लेकिन बराहेरास्त फैसले के दौरान सिर्फ एक ही क़ाज़ी को फैसले का इख्तियार होगा। फैसले की मजलिस में एक से ज्यादा क़ाज़ी मज़ालिम का बैठना जायज़ है, लेकिन उन्हें सिर्फ मशवरे का इख्तियार होगा। इस (फैसला करने वाले क़ाज़ी) के लिए उन की राय पर अमल करना भी लाज़मी नहीं।
दफा नं. 90: महकमतुल मज़ालिम को रियासत के किसी भी हाकिम या मुलाज़िम को माज़ूल करने का हक़ हासिल है जैसा कि उसको खलीफा को माज़ूल करने का हक़ हासिल है और यह उस सूरत में है, जब उस ज़ुल्म को दूर करने के लिये खलीफा को हटाना लाज़मी हो जाये।
दफा नं. 91: महकमतुल मज़ालिम किसी भी किस्म के जुल्म का जायज़ा लेने का इख्तियार रखता है ख्वाह यह जुल्म रियासती ढांचे के अफराद से मुताल्लिक़ हो या ख़लीफा की जानिब से अहकामें शरीअत की मुखालिफत के हवाले से हो या ख़लीफा के तबन्नी किये हुए दस्तूर व क़ानून या दूसरे शरई अहकामात के तअय्युन के सिलसिले में किसी शरई नस की मुखाालिफत के मुताल्लिक़ हो, या फिर इस का ताल्लुक़ टैक्स वग़ैराह के निफाज़ से हो।
दफा नं. 92: महकमतुल मज़ालिम में न तो मजलिसे अदालत का होना शर्त है और ना ही मुद्दई अलैय को बुलाने या किसी मद्दई की मौजूदगी शर्त है। बल्कि महकमातुल मज़ालिम को ज़ुल्म पर नज़र रखने का हक़ है, ख्वाह कोई भी दावा न करे।
दफा नं. 93: हर इंसान को झगड़े (खुसूमत) और दिफा दोनों सूरतों में किसी को अपना वकील बनाने का हक़ है। ख्वाह वह (वकील) मुसलमान हो या ग़ैर-मुस्लिम, मर्द हो या औरत, इस मुआमले में वकील और मोवक्किल में कोई फर्क़ नहीं होगा। वकील के लिए अपनी विकालत की उजरत लेना जायज़ है उजरत दोनों (वकील और मोवक्किल) की रज़ामंदी से मुकर्रर होगी।
दफा नं. 94: हर वह शख्स जो खास आमाल को अन्जाम देने का इख्तियार रखता हो मसलन वसी (निगरां) और वली (सरपरस्त) या उसके पास आमाले आम्मा की अनजाम देही का इख्तियार हो जैसे ख़लीफा का मुकर्रर करदा सरबराह, हाकिम, मुलाज़िम, क़ाज़ी मज़ालिम और मोहतसिब, दोनो अपने दिफा या झगडे (खुसूमत) के लिए किसी को अपना वकील बना सकता है, यह वकालत भी वसी, वली या ख़लीफा या हाकिम या मुलाज़िम या क़ाज़ी मज़ालिम और मोहतसिब के एतबार से होगी। इस से कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि वह मुद्दई हो या मुद्दईअलै।
दफा नं. 95: वोह मुआहिदात, मुआमलात और मुक़द्दमात जो के खिलाफत से क़ब्ल हुए और उन के मुतालिक़ फैसलों को ख़िलाफत के क़याम से क़ब्ल नाफिज़ किया जा चुका, ख़िलाफत की अदलिया उन्हे मंसूख नहीं करेगी और उन पर नज़रसानी नहीं करेगी मा सिवाय:
(1) इस्लाम के ख़िलाफ उन का असर अब भी मौजूद हो, ऐसी सूरत में उन पर नज़रसानी वाजिब होगी।
(2) जब किसी फैसले का ताल्लुक़ इस्लाम और मुसलमानो को नुक़सान पहुंचाने से हो, जो के गुज़िश्ता हुक्मरानो या उन के हवारियो से वक़ूअ पज़ीर हुये हो। ऐसी सूरत में खलीफा को यह हक़ हासिल है की वोह दोबारा इन मुक़द्दमात की समाअत करे।
0 comments :
Post a Comment