आदाबे गुफ़्तगु(1-1)

आदाबे गुफ़्तगु

1: आदाबे तदरीसः

मुदर्रिस को चाहिए के वो तलबा को दर्स देने में वक़्फ़ों का एहतिमाम करे ताके वो पढ़ाई से उकता ना जाऐं। बुख़ारी-ओ-मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत है के हज़रत इब्ने मसऊ़द (رضي الله عنه) हर जुमेरात को लोगों की इस बात पर याद देहानी करते रहते थे तो उनसे एक शख़्स ने दरयाफ़्त कियाः ऐ अबू अ़ब्दुर्र रेहमान, हम आप की बात को पसंद करते हैं और चाहते हैं के आप हमें रोज़ तलक़ीन करें। हज़रत इब्ने मसऊ़द ने कहा के एैसा करने से मुझे सिर्फ़ ये बात रोकती है के कहीं तुम उकता ना जाओ। हुज़ूर अकरम (صلى الله عليه وسلم) हमें तलक़ीन फ़रमाया करते थे और इस बात का ख़्याल रखते थे के कहीं हम में उकताहट ना पैदा हो। हज़रत इब्ने मसऊ़द (رضي الله عنه) से ही बुख़ारी शरीफ़ में रिवायत है वो फ़रमाते हैं: लोगों को हर जुमा एक बार तलक़ीन करो और अगर ज़्यादा करना चाहो तो दो बार और अगर इस से भी ज़्यादा चाहो तो तीन बार, लोगों में क़ुरआन से उकताहट ना पैदा करो। और लोगों में इस तरह ना जाओ के अपनी गुफ़्तगु में मशगूल हों और तुम ख़लल डाल कर उनसे ख़िताब करो, बल्के तुम्हें चाहिए के तुम ख़ामोश रहो और फिर जब वो तुम से मुख़ातिब हों और ख़िताब करने को कहें तब उनसे गुफ़्तगु करो। और अपनी दुआओं को काफ़ियों से मुज़य्यन ना करो क्योंके मैं अल्लाह के रसूल और सहाबाऐ किराम (رضی اللہ عنھم) के अ़ह्द में था और उन्होंने एैसा नहीं किया।

मस्जिद में तदरीस के लिए मुनासिब वक़्त या जगह का इंतिख़ाब करे जिस से नमाज़ियों को तकलीफ़ और दुशवारी ना हो। लिहाज़ा अगर मस्जिद कुशादा हो तो नमाज़ियों से दूर किसी जगह का इंतिख़ाब करे। और अगर मस्जिद तंग और छोटी हो तो एैसे वक़्त का इंतिख़ाब करे जिस में नमाज़़ मकरूह होती है जैसे फ़ज्र या अ़स्र के बाद का वक़्त। चुनांचे अबू सईद (رضي الله عنه) कहते हैं केः

((اعتکف الرسولا فی المسجد فسمعھم یجھرون بالقراء ۃ،فکشف الستر و قال:ألا إن کلکم مناج ربہ فلا یؤذین بعضکم بعضاً،ولا یرفع بعضکم علی بعض فی القراء ۃ،أو قال فی الصلاۃ))

रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने मस्जिद में एतिकाफ़ किया और आप ने लोगों को बुलंद आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते सुना तो पर्दा हटाया और फ़रमायाः सुनो! हर कोई अपने रब से मुनाजात और सरगोशी करता है। पस कोई किसी को तकलीफ़ ना दे क़िराते क़ुरआन में या फ़रमाया, नमाज़ में, कोई अपनी आवाज़ को किसी पर बुलंद ना करे।

बयाज़ी से मरवी है के रसूल अकरम (صلى الله عليه وسلم) लोगों के पास गए जब लोग नमाज़ पढ़ रहे थे और क़िरअत की आवाज़ आ रही थी। आप ने फ़रमायाः

((إن المصلي یناجي ربہ فلینظر بما یناجیہ بہ ،ولا یجھر بعضکم علی بعض بالقرآن))
नमाज़ी अपने रब से मुनाजात करता है लिहाज़ा वो अपनी मुनाजात को देखे और कोई क़ुरआन पढ़ने में अपनी आवाज़ दूसरे से बुलंद ना करे।

इन दोनों हदीसों को अ़ल्लामा इब्ने अ़ब्दुल बर  رحمت اللہ علیہ ने अल तम्हीद में ज़िक्र किया है और कहा है के बयाज़ी और अबू सई़द की हदीसें साबित और सही हैं। हदीसे बयाज़ी को इमाम अहमद ने नक़्ल किया है। इ़राक़ी ने इस की सनद को सही क़रार दिया है। अ़ल्लामा हैसमी कहते हैं के इसके रिजाल सही हैं। अबू सईद (رضي الله عنه) की हदीस अबू दाऊद और हाकिम ने रिवायत की है, हाकिम ने कहा है के हदीस की असनाद सही हैं गो शैख़ैन ने इसे रिवायत नहीं की है। इसी तरह इब्ने ख़ुज़ैमा ने हम मानी हदीस हज़रत इब्ने उ़मर (رضي الله عنه) से रिवायत की है। पस दोनों हदीसें यही हुक्म देती हैं के मुसल्ली जब इन्फ़िरादी नमाज़ अदा कर रहा तो मस्जिद में बुलंद आवाज़ से किरअत ना करे ताके क़रीब होने की वजह से दूसरे मुनफ़रिद नमाज़ियों को तकलीफ़ ना हो। लिहाज़ा बदरजा औला ये कहा जाऐगा के मुदर्रिस नमाज़ियों के क़रीब दर्स ना दे। जब मस्जिद बड़ी हो जैसे शहरों की मस्जिदें जिस में लोग जमात या ग़ैर जमात के वक़्त नमाज़ें पढ़ते हों। लिहाज़ा मुदर्रिस को अ़लैहदा गोशा इख़्तियार करना चाहिए। और अगर मस्जिद छोटी हो तो एैसा वक़्त इख़्तियार करना चाहिए जिस में नमाज़ मकरूह हो जैसे फ़ज्र या अ़स्र के बाद का वक़्त।

अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) की जानिब से उसकी रेहमत, उसकी मदद और कुशादगी से उम्मीद बांधना और रेहमते इलाही और उस की मदद-ओ-नुसरत से मायूसी-ओ-ना उम्मीदी को दूर करना। हज़रत अबू मूसा अशअ़री (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें और हज़रत मआज़ (رضي الله عنه) को यमन रवाना किया तो फ़रमायाः

((ادعوا الناس و بشرا ولا تنفرا))
लोगों को दावत दो, उनको ख़ुशख़बरी दो बदज़न ना करो। (बुख़ारी-ओ-मुस्लिम)

मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत जुन्दब (رضي الله عنه)से रिवायत है के हुज़ूरे अक़दस ने फ़रमायाः

((حدث أن رجلاً قال:واللّٰہ لا یغفر لفلان،و أن اللّٰہ تعالیٰ قال: من ذا الذي یتألی علي أن لا أغفر لفلان،فإنِّی غفرت لفلان و أحبطت عملک أو کما قال۔))

एक आदमी ने कहाः अल्लाह की क़सम! अल्लाह फ़लाँ शख़्स को हरगिज़ माफ़ नहीं करेगा। इस पर अल्लाह ने फ़रमायाः कौन है जो शख़्स मेरी क़सम खा कर कहता है के मैं फलाँ को माफ़ नहीं करूंगा तो मैंने फ़लाँ को माफ़ कर दिया और तेरे आमाल को बरबाद कर दिया। हज़रत अबू हुरैरा (رضي الله عنه) से मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है के रसूलुल्लाह  (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((إذا قال الرجل ھلک الناس فھو أھلکھم))
जब कोई (हिक़ारत से और ख़ुद को बेहतर जान कर) ये कहे के लोग हलाक हुए तो वो ख़ुद ही सब से ज़्यादा बर्बाद और तबाह शख़्स है। (मुस्लिम)

उम्मीद को बनाए रखना इस तरह होगा के मुख़ातिब शख़्स के दिल में बात उतर जाये और वो अल्लाह की रेहमत से मुतमईन हो जाऐे, और ये चीज़़ सिर्फ़ किताब ओ सुन्नत ही के ज़रीये ही से हासिल हो सकती है। जहाँ मुम्किन हो के नुसूसे शरई बराहे रास्त अस्ल वाक़िये पर मुंतबिक़ होती हों, तो इस सूरत में मुख़ातिब पर असर गेहरा होगा, अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) का फ़रमान हैः

كُنْتُمْ خَيْرَ اُمَّةٍ
तुम एक बेहतरीन उम्मत हो (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः आले इमरान- 110)

وَ كَانَ حَقًّا عَلَيْنَا نَصْرُ الْمُؤْمِنِيْنَ
और एहले ईमान की नुसरत तो हम पर एक हक़ है। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआनकरीम:  रोम -47)

اِنَّا لَنَنْصُرُ رُسُلَنَا وَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَ يَوْمَ يَقُوْمُ الْاَشْهَادُۙ
यक़ीनन हम अपने रसूलों की और उन लोगों की जो ईमान लाए दुनिया की जिंदगी में भी लाज़िमन मदद करते हैं। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआनः मोमिन- 51)

وَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مِنْكُمْ وَ عَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَيَسْتَخْلِفَنَّهُمْ فِي الْاَرْضِ
अल्लाह ने उन लोगों से जो ईमान लाए और उन्होंने नेक आमाल इख़्तियार किए वादा किया है के वो उन्हें ज़मीन में लाज़िमन इक़्तिदार बख़्शेगा, (तर्जुमा मआनीये क़ुरआनः नूर-55)

وَ اذْكُرُوْۤا اِذْ اَنْتُمْ قَلِيْلٌ مُّسْتَضْعَفُوْنَ فِي الْاَرْضِ تَخَافُوْنَ اَنْ يَّتَخَطَّفَكُمُ۠ النَّاسُ فَاٰوٰىكُمْ وَ اَيَّدَكُمْ بِنَصْرِهٖ وَ رَزَقَكُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ

और याद करो जब तुम थोड़े थे, ज़मीन में बे ज़ोर थे, डरे सहमे रहते थे के लोग कहीं तुम्हें उचक ना ले जाऐं फिर उस ने तुम्हें ठिकाना दिया और अपनी नुसरत से तुम्हें ताक़त बख़्शी। (तर्जुमा मआनी क़ुरआने करीमः अनफ़ाल- 26)

وَ مَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِۙ
मदद तो बस अल्लाह ही के पास से आती है। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआनः आले इमरान-126)

اِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ
बेशक अल्लाह वादा ख़िलाफ़ी नहीं करेगा। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआनः आले इमरान- 09)

وَ مَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ قِيْلًا
और अल्लाह से बढ़ कर बात का सच्चा होगा भी कौन? (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन: निसाः122)

ثُلَّةٌ مِّنَ الْاَوَّلِيْنَۙ۰۰۳۹ وَ ثُلَّةٌ مِّنَ الْاٰخِرِيْنَؕ
वो उगलों में से भी ज़्यादा होंगे और पिछलों में से भी ज़्यादा होंगे। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआने करीमः अलवाक़िआ -39,40)

ثُلَّةٌ مِّنَ الْاَوَّلِيْنَۙ۰۰۱۳ وَ قَلِيْلٌ مِّنَ الْاٰخِرِيْنَؕ
अगलों में से तो बहुत से होंगे मगर पिछलों में से कम ही। (तर्जुमा माअनीये क़ुरआने करीमः अलवाक़िआ -13,14)

रही बात सुन्नत की, तो वहाँ भी इस की मिसालें मौजूद हैं, मसलन मसनद अल शिहाब और मुअ़जम अलऔसत में अ़ब्दुल्लाह अलमुज़नी हज़रत इब्ने उ़मर से रिवायत करते हैं के हुज़ूरे अकरम  (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((أمتي کالمطر لا یدری الخیر في أولہ أم آخرہ))
मेरी उम्मत की मिसाल बारिश की सी है, ख़ैर-ओ-अच्छाई उसकी इब्तिदा में हो सकती है और अवाख़िर में भी।

((واھاً لإخواني))
क्या ही ख़ूब हैं मेरे भाई।

((طوبی للغرباء))
मुबारकबाद है उन अजनबियों के वास्ते।

((إن للّٰہ عباداً لیسوا بأنبیاء ولا شھداء))
अल्लाह के एैसे बंदे भी हैं जो ना अन्बिया में से हैं और ना ही वो शुहदा में से हैं।

इस के अ़लावा अल्लाह के रसूल  (صلى الله عليه وسلم) ने एै़न नबुव्वत ही की तर्ज़ पर ख़िलाफ़त के फिर लौट आने की बशारत दी है, नीज़ रुम के फ़तह होने, यहूदियों से लड़ाई और उनके क़त्ल किए जाने और ख़िलाफ़त के फिर अर्ज़-ए-मुक़द्दसा लौट आने की बशारत दी है।

यहाँ पर मुसलमानों की तारीख का नक़्शा बयां करना भी बेहतर मालूम होता है जैसे बदर की फतह, ख़ंदक़ क़ादसिया, नहाविंद, यरमूक, अज्नादीन, तशतर और मुतअ़द्दिद फ़ुतूहात जिन को शुमार में लाना मुहाल है। और उन ग़ज़वात की तरफ़ भी इशारा कर देना भी चाहिए जिन में मुसलमान अपनी तादाद और तैय्यारी (अफराद और असलेहा) दोनों के लिहाज़ से कम थे। बल्के अल्लाह ने एक फ़र्दे वाहिद के ज़रीये भी फ़तह ओ कामरानी अ़ता फ़रमाई, जिस को रसूलुल्लाह ने एक मुहिम पर भेजा था। और दुबारा मुसलमानों के ज़ेहनों में मफ़्हूमे जिहाद और इस की जलालते शान को भी वाज़ेह कर दिया जाये और जे़हनों में खोखले अमन की दबीज़ तेह को साफ़ कर दिया जाये। किसी क़िस्म की गुफ़्त-ओ-शनीद और मुज़ाकरात, सज़ा, हलाकत-ओ-तबाही, मज़म्मत ओ मलामत, ताग़ूत की नापसंदीदगी और अदना और मामूली चीज़ों के तमाम ग़ुबार और धब्बे को दूर करना है।

इन सब से पेहले दिलों में अ़क़ीदे को मज़बूत करना ज़रूरी है क्योंके ये तमाम अहकाम ओ फ़रामीन की असास-ओ-बुनियाद है। आख़िर क्योंकर इसी अ़क़ीदे ने अ़रब को उनकी जाहिलियत के बावजूद एक कर दिया, जिनकी कोई ख़्वाहिश, कोई मक़सद ना था सिवाए जंग-ओ-जदल के, जिनके मुआमलात नेज़ों की नोक और तलवार की धार पर हल होते थे। और इस अ़क़ीदे ने एैसी दुनिया-ओ-आख़िरत के ज़रीये ताक़त वर और मज़बूत क़ौम आलम के सामने पेश की जो सब से बेहतरीन उम्मत है जो लोगों के लिए बनाई गई है, जिसने ख़ैर की तरफ़ दुनिया की रहनुमाई की, अपने रब के हुक्म से लोगों को तारीकी से निकाल कर रब के पुर नूर और सीधे रास्ते पर लगाया।

हालात-ओ-वाक़ियात के ऐतेबार से जिस में लोग जिंदगी गुज़ार रहे हों उनके मुताबिक़ दर्स-ओ-बेहस का मौज़ू इख़्तियार किया जाना चाहिए ताके गुफ़्तगु में दिलचस्पी और हयवियत (Vitality) बनी रहे। ये चीज़़ दर्स की रूह होती है। लिहाज़ा अगर मुदर्रिस देखे के लोगों को अ़क़ीदे की ज़रूरत है तो अ़क़ीदे पर दर्स दे और अगर सियासी मौक़िफ़ के ताल्लुक़ से लोग अंधेरे में हों तो इसको मौज़ू बना ले। अगर लोग फ़िक्री सतह पर दुरूस्तगी के मुहताज हैं या ग़लत, गुमराह मुआमलों में मुलव्विस और फंसे हुए हैं तो दर्स देने वाला उसको बयान करे और सही मौक़िफ़ भी वाज़ेह करे या बक़ौल शैख़ तक़ीउद्दीन अल-नबहानी “टेढ़ी लकीर के बग़ल सीधी लकीर खींचे।“ एैसे वक़्त में जब के अमरीका बग़दाद को बर्बाद कर रहा हो, मसलन ख़ुला जैसे मौज़ू पर बेहस करना महज़ एक धोख़ा होगा, या मौज़ूऐ बेहस औरत का गाड़ी चलाना हो जबके मस्जिदे अक़्सा दुश्मन के क़बज़े में घिरी में है। या मौज़ूऐ दर्स औरत का पार्लीमैंट में दाख़िल होना हो जबकि उधर अमरीकी फ़ौजें मुमालिक पर क़ब्ज़ा करती जा रही हैं। या दर्स का मौज़ू ताजि़यत के लिए जुलूस निकालना हो जबकि पैट्रोल (इस्लामी दौलत) को ग़सब किया जा रहा हो। या बालों के अहकाम पर बेहस की जाये जब के मस्जिदे हराम की हुर्मतें पामाल हो रही हों।

जो शख़्स शरई अहकाम से नावाक़िफ़ हो और उसके अ़मल से हुक्म शरई की एहमीयत मुतास्सिर होती हो उसे तंबीह करना।

फ़क़ीह से उ़ज़्र पेश करना जो साहिबे राय हो और इस की राय मुदर्रिस की राय के बरअ़क्स हो।

इस की दलील वो हदीस है जिसकी रिवायत हाकिम ने अ़ब्दुल्लाह बिन मग़फ़ल से की है और इस रिवायत को सही क़रार दिया के उन्होंने फरमाया :

((نھی رسول اللّٰہ ا عن الخذف ))
अल्लाह के रसूल ने मजालिस में कंकर पत्थर फेंकने से मना फ़रमाया है।

(ख़ज़फ़ के मानी ये हैं के कंकर या किसी चीज़़ की गुठली को दो उंगलियों के दरमियान दबा कर उछाल देना), हज़रत अ़ब्दुल्लाह इब्ने मग़फ़ल ने हदीस अपने दर्स में सुनाई और एक आदमी ने कंकरी फेंकी। आप (رضي الله عنه) ने फ़रमाया : मैं तुम को अल्लाह के रसूल की हदीस बयान कर रहा हूँ और तुम कंकरी मार रहे हो अल्लाह की क़सम में तुम से कभी बात नहीं करूंगा।

मसनद अहमद में अ़ब्दुल्लाह बिन यसार की रिवायत है। हैसमी इसके रिजाल को सक़ा क़रार देते हैं। अ़म्र बिन हरीस ने हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) से उनकी राय दरयाफ़्त की के जनाज़े के आगे चलना चाहिए या इसके पीछे? तो हज़रत अ़ली ने फ़रमाया के जनाज़े के पीछे चलना आगे चलने से अफ़ज़ल है जैसे फ़र्ज़ नमाज़ जमात से पढ़ना मुनफ़रिद की नमाज़ से अफ़ज़ल है। तो अ़म्र ने कहाः मैंने हज़रत अबू बक्र और हज़रत उ़मर (رضي الله عنه) को जनाज़े के आगे चलते हुए देखा है। इस पर हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) ने फ़रमायाः उन्होंने लोगों को तकलीफ़ में डालना पसंद नहीं किया (यानी लोग ये ना समझें के जनाज़े के आगे चलना ग़लत है)।

(अ) सवाल पूछने वाले को अच्छी तरह से सुननाः अबू नईम ने हिलया में और इब्ने हिब्बान ने रोज़तुल उक़ला में नक़्ल किया हैः हम से मआज़ बिन साद अल ऊवर ने कहाः मैं अ़ता बिन अबी रिबाह के पास बैठा था एक शख़्स ने हदीस बयान की तो एक दूसरे शख़्स ने दरमियाने गुफ़्तगू मुदाख़िलत की इस पर अ़ता बिन रिबाह ग़ज़बनाक हो गए और कहा ये क्या तरीक़ा हुआ के मुदाख़िलत की, मैं एक आदमी से हदीस सुन रहा हूँ जबकि मैं इसका जानकार हूँ, मगर मैं फिर भी ये ज़ाहिर कर रहा था के मुझे इसका कुछ इ़ल्म नहीं।

(ब) जो लोग ख़ामोश ना हों उनसे गुफ़्तगु ना करनाः बुख़ारी ने हज़रत जरीर से रिवायत की है के नबी अकरम (صلى الله عليه وسلم) ने हज्जतुल विदा के वक़्त उनसे फ़रमायाः

((استنصت الناس۔۔۔))
लोगों को ख़ामोश कराओ……………….

नीज़ अलख़तीब ने अल फ़क़ीह वल मुतफ़क़्क़ेह में ज़िक्र किया है के अबू उ़मर बिन अल अ़ला ने कहाः अदब ये नहीं है के जो सवाल ना करे उसको जवाब दो या जो सवाल करे उसको जवाब ना दो या उनसे गुफ़्तगु करो जो तुम्हारी तरफ़ मुतवज्जो ना हों।

क़वाइद के एैसे इस्तिंबात से इज्तिनाब करना जो शरई अहकाम की ख़िलाफ़ वरजी का बाइस बने, जैसे के ये क़ायदा के मख़्सूस हालात का तकाजा ख़ास ज़रूरत के कायम है। या ये क़ायदाः मुतलक़ और ग़ैर मुक़य्यद उमूर में हुक्म बर सबील सहूलत हो। इन की मिसालें:

 जैसे मकान ख़रीदने के लिए सूद पर क़र्ज़ हासिल करना या किसी ईसाई की दुकान में ख़िंज़ीर का गोश्त बेचना या कुफ़्फ़ार की फ़ौज में शरीक होकर मुसलमानों से लड़ना या मुस्लिम औरत का बग़ैर ख़िमार (सर पर चादर या पर्दा) के घर से निकलना जबकि वो निकल कर एैसे मुल्क जा सकती हो जहाँ ख़िमार पहनने में कोई आज़माईश या पाबंदी ना हो या और किसी एैसे क़ानून और निज़ाम के तहत क़ाज़ी बन जाना जो निज़ाम अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) की तरफ़ से नाज़िल ना हुआ हो।

(स) इ़ल्म ना होने के बावजूद इ़ल्म होने का दावा करनाः बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत उ़मर (رضي الله عنه) से मरवी है वो कहते हैं, हम को तकल्लुफ़ और बनावट से मना किया गया है। मसरूक़ कहते हैं केः हम अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द के पास गए तो उन्होंने कहाः ऐ लोगो! जिस के पास कुछ भी इ़ल्म-ओ-जानकारी हो वो बताए और जो नहीं जानता वो कहे के अल्लाह बेहतर जानता है। क्योंके ये भी इ़ल्म है के आदमी को जिस का इ़ल्म नहीं है तो इसके बारे में कहे के अल्लाह बेहतर जानता है। अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने अपने नबी (صلى الله عليه وسلم)  से फ़रमायाः

) قُلْ مَاۤ اَسْـَٔلُكُمْ عَلَيْهِ مِنْ اَجْرٍ وَّ مَاۤ اَنَا مِنَ الْمُتَكَلِّفِيْنَ(
कह दो मैं तुम से इस पर कोई अज्र नहीं मांगता और ना मैं बनावट करने वालों में से हों। (तर्जुमा मआनी क़ुरआने करीमः साद- 86) मुत्तफिक़ अ़लैह।

(द) ना ऐहलों और बेवक़ूफ़ों से गुफ़्तगु करने से ऐराज़ करनाः हज़रत जाबिर (رضي الله عنه) कहते हैं के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः

((لا تعلموا العلم لتباھوا بہ العلماء،ولا تماروا بہ السفھاء ولا تخیروا بہ المجالس فمن فعل ذلک فالنار فالنار))
इ़ल्म इसलिए हासिल ना करो के इसके ज़रीये औलमा के सामने फ़र्ख़ करो और ना ही इसके ज़रीये बेवक़ूफ़ों से तकरार-ओ-बेहस करने के लिए इसको हासिल करो और ना ही इसलिए के मज्लिसों में सर ऊंचा हो। जो एैसा करे तो उसके लिए आग है, आग है। 

मुस्तदरक में ये रिवायत आई है और हाकिम ने इसे सही बताया है जिस से अ़ल्लामा ज़ेहबी ने इत्तिफ़ाक़ किया है, नीज़ इब्ने हिबान की सही, इब्ने माजा, बैहक़ी और इब्ने अब्दुल बर ने जामे बयान अल इ़ल्म व फ़जि़लहि में नक़्ल की है।

(ज) रिया ओ नमूद, किब्र ओ इज्ब, फ़र्ख़ ओ तकब्बुर से परहेज़ ओ इज्तिनाबः तफ़्सील गुज़र चुकी है।
(झ) लोगों की समझ और मर्तबे के लिहाज़ से उनसे मुख़ातिब होना: बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत अ़ली (رضي الله عنه) फ़रमाते हैं: लोगों को वो चीज़़ बयान करो जो वो समझते हों, क्या तुम को पसंद होगा के लोग अल्लाह और उसके रसूल को झुटलाएं और उनसे इंकार करें? हज़रत अ़ब्दुल्लाह बिन मसऊ़द से मुस्लिम शरीफ़ में मरवी है उन्होंने फ़रमायाः तुम किसी क़ौम से एैसी बात नहीं कर सकते जो उनको समझ में ना आती हो सिवाए इसके के एैसी बात इन में से बाअ़ज़ के लिए फ़ित्ना हो। नीज़ बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) का क़ौल नक़्ल हैः रब्बानी बुर्दबार और फ़क़ीह बनो। रब्बानी उसको कहते हैं जो लोगों को इ़ल्म की बारीकियां बताने से क़ब्ल उन्हें इ़ल्म की छोटी छोटी बातें बता कर उनकी तर्बीयत करे।

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