आदाबे गुफ़्तगु(1:2): ख़ुत्बे और तक़रीर के आदाब,बेहस-ओ-मुबाहिसा के आदाब:

2: ख़ुत्बे और तक़रीर के आदाबः

ख़ासकर जुमे के दिन ख़ुतबा मुख़्तसर होना चाहिए, क्योंके हज़रत अ़म्मार की हदीस है जिसकी रिवायत मुस्लिम शरीफ़़ में आती है वो कहते हैं मैंने रसूले अकरम को फ़रमाते सुनाः

((إن طول صلاۃ الرجل وقصر خطبتہ مئنۃ من فقھہ؛فأطیلوا الصلاۃ وأقصروا الخطبۃ وإن من البیان سحراً))
किसी की नमाज़ का तवील होना और उसके ख़ुत्बे का मुख़्तसर होना, उस में दीन के फ़ेहम की अ़लामत है। लिहाज़ा नमाज़ें तवील करो और ख़ुत्बों को मुख़्तसर करो, बेशक (इस तरह) बयान में तासीर होती है।

इसी तरह हज़रत जाबिर बिन समरा (رضي الله عنه) से मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत है वो कहते हैं के मैं रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) के साथ नमाज़ पढ़ता था। आप की नमाज़ मोतदिल-ओ-दरमियानी हुआ करती थी। और आप का ख़ुत्बा भी दरमियाना हुआ करता था।

नीज़ इब्ने ख़ुज़ैमा, मसनद अहमद और सुनन अबी दाऊद में हकम बिन हज़न अलकलफ़ी की रिवायत नक़्ल है जिसे अ़ल्लामा इब्ने हजर अल अ़स्क़लानी फ़रमाते हैं के इस की असनाद हसन हैं। वो कहते हैं के जुमे के दिन में आप (صلى الله عليه وسلم) के साथ मौजूद था। आप अपने अ़सा पर टेक लगा कर खड़े हुए, अल्लाह की हम्द-ओ-सना बयान की, चंद पाक और मुबारक कलिमात के साथ।

और इसी तरह अ़ब्दुल्लाह बिन अबी औफ़ा की हदीस है केः रसूलुल्लाह कसरत से ज़िक्र किया करते थे। लग़्व कम करते थे। नमाज़ लंबी पढ़ा करते थे, और ख़ुत्बा मुख़्तसर दिया करते थे। आप (صلى الله عليه وسلم) ग़ुलाम, मुहताज और कमज़ोरों के साथ चलने में कोई आर महसूस नहीं करते थे हत्ता के उनकी ज़रूरत को पूरा कर देते। हाकिम ने कहा ये सही है और शैख़ैन की शर्त पर है। इब्ने हिबान ने सही में नक़्ल किया है और अ़ल्लामा इ़राक़ी ने इस की तसहीह की है। तबरानी ने अबू दुजाना से इसी मआनी की हदीस रिवायत की है और हैसमी ने इस की सनद को हसन क़रार दिया है।

नमाज़-ओ-ख़ुत्बे में मियाना रवीः जैसे दीगर अहादीस में वज़ाहत हुई है के नमाज़ तवील और ख़ुत्बा मुख़्तसर हो। चुनांचे इब्ने अबी औफा की रिवायत गुज़री के रसूलुल्लाह तवील नमाज़ पढ़ते और ख़ुत्बा मुख़्तसर करते और हज़रत अम्मार की हदीस के हमें तवील नमाज़ और मुख़्तसर ख़ुत्बे का हुक्म दिया। चुनांचे जुमे के रोज़ आप (صلى الله عليه وسلم) की नमाज़ लंबी हुआ करती और ख़ुत्बे मोतदिल होते थे।

सलाते जुमा के ताल्लुक़ से अबू हुरैरा (رضي الله عنه) की हदीस है के आप सूरह अल जुमा और अल मुनाफ़िक़ून की तिलावत फ़रमाते थे। हज़रत नोमान बिन बशीर की हदीस है के आप सब्बेह इस्मा रब्बिकल आअला और हल अताका हदीस उल ग़ाशिया पढ़ते थे। हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) से मरवी है के जुमे के दिन सूरा जुमा और मुनाफ़िक़ून पढ़ते थे। इन तीनों हदीसों की रिवायत मुस्लिम ने की है। इसी तरह आप (صلى الله عليه وسلم) की जुमे की नमाज़ लंबी होती थी इसका अंदाज़ा इस मुद्दत से लगाया जा सकता है के आप (صلى الله عليه وسلم) इस में सूरा अल जुमा और सूरा अलमुनाफ़िक़ून की तिलावत करते। दो मर्तबा सूरत फ़ातिहा की किरअत करते और दो रुकूअ़, चार सज्दे, जल्साऐ तशह्हुद, दरूद इब्राहिमी। ये जुमा की सब से तवील नमाज़ हुई और मुख़्तसर तरीन नमाज़ जिस में आप सब्बेह इस्मा रब्बिकल अअ़ला और हल अताक हदीस उलग़ाशिया पढ़ते और साथ वो अरकान भी अदा करते जिन का ज़िक्र अभी ऊपर हुआ है। इस चीज़़ को सामने रखते हुए कहा जाता है के आप (صلى الله عليه وسلم) की नमाज़े जुमा ख़ुतबे से तवील हुआ करती थी। लिहाज़ा ख़तीब सुन्नत की मार्फ़त के ज़रीये ख़ुतबे की मिक़दार का अंदाज़ा कर सकता है।

मिंबर पर ख़तीबाना उस्लूब इख़्तियार करे ना के दर्स की हो, या मक़ाला क़िस्सा गोई या शेर गोई की तरह। इन दोनों के दरमियान फ़र्क़ को समझने के लिए चाहिए के लुग़त की मुनासिब किताबों से रुजू किया जाये।

लेहेन और ग़लतियाँ से बचना ज़रूरी है क्योंके कलाम-ओ-ख़िताब में ग़लती और लेहेन का होना ख़तीब पर दाग़ है और सब से ज़्यादा क़बीह ये है के वो मिंबर पर खड़ा हो कर क़ुरआन की तरतील में ग़लती करे।

3: बेहस-ओ-मुबाहिसा के आदाबः

जदल (मुनाज़रा) तहाव्वुर को कहते हैं जैसे अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) का क़ौल हैः

قَدْ سَمِعَ اللّٰهُ قَوْلَ الَّتِيْ تُجَادِلُكَ فِيْ زَوْجِهَا وَ تَشْتَكِيْۤ اِلَى اللّٰهِ١ۖۗ وَ اللّٰهُ يَسْمَعُ تَحَاوُرَكُمَا١ؕ
अल्लाह ने इस औरत की बात सुन ली जो तुम से अपने शौहर के बारे में बेहस कर रही है, और अल्लाह से शिकवा किए जाती है अल्लाह तुम दोनों की गुफ़्तगु सुन रहा है। (तर्जुमा मआनी क़ुरआने करीम: अल मुजादिला- 01)

अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) ने जदल को तहाव्वुर से मौसूम किया है। तहावुर की तारीफ़़ ये है के दोनों मुख़ालिफ़ फ़रीक़ अपनी हुज्जत नज़रिया या जिस को वो हुज्जत ओ दलील समझ रहे हों, इस मक़सद से के दूसरे फ़रीक़ की राय को तब्दील करके अपने नज़रियाऐ फ़िक्र की तरफ़ लाया जाये और उसके नज़रिये के बातिल होने को साबित किया जाये और अपने नज़रिये को जिस को हक़ समझता हो साबित किया जाये।

शरीअ़त में जदल या बेहस से मुराद और मतलूब हक़ को हक़ साबित करना और बातिल को बातिल साबित करना है। जदल (मुनाज़रा) शरई तौर पर मतलूब है। इस की दलील अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ)  का ये क़ौल हैः

اُدْعُ اِلٰى سَبِيْلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَ الْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ وَ جَادِلْهُمْ بِالَّتِيْ هِيَ اَحْسَنُ١ؕ
अपने रब के रास्ते की तरफ़ हिक्मत और उम्दा नसीहत के साथ दावत दो, उनसे एैसे तरीक़े पर मुबाहिसा करो जो बेहतरीन हो। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन: नहल-125)

قُلْ هَاتُوْا بُرْهَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ
कहो, अपनी दलील लाओ, अगर तुम सच्चे हो। (तर्जुमा मआनीये क़ुरआन: बक़राह -111)

फिर आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुशरिकीने मक्का से नजरान के नसरानियों से, मदीने के यहूद से भी मुनाज़िरे किऐ। दाई ख़ैर की तरफ़ बुलाता है, मारूफ़ का हुक्म देता है और मुनकिरात से रोकता है। गुमराह कुन अफ़्कार और ख़्यालात से बरसर-ए-पैकार रहता है। जब भी एैसी सूरते हाल से निमटने के लिए बेहस-ओ-मुबाहिसा कार आमद हो, बेहस-ओ-मुबाहिसा वाजिब हो जाता है, क्योंके क़ायदाऐ शरई ये है के (जिस के बग़ैर कोई फ़र्ज़ पूरा ना हो, वो चीज़ भी फ़र्ज़ हो जाती है)

बाअ़ज़ क़िस्म की बेहस जो के शरअ़न काबिले मुज़म्मत और मज़मूम, बल्के कुफ्र है वो ये के अल्लाह और इस की आयात-ओ-निशानियों में बेहस-ओ-तकरार की जाये।

وَ هُمْ يُجَادِلُوْنَ فِي اللّٰهِ١ۚ وَ هُوَ شَدِيْدُ الْمِحَالِؕ
इस हाल में के वो अल्लाह के बारे में झगड़ रहे होते हैं, यक़ीनन उसकी चाल बहुत ही सख़्त है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: राद-13)

مَا يُجَادِلُ فِيْۤ اٰيٰتِ اللّٰهِ اِلَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا
अल्लाह की आयात के बारे में वोही लोग झगड़ते हैं जिन्होंने कुफ्र इख़्तियार किया (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: अलमोमिन-04)

ا۟لَّذِيْنَ يُجَادِلُوْنَ فِيْۤ اٰيٰتِ اللّٰهِ بِغَيْرِ سُلْطٰنٍ اَتٰىهُمْ١ؕ كَبُرَ مَقْتًا عِنْدَ اللّٰهِ وَ عِنْدَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا١ؕ
एैसे लोगों की जो अल्लाह की आयात में झगड़ते हैं, बग़ैर इसके के इन के पास कोई सनद आई हो। अल्लाह के नज़दीक और उन लोगों के नज़दीक जो ईमान लाए ये रविश सख़्त मबग़ूज़ है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने: मोमिन- 35)

وَّ يَعْلَمَ الَّذِيْنَ يُجَادِلُوْنَ فِيْۤ اٰيٰتِنَا١ؕ مَا لَهُمْ مِّنْ مَّحِيْصٍ
और इस वक़्त हमारी आयात में झगड़े करने वालों को पता चल जायेगा के उनके लिए कोई जाऐ पनाह नहीं है। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः शूरा- 35)

और जो शख़्स काफ़िर है वो मुनकिर मुसबत नहीं, पस मुन्किरे हक़ को कमतर दिखाने के लिए मुनाज़रा-ओ-मुबाहिसा करता है जब के मुसबत एहक़ाक़े हक़ और इबताले बातिल के लिए मुजादिला करता है।

وَ جٰدَلُوْا بِالْبَاطِلِ لِيُدْحِضُوْا بِهِ الْحَقَّ
और वो बातिल का सहारा लेकर झगड़े ताके इसके ज़रीये से हक़ को पसपा कर दें। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीम: अलमोमिन- 05)

مَا ضَرَبُوْهُ لَكَ اِلَّا جَدَلًا١ؕ بَلْ هُمْ قَوْمٌ خَصِمُوْنَ
उन्होंने ये तुम से महज़ झगड़ने के लिए कहा नहीं बल्कि वो हैं ही झगड़ालू लोग। (तर्जुमा मआनिये क़ुरआने करीमः ज़ुख़र्रुफ -58)
नीज़ क़ुरआन के ताल्लुक़ से बेहस-ओ-तकरार करना के ये मोजिज़ा या अल्लाह की जानिब से नाज़िल करदा नहीं है, कुफ्र है। इमाम अहमद ने हज़रत अबू हुरैरा से मरफ़ूअ रिवायत किया है के क़ुरआन के सिलसिले में मुबाहिसा-ओ-मुजादिला करना कुफ्र है।

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