नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया
: “अगर कोइ
शक्स अपनी अक्ल
से राए इख्तेयार
करेगा, तो वह
अपना ठिकाना जेहन्नुम
मे कर लेगा”
(मफहूम हदीस: बुखारी,
मुस्लिम)
शरइ
हुक्म की नस
सिर्फ : क़ुरआन और नबी (صلى الله عليه وسلم) की
सुन्नत है
हमारी
राए, हमारे जज़बात,
राए आम्मा,
रिवाजों और रिवायतें
की हक़ीक़त इस्लाम
में कुछ नहीं
हर साल खास
तौर पर रमज़ान
की आमद के साथ चाँद
के अपने मुल्क
या अपने शहर में दिखने
या न दिखने
पर उम्मत का वह हिस्सा
जो हिन्दुस्तान में रहता है एक कशमकश
और उलझन का शिकार हो जाता है, कि जब उम्मत एक है उसके
मसाइल क़रीब क़रीब
सारे आलम में एक हैं, उम्मत का हर हिस्सा
दूसरे से एक गहरे जज़्बाती रिश्ते
से जुड़ा हुआ है तो फिर क्या
सबब है कि जब बात रमज़ान या ईद के चाँद देखने
की हो तो उम्मत का यह हिस्सा
तक़रीबन सारी दुनिया
के मुसलमानों से अलहदा हो जाता है। एक आम मुसलमान यह समझने से क़ासिर है कि उलेमा
जब एक ऐसे मसले में इत्तेफ़ाक़ राय करने से आजिज़ हैं, तो फिर उम्मत में इत्तेफ़ाक़ और इत्तेहाद
क्यूँकर मुमकिन हो सकता है ? बाज़ अवक़ात
मुसलमानों के मुमालिक
में खास
कर हिन्दुस्तान से दो दिन पहले ही रमज़ान शुरु
हो जाते हैं और ईद भी दो दिन पहले
ही हो जाती
है। बल्कि एक ही मुल्क
के अलग अलग सूबों में अलहदा ईदें
मनाना आज आम बात हो गई है। इन सुतूर
के ज़रिए इस मसले के फि़क़्ही
और इससे वाबस्ता
शरई मसाइल पर ग़ौर किया
गया है,
जो उम्मत के बाशऊर लोग, खास
कर हर वह शख़्स जो उम्मत का दर्द रखता
है, और उम्मत
को एक मुत्तहिद
व वहदत की शकल में देखने की तमन्ना रखता
है, इसके जज़्बात
की तर्जुमानी हो सके।
बहैसियत मुसलमान होने
के, हमारे सामने
पेश आने वाली
हर सूरतेहाल का
हल हमें अल्लाह
तआला के कलाम,
अल्लाह
के रसूल (صلى
الله عليه وسلم)
की सुन्नत और
सहाबा किराम रिज़्वानुल्लाहे तआला
अलयहिम
अजमईन के इज्मा
से बिलतरतीब हासिल
करना चाहिए। चुनांचे अब
हम इन तीनों
चीज़ों
में इस मस्ले
के बारे में
मोजूद हिदायात पर
नज़र डालेंगे.
क़ुरआने हकीम से :
सू
|
रह बक़रह
की आयात
189 में चाँद को महीनों के तअइयुन का आलाए शनाख़्त
बताया है:
يَسْأَلُونَكَ
عَنِ الْأَهِلَّةِ قُلْ هِيَ مَوَاقِيتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ وَلَيْسَ الْبِرُّ
بِأَنْ تَأْتُوا الْبُيُوتَ مِنْ ظُهُورِهَا وَلَكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقَى وَأْتُوا
الْبُيُوتَ مِنْ أَبْوَابِهَا وَاتَّقُوا اللَّهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُونَ
“लोग आप से चाँद के
बारे मे सवाल करते हैं, आप कह दि जिये की यह लोगों (की इबादत) ले वक़्तों और हज के
मौसम के लिये है.....”
नमाज़ों के वक़्त का तअइयुन सूरज
से होता है और महीनों का तअइयुन चाँद
से। फिर कुछ लोग यह बहस रखते
हैं कि मसलन
सऊदी अरब और हिन्दुस्तान में ढाई घन्टे
का फर्क है तो फिर यहॉ ईद एक या दो दिन बाद होना फि़तरी
बात है। अगर यह मन्तक़
मान भी ली जाए तो इसकी रु से सऊदी
अरब और इन्डोनेशिया
में पॉच घन्टे
का फर्क है चुनांचे इन्डोनेशिया
में ईद सऊदी
अरब के दो या चार दिन बाद होना चाहिए
और अमेरिका क्यूंकि
सऊदी अरब से दस घन्टे
पीछे है इसलिए
वहॉ ईद चार से आठ दिन पहले
ही हो जाना
चाहिए ! ऐसी दलील
दरहक़ीक़त कोई दलील
नहीं बल्कि बेइल्मी
पर मब्नी है, किसी भी संजीदा शख़्स
के तवज्जह के क़ाबिल नहीं।
सूरह
बनी इसराईल:17
की आयत
78, सूरह
निसाअ की आयत 103 में अल्लाह
तआला ने मोमिनों
पर मुक़र्रर अवक़ात
में नमाज़ फर्ज़
की है जो हर ऐक जगह पे सूरज की एंगुलर पोज़ीशन
से जुड़ा है । इस्लिए, हर थोड़ी
दुरी पर हर नमाज़ के औकात बदल जाएंगे।
हुज़ूरे अकरम (صلى الله عليه وسلم) का
अमल और क़ौल :
1) रमज़ान शुरू
करने और पूरा
होने के तआल्लुक़
से:
आइये हम हुज़ूरे अकरम
(صلى الله عليه وسلم) के अमल पर नज़र डालें।
बुखारी और मुस्लिम
शरीफ़ की हदीस
में अल्लाह के नबी (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमाया:
((صومو ا لرؤیتہ و افطرو الرؤیتہ
فان غبی علیکم فاکملوا عدۃ شعبان ثلا ثین یوماً ))
“चाँद देख
कर रोज़े रखो
और चाँद देख
कर रोज़े खोलो,
अगर तुम पर
बादल छाऐ हों
तो तीस दिनों
की गिनती पूरी
करो” (सही बुखारी
किताबुल सोम जिल्द
अव्वल हदीस रक़म 1782)। हदीसे
पाक में लफज़
“सूमू”
है जो जमा है और पूरी उम्मत
से हुज़ूरे अकरम
(صلى الله عليه وسلم) का आम खिताब
है।
2) रमज़ान के
चांद की इत्तेला
और रमज़ान शुरू
होने के तआल्लुक़
से:
अबुदाऊद से रिवायत हदीस
के मुताबिक़ एक एअराबी हुज़ूर
(صلى الله عليه وسلم) के पास आया और बताया
कि उसने रमज़ान
का चाँद देख लिया है, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने एअराबी से पूछा कि क्या अल्लाह
तआला के एक होने की शहादत देता
है, एअराबी ने इक़रार किया
कि हॉ वह यह शहादत देता
है, फिर हुज़ूर
(صلى الله عليه وسلم) ने सवाल किया
कि क्या वह मुहम्मद (صلى الله عليه وسلم) का अल्लाह के रसूल होने
का इक़रार करता
है, इस पर भी एअराबी
ने हॉ कहा और गवाही
दी कि उसने
चाँद देखा है, फिर हुज़ूर
(صلى الله عليه وسلم) ने हज़रत बिलाल
(रज़ीअल्लाहो
अन्हो) को हुक्म दिया
कि वह यह एलान कर दें कि कल से रोज़ों का हुक्म है। (रावी हज़रत
अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास
(रज़ीअल्लाहो
अन्हो).-
सुनन अबुदाऊद रक़म
हदीस 2333)। इसी तरह अबुदाऊद
की और रिवायात
जैसे हदीस रक़म 2334 और
2335 में भी यही बात दूसरे
रावियों के हवाले
से नक़ल की गई है।
3) ईद के
चांद की इत्तेला
और माहे रमज़ान
पूरा होने के
तआल्लुक़ से:
इसी तरह ईद के चाँद
के वक़्त भी हुज़़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने लोगों
की शहादतें क़ुबूल
फ़रमाई। दिलचस्प बात यह है कि चाँद
की शहादतें क़ुबूल
किए जाने वाली
तक़रीबन हर हदीस
में हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने गवाही देने
वाले से इसके
इस्लाम क़ुबूल करने
की बात को पूछ पूछ कर यक़ीनी
बनाया कि वह मुस्लिम ही है लेकिन
इनमें से किसी
भी हदीस में उस गवाह से उसके नाम, या शहर या उसके
शहर के मदीने
मुनव्वरह से फ़ासले
के बाबत पूछा
जाना रिवायत नहीं
किया गया है, क्यूंकि चाँद
की इत्तिला को तो सारे
मुसलमानों पर,
ख़्वाह वह किसी
भी खित्ते में मुक़ीम हों, और उनका
शहर मदीना मुनव्वरह
से कितने ही फ़ासले पर हो,
मुन्तबिक़ होना ही है,
वरना आप खुद (صلى الله عليه وسلم) ऐसे गवाह से फ़ासले की बाबत पूछ कर उसकी
शहादत को रद्द
फ़रमा देते और उम्मत को यह सबक़
दे जाते कि इतने इतने
फ़ासले के बाद चाँद की शहादत क़ुबूल
न करते हुए अपने ही मोहल्ले,
गली, शहर या मुल्क में चाँद के दिख जाने
का इन्तेज़ार करो।
मिसाल के तौर पर अबुदाऊद ही में हदीस
रक़म 1153 मुलाहिज़ा फ़रमाइये, हज़रत अबु अमीर इब्ने
अनस (रज़िअल्लाहो अन्हू) अपने चचा की सनद पर रिवायत
करते हैं कि कुछ लोग ऊॅटों पर सवार हुज़ूर
(صلى الله عليه وسلم) के पास तशरीफ़
लाए और बयान
किया कि इन्होंने
कल चाँद देखा
है, हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم) ने लागों को रोज़ा खेालने
का और अगले
दिन (ईद की) नमाज़ के लिए ईदगाह पहुंचने
का हुक्म दिया। हालांकि
उस वक़्त असर का वक़्त
हो चुका था और रोज़ा
मुकम्मिल हुआ ही चाहता था, लेकिन कहीं
और चाँद के दिख जाने
से मदीना मुनव्वरह
में भी अब चूंकि ईद होना थी लिहाज़ा रोज़ा
हराम हो जाता
चुनांचे उसी वक्त
हुज़ूर (صلى الله عليه وسلم)
ने अफ़तार का हुक्म दिया।
आज उसी मदीने
में चाँद हो जाने और ईद हो जाने के बावजूद हिन्दुस्तान
के बेशतर इलाक़ों
में तीसवां या कभी उन्तीसवां
रोज़ा रखना आम बात हो गई है, सवाल यह पैदा होता
है कि हुज़ूर
(صلى الله عليه وسلم) के बाद अब कौनसा शरई हुक्म बदल गया है ?
दूसरी जगह का
चांद ना मानने
की हक़ीकत:
1) रिवायत
: इसके दूसरी तरफ़
एक रिवायत सामने
आती है जिससे
बज़ाहिर ऐसा तसव्वुर
उभरता है के दो मुका़मात
पर दो अलग-अलग दिन चाँद होने
का इमकान है। इस रिवायत
के मुताबिक़ एक शख़्स मुल्क
शाम से लौटे
तो हज़रत अब्दुल्लाह
इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो
अन्हो) ने उनसे चाँद
के बारे में दरयाफ़्त किया
कि शाम मे चाँद कब हुआ,
जवाब मिला के वहाँ चाँद
जुमा की शब को हुआ, जबकि मदीना
मुनव्वरह में चाँद
सनीचर को हुआ, और जब पूछा गया कि क्या
आप मआविया के चाँद देखने
को दलील नही मानते,
तो हज़रत अब्दुल्लाह
इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो
अन्हो).
ने फ़रमाया के हमें रसूलल्लाह
(صلى الله عليه وسلم) ने ऐसा ही हुक्म दिया
है।
हक़ीकत: अब इस रिवायत की बुनियाद पर हर इलाक़े
में अलग चाँद
होने के इमकान
को क़ुबूल किया
जा रहा है और मौजूदा
तर्ज़े अमल का जवाज़ पेश किया जा रहा है, जबकि इसमें
दो क़बाहतें हैं।
अव्वल तो ये के हज़रत
अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास
(रज़ीअल्लाहो
अन्हो) का यह ज़ाति
इज्तेहाद हो सकता
है। दूसरे यह हुज़ूरे अकरम
(صلى الله عليه وسلم) की हदीस नही बल्की
सहाबी का फेसला
और अमल है। इस बात को उलेमा
की अक्सरीयत ने तस्लीम किया
है कि फिलहक़ीक़त
ये हज़रत अब्दुल्लाह
इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो
अन्हो) का इन्फ़रादी अमल था।
इस मौज़ू पर “तोहफ़तुल
कद़ीर”
में जो कि फि़क़्हा हन्फि़या
की मुअतबर किताब
है, लिखा है कि इस रिवायत में हज़रत अब्दुल्लाह
इब्ने अब्बास (रज़ीअल्लाहो
अन्हो) के मुल्के शाम के चाँद
को तस्लीम न करने की वजह दरअसल
उस ख़बर का सिर्फ एक गवाह होना
है (“तोहफ़तुल
कद़ीर”: 2 / 314)। इसी राय की ताईद एक और मुअतबर
किताब अलमुग़ना में है कि इस रिवायत
में दूसरी जगह के चाँद
को मुस्तरिद करने
की बात नहीं की गई है कि हर जगह के चाँद को मुस्तरिद करो और अपने
मुक़ाम पर ही चाँद के दिखने का इन्तेज़ार करो (अलमुग़ना-3:5)।
इमामुल
नववी रहमतुल्लाह
अलैह मुस्लिम शरीफ़
की शरह में फ़रमाते हैं कि अगर चाँद का दिखना एक मुक़ाम पर साबित हो जाऐ तो दूसरी जगह के लोगो
पर इसका मानना
ज़रूरी हो जाता
है। हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने
अब्बास (रज़ीअल्लाहो अन्हो) ने एक शख़्स की गवाही पर चाँद को कुबूल नहीं
किया था क्योंकि
रमज़ान के चाँद
के लिऐ दो अशख़ास की गवाही को मुअतबर मानते
थे।
किताब: नैलुल-औतार जिल्द:4 सफा:
268 पे अल्लामा शौकानी
रहमतुल्लाह अलैह ने इसी राय को इखि़्तयार
किया है।
2) “इख्तिलाफुल मतालेअ” : एक दूसरी
दलील यह दी जाती है कि हर जगह मतलअ
अलग होता है और इस “इख्तिलाफुल मतालेअ”
की बुनियाद पर हर जगह अलग-अलग ईद होने को सही क़रार
दिया जाता है।
इख्तिलाफुल मतालेअ की शरई हक़ीक़त क्या है:
फि़क़्हा
हन्फि़या के फ़तावा
का मुअतबर तरीन
ज़खीरा फ़तावा आलमगीरी माना
जाता है। जिल्द
अव्वल सफ़हा
198 मुलाहिज़ा फ़रमाएँ लिखा
है कि मतालेअ
के इखि़्तलाफ़ की कोई एहमियत
हज़रत इमामे आज़म
रहमतुल्लाह अलैह से मनक़ूल नहीं
है।
इमाम
जुज़ैरी रहमतुल्लाह अलैह
की किताब मज़ाहिबे
अरबअ की जि़ल्द
अव्वल सफ़हा
550 पर इस मौजू़
पर चारों मसलकों
की राय का हवाला
देते हुआ लिखा
है कि जब चाँद कहीं
साबित हो जाए तो रोज़े
रखना तमाम मुसलमान
पर फर्ज़ हो जाता है। मतालेअ के इखि़्तलाफ़ की कोई वक़अत्
नहीं है।
इसी तरह शेखुल
इस्लाम इमाम इब्ने
तैमीया रहमतुल्लाह अलैह
“फ़तावा”
में लिखते हैं, “एक शख़्स
जिसको कहीं चाँद
के दिखने का इल्म बरवक़्त
हो जाए तो वो रोज़ा
रखे और ज़रूर
रखे, इस्लाम की नस और सल्फ़े स्वालेहीन
का अमल इसी पर है, इस तरह चाँद की शहादत को किसी खास फ़ासले
में या किसी
मखसूस मुल्क में महदूद कर देना अक़्ल
के भी खिलाफ़
है और इस्लामी शरियत
के भी”
(फ़तावा, जिल्द
5: सफ़ा 111)।
हनफी
मज़हब के इमाम
क़सानी रहमतुल्लाह अलैह
की किताब बिदा-अस्-सनाई पूरी
उम्मत के एक चांद होने
और मानने की बात दलील
से कहती है।
फिर अगर बहस की खातिर
यह मान भी लिया जाए के उलूमे
नजूमियात (astronomy) के तमाम
मुसल्लेमा उसूलों के खिलाफ़ मतलअ
के इखि़्तलाफ़ का यह असर होता है के हिन्दुस्तान
व पाकिस्तान के मशरिक़,
मग़रिब, शिमाल,
जुनूब के तमाम
मुमालिक में एक दिन और सिर्फ इन दो मुमालिक
में एक या दो दिन बाद चाँद
दिखे, और हर साल ऐसा ही हो और यह इख्तिलाफ क़रीब-क़रीब उस वक़्त से शुरू हुआ जब खि़्ालाफ़ते
उसमानिया को खत्म
किया गया,
क्योंकि मग़रिबी मुमालिक
और यहूदी दरअसल
मुसलमानों के एत्तेहाद
से डरते थे और खिलाफत
मुसलमानों के एत्तेहाद
का आलातरीन और अमली मज़हर
थी जो हमेशा
दुश्मनों को खटकती
थी फिर इसके बाद दुनिया भर में फैली
हुई उम्मत एक दिन ईद मनाए,
यह कैसे दुश्मन
गवारा करता,
चुनांचे इख्तिलाफ़े मतलअ
के नाक़ाबिले फ़हम
तसव्वुर में उलझा
दिया गया जिसे
हमारे कबाइर उलेमा
ने कभी तसलीम
न किया था। फिर इसकी
रु से ऐसा ही क्यों
होता है के हिन्दुस्तान में यह मसला
अब पैदा होने
लगा है। जबकि पुराने
वक्तों में यहाँ
तक कि पहली
आलमी जंग तक यह बात नहीं थी। मसलन उससे
पहले के हज के सफ़रनामों
के मुताले से यह साबित
होता है कि अरब और हिन्दुस्तान में चाँद की एक ही तारीख चलती
थी. शेखुलहिन्द हज़रत
मौलाना महमूदुलहसन और शेखुल इस्लाम
हज़रत मौलाना हुसैन
एहमद साहब मदनी रहमतुल्लाह
अलैह के सफ़रनामे
हिजाज़ से भी यही बात सामने आती है कि दोनो जगह एक ही तारीख चलती
थी मिसाल के तौर पर ’’असीराने माल्टा’’ मुलाहिज़ा फ़रमाइये
जिसमें इन अकाबिर
उलेमा के सफरनामे
को हज़रत मौलाना
सय्यद मोहम्मद मियॉं
साहब रहमतुल्लाह अलैह
ने तरतीब दिया, और कुतुबखाना
नईमिया देवबन्द ने शाया
किया है।
क़ुदरती
तौर पर एक आम आदमी
या पढ़ा लिखा
और साइंसी उलूम
से वाकि़फ़ शख़्स
यह सोचकर हैरान
होता है कि जब चाँद
किसी भी इलाके
में दो दिन पहले दिख गया यानी
नया चाँद हो गया जिसकी
एक खास
शक्ल होती है, फिर यह कैसे मुमकिन
है कि वही चाँद दो दिन या एक दिन बाद जबकि
वह कुछ बड़ा
हो जाता है, किसी और जगह अपने
पहले दिन की शक्ल में नज़र आए जबकि ऐसा करने के लिए चाँद
को फिर बारीक
होना पड़ेगा जो कि नामुमकिन
है, जब तक कि वह दोबारह एक माह पूरा
न कर ले? यह एक इतनी आम फ़हम
हक़ीक़त है कि साइंस पढ़ने
वाला कोई मिडिल
स्कूल का बच्चा
हो या किसी
यूनिवर्सिटी के शोबए
एस्ट्रोनॉमी का प्रोफेसर, वो इससे
लाज़मन इत्तिफ़ाक़ ही करेगा क्योंकि
यही असल वाकि़या
है जिससे इन्कार
मुमकिन नहीं।
एक और हक़ीक़त
एक मुसलमान की हैसियत से हमें मलहूज़ रखना
चाहिए कि क़ुरआन
और हदीस का हर हुक्म
हर मुसलमान के लिए बहैसियत
एक मुस्लिम होने
के आयद होता
है, अलबत्ता बाज़
एहकामात मर्दों के लिए खास है ना कि औरतों
के लिये। जबकि
दीगर अहकामात औरतों
के लिये मखसूस
है ना कि मर्दो के लिये,
लेकिन बहरहाल कोई भी हुक्म
किसी इलाके खास में
रहने वालों को खास तौर
से नहीं दिया
गया, कि फलॉं
हुक्म सिफ़र् यूरोप
के गोरों के लिये है और अफ्रीका
के सियाह फ़ाम
इससे मुस्तश्ना हैं, फिर चाँद
के साथ ऐसा किस शरई दलील से किया जाए ? जब अल्लाह
के रसूल (صلى الله عليه وسلم) का फ़ेल यह था कि आपने मदीने
से बाहर की गवाही पर ये पूछे
बग़ैर कि शहादत
देने वाला किस गाँव या किस शहर या कितने फ़ासले
से आया है, चाँद के होने को तस्लीम फ़रमाया
और रोज़ा रखने
और तोड़ने का हुक्म दिया, जबकि आप (صلى الله عليه وسلم)
साहिबे वही थे, और बहुत
मुमकिन है कि अल्लाह की तरफ़ से आपको यह इल्म भी हो लेकिन
इस वाक़ेअ से मुसलमानों को यह तालीम
देना मक़सूद थी, कि अगर हमारे इलाक़े
में किसी वजह से चाँद नहीं
नज़र आए तो दो मुसलमानों
की शहादत क़ुबूल
कर लें। फिर आज शहादत
तस्लीम भी की जाती है तो सिफ़र् एक मुल्क खास के
शहरों से,
दूसरे मुल्क के शहरों से नहीं,
जबकि इस्लाम में ऐसा करने
की कोई शरई दलील नहीं
है, और यह बात रसूल
(صلى الله عليه وسلم) के उस फ़रमान
के बराहेरास्त टकराती है, कि मुसलमान
एक उम्मत हैं, उनका शहर (या मुल्क) एक है और उनकी
जंग एक। मसलन 1971 तक मशरिक़ी
पाकिस्तान के ढाका
शहर में मग़रिबी
पाकिस्तान के पेशावर
या कराची से चाँद की शहादत क़ाबिल
एतबार थी। लेकिन
तक़सीम पाकिस्तान के बाद अब बंगलादेश क्यूँ
उन मक़ामात से शहादत न ले
? मुल्क की इस तक़सीम के बाईस कौन सा शरई हुक्म बदला
है कि अब यह शहादत
क़ुबूल न की जाए।
यह भी तसलीमशुदा
हक़ीक़त है कि चाँद की पूरी गोलाई 14 तारीख ही को होती
है। जबकि कुछ साल
पहले हिन्दुस्तान में वहाँ के बारहवें रोज़े
की शाम को ही चौदहवीं
का चाँद इस बात का खुला हुआ सबूत बन कर चमक रहा था कि रमज़ान
हक़ीक़त में दो दिन पहले
शुरू हो चुके
थे। लेकिन मुन्दरजाबाला तमाम
हक़ाईक़ और दलाईल
को ताक़ पर रख कर इस्लामी दुनिया
से चाँद की गवाही क़ुबूल
नहीं की गई। नतीजतन शुरू
के दो रोज़े
ज़ाया हो गऐ। आखि़र इसका
जि़म्मेदार कौन है ? और क्या
उम्र भर क़ज़ा
रोज़े रखकर भी वो सवाब
हासिल किया जा सकता है।
इस हक़ीक़त से इन्कार तो मुमकिन नहीं
अल्बत्ता अमलन बाज़
लोग ऐसा करने
की जसारत नहीं
कर पाते,
या तो अक्सरियत
के दबाव से या खानदान
भर में अकेले
पड़ने के खौफ़
से, मज़ाक उड़ाऐ
जाने के डर से,
या आदत के खिलाफ़ न जा पाने
की फि़तरी कमज़ोरी
के सबब,
या फिर महज़
पुरानी रिवायात से चिमटे रहने
के बाइस।
मगर क्या हमें
ऐसे अहम मसले
में जिस पर उम्मत का एत्तेहाद मौक़ूफ़
हो और रमज़ान
के रोज़ों के मामले में तो ईद के दिन, जब के रोज़ा रखना
हराम है फिर भी रोज़ा
रखना पड़ जाता
हो, ऐसी ग़ैरअहम
चीज़ो को ख़ातिर
में लाना चाहिऐ
या मसले की अहमियत के पेशे नज़र
इन तकल्लुफ़ात को जिनकी कोई शरई
हैसियत नहीं है, उखाड़ फेंकना
चाहिऐ।
अगर आज उम्मते
मुस्लेमा एक खलीफा
के ज़ेरे साया
होती जो इस्लाम
के एहकामात को नाफि़ज़ कर रहा होता
तो क्या इस मसले में या इस जैसे दीगर
मआमलात में उम्मत
को इलाक़ो की बुनियाद पर इस तरह बांटना मुमकिन
होता ?
हमारे पिछली सदी के तमाम
अकाबिर उलेमा का ये मुत्तफि़क़ा
फैसला रहा था, कि शरियत
के हर मामले
मे खलीफा-ए-वक़्त का मौकि़फ़ वाजिबुल
इताअत है,
बल्कि पहली आलमी
जंग के दौरान
जमीअतुल उल्मा का क़याम अमल में आ रहा था तो इसके
बानियों ने यानी
शेखुलहिन्द हज़रत
मौलाना महमूदुल हसन साहब रह., शेखुलइस्लाम हज़रत
मौलाना हुसैन अहमद
साहब मदनी रह., मौलाना मोहम्मद
अली जौहर रह. और मौलाना
अबुल कलाम आज़ाद
रह. ने इस जमीअत की तासीस की ज़रूरत को यह कहकर
ज़रूरी क़रार दिया
के अब खि़्ालाफ़त
के ख़ात्में के बाद मुसलमानाने
हिन्द के शरई आमाल की निगेहदाश्त
को यक़ीनी और शरअ़न सही रखने के लिऐ हिन्दुस्तान
के मुसलमानों की एक ऐसी शरई शक्ल
होना चाहिए जो इन शरई ज़रूरियात जैसे
नमाज़े जुमा का क़याम,
रुयते हिलाल वग़ैरह
को सही निहज
पर चला सके, और वाक़ेअतन
हुआ भी यही, अगर आज खिलाफ़त क़ायम
होती और वही उल्माऐ
हक़ हमारे दरमियान
मौजूद होते तो क्या खलीफा
के चाँद दिखने
के ऐलान को मुस्तरद करना
हमारे लिऐ मुमकिन
होता ?
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