क़ुरआन के मुताल्लिक़ झगड़ा करना कुफ्र है:
इब्ने मुफ़लेह ने इस की सनद को जय्यद क़रार दिया है और अहमद शाकिर ने इस की तसहीह की है। कभी कभी मकरूह होता है के हक़ के साबित और ज़ाहिर होने के बावजूद मुजादिला-ओ-मुबाहिसा किया जाऐ।
يُجَادِلُوْنَكَ فِي الْحَقِّ بَعْدَ مَا تَبَيَّنَ كَاَنَّمَا يُسَاقُوْنَ اِلَى الْمَوْتِ وَ هُمْ يَنْظُرُوْنَؕ
वो
हक़ के मुक़ाबले में इसके बाद के वो बिल्कुल वाज़ेह हो चुका था तुम से झगड़
रहे थे, गोया वो आँखों से देखते मौत की तरफ़ हांके जा रहे हों। (तर्जुमा
मआनिये क़ुरआन: अनफ़ाल-06)
बेहस ओ मुजादिला या तो
दलील और हुज्जत के ज़रीये होगा या फिर शबीहे दलील के ज़रीये किया जाऐगा या
फिर दोनों के बग़ैर होगा, इस सूरत में लग़्व और फुज़ूल होगा और एैसा
मुबाहिसा सिर्फ़ शोर ओ शग़फ़ के अ़लावा कुछ और नहीं होगा। इब्ने अ़क़ील के
नज़दीक शबीह की तारीफ़़ ये केः जो किसी मज़हबे फ़िक्र के नज़दीक हक़ीक़त हो
हालाँके वो एैसा ना हो। इब्ने हज़म के नज़दीक बातिल दलील के ज़रीये फ़ासिद
क़ज़िया या फ़ैसले की मुलम्मा साज़ी करना जो के बातिल की तरफ़ रेहनुमाई करते हैं
और या क़ियास है जिसकी बुनियाद वहम पर होती है।
इब्ने
अ़क़ील कहते हैं जो शख़्स एह्ले इ़ल्म के तरीक़े को पसंद करता हो उसे चाहिए के
हुज्जत-ओ-दलील से बात करे और शग़ब तो एह्ले इ़ल्म ओ मुजादिला या साहिबे
मुजादिला को ख़िलजान और तख़लीत में डालना और फंसाना है। शग़ब के ये मानी किये
जा सकते हैं के दलील या शबीहे दलील के बग़ैर मुनाज़िरा-ओ-मुजादिला किया जाये।
औलमा ने मुजादिले और मुबाहिसे के जो क़वानीन ओ आदाब बयान किए हैं इनको बाअ़ज ज़्यादती और तसर्रुफ़ात के साथ ज़िक्र किया जाता हैः
अल्लाह
के तक़वे को मुक़द्दम रखना, इसके ज़रीये अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ) का तक़र्रुब
मकसूद हो और उसके अहकाम की बजा आवरी के ज़रीये उसकी रज़ा मतलूब हो। हक़ को
उजागर करना और बातिल को झूट साबित करने की नियत का होना, मुख़ालिफ़ पर
कामयाबी या उसको नीचा दिखाना, क़हर और ग़लबे से पाक होना। इमाम शाफ़ई कहते
हैं: मैंने कभी किसी से गुफ़्तगु नहीं की मगर पसंद किया के उस की
मदद-ओ-मुआविनियत हो अल्लाह से इस दुआ के साथ के उस की मदद और हिफ़ाज़त करे और
मैंने किसी से जब भी गुफ़्तगु की तो इस बात को ख़ातिर में नहीं रखा के हक़
मेरी ज़बान पर है या उसकी ज़बान पर। इब्ने अक़ील कहते हैं: हर वो मुबाहिसा या
जदल जिस से हक़ की नुसरत मतलूब ना हो वो बेहस करने वाले के लिए वबाल है।
इसका मक़सद फ़र्ख़-ओ-मुबाहात, तलबे जाह-ओ-माल, किब्र रिया ना हो अल्लाह, दीन
और फ़रीके़ मुख़ालिफ़ के लिए नसीहत-ओ-ख़ैर ख़्वाही की नियत हो क्योंके दीन नसीहत
और ख़ैर ख़्वाही है।
अल्लाह की हम्द ओ सना और रसूलुल्लाह
(صلى الله عليه وسلم) पर दरूद-ओ-सलाम से इब्तिदा की जाये। अल्लाह की तौफ़ीक़ ओ
रज़ा की जानिब रग़बत हो।
मुजादिले का तरीक़ा दुरुस्त ओ बेहतर होना चाहिए। और इसका मंज़र ओ नक़्शा भी अच्छा होना चाहिए। चुनांचे हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((إن الھدي الصالح،والسمت الصالح،والإقتصاد جزء من خمسۃ وعشرین جزء اً من النبوۃ))
दस्ते रेहनुमाई, अच्छे अख़्लाक़ और मियानारवी नबुव्वत के पच्चीस (25) अज्ज़ा में हैं।
अहमद, अबू दाऊद ने इस की रिवायत की है, इब्ने हजर ने फ़तह में इस की सनद को हसन कहा है। हज़रत इब्ने मसऊ़द(رضي الله عنه) से मौक़ूफ़ रिवायत मरवी है वो कहते हैं:
(أعلموا أن حسن الھدي في آخر الزمان خیر من بعض العمل)
आख़री ज़माने में अच्छी रहनुमाई बाअ़ज़ आमाल से बेहतर है।
इब्ने
हजर ने फ़तह में इस की सनद को सही क़रार दिया है और कहा है हुदा तरीके़ को
कहते हैं। अल सिम्त मंज़र-ओ-हेईय्यत है और इक़्तिसाद ऐतेदाल का नाम है।
गुफ़्तगु
इस तरह के इसका कलाम मुख़्तसर हो, इस में जामईयत हो ताके वो दिलों में उतरे
क्योंके लंबी बात उकताहट का बाइस होती है मज़ीद बरआँ के ग़लती-ओ-ख़ता का
इमकान भी ज़्यादा होता है।
फ़रीके़ मुख़ालिफ़ के साथ अस्ल
मरजअ़ पर इत्तिफाक़ हो के बसूरते इख़्तिलाफ़ क्या चीज़ दलील ठहराई जाये, काफ़िर
के साथ अ़क़्ली दलाइल से और मुस्लिम के साथ अ़क़्ल ओ नक़्ल दोनों ही मरजऐ
उसूल हों। लिहाज़ा अ़क़्ली दलाइल में मरजअ़ अ़क्लयात हों और शरई मुआमलात में
उसूल यानी किताब-ओ-सुन्नत मरजअ़ होंगे क्योंके अल्लाह (سبحانه وتعالیٰ)
फ़रमाता हैः
فَاِنْ تَنَازَعْتُمْ فِيْ شَيْءٍ فَرُدُّوْهُ اِلَى اللّٰهِ وَ الرَّسُوْلِ اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ
بِاللّٰهِ وَ الْيَوْمِ الْاٰخِرِ١ؕ
फिर
अगर किसी चीज़ मैं तुम्हारा झगड़ा हो जाऐे तो अगर तुम अल्लाह और रोज़े आख़िर
पर ईमान रखते हो, तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ लौटाओ। (तर्जुमा मआनिये
क़ुरआने करीमः अल निसा - 59)
काफ़िर के साथ
शरीअ़त के फ़ुरूअ़ पर मुजादिला और मुबाहिसा नहीं किया जाऐगा, क्योंके वो तो
उसूले शरीअ़त पर ईमान ही नहीं रखता लिहाज़ा उस से ताद्दुदे अज़वाज, औरत की
शहादत, जिज़्या, बराअत, तहरीमे ख़म्र पर मुनाज़रा नहीं किया जाऐगा। उस से उन
उसूले दीन पर बेहस करनी होगी जिन के दलाइल अ़क़्ली हैं क्योंके मक़सद
मुख़ालिफ़ को बातिल से हक़ की तरफ़ लाना है और गुमराही से राहे मुस्तक़ीम पर
गामज़न करना है और ये उस वक़्त ही मुम्किन है जब इसको कुफ्र से ईमान की तरफ़
लाया जाये। इसी तरह नसरानी से बोध या यहूदिय्यत के बुतलान पर बेहस नहीं
होगी, एक नसरानी से उन मौज़ू पर बेहस का कोई एतेबार नहीं होगा क्योंके
नसरानी ना तो बोध मजहब का मानने वाला है और ना ही यहूदिय्यत का पैरोकार है
जो के इन बातिल नज़रियात-ओ-अदयान से निकाल कर ईमान की तरफ़ बुलाया जाये।
बल्कि उस से गुफ़्तगु इसके अपने बातिल अ़क़ीदे पर होगी ताके नसरानी को उसके
बातिल दीन से निकाल कर नूरे ईमान से मुनव्वर किया जाये। इसलिए ये नहीं कहा
जायेगा के हम उस मसलों पर बात करेंगे जो हम में मुत्तफिक़ हैं और अपने
मुख़्तलिफ़ फ़ीहि मसाइल को तर्क कर देंगे और उन पर बेहस नहीं करेंगे। लेकिन
चूँके हम बेहस-ओ-तकरार पर मामूर हैं और हमारी जम्मेदारी है लिहाज़ा उन मसाइल
पर गुफ़्त ओ शनीद होगी जो हमारे दरमियान तनाज़े का बाइस हैं और मुख़्तलिफ़
फ़ीहि हैं। अगर कोई नसरानी या सरमायादार किसी मुसलमान के साथ इस बात पर
मुत्तफिक़ है के बोध मजहब, कम्यूनिज़्म (Communism/ इश्तिराकियत) अ़क़्ली
ऐतेबार से ख़राब और बेकार हैं और इस मौज़ू पर वो गुफ़्तगु या बेहस-ओ-मुबाहिसा
करें तो इसको मुनाज़रा या मुबाहिसा नहीं कहा जायेगा, और ये
मुजादिला-ओ-मुनाज़रा करने से मुसलमान अपनी ज़िम्मेदारियों से बरी नहीं होगा
ता वक़्ते के नसरानी या सरमायादार इस्लाम के नूर को क़ुबूल ना कर ले। इसी
तरह ये भी नहीं कहा जायेगा के हम कुफ़्फ़ार के साथ इन मुआमलात पर गुफ़्तगु
करेंगे जिन पर हमारा इत्तिफाक़ है और मुख़्तलिफ़ फ़ीहि अशिया से किनाराकशी
इख़्तियार कर ली जाये, ये समझ कर के अब अल्लाह (رضي الله عنه) ही क़यामत के
रोज़ उसका फ़ैसला करेगा। इस तरह की कोई बात नहीं की जाऐगी, जो जिदाल से
बेनियाज़ करे बल्के हम मुख़्तलिफ़ फ़ीहि और मुतनाज़े मसाइल पर मामूर हैं और अगर
हम एैसा नहीं करते तो हम से कोताही और तक़सीर हो रही है। बेशक दुनिया ओ
आख़िरत दोनों जगह अल्लाह का फ़ैसला है मगर हमारे लिए जायज़ नहीं के हम अल्लाह
के अफ़आल और अपने अफ़आल को आपस में गड़मड़ कर दें, ये तो कोताह परस्तों की दलील
हुआ करती है और उनका शेवा है जिन के पास कोई दलील-ओ-हुज्जत नहीं होती।
सवाल ये है जिन मसाइल पर हमारा इत्तिफाक़ है उन पर बेहस-ओ-मुबाहिसा लाहासिल
और लायानी है। जबके मुख़्तलिफ़ फ़ीहि मसाइल का हल मुबाहिसे और मुनाज़रे से ही
होगा। चुनांचे एक मुस्लिम के लिए लायानी और लग़्व काम में अपने औक़ात को ज़ाए
करना जे़ब नहीं देता। लिहाज़ा मुबाहिसा एैसे मसाइल पर करे जो के हल तलब हों
ना के पहले से ही इन का हल मौजूद हो क्योंके एैसा करना वक़्त बर्बाद करने
के अ़लावा और कुछ नहीं।
अपनी आवाज़ को इतना बुलन्द रखे जिस से लोग सुन
सकें और अपने मुख़ालिफ़ के चेहरे पर ना चीख़े। ख़तीब ने अलफ़क़ीह वल मुतफ़क़्क़ेह
में एक हिकायत नक़्ल की है के बनूहाशिम के एक आदमी अ़ब्दुस्समद ने, मामून
से गुफ़्तगु करते हुए अपनी आवाज़ को ऊंचा किया तो मामून ने कहाः ऐ
अ़ब्दुस्समद! आवाज़ बुलंद मत करो, दुरुस्त ये है के बात सही ढंग से की जाये
ना के शिद्दत से।
मुख़ालिफ़ को हक़ीर ना जाने और
इसके मुआमले को छोटा ना समझे। मुख़ालिफ़ के शोर शराबे और लायानी बातों पर
सब्र करे। बुर्दबारी से काम ले, उसकी लग़ज़िशों से सर्फ़ नज़र करे मगर मुख़ालिफ़
बेवकूफ़ हो और सफ़ाहत का सबूत दे तो उससे मुजादिले से परहेज़ बेहतर है।
तेज़ी, उकताहट और तंगदिली से इज्तिनाब करे। इब्ने सीरीन ने कहाः जदल में ग़ुस्सा कम इ़ल्मी और जिहालत से किनाया है। तिबरानी ने हज़रत इब्ने अ़ब्बास (رضي الله عنه) की एक रिवायत नक़्ल की है के रसूलुल्लाह (صلى الله عليه وسلم) ने फ़रमायाः
((تعتري الحدۃ خیار أمتي))
मेरी उम्मत के बेहतरीन लोगों पर ग़ुस्सा हावी हो जाऐगा।
मगर इस रिवायत में सलाम बिन मुस्लिम अत्तवील मतरूक हैं और तिबरानी की वो रिवायत जो हज़रत अ़ली बिन अबी तालिब (رضي الله عنه) से मरवी है के रसूलुल्लाह ने फ़रमायाः
((خیار أمتي أحداؤھم الذین إذا غضبوا رجعوا))
मेरी उम्मत के बेहतरीन वो लोग हैं जिन्हें जब ग़ुस्सा आऐ तो वो (ग़ुस्से की हालत से) लौट आते हैं।
अगर
मुबाहिसा अपने से ज़्यादा इ़ल्म वाले से हो तो ये कभी ना कहे के आप ने ख़ता
की या आप की बात ग़लत है बल्कि वो अदब को मल्हूज़ रखते हुए कहेः आप की राय
क्या होती अगर कोई एैसा कहता या ऐतेराज़ करता या ख़ुद को एक तालिबे इ़ल्म की
हैसियत से रखे ताके हक़ वाजे़ह हो, जैसेः क्या ये दुरुस्त नहीं है, के ये
कहा जाये वग़ैरा।
मुख़ालिफ़ की बातों और दलीलों पर ग़ौर करे
और ध्यान से सुने ताकि उसकी तरदीद पर क़ादिर हो। मुख़ालिफ़ की बात ख़त्म होने
से पहले अपनी बात रखने में जल्दबाज़ी ना करे इब्ने वहब कहते हैं मैंने इमाम
मालिक को कहते सुनाः बात समझने से पहले जवाब देने में कोई भलाई नहीं। ये
अदब नहीं के अपने मुख़ालिफ़ की बात को दरमियान में काट दे। और अगर मुख़ालिफ़
बातों से लोगों में ख़ुदनुमाई चाहता हो और बहुत ज़्यादा लफ़्फ़ाज़ हो तो अव्वल
उस से बहस ही ना करे और अगर असनाऐ बेहस मालूम हो के मुख़ालिफ़ इन सिफ़ात का
हामिल है तो इसको पिंद-ओ-नसाइह करे और अगर वो ना माने तो बेहस ख़त्म कर दी
जाये।
अपने मुख़ालिफ़ से मुख़ातिब रहे और इसी का रुख़ करे ना
के नाज़िरीन को, ख़्वाह नाज़िरीन उसकी मुख़ालिफ़त करें या मुवाफ़िक़त। और अगर
फ़रीके़ मुख़ालिफ़ इसका इर्तिकाब कर रहा हो तो इसको समझाया जाये अगर वो नहीं
समझता तो मुनाज़रे को दरमियान में ही ख़त्म कर दे।
हट धर्म और ज़िद्दी शख़्स से बेहस-ओ-मुबाहिसा ना किया जाये क्योंके एैसा शख़्स कुछ हासिल नहीं करता।
ख़ौफ़
ओ दहशत की हालत और एैसे मुक़ाम पर मुनाज़रा ना करे। सैटेलाइट चैनलों पर या
अ़वामी मज्लिसों में मुनाज़रे से गुरेज़ करे, इल्ला ये के बेहस करने वाला
अपने दीन पर मुतमईन हो और इस राह पर मलामत करने वाले के लान ओ तान से ना
डरता हो और हर क़िस्म की सख़्ती ख़ुशी ख़ुशी बर्दाश्त कर सके ख़्वाह उसको
कैद-ओ-बंद की सज़ा दी जाये या क़त्ल की। इसी तरह वो हुक्मराँ की मज्लिस में
या ओहदेदारों में भी मुबाहिसा ना करे जहाँ उसे अपनी जान का खतरा हो, इल्ला
ये के वो हज़रत हमजा (رضي الله عنه) की तरह तैय्यार हो कर जाये। वर्ना इन
तमाम सूरतों में इसके लिए ख़ामोशी मुबाहिसे से बेहतर है, क्योंके इस तरह दीन
और इ़ल्म की बदनामी होगी। यहाँ इमाम अहमद और इमाम मालिक के मौक़िफ़ और
सब्र-ओ-इस्तिक़ामत को याद रखना चाहिए। इसी तरह मुआसिरीन में उन लोगों के
मौक़िफ़ को जिन्होंने क़ज़ाफ़ी से उसके सुन्नत से इंकार कर देने पर मुनाज़रा
किया।
उस शख़्स से मुनाज़रा ना करे जिस से वो ग़ुस्सा और
नफरत करता हो। ख़्वाह ग़ुस्सा ख़ुद मुनाज़िर की तरफ़ से हो या फ़रीके़ मुख़ालिफ़ की
तरफ़ से हो।
मजलिस में मुख़ालिफ़ से ऊंचे मुक़ाम पर ना बैठे।
गुफ़्तगु को
तवालत ना दे ख़ासकर उन मुआमलों में जिन को मुख़ालिफ़ जानता हो। बल्कि मुख़्तसर
बात करे ताकि मौज़ू बेहस में किसी क़िस्म का ख़लल ना हो।
एैसे
लोगों से मुनाज़रा ना करे जो इ़ल्म और एहले इ़ल्म को हक़ीर समझते हों। सुफ़हा
की मौजूदगी में मुनाज़रा ना करे जो मुनाज़रा और मुनाज़िर को हक़ीर जानते हों।
इमाम मालिक का क़ौल हैः इ़ल्म की ज़िल्लत ओ अहानत होती है जब आदमी इ़ल्म की
बात एैसे लोगों में करे जो इस बात कि इत्तिबा ना करें।
जब
मुख़ालिफ़ हक़ को साबित कर दे तो क़ुबूले हक़ से ऐराज़ ना करे क्योंके हक़ की तरफ़
लौटना बातिल पर डटे रहने से बेहतर है। और एैसे लोगों में नाम दर्ज कराऐ जो
बातें सुनते हैं और उनमें बेहतरीन बातों को इख़्तियार करते हैं।
किसी
सवाल के जवाब में अस्ल सवाल से इन्हिराफ़ ना किया जाये यानी सवाल कुछ और
जवाब कुछ और दिया जाय, मिसाल के तौर पर सवाल ये पूछे के क्या सऊ़दी अ़रब
इस्लामी रियासत है? तो जवाब में यूं कह दिया जाये के वहाँ की अ़दालतें
इस्लामी हैं।
ये चीज़ मुग़ालता है जब के इसका जवाब हाँ या
नहीं में होना चाहिए था। और अगर जवाब उसके इ़ल्म में नहीं है तो कहेः मैं
नहीं जानता। क्योंके ये तीनों जवाब सवाल के मुताबिक़ हैं।
हक़ीक़त
का इंकार ना करे, वर्ना उनका शुमार मुन्किर और तोता चश्मों में होगा। जैसे
कोई इसका इंकार करे के कुफ़्फ़ार मुसलमानों से नफरत करते हैं या इस बात का
इंकार करे के मुस्लिम मुमालिक में कुफ्रि़या निज़ाम क़ायम हैं यानी वहाँ
इस्लाम की पूरी हुक्मरानी नहीं है।
मुजमल बात ना करे। फिर
तफ्सील के वक़्त उसको बातिल क़रार दे जैसे इब्तिदाऐ कलाम में कहे के अमरीका
इस्लाम और मुसलमानों का दुश्मन है। इसके बाद ये कहे के अमरीका इक़ामते
फ़लस्तीन में फ़लस्तीनीयों का मुआविन और मददगार है क्योंके वो इंसाफ़ ओ आज़ादी
का ख़्वाहाँ है। या ये कहे के अमरीका इ़राक़ में इसलिए आया के ज़ुल्म और
तानाशाही से आज़ादी दिलाए वग़ैरा वग़ैरा।
अपनी दलील को हर उस
मसले पर मुंतबिक़ करने से गुरेज़ ना करे जहाँ इसका इंतिबाक़ सही हो। जैसे
मग़रिबी मुमालिक में घरों की ख़रीद के लिए सूदी सौदे को तो जायज़़ ओ मुबाह
क़रार दे, इस क़ायदे के तहत के ख़ास हाजत ख़ास ज़रूरत के दर्जे में है (الحاجة
الخاصة تنزل منزلة الضرورة الخاصة) जबके दूसरी तरफ़ दीगर हाजात के लिए सूद
को मुबाह ना क़रार दे जैसे खाना, कपड़ा, शादी वग़ैरा और अगर वो उनको भी मुबाह
क़रार देता है तो हराम की एक लंबी फ़ेहरिस्त को मुबाह बना देगा और अगर तमाम
हाजात-ओ-ज़रूरीयात में अपनी दलील और इस क़ायदे को रद्द नहीं करेगा तो वो ख़ुद
ही के क़ौल से तज़ाद करेगा।
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