किस तरह रमज़ान के महीने को एक बार फिर इसका असली मुक़ाम और मर्तबा वापिस दिलवाया जाये

 अब असल और बुनियादी सवाल ये है कि किस तरह रमज़ान के महीने को एक बार फिर इसका असल मुक़ाम वापिस दिलवाया जाये यानी कि उसको एक बार फिर वो महीना बनाया जाये जब मुसलमानों को अल्लाह और उसके रसूल (صلى الله عليه وسلم) के दुश्मनों के ख़िलाफ़ फ़ुतूहात नसीब होती थीं। आख़िर वो क्या चीज़ है जो मुस्लिम अफ़्वाज (फौज) को ज़ख्‍़मी मर्दों, बेइज़्ज़त की गई औरतों और यतीम बच्चों की चीख़ व पुकार भी हरकत में न आने पर मजबूर नहीं करती? ये किस तरह हो सकता है कि रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) की तौहीन की जाये और इसका मुंहतोड़ जवाब ना दिया जाये और इसके नतीजे में कुफ़्फ़ार बार बार ये शैतानी काम करने की जुर्ररत करें? इसका जवाब ये है कि मुसलमानों पर इस्लाम की बुनियाद पर हुक्मरानी नहीं की जा रही और उनके हुक्‍मरान ख़ौफ़े ख़ुदा रखने वाले और रसूलल्लाह (صلى الله عليه وسلم) से मुहब्बत करने वाले नहीं हैं। आज मुसलमानों पर ग़द्दार हुक्‍मरान मुसल्लत हैं जो मुसलमानों के दुश्मनों की ख़िदमत करते हैं और इस्लाम की बुनियाद पर हुक्मरानी नहीं करते। आज ये ग़द्दार दुश्मनों के नुमाइंदों को ख़ुशआमदीद कहते हैं और उनसे अहकामात (क़ायदे क़ानून) वसूल करते हैं जबकि उन्हें इस क़दर मज़बूती से इन्‍कार करना चाहिए कि दुश्मनों के तख़्त हिल जाएं। इन ग़द्दारों का शाम, फ़लस्तीन, इराक़, कश्मीर और अफ़्ग़ानिस्तान से मुसलमानों की आती चीख़ और पुकार पर रद्दे अमल ये होता है कि ये अपनी फौज को बैरकों में बंद कर देते हैं और अपने काफ़िर आक़ाओं के अहकामात (हुक्म) का इंतिज़ार करते हैं ताकि इन मुस्लिम फौज को कुफ़्फ़ार और उनके लोगों के फायदो को पूरा करने में मदद के लिए दुनिया में किसी भी जगह पर भेज दिया जाये। फौज में मौजूद मुख़लिस अफसरान पर फ़र्ज़ है कि वो ख़िलाफ़त के फ़ौरी क़ियाम के लिए नुस़रत मुहैया करें। सिर्फ़ ख़िलाफ़त के क़याम की सूरत में ही मुस्लिम फौज इस्लाम की रिसालत को पूरी दुनिया तक पहुंचाने के अपने शानदार माज़ी को वापिस ला सकेगी। अल्लाह (سبحانه وتعالى) फ़रमाता हैं :

إِنَّا لَنَنصُرُ رُسُلَنَا وَالَّذِیْنَ آمَنُوا فِیْ الْحَیَاۃِ الدُّنْیَا وَیَوْمَ یَقُومُ الْأَشْہَادُ
''यक़ीनन हम अपने रसूलों की और ईमान वालों की मदद दुनिया में भी करेंगे और उस दिन भी जब गवाही देने वाले खड़े होंगे।'' (तर्जुमा मआनिए क़ुरआन, सूरे ग़ाफ़िर:51)


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