अ़क़बा की बैअ़ते सानिया और हिजरते रसूल (صلى الله عليه وسلم) हिस्सा: 10

अ़क़बा की बैअ़ते सानिया और हिजरते रसूल (صلى الله عليه وسلم) हिस्सा: 10
अ़क़बा की पहली बैअ़त अपने असर के एैतेबार से बड़ी ख़ैर ओ बरकत का मौजब थी, क्योंके बावुजूद एक छोटी सी जमाअ़त के जो इस बैअ़त में शरीक थे, उन्हें सिर्फ़ एक शख़्स यानि मुस्अ़ब रज़ि0 इब्ने उ़मेर काफ़ी हुये और मदीने के सारे मुआषरे के अफ़्कार और ख़्यालात जो उनमें आम थे, उन में इनक़िलाब आया और वोह बदल कर इस्लामी फ़िक्र बन गये जबके दूसरी तरफ़ मक्के में एक ख़ासी तअ़दाद मुस्लिम हो चुकी थी। लेकिन चूंके मुआशरा उनसे कटा रहा, और कोई गिरोह ख़ास इस्लाम में नहीं आया, मुआषरे पर इस्लामी सोच और अफ़्कार असर अंदाज़ नहीं हो पाये। दूसरी तरफ़ मदीना था के जहां लोगांे की ख़ास तअ़दाद इस्लाम के दायरे में आई, वहां के मुआषरे पर इस्लाम असर अंदाज़ हुआ, अहले मदीना के ख़्यालात और एैहसासात इस्लाम से मुतअस्सिर हुये। येह इस अम्र की वाज़ेह दलील है के एैसे लोगों का ईमान जो मुआषरे से अलाहिदा हो, और लोगों से कटे हों, न वोह मुआषरे को मुतअस्सिर करता है और न ही लोगों पर असर अंदाज़ होता है, चाहे उन अफ़्राद की कितनी ही ताक़त क्यों न हो। इसके बरअ़क्स, अगर हामिलीन दावत लोगांे से जुड़े हों, तो उनके अफ़्कार और ख़्यालात मुआषरे पर असर अंदाज़ होते हैं और मुआषरे के सोच और फ़िक्र में इन्क़िलाब बरपा कर देते हैं, चाहे इन जुड़े हुये अफ़्राद की तादाद कम ही क्यों न हो। ये इस बात पर भी दलालत करती है के अगर एक मुआशरा कुफ्ऱ की हालत पर बज़िद हो जैसा के मक्के का हाल था, तो येह ज़्यादा मुश्किल होता है ब निस्बत इस मुआषरे के जहां चाहे कुफ्ऱ के अफ़्कार हो लेकिन वोह लोगों पर पूरी तरह हावी न हो जैसा के मदीने का मुआमिला था।

यही वजह है के मदीने का मुआशरा इस्लाम से मुतअस्सिर हुआ और अपने साबिक़ ख़्यालात और सोच की बुराई और क़बाहत उन पर वाज़ेह हो गई क्योंके वोह दूसरी फ़िक्र और एक मुतबादिल निज़ाम के बारे में सोचते थे जो उनकी ज़िन्दगी को मुतमइन कर सके। बरखि़लाफ़ इसके के मक्के के लोग अपनी हालत पर अपनी दानिस्त में मुतमइन थे बल्के वोह अपने अफ़्कार की हिफ़ाज़त करते थे के कहीं इनमें कोई तब्दीली न आ जाये, ख़ास तौर पर उनके सरदारान जैसे अबू लहब, अबू जेहल और अबू सुफ़्यान। यही वजह है के हज़रत मुस्अ़ब रज़ि0 एक क़लील अर्से में इस्लाम की तरफ़ मुआषरे का रवैय्या बदलने में कामयाब हुये और वोह लोगांे को दावत देते, उनको इस्लाम के ख़्यालात और अफ़्कार की तालीम देते और लोगों में इस्लाम की क़ुबूलियत का मुशाहिदा करते। लोग ज़्यादा तादाद में रोज़ इस्लाम में दाखि़ल होते जिससे हज़रत मुस्अ़ब रज़ि0 की हिम्मत में और इज़ाफ़ा होता और वोह मज़ीद क़ुव्वत से दावत दे पाते।

हज़रत मुस्अ़ब रज़ि0 हज के मौसम में मक्के तशरीफ़ लाये और आप (صلى الله عليه وسلم) को मुसलमानाने मदीने के अहवाल बताये, उनकी क़ुव्वत के बारे में रौषनी डाली, मदीने में इस्लाम के फैलाव का ज़िक्र किया, मदीने के मुआषरे की तस्वीर पेश की के वहां हर जगह आप (صلى الله عليه وسلم) का ज़िक्र है, माहौल में इस्लाम छाया हुआ है, मुसलमान मदीने की क़ुव्वत का ज़िक्र किया जिससे सारे मदीने में इस्लाम का ग़लबा है। बाज़ एैसे मुसलमानों की इत्तिला दी जिनका इस्लाम पर ईमान और उसकी दावत को फैलाने का जज़्बा शदीद, इरादा निहायत मज़बूत, और इस्लाम का दिफ़ाअ़ करने की चाह है और येह बताया के येह लोग इस साल मक्के आने वाले हैं। मदीने के इन हालात से हुज़ुर अकरम सल्ल0 को बहुत मसर्रत हुई और आप (صلى الله عليه وسلم) मक्के और मदीने के माहौल में फ़िक्र पर ग़ौर करने लगे। मक्के में आप (صلى الله عليه وسلم) ने बारह साल मुसलसल इस्लाम की दावत दी, कोई कसर उठा नहीं रखी, जिस क़दर मुम्किन था मेहनत की, हर क़िस्म की अज़ीयतें झेलीं, इसके बावुजूद मक्के के लोगों की हट धर्मी, और सरकशी के बाइस दावते इस्लाम मक्के पर वोह असर मुरत्तब न कर पाई जो मतलूब था, येह लोग अपनी ज़िद और अपने बोसीदा दीन के तहफ़्फ़ुज़ में इतने शदीद थे के इनके ज़ेहनों के दक़ियानूस ख़्यालात इस्लाम की राह में आड़े आ रहे थे। शिर्क और बुत परस्ती का येह मरकज़ था और यहां के लोग उस पर शिद्दत से क़ायम थे। इसके बरअ़क्स मदीने का आलम येह था के अभी एक साल पहले ही क़बीला-ए-ख़ज़रज के कुछ लोगों ने येह दावत क़ुबूल की थी फिर अ़क़बा की पहली बैअ़त हुई जिसके बाद हज़रत मुस्अ़ब रज़ि0 की कोशिश इसी से मदीने के माहौल में इन्क़िलाब आया और लोग जूक़ दर जूक़ इस्लाम में दाखि़ल होने लगे। मक्के में इस्लाम की दावत आगे नहीं बढ़ पाई थी, उन्हीं लोगों तक आकर रुक गई थी जो मुसलमान हुये थे और उन्हें कुफ़्फ़ार की शदीद आज़माइशों का सामना था। लेकिन मदीने में मुसलमानों को वहां के मुिश्रकों और यहूदियों की तरफ़ से मसाइब का सामना न था और दावत फैलती गई, इससे इस्लाम लोगों के दिलों की गहराई तक रसाई पा गया और नये लोग भी इसकी तरफ़ मुतवज्जेह हुये। अब येह बात आप (صلى الله عليه وسلم) पर वाज़ेह हो गई के मदीना ही ज़्यादा मौज़ूं और मुनासिब है और अहले मदीना ज़्यादा रुज्हान रखते हैं के इस्लाम की दावत का नूर वहां से चमके।
इसलिये आप (صلى الله عليه وسلم) ने यह सोचा के हिज़रत करके मदीने जायें और मक्के के मुसलमान भी मदीने में अपने भाइयों में रहें, ताके एक तरफ़ तो वोह क़ुरैश की ज़्यादतियों से महफूज़, उनके मज़ालिम से दूर और उनके जब्र से आज़ाद रहें और दूसरी तरफ़ येह के वोह फिर दावत इस्लाम की तरफ़ अपनी तवज्जोह पूरी तरह मर्कूज़ करे ताके इस्लाम अब अमली मरहले में दाखि़ल हो और लोगों की ज़िन्दगियों पर इसका इन्तिबाक़ किया जा सके और इसकी दावत को एक रियासत की क़ुव्वत और इक़्ितदार से आगे बढ़ाया जा सके। यही हिज़रत का सबब था इसके अलावा और कुछ नहीं।

यहां ये अम्र क़ाबिले ग़ौर है के आप (صلى الله عليه وسلم) ने मेहज़ क़ुरैश के मज़ालिम और अज़ीयतों से परेशान होकर या उन पर ग़ल्बा पाने की कोशिश किये बग़ैर या उन पर सब्र और इस्तेक़ामत से डटे न रहकर हिज़रत का फै़सला किया हो, आप (صلى الله عليه وسلم) तो दस साल मुसलसल इन सऊ़बात और सब्र आज़मा हालात में भी दावत ही पर जमे रहे। आप (صلى الله عليه وسلم) और तमाम सहाबा रज़ि0 ने क़ुरैश की हर तअ़जी़ब, ईज़ा और दहशत का सामना किया, क़ुरैश की बदसुलूकी और मुज़ाहिमत ने कभी भी आप (صلى الله عليه وسلم) या किसी सहाबी रज़ि0 के इरादे को कमज़ोर न किया, बल्के इसके बरअ़क्स एैसी हालत में उनका ईमान उनको नई बुलंदियों पे ले गया और अल्लाह तआला के वादे पर यक़ीन ने उनके इरादांे और अ़ज़्म को और मज़बूत बना दिया। लेकिन इस अर्से के तजुर्बात से बात आप (صلى الله عليه وسلم) पर वाजे़ह हो गई थी के मक्के का मुआशरा किस क़दर कट्टर और तंग नज़र है और एहले मक्का कितने संगदिल और गुमराह है। नतीजतन यहां दावत की कामयाबी के इम्कानात कितने कम होंगे और येह अपनी कोशिश और मेहनतें ज़ाया करने के मुतरादिफ़ होगा, चुनांचे येह ज़रूरी है के इस मुआषरे से निकल कर किसी और जगह अपनी कोशिश और मेहनत मरकूज़ की जाये। इसलिये आप (صلى الله عليه وسلم) ने मक्के से हिज़रत करने का सोचा और बस सिर्फ़़ यही वजह थी के मदीने, हिज़रत की जाये, न के क़ुरैश के ज़ुल्म ओ ज़्यादतियों से बचने के लिये हबषा की तरफ़ हिज़रत करने को हुक्म दिया था।

इससे येह साबित होती है के एक मुसलमान को इजाज़त है के अगर उस पर दीन की वजह से मज़ालिम और ज़बरदस्ती हो रही हो तो वोह कहीं और हिज़रत कर जाये हालांके तअ़ज़ीब बर्दाश्त करना, ईमान में इज़ाफ़ा करता है, जोर और ज़ुल्म से ख़ुुलूस में निखार आता है, मुज़ाहिमत से अ़ज़्म और इरादा क़वी होता है और अल्लाह तआला पर ईमान से चीज़ों की बे वुक़अ़ती दिलों में घर करती है और अल्लाह की राह में आने वाली मुश्किल का सामना करना आसान होता है, मोमिन अपनी जान, माल और दिल का सुकून तक क़ुर्बान कर देने पर आमादा होता है। लेकिन इसका एक दूसरा भी रुख़ भी है के मोमिन इन मसाइब का सामना करने और कुर्बानियों पर तैयार रहने में इतना मशग़़ूल हो जाता है के उस की सारी काषिषें इसी पर मरकूज़ रहती हैं, न के अपने दीन की इषाअ़त और दावत परदीगर यह के वोह अपने मब्दा की सच्चाई और पर इतना ग़ौर नहीं कर पाता के उस की फ़िक्र वसी हो सके। इसी लिए नागुज़ीर था के फ़ित्ने की जगह से हिज़रत का हुक्म दिया जाता। येह तो मुआमिला था हबषा की हिज़रत का लेकिन मदीने की हिज़रत का मुआमिला मुख़्तलिफ़़ था, इससे मक़सूद येह था के इस्लामी फ़िक्र, और अल्लाह के पैग़ाम को अपनी नई जगह लोगो में एैसा ढाल दिया के एक नया मुआशरा तैयार हो जो अल्लाह तआला की इस दावत को सारी दुनिया में फैला सके और अल्लाह का कलमा बुलंद हो।

येह वोह फ़िक्र थी जो आप (صلى الله عليه وسلم) को मदीने हिज़रत की तरफ़ माइल कर रही थी। लेकिन क़ब्ल इसके के आप (صلى الله عليه وسلم) खुद हिज़रत करते या अपने सहाबा रज़ि0 को हुक्म देते, येह ज़रूरी था के आप (صلى الله عليه وسلم) मदीने से आये हुये हाजियों से उन में मौजूद मुसलमानों से मिलें और येह मेहसूस करें के अहले मदीना किस हद तक दीन इस्लाम की हिमायत के लिये तैयार हैं, इस्लम की राह में कहां तक क़ुर्बानियां दे सकते हैं, और येह देखें के क्या वोह आप (صلى الله عليه وسلم) के हाथ पर जंग और क़िताल की बैअ़त करने को तैयार हैं? क्योंके इस्लामी रियासत के क़याम के लिये यही संगे बुनियाद होगा। आप (صلى الله عليه وسلم) ने हाजियों की आमद का इंतेज़ार किया, येह बात बिअ़सते नबवी के बारवीं साल यानि 622 ई. की है। हाजियों की तादाद काफ़ी थी और इनमें 75 मुसलमान थे, जिनमें दो औरतें थीं, एक नुसैबा रज़ि0 बिन्ते कअ़ब यानि उम्मे अ़म्मारा जो बनी माज़िन बिन अन-नजार से थीं और दूसरी अस्मा बिन्ते अ़म्र बिन अ़दई यानि उम्मे मुनीअ़, जो बनी सलमा से थीं। आप (صلى الله عليه وسلم) ने इन लोगांे से राज़दारी से राबिता किया और इनसे एक बैअ़त के बाबत बात की जो मेहज़ दावत को फैलाने और हमले की सूरत में दिफ़ाअ़ पर इक्तिफ़ा न करती थी बल्के इसके बड़े दूर रस मुज़मिरात थे। येह एक एैसी बैअ़त होना थी जो एक एैसी कुव्वत को षक्ल दे सके जो एक तरफ़ तो मुसलमानों के दिफ़ाअ़ के लिये काफ़ी हो और दूसरी तरफ़ येह कुव्वत एक रियासत का संगे बुनियाद हो जो उसकी हिफ़ाज़त कर सके, एक एैसी ताक़त जो इस्लामी दावत और इस्लामी अहकाम के निफ़ाज़ की राह में आने वाली हर रुकावट को माद्दी कुव्वत से हटा सके। अल्लाह के रसूल सल्ल0 ने उनसे बैअ़त पर बात की ताके उनमें उमूर की इस्तेदाद मेहसूस कर पायंे। मदीने के हाजियों ने अय्यामें तशरीक़ के दरमियान एक शब आप (صلى الله عليه وسلم) से अ़क़बा के मुक़ाम पर मिलने का वादा किया। आप (صلى الله عليه وسلم) ने उन्हें हिदायत दी के जब वोह आयें तो किसी सोते को न उठायें और न किसी शख़्स का जो ग़ायब हो इंतेज़ार करें।
मुक़र्ररह शब जब एक तिहाई से ज़्यादा गुज़र गई तो वोह हज़रात बड़ी एहतियात से अ़क़बा की तरफ़ आप (صلى الله عليه وسلم) से मुलाक़ात के लिये रवाना हुये, उनके साथ दोनों ख़्वातीन भी थीं। येह लोग दबे पाँव मय अपने सामान के अ़क़बा के पहाड़ पर चढ़़ गये ताके इनका येह मुआमिला राज़ रहे। इन लोगों ने वहां पहुंच कर आप (صلى الله عليه وسلم) का इंतेज़ार किया तावक़्तेके आप (صلى الله عليه وسلم) हज़रत अ़ब्बास रज़ि0 के साथ तशरीफ़ लाये जो उस वक़्त तक ईमान नहीं लाये थे। हज़रत अ़ब्बास रज़ि0 इसलिये साथ आये थे के इतमिनान कर लें के उनके भतीजे यानि हुज़ूर सल्ल0 किसी ख़तरे में तो नहीं पड़ रहे, और आप ही ने गुफ़्तूगू का आग़ाज़ किया फ़रमायाः
एै अहले ख़ज़रज तम्हें मालूम है के मोहम्मद सल्ल0 का हम में क्या मुक़ाम है। हमने आपने ही लोगों से इनकी हिफ़ाज़त की है और वोह भी एैसा ही एैहतेराम करते हैं। मोहम्मद सल्ल0 अपनी क़ौम में इज़्ज़त और हिफ़ाज़त से रहते हैं लेकिन उन्होंने येह फ़ैसला किया है के वोह तुम्हारे पास आ जायें, अगर तुम येह समझते हो के जो वादा तुमने उनसे किया है उसको पूरा करोगे और उनकी दुश्मनों से हिफ़ाज़त करोगे तो उन्हें ले जाओ, और अगर तुम उन्हें छोड़ दोगे और उनसे किया वादा पूरा न करोगे तो तुम उन्हें छोड़ दो।
उन लोगो ने जवाब दियाः हमने सुन लिया जो आपने कहा, अल्लाह के रसूल सल्ल0 अब आप फ़रमायें और अपने लिये और अपने रब के लिये जो पसंद हो वोह फै़सला कीजिये। आप (صلى الله عليه وسلم) ने पहले कुछ आयात क़ुरानी तिलावत कीं, फिर इस्लाम के लिये रग़बत की बात की और फ़रमायाः .......
أبايعكم على أن تمنعوني مما تمنعون منه نسائكم و أبنائكم
यानि मैं इस बात पर तुम्हारी बैअ़त लेता हूँ के तुम जिस तरह अपनी औरतों और बच्चों की हिफ़ाज़त करते हो उसी तरह मेरी हिफ़ाज़त भी करोगे। सबसे पहले अलबरा ने पहल करते हुये अपना हाथ आगे बढ़ाया और कहा के एै अल्लाह के रसूल सल्ल0 हम बैअ़त करते हैं अल्लाह की क़सम हम जंगजू क़ौम हैं, और हमारे पास अस्लेहा है जो हमारे बाप दादा से विर्से में मिला है। इससे पहले के अलबरा की बात ख़त्म होती, एक शख़्स अबू अलहैसम अब्ने अत्तीहान ने दख़ल अंदाज़ी करते हुये कहा के एै अल्लाह रसूल सल्ल0 हमारे साथ दूसरों का (यहूदियों का) मुआहिदा है, हम इसे तोड़ दंे और फिर अल्लाह तआला आप (صلى الله عليه وسلم) को फ़तह देदंे और आप (صلى الله عليه وسلم) फिर अपनी क़ौम में लौट आयें और हमे छोड़ दें? इस पर आप (صلى الله عليه وسلم) मुस्कुराये और फ़रमायाः तुम्हारा ख़़ून मेरा ख़़ून है, जो तुम्हें अज़ीज़ है वोह मुझे अज़ीज़ है तुम मुझ में से हो और मैं तुम से मैं उससे मुक़ाबला करूँगा जो तुमसे लड़े और उससे मेरी सुलह होगी जो तुमसे सुलह करे।
अलअब्बास इब्ने इबादा रज़ि0 ने ख़ज़रज को मुखा़तिब किया और कहा के एै लोगो तुम्हें एैहसास है के तुम येह बैअ़त करके ख़ुद को किस वादे के सुपर्द कर रहे हो? इसका मतलब है हर एक से लड़ना, और अगर तुम येह समझते हो के इस तुम्हारे माल ओ असासे तुम से छूट जायेेंगे और तुम्हारे इज़्ज़त दार लोग मारे जायेंगे फिर तुम इन (यानि रसूल सल्ल0) को छोड़ दोगे तो बेहतर है तुम येह अभी कर दो क्योंके बाद में आप (صلى الله عليه وسلم) को छोड़ देने का मतलब होगा के इस दुनिया में और आखि़रत में शदीद रुसवाई। लेकिन अगर तुम्हें यक़ीन है के तुम इनसे व़फा करोगे चाहे तुम्हारे माल ओ असासे लुट जायें और तुम्हारे अशराफ़ मारे जायें तो फिर उन्हें यानि रसूलुल्लाह सल्ल0 को ले चलो, इस में तुम्हारे लिये इस दुनिया में भी और आखि़रत में भी नफ़ा ही नफ़ा है इस पर सब लोगों ने हामी भरी और आप (صلى الله عليه وسلم) से अर्ज़ किया के एै अल्लाह के रसूल सल्ल0 अगर हम आप (صلى الله عليه وسلم) से वफ़ा करें तो हमारे लिये क्या इस वफ़ा का किया एैवज़ है? आप (صلى الله عليه وسلم) ने निहायत इतमिनान और एतेमाद से फ़रमायाः जन्नत।
इस पर सब लोगों ने अपने हाथ बढ़ा दिये और येह केहते हुये अहद किया हम येह अहद करते हैं के अल्लाह के रसूल सल्ल0 की मुकम्मल इताअ़त में हम हर हाल में लड़ेंगे, चाहे मुश्किलों में हों या ख़़ुशहाली में, तंग हाल हांे या बुरे हालात में हम किसी के साथ बुरा नहीं करेंगे, हर हाल में हक़ बात बोलेंगें, अल्लाह के मुआमले में हम किसी क़िस्म का ख़ौफ़़ नहीं करेंगे। आप (صلى الله عليه وسلم) ने उनसे उनके बारह अफ़्राद तलब किये जो उन लोगों के मुआमिलात के कफ़ील हो। अहले मदीना ने नौ अफ़्राद क़बीला-ए-ख़ज़रज और तीन क़बीला-ए-औस के आगे बढ़ाये आप (صلى الله عليه وسلم) ने इन नक़ीबों से फ़रमाया के जिस तरह ईसा इब्ने मरयम अ़लै0 के नक़ीब थे जो उनके ज़िम्मेदार थे, इसी तरह तुम भी अपनी क़ौम के कफ़ील हो जैसा के मैं अपनी क़ौम का। इस के बाद अहले मदीना अपने सामान की तरफ़ लौट गये और मदीने वापसी की। इस बैअ़त के बाद आप (صلى الله عليه وسلم) ने मुसलमानाने मक्का को हुक्म दिया के वोह छोटे-छोटे टुकड़ों में हिज़रत करके मदीना चलें जायें। मुसलमान या तो अलग-अलग या छोटे-छोटे टुकड़ों में मदीने की तरफ़ रवाना होने लगे।
क़ुरैश को जब इस बैअ़त की भनक लगी तो उन्होंने कोशिश की के मुसलमानों को हिज़रत न करने दें और उसके लिये उन्होंने येह तदबीर तक आज़मा ली के अगर शोहर हिज़रत कर रहा है तो बीवी को रोक लें लेकिन मुसलमान बेहरहाल रवाना होते रहे। आप (صلى الله عليه وسلم) मक्के ही में रहे और येह बात ज़ाहिर न होने दी के आया आप (صلى الله عليه وسلم) भी हिज़रत का इरादा रखते हैं मक्के ही में क़याम करेंगे। अलबत्ता हज़रत अबू बक्र रज़ि0 एक एैसे शख़्स थे जिन्हें येह अंदाज़ा था के आप (صلى الله عليه وسلم) भी हिज़रत का इरादा रखते हैं, वोह बार-बार आप (صلى الله عليه وسلم) से हिज़रत की इजाज़त तलब फ़रमाते रहे और हुज़ूर सल्ल0 उन्हें जवाब देते के जल्दी मत करो, मुम्किन है के अल्लाह तुम्हारे लिये साथी कर दे। इससे हज़रत अबू बक्र को यक़ीन हुआ के आप (صلى الله عليه وسلم) भी हिज़रत का इरादा रखते हैं क़ुरैश को इधर येह फ़िक्र लगी थी के एक मदीने में पहले ही मुसलमानों की बड़ी तादाद है और वहां उन्हीं का बोल बाला है, फिर मुसलमान वहां पहुंच रहे हैं, एैसे में हुज़ूर सल्ल0 के हिज़रत करने के नताइज क़ुरैश के लिये ख़ुश आईंद हो ही नहीं सकते थे।
वोह येह समझ रहे थे के आप (صلى الله عليه وسلم) कितना बड़ा ख़तरा हैं, अगर आप (صلى الله عليه وسلم) मदीने हिज़रत कर जाते हैं तो मुसलमानों की ताक़त में इस इज़ाफे का मतलब क़ुरैश का ख़ात्मा होगा। चुनांचे क़ुरैश ने बड़ा ग़ौर फ़िक्र किया के किस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) को मदीने हिज़रत करने से रोका जाये। दूसरे क़ुरैश को येह ख़ौफ़ भी था के अगर हुज़ूर सल्ल0 मक्के ही में रहते हैं तो मुसलमानों की मदीने में ताक़त होने की बाइस वोह आप (صلى الله عليه وسلم) का दिफ़ाअ़ भी कर सकते हैं, इसलिये आखि़र मे उन्होंने तय किया के हुज़ूर सल्ल0 का (नऊज़ुबिल्लाह) क़त्ल कर दिया जाये ताके वोह हिज़रत न कर सके और आइंदा के लिये मुसलमानों से जंग का कोई इम्कान न रह जाये।
सीरत की कुतुब में हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़ि0 और अबू उमामा बिन सहम से रिवायत है के जब बैअ़त अ़क़बा के बाद वोह लोग चले गये और मुसलमान हिज़रत की तैयारी करने लगे तो क़ुरैश की तरफ़ से उन पर अज़ीयतें और तअ़ज़ीब और बढ़ा दी गईं, जिस पर सहाबा ने आप (صلى الله عليه وسلم) से शिकायत की और आप (صلى الله عليه وسلم) ने जवाब दिया के मैंने तुम्हें तुम्हारा वतन बता दिया, सो अब वहां के लिये ख़ुरूज करो। एक बार आप (صلى الله عليه وسلم) क़दरे ख़ुुश नज़र आये और फ़रमाया के मुझे ख़बर दी गई है के तुम लोग अपनी नई जगह हिज़रत कर सकते हो और येह यसरब (मदीना) है सो जो चाहे वोह हिज़रत कर सकता है। लोग मदीने हिज़रत करने लगे, कोई अकेला कर रहा और कोई बहुत थोड़े लोग मिल कर क़ाफ़िले की षक्ल में लेकिन निहायत राज़दारी से। हुज़ूर सल्ल0 मक्के में ही रह कर अल्लाह तआला के हुक्म का इंतेज़ार कर रहे थे हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि0 आप (صلى الله عليه وسلم) से हिज़रत की इजाज़त तलब फ़रमाते तो आप (صلى الله عليه وسلم) यही केहते के क्यों जल्दी करते हो मुम्किन है अल्लाह तुम्हारे लिये साथी देदे। अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि0 उम्मीद करते के येह साथी ख़ुद आप (صلى الله عليه وسلم) ही हों।
क़ुरैश ने जब देखा के असहाबे रसूल हिज़रत कर रहे हैं तो उन्हें यक़ीन हो गया के आप (صلى الله عليه وسلم) उनसे जंग का इरादा रखते हैं। चुनांचे क़ुरैश दारुन-नदवे में जमा हुये और इस बात पर इत्तेफ़ाक़ किया के आप (صلى الله عليه وسلم) का (नऊज़ु बिल्लाह) क़त्ल कर दिया जाये। हज़रत जिब्रील अ़लै0 तशरीफ़ लाये और आप (صلى الله عليه وسلم) को क़ुरैश के मज़मूम अज़ाइम की इत्तिलाअ़ दी और येह कहा के आप (صلى الله عليه وسلم) आज शब अपने उस बिस्तर पर न सोयें जिस पर सोते हैं। अब अल्लाह तआला का आप (صلى الله عليه وسلم) को हुक्म हुआ के आप (صلى الله عليه وسلم) भी हिज़रत कर जायें। मदीने में मुसलमानों की ख़ासी ताक़त, मदीने की इस्तेदाद के वोह आप (صلى الله عليه وسلم) का इस्तेक़बाल करें और एक इस्लामी रियासत क़ायम करें यही वोह वुजूहात थी जो आप (صلى الله عليه وسلم) की हिज़रत का मुहर्रिक थी। येह एक निहायत ख़तरनाक ग़लती होगी के इस बात पर यक़ीन किया जाये, या इसका बल्के सभी शक हो के आप (صلى الله عليه وسلم) क़ुरैश के ज़रिये क़त्ल किये जाने के ख़ौफ़ से हिज़रत पर आमादा हुये। आप (صلى الله عليه وسلم) कभी भी क़ुरैश के मज़ालिम को या उनके ज़रिये दी गई अज़ीयतों को खा़तिर में न लाये बल्के उसके बरअ़क्स आप (صلى الله عليه وسلم) हमेशा इस बात के लिये तैयार थे के अल्लाह के दीन की राह में अपनी जान कुर्बान कर दें। यही हक़ीक़त है। आप (صلى الله عليه وسلم) की हिज़रत इस बे लोस जज़बे के तेहत हुई के इस्लामी दावत को आगे बढ़ाया जाये, एक इस्लामी रियासत क़ायम की जाये जिससे दावत के काम को फैलाया जा सके। क़ुरैश का आप (صلى الله عليه وسلم) को क़त्ल करने का फैसले इस ग़रज़ से था के आप (صلى الله عليه وسلم) मदीने हिज़रत न कर पायें जहां आप (صلى الله عليه وسلم) को इक़्ितदार और हिमायत हासिल होती। लेकिन वोह अपने मक़्सद में नाकाम हुये। जैसा के क़ुरैश को ख़ौफ़़ था, हिज़रत, इस्लाम की दावत की तारीख़ में एक नया मोड़ साबित हुईं अब लोगों को इस्लाम की तरफ़ बुलाने के मरहले के बाद एक और मरहला था वोह येह के एक इस्लामी मुआशराह तशकील दिया जाये, एक रियासत बनाई जाये जिसका इक़्ितदार इस्लाम से हो जो लोगों को दलील ओबुरहान सुबूत और रग़बत दिला कर इस्लाम की तरफ माइल करे और एक क़ुव्वत हो जो इस अमल को हर शैतानी और शर की क़ुव्वत से महफूज़ करे।
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