रियासते इस्लामी का क़याम - 11

रियासते इस्लामी का क़याम - 11

हज़ूर अकरम सल्ल0 मदीना तशरीफ़ लाये तो अहले मदीने की एक बड़ी तादाद आप (صلى الله عليه وسلم) के इस्तेक़बाल और ख़ुश आमदीद केहने को उमड पड़े, इनमें मुस्लिम भी थे, मुिश्रकीन भी और यहूदी भी थे। आप (صلى الله عليه وسلم) को मुसलमानों ने घेर रखा था जो आप (صلى الله عليه وسلم) को अपनी मेहमानी में रखना चाहते थे ताके आप (صلى الله عليه وسلم) आराम और राहत से रह सकें और उनकी खि़दमत की जा सके। वोह ख़ुद को आप (صلى الله عليه وسلم) और दीने इस्लाम की दावत के लिये पेश कर रहे थे और इस दीन की ख़ातिर अपनी जानों की बाज़ी लगाने के लिये आगे-आगे थे। हर एक चाहता था के आप (صلى الله عليه وسلم) की मेज़बानी को शर्फ़ उसके हिस्से आये। आप (صلى الله عليه وسلم) ने अपनी ऊँटनी की लगाम छोड़ी जो सहल इब्ने अ़म्र और सोहेल इब्ने अ़म्र के एक गोदाम के सामने आकर रुक गई। इस जगह को आप (صلى الله عليه وسلم) ने बाद में ख़रीद लिया और यहीं एक मस्जिद और एतेराफ़ में अपने घर तामीर किये। मस्जिद की तामीर क़दरे आसानी से अंजाम पा गई क्योंके येह काफ़ी मुतवाज़ेअ़ बनाई गई और इसी वजह से कम लागत में येह काम अंजाम को पहुँचा। येह मेहज़ एक सेहन था जिसके अतराफ़ ईंट और गारे से दीवारें बनाई गयीं, इसके एक हिस्से पर खजूर के तनों की छत डाली गई और बाक़ी हिस्से खुला रहने दिया गया। इस मस्जिद ही का एक हिस्सा एैसे लोगों की रिहाइश बन गया जिनके रहने का कोई और ठिकाना नहीं था। रौषनी के लिये सिर्फ़़ इशा की नमाज़ के वक़्त मशालों से काम लिया जाता था, और बाक़ी वक़्त में कोई रौषनी नहीं होती थी। आप (صلى الله عليه وسلم) के घर भी इसी सादगी से बने थे बस उनमें रौषनी बेहतर थी। जब तक येह तामीर मुकम्मल हुई, आप (صلى الله عليه وسلم) हज़रत अबू अय्यूब अन्सारी रज़ि0 (ख़ालिद बिन सैफ़ अल अन्सारी रज़ि0) के घर मुक़ीम रहे फिर अपने घर आ गये जहां आप (صلى الله عليه وسلم) आखि़र तक रहे। आप (صلى الله عليه وسلم) नये हालात पर ग़ौर करते के अब इस्लाम की दावत एक नये मरहले में दाखि़ल हो रही थी, पहले तस्क़ीफ़ (ब्नसजनतपदह) का मरहला था जिसमें सहाबा-ए-किराम रज़ि0 की तरबियत अमल में आई फिर तफ़ाउली मरहला आया जिसमें लोगों तक दावत का पहुँचाना था और मरहला तत्बीक़ जिसमें तमाम इस्लामी अहकाम ओक़वानीन का पूरी आबादी पर और अ़वाम के माबैन तअ़ल्लुक़ात पर इतलाक़ होना था। पहले दौर में दावत के रास्ते में आने वाली तकालीफ़ पर सब्र करना था, और अब हुकूमत ओ इक़्ितदार का दौर था जिसमें माद्दी क़ुव्वत इस दावत की हिमायत ओ हिफ़ाज़त के लिये मयस्सर थी। इसीलिये आप (صلى الله عليه وسلم) ने मदीने पर सब से पहले एक मस्जिद की तामीर का हुक्म दिया जो मुसलमानों के लिये नमाज़ की, उनके मिल बैठने की, आपसी मशवरों की, मुसलमानों के मुआमिलात चलाये जाने की और उनके उमूर में उन पर हुक्म और क़ज़ा का मरकज़ थी। आप (صلى الله عليه وسلم) ने इन कामों के निमटाने के लिये अपने दो वज़ीर मुक़र्रर किये, हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रज़ि0 और हज़रत उ़मर रज़ि0 और फ़रमायाः
وزيراي في الأرض ابو بكر و عمر

यानि ज़मीन पर मेरे दो वज़ीर अबू बक्र रज़ि0 और उ़मर रज़ि0 हैं। लोग हमेशा आपके क़रीब रहते और अपने मुआमिलात में आप (صلى الله عليه وسلم) से मशवरा लेते। आप (صلى الله عليه وسلم) बयक वक़्त एक रियासत के सरबराह भी थे, काज़ी और फ़ौज के सिपह-सालार भी, आप (صلى الله عليه وسلم) मुसलमानों के उमूर का एहतेमाम भी फ़रमाते और आपसी तनाज़आत में तसवीया भी करते थे। आप (صلى الله عليه وسلم) फ़ौजी दस्ते तशकील देते, उन पर अफ़सर मुक़र्रर फ़रमाते और उन्हें मदीने के ख़ारिज में मुख़्तलिफ़़ मुहिम्मात पर भेजते थे। इस तरह आप (صلى الله عليه وسلم) के मदीने में क़याम के पहले दिन से एक रियासत तशकील पा गई जिस के पास अपनी क़ुव्वत थी के वोह रियासत का तहफ़्फ़ुज़ भी कर सके और दावत की हिमायत भी। अब उन माद्दी रुकावट को ज़ाइल करना था जो इस दावत की नष्र में हाइल थीं।
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