मदीने की ज़िन्दगी - 14

मदीने की ज़िन्दगी - 14

इस्लाम का एक तरीक़ा-ए-हयात है जो इस्लाम के ज़िन्दगी के बारे में अफ़्कार से बरआमद होता है यह और तमाम तेहज़ीबों से जुदा तहजी़ब है, इसकी तीन ख़ुसूसियात हैं जो उसको इम्तियाजी़ हैसिय्यत देती हैं पहली येह के जिस बुनियाद पर येह क़ायम है वोह है इस्लामी अ़क़ीदा। दूसरी अहम बात येह के ज़िन्दगी के आमाल की बुनियाद अल्लाह तआला के अवामिर ओनवाही हैं यानी ब अल्फ़ाजे़ दीगर ज़िन्दगी की तस्वीर की बुनियाद हलाल ओ हराम हैं। तीसरी इम्तियाज़ी शान येह है के यहाँ ख़ुशी के माना अल्लाह तआला की रज़ा का हुसूूल है यानी हक़ीक़ी और दायमी सुकून अल्लाह तआला की रज़ा ही में है, यह इस्लामी ज़िन्दगी है जो एक मुसलमान का मुन्तहा है इस मक़्सद को हासिल करने के लिये येह नागुजी़र है के एक इस्लामी रियासत हो जो इस्लामी अहकाम को मुकम्मल तौर पर और बगै़र किसी इस्तसना के जारी और नाफ़िज़ करे। मुसलमान जब हिज़रत करके मदीना आये तो उनका तरजे़ ज़िन्दगी इम्तियाज़ी था, जिस की बुनियाद इस्लामी अ़क़ीदा था, अब मुआमिलात और उ़क़ूबात से मुतअ़ल्लिक़ अल्लाह तआला के अहकाम आयात की षक्ल में नाज़िल हुये इ़बादात से मुतअ़ल्लिक़ भी अहकाम नाज़िल हुये जो अब तक नहीं हुये थे, हिज़रत के दूसरे साल में ज़कात, और रोजे़ फ़र्ज़ हुये और आज़ान शुरू हुई, अहले मदीना ने हज़रत बिलाल इब्ने रबाह रज़ि0 की मीठी आवाज़ में हर दिन पाँच बार अहले ईमान को बुलाते सुना, और मुसलमान उस आवाज़ पर लब्बैक केहते हुये नमाजों़ के लिये निकलते, अभी आप (صلى الله عليه وسلم) मदीना में सतरह माह ही रहे होंगे के क़िब्ला बदल कर कअ़बा को किया गया, इसी तरह अहकाम से मुतअ़ल्लिक़, खाने पीने से मुतअ़ल्लिक़, अख़लाक़, मुआमिलात और उ़कू़बात से मुतअ़ल्लिक़ आयात नाज़िल हुईं इन आयात में नशा और खिन्ज़ीर को हराम कर दिया गया, हुदूद्् और जनाइयात के अहकाम नाज़िल हुये, तिजारत और सूद के बारे में आयात नाज़िल हुईं, इसके अ़लावा और भी उमूर थे।

जब भी अल्लाह तआला की उमूरे हयात से मुतअ़ल्लिक़ कोई भी आयात नाज़िल होती, आप (صلى الله عليه وسلم) उसे लोगों को सुनाते समझाते और उस पर पाबंदी का हुक्म देते आप (صلى الله عليه وسلم) मुसलमानों के उमूर का एैहतेमाम फ़रमाते, उनके लोगों की भलाई के फ़ैसले करते, उनके तनाजआत मेें तसविया करते, उनके मुआमिलात और उमूर की देख भाल करते और मुशकिलोें को सुलझाते यह सब कुछ आप (صلى الله عليه وسلم) अपने क़ौल से करते, कभी अपने अफ़़आल से जो आप (صلى الله عليه وسلم) अन्जाम देते, और कभी उन अफ़़आल पर अपनी ख़ामोशी से जो आप (صلى الله عليه وسلم) के सामने सरज़द होते, क्योंके आप (صلى الله عليه وسلم) का क़ौल, फ़ेअ़ल और ख़ामोशी, तीनों ही शरीअ़त के माख़िज़ हैं।

وَمَا يَنۡطِقُ عَنِ الۡهَوٰىؕ‏ ﴿۳﴾  اِنۡ هُوَ اِلَّا وَحۡىٌ يُّوۡحٰىۙ‏ ﴿۴﴾
 
और न वोह अपनी ख़्वाहिश से बोलता है, वोह तो बस एक वही है जो की जारही है।(तर्जुमा मआनी र्कुआन करीमःनज्मः 3,4)
मदीने में ज़िन्दगी एक मुअै़य्यन नुक़्ता-ए-नज़र पर रवां थी जो के इस्लाम का नुक़्ता-ए-नज़र है मदीने की ज़िन्दगी इस बिना पर मुतमैय्यिज़ और दीगर मुआषरों से अलग थी के वहाँ अफ़्कार, एहसासात और वोह निज़ाम जिससे मुआमिलाते ज़िन्दगी हल हो रहे थे सब इस्लामी थे आप (صلى الله عليه وسلم) इस बात पर ख़ुश थे के दावत अब उस मुक़ाम पर पहुंच गई थी और मुसलमान इन्फ़िरादी और इज्तेमाई तौर पर इस्लाम के अहकाम और अवामिर पर बगै़र किसी ख़ौफ़़ ओ ख़दशे के कारबन्द थे लोगों के मसाइल अल्लाह तआला के अहकाम से हल हो रहे थे, और जो कोई नया मसअला सामने आता वोह आप (صلى الله عليه وسلم) के पास फ़ैसले के लिये आता और कोई अपने हुदूद् से तजावुज़ नहीं कर रहा था, अल्लाह तआला के अहकाम का ज़िन्दगी के हर गोशे में इन्तेबाक़ हो रहा था और इससे लोगों की ज़िन्दगियां फरसुकून हो रही थीं, लोग आप (صلى الله عليه وسلم) के आस पास रहते ताके इल्म हासिल करें, कुऱ्आन सीखें और याद करें इस्लाम तरक़्की कर रहा था और दावत फैल रही थी, मुसलमानों की और इस्लाम की ताक़त बढ़ती जा रही थी।
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